स्‍पंदन....कुछ व्‍यंग्‍य

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

फट चुका है लोकतंत्र का ढोल

प्रसिद्ध शायर बालस्‍वरूप राही का एक शेर कुछ यूं है-
आबरू क्‍यों किसी की लुट जाए ।
 देश है ये, कोई हरम तो नहीं ।।

लेकिन जब देश की ही आबरू दांव पर लगी हो तो क्‍या कहेंगे, क्‍या करेंगे?
क्‍या तमाशबीन बने रहेंगे सदा की तरह, या भांड़ों की उस जमात का हिस्‍सा बन जायेंगे जो अपने बुद्धि व विवेक को कभी किसी राजनीतिक दल के लिए गिरवीं रख देती है और कभी उसके सुप्रीमो की चापलूसी को ही सब-कुछ समझती है।
इस माह अगस्‍त में देश को स्‍वतंत्र हुए पूरे 65 साल हो गये। इन पैंसठ सालों में आम आदमी को न तो सम्‍मानपूर्वक जीने का हक मिला और न जरूरतें पूरी करने लायक रोजी-रोजगार। कानून की किताबें लगता है जैसे सामर्थ्‍यवानों की हिफाजत के लिए लिखी गई हैं और संविधान में दर्ज आम आदमी के अधिकार की बातें किस्‍से-कहानियां बन चुकी हैं।

हम हो रहे कंगाल लेकिन विधायक मालामाल

आम आदमी बढ़ती महंगाई से परेशान हैं। हर महीने मिलने वाले वेतन से परिवार का खर्चा चलाना आम आदमी के लिए मुश्किल हो रहा है लेकिन उसी आम आदमी की ओर से चुने जाने वाले जन प्रतिनिधि दिन-ब-दिन माला माला होते जा रहे हैं। दस राज्यों के 1 हजार 75 विधायकों की इनकम के आंकलन के मुताबिक एक विधायक के घर की इनकम आम आदमी के पांच सदस्यों के परिवार की इनकम से कहीं ज्यादा है।
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के मुताबिक आम आदमी और विधायक की इनकम में सबसे ज्यादा अंतर उत्तर प्रदेश में है। विधायक और उसके परिवार की सालाना औसत इनकम 14.6 लाख है। सामान्य परिवार की औसत आय से यह 10 गुना ज्यादा है। सामान्य व्यक्ति की सालाना औसत आय 1.3 लाख है। यूपी के अलावा पंजाब,असम और तमिलनाडु में भी विधायकों और आम आदमी की इनकम में जबरदस्त फर्क देखा गया है।