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शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

काटजू जी, सारी न्‍यायिक व्‍यवस्‍था ही कठघरे में है

प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्‍यक्ष और सर्वोच्‍च न्‍यायालय के पूर्व न्‍यायाधीश मार्कण्‍डेय काटजू द्वारा मद्रास हाईकोर्ट के एक भ्रष्‍ट जज की प्रोन्‍नति के मामले में यूपीए सरकार की भूमिका को लेकर जो खुलासा किया गया है, वह इसलिए भले ही चौंका रहा हो कि उसमें कानून मंत्री से लेकर पीएमओ तक का हस्‍तक्षेप सामने आ चुका है लेकिन कड़वा सच यह है कि आज न न्‍यायपालिका पूरी तरह स्‍वतंत्र रह गई हैं, न न्‍यायाधीश। न्‍यायपालिकाओं पर जहां प्रोन्‍नति एवं ट्रांसफर-पोस्‍टिंग के लिए दबाव रहता है, वहीं न्‍यायाधीशों पर पक्षपात करने का दबाव बनाया जाता है।
जाहिर है कि इस स्‍थिति का खामियाजा न्‍याय की उम्‍मीद पाले बैठे आमजन के साथ-साथ उन न्‍यायाधीशों को भी उठाना पड़ता है तो ईमानदारी से अपना कार्य करना चाहते हैं।
ऐसे न्‍यायाधीशों को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है और भारी मानसिक उत्‍पीड़न सहन करना होता है क्‍योंकि आज न्‍यायपालिका का एक बड़ा हिस्‍सा भ्रष्‍टाचार के आगोश में समा चुका है।
मार्कण्‍डेय काटजू ने जिस जज की प्रोन्‍नति में केंद्र सरकार की भूमिका का उल्‍लेख किया है, उसकी बुनियाद वहां से शुरू होती है जहां वो जज साहब जिला जज की कुर्सी पर आसीन थे। काटजू के मुताबिक तब उन्‍होंने यूपीए सरकार की सहयोगी पार्टी के नेता को जमानत दी थी। नेताजी ने अगर जज साहब द्वारा जमानत देने को इतना बड़ा उपकार माना कि उनके लिए सीधे केंद्र सरकार से हस्‍तक्षेप करने को कहा तो यह तय है कि जज साहब ने वह जमानत अधिकारों का दुरूपयोग करके ही दी होगी।
बहरहाल, मार्कण्‍डेय काटजू द्वारा खुलासा किये जाने के बाद इस मामले में पर्याप्‍त हंगामा हो चुका है और जमकर राजनीति भी की जा चुकी है इसलिए अब इसमें आगे कुछ होने की उम्‍मीद कम ही लगती है। हालांकि इस बीच तत्‍कालीन कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज का झूठ और तत्‍कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्‍पी के पीछे का राज भी सामने आ चुका है परंतु होना जाना कुछ नहीं है क्‍योंकि हमाम में कमोबेश सारे नेताओं का हाल एक जैसा रहता है। सब जानते हैं कि बात निकलेगी तो बहुत दूर तक जायेगी।
यही कारण है कि जब कभी व्‍यवस्‍थागत दोष से उपजे भ्रष्‍टाचार की बात आती है तो उसे शोर-शराबा करके दबा दिया जाता है क्‍योंकि इसी में शासकों की भलाई है। वह जानते हैं कि यदि इसकी मुकम्‍मल जांच होती है तो उसके लिए जड़ जक जाना होगा, और जड़ तक जाने में समूची व्‍यवस्‍था के ही ढह जाने का खतरा है।
मार्कण्‍डेय काटजू के आरोपों को यदि फिलहाल यहीं छोड़ दिया जाए तो कौन नहीं जानता कि आम आदमी के लिए देश में न्‍याय पाना अब असंभव न सही परंतु अत्‍यन्‍त कठिन जरूर हो चुका है। भ्रष्‍टाचार की जड़ ऊपर से नीचे चलती है या नीचे से ऊपर की ओर जाती है, इस बहस में पड़े बिना यह कहा जा सकता है कि जिला स्‍तर पर ही आमजन के लिए न्‍याय पाना काफी दुरूह है।
न्‍याय के मंदिर में प्रतिष्‍ठापित न्‍यायमूर्तियों के सामने ही जब उनके अधीनस्‍थ खुलेआम प्रत्‍येक वादी-प्रतिवादी से सुविधा शुल्‍क वसूलते हैं और न्‍यायमूर्ति कुछ नहीं कहते तो यह स्‍वाभाविक सवाल खड़ा होता है कि फिर वह कैसे न्‍यायमूर्ति हैं ?
जिला सत्र न्‍यायालयों का यह हाल है कि उनमें ईमानदार अधिकारियों को चिन्‍हित करना आसान नहीं होता। दर्जनों न्‍यायिक अधिकारियों के बीच बमुश्‍किल दो-चार अधिकारियों के बारे में यह धारणा होती है कि वह ईमानदार हैं।
किसी भी जिले की बार एसोसिएशन को भली प्रकार पता होता है कि कौन अधिकारी भ्रष्‍ट है और कौन ईमानदार।
भ्रष्‍ट न्‍यायिक अधिकारियों की कार्यप्रणाली का आलम यह होता है कि वह पैसे की खातिर न केवल अपने अधिकारों का भरपूर दुरुपयोग करते हैं बल्‍कि जमानत से लेकर फैसलों तक को उसके लिए लटकाते रहते हैं।
चूंकि सामान्‍य तौर पर न्‍यायिक अधिकारी के खिलाफ बोलना भी कोर्ट की अवमानना प्रचारित कर रखा है और उसे लेकर आमजन में भय व्‍याप्‍त रहता है इसलिए कोई किसी न्‍यायिक अधिकारी के खिलाफ बोलने अथवा उसकी शिकवा-शिकायत करने का जोखिम नहीं उठाता।
अवमानना की गलत व्‍याख्‍या के चलते अधिकांश भ्रष्‍ट न्‍यायाधीश कानून को अपने मन मुताबिक इस्‍तेमाल करते हैं और अधिकारों का मन चाहा प्रयोग करते देखे जा सकते हैं।
उदाहरण के लिए धारा 319 को ही ले लें। धारा 319 के तहत किसी व्‍यक्‍ति को तलब करने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बहुत स्‍पष्‍ट आदेश-निर्देश दे रखें हैं ताकि कोई अदालत उसका दुरुपयोग न कर सके परंतु काफी बड़ी संख्‍या में न्‍यायिक अधिकारी इस धारा का दुरुपयोग निजी स्‍वार्थों के पूर्ति के लिए करते पाये जाते हैं। पीड़ित व्‍यक्‍ति पहले तो उससे निजात पाने में लग जाता है, फिर यह सोचकर चुप बैठ जाता है कि जान बची और लाखों पाये। इसके अलावा भी उसे हर किसी से न्‍यायिक अधिकारी के खिलाफ आवाज न उठाने की ही सलाह मिलती है लिहाजा वह चुप रहने में ही अपनी भलाई समझकर बैठ जाता है।
हाईकोर्ट से प्राप्‍त सेम डे सुनवाई के आदेश हों या जमानत प्राप्‍त हो जाने के, हर मामले में जिला स्‍तर पर न्‍यायिक अधिकारी मनमानी करते देखे जा सकते हैं किंतु उनके खिलाफ कोई मार्कण्‍डेय काटजू आवाज नहीं उठाता क्‍योंकि सबको अपनी दुकान उन्‍हीं के सहयोग से चलानी होती है।
जिस न्‍याय पालिका को आम आदमी अपनी आखिरी उम्‍मीद समझता है और बड़े भरोसे के साथ वहां फरियाद लेकर जाता है, वहीं कदम-कदम पर उसके विश्‍वास का खून होता है लेकिन वह उस खून का घूंट पीने को मजबूर है क्‍योंकि उसके खिलाफ जाए तो जाए कहां।
अनेक लोगों के जीवन का एक बड़ा हिस्‍सा जिला स्‍तर पर न्‍यायिक अधिकारियों की मनमानी और भ्रष्‍टाचार की भेंट चढ़ जाता है लेकिन न कोई देखने वाला है और न सुनने वाला। ईमानदार अधिकारी इसलिए मुंह सिलकर नौकरी करते हैं क्‍योंकि वह हर वक्‍त अपने ही साथी भ्रष्‍ट अधिकारियों के निशाने पर रहते हैं। उन्‍हें दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है।
ईमानदार अधिकारियों की स्‍थिति आज बत्‍तीसी के बीच जीभ जैसी हो चुकी है। उनका सारा समय अपनी ईमानदारी को बरकरार रखने और अपनी नीति एवं नैतिकता को बचाये रखने में बीत जाता है।
इस सब के कारण वह इतने तनाव में रहते हैं कि कई बार उन्‍हें अपनी ईमानदारी ही अपने ऊपर बड़ा बोझ लगने लगती है। ऐसे अधिकारियों को तमाम बार अपने घर-परिवार से भी एक लड़ाई अलग लड़नी पड़ती है। परिवार के सदस्‍यों को समझाना पड़ता है कि ईमानदारी कोई अभिशाप नहीं है।
न्‍यायपालिका में भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक हस्‍तक्षेप इसलिए घातक है कि लगभग पूरी तरह सड़ चुकी देश की व्‍यवस्‍था के बीच सिर्फ न्‍यायपालिका से ही आमजन सारी उम्‍मीद लगाये रहता है। लोकतंत्र के तीन संवैधानिक स्‍तंभों में से न्‍यायपालिका में भी यदि लोगों का भरोसा नहीं रहा तो निश्‍चित जानिए कि वह दिन दूर नहीं जब हर व्‍यवस्‍था ध्‍वस्‍त हो जायेगी और देश को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकेगा।
मार्कण्‍डेय काटजू ने चाहे समय रहते यह मुद्दा भले ही न उठाया हो और आज यह मुद्दा उठाने के पीछे चाहे उनका अपना कोई स्‍वार्थ छिपा हो लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था में सब-कुछ ठीक नहीं चल रहा तथा उसमें अब एक बड़े परिवर्तन की आवश्‍यकता है क्‍योंकि यदि समय रहते यह परिवर्तन नहीं किया गया तो इसके अत्‍यंत गंभीर परिणाम सामने होंगे। वह स्‍थिति संभवत: न देश के लिए हितकर होगी और न देशवासियों के लिए।
अब जरूरत है देश को एक ऐसी न्‍यायिक व्‍यवस्‍था की जिसमें हर स्‍तर पर समानता का केवल दिखावा न हो और उसके दायरे से कोई बाहर न जा सके। वो न्‍यायमूर्तियां भी नहीं, जो अपने पद व अपनी गरिमा के खिलाफ जाकर काम करती हैं। वो शासक भी नहीं जो उन्‍हें अपने हाथ की कठपुतली बनाकर व्‍यवस्‍थागत दोष का इस्‍तेमाल राजनीतिक हित साधने में करते हैं, और वो सत्‍ता भी नहीं जो जनहित को तिलांजलि देकर न्‍यायिक व्‍यवस्‍था को अपनी इच्‍छानुसार चलने के लिए बाध्‍य कर देती है।
- सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी