स्‍पंदन....कुछ व्‍यंग्‍य

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

…न ब्रूयात सत्यम् अप्रियं, बट…बोलना पड़ता है

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्‍टिस और भारतीय प्रेस परिषद के पूर्व अध्‍यक्ष मार्कण्‍डेय काटजू कितना सत्‍य बोलते हैं, इसका तो कोई पैमाना मेरे पास नहीं है किंतु इतना जरूर है कि वो सार्वजनिक रूप से जो कुछ बोलते हैं, वह समाज के एक बड़े तबके को ‘प्रिय’ नहीं लगता। अलबत्‍ता उनके अपने ब्‍लॉग का नाम ‘सत्‍यम् ब्रूयात’ है। और संस्‍कृत के जिस श्‍लोक का यह हिस्‍सा है, उसकी पहली पंक्‍ति के पूरे शब्‍द हैं-  सत्यम् ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम् अप्रियं।
बहरहाल, जस्‍टिस काटजू की अपने देशवासियों को लेकर की गई इस आशय की टिप्‍पणी कि ”अधिकांश भारतीय मूर्ख हैं”, कभी-कभी उचित प्रतीत होती है। हालांकि उनके अतिशयोक्‍ति पूर्ण बयानों से हर वक्‍त सहमत नहीं हुआ जा सकता।
फिलहाल बात करें दो-तीन दिनों से चल रहे उस राजनीतिक घटनाक्रम की जिसके तहत एक ओर सत्‍तापक्ष तथा दूसरी ओर विपक्ष की चकल्‍लस सड़क से लेकर संसद तक जारी है, तो साफ-साफ महसूस होता है कि मुठ्ठीभर लोग किस तरह पूरे देश को मूर्ख बना रहे हैं और देशवासी मूर्ख बन भी रहे हैं। देशवासियों की छोड़िये, वह मीडिया भी उस बहस का हिस्‍सा बना हुआ है जो पूरी तरह निरर्थक साबित हो रहा है और जिसका एकमात्र मकसद वो खेल खेलना है जिसमें न कभी उसकी हार होती है न जीत। जिसमें हारती है तो सिर्फ और सिर्फ जनता क्‍योंकि वह स्‍वतंत्रता प्राप्‍त होने से लेकर आज तक लगातार हारती रहने की आदी हो चुकी है।
हम बात कर रहे हैं उस भूमि अधिग्रहण बिल की जिसे लाई तो थी मनमोहन सिंह के नेतृत्‍व वाली यूपीए सरकार किंतु जिसे कुछ संशोधनों के साथ पास कराना चाहती है नरेंद्र मोदी के नेतृत्‍व वाली एनडीए सरकार।
अब तमाशा देखिये…कांग्रेस कहती है कि बिल में किये गये संशोधन किसान विरोधी और उद्यमियों के हित में हैं जबकि मोदी सरकार कहती है कि किसानों के हित में इससे बेहतर बिल दूसरा कोई हो ही नहीं सकता।
संसद का पहला सत्र इसी बहस की भेंट चढ़ गया और वर्तमान सत्र से ठीक पहले कांग्रेस ने करीब दो महीने की छुट्टियां बिताकर लौटे राहुल गांधी को एक मर्तबा फिर किसान रैली की आड़ लेकर आकर्षक पैक के साथ लांच किया।
अपनी इस री-लांचिंग में राहुल खूब बोले, और जमकर बोले। करीब-करीब उसी अंदाज में जिस अंदाज में वह कांग्रेस के अघोषित नेता माने जाने से लेकर बोलते रहे हैं। मोदी सरकार को निशाने पर रखा तथा यूपीए सरकार का गुणगान किया।
यह बात अलग है कि कुछ मीडिया तत्‍वों को उनमें विपश्‍यना करके लौटने से उपजा तथाकथित बदलाव नजर आया और उनकी बॉडी लैंग्‍वेज पहले के मुकाबले अधिक प्रभावशाली दिखाई दी। सोनिया और मनमोहन ने भी एक अर्से बाद अपने मुंह का अवकाश समाप्‍त किया और मोदी सरकार पर यथासंभव तीर चलाए किंतु किसी ने यह बताकर नहीं दिया कि यूपीए सरकार द्वारा तैयार किये गये भूमि अधिग्रहण बिल में मोदी सरकार ने ऐसे कौन से बदलाव कर दिये कि पूरा बिल किसानों के लिए अचानक अमृत से जहर बन गया।
इधर उनसे भी पहले मोदी जी ने अपने सांसदों की क्‍लास में भूमि अधिग्रहण बिल पर कोई समझौता न करने तथा उसकी खूबियां जनता की बीच जाकर बताने का पाठ पढ़ाया किंतु वह कौन सी खूबियां हैं जिन्‍हें सांसदों को जनता के बीच जाकर बताना है, यह नहीं बताया। अब या तो मोदी जी की कक्षा के छात्र (सांसद) सर्वज्ञ होते हुए मौनव्रत धारण किये हुए हैं अथवा मोदी जी की बात उन्‍हें मनमोहन, सोनिया तथा राहुल की तरह समझ में नहीं आ रही।
मोदी जी स्‍वयं और उनके मंत्री लगातार यह कह जरूर रहे हैं कि वह जनता के बीच जाकर नये भूमि अधिग्रहण बिल की खूबियां बतायेंगे किंतु बता कोई नहीं रहा। पता नहीं इसके लिए वह किस मुहूर्त का इंतजार कर रहे हैं।
कुल मिलाकर सत्‍ता पक्ष और विपक्ष राजनीति की बिसात पर किसान-किसान खेल रहा है किंतु कोई यह बताने को तैयार नहीं कि भूमि अधिग्रहण बिल की खूबियां हैं तो क्‍या हैं…और खामियां हैं तो कौन-कौन सी हैं। इस बिल को लेकर कोई किताब ऐसी बाजार में मिल नहीं रही, जिसे पढ़कर किसान या आम जनता यह समझ सके कि सच कौन बोल रहा है और झूठ कौन।
किसान अगर कर रहा है तो केवल इतना कि या तो तथाकथित रूप से आत्‍महत्‍या कर रहा है या फिर तथाकथित सदमे में मर रहा है। इस सबके अलावा वह कुछ कर रहा है तो कांग्रेस की किसान रैली में जाकर हरियाणा कांग्रेस की गुटबाजी का हिस्‍सा बन रहा है। कुछ किसान गुलाबी पगड़ी बांधकर हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष अशोक तंवर के खिलाफ हूटिंग करने गये थे तो कुछ सतरंगी पगड़ी के साथ हरियाणा के पूर्व मुख्‍यमंत्री भूपेन्‍द्र सिंह हुड्डा की ताकत का अहसास कराने पहुंचे थे। अब इन ”पेड किसानों” का किस तरह भूमि अधिग्रहण बिल के अच्‍छे या बुरे होने से कोई ताल्‍लुक हो सकता है, यह बात शायद ही किसी को समझ में आ पाये।
यूं भी किसी राजनीतिक दल की रैली में शिरकत करने वाले लोग उसी पार्टी के अंधभक्‍त होते हैं, यह अब कोई छिपी हुई बात नहीं रह गई। दूसरे कुछ लोग अगर होते हैं तो वो जो दिहाड़ी डायटिंग तथा फ्री ट्रेवलिंग कराकर लाये ले जाये जाते हैं। ऐसे लोगों को किसान कहना, किसानों की तौहीन है। हां…इन्‍हें राजनीतिक पार्टियों के ”किसान मोहरे” कहा जा सकता है जो ”माउथ प्रचार” के जरिये अपनी पार्टी या अपने नेता का स्‍तुतिगान करते हैं। लगभग उसी अंदाज में जिस अंदाज में कभी ”भांड़” अपने राजा-महाराजाओं की विरुदावली गाया करते थे। ऐसे भांड़ों का 21 वीं सदी वाला संसदीय संस्‍करण आज भी हर राजनीतिक पार्टी के पास मौजूद है और बखूबी अपने काम को अंजाम दे रहा है। फिर चाहे वह कोई राष्‍ट्रीय पार्टी हो या क्षेत्रीय। माया, मुलायम, ममता और जयललिता से लेकर अरविंद केजरीवाल तथा अखिलेश यादव तक के पास अपने-अपने निजी भांड़ हैं।
यूं भी जिस देश में हर कोई किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ा है और कमोबेश देश की पूरी आबादी दलगत राजनीति की शिकार है, उस देश में निजी सोच रखने वालों को पूछता ही कौन है। उनकी तादाद इतनी अधिक कम है कि उन्‍हें देश की आबादी का हिस्‍सा या देश का नागरिक तक मानने को कोई आसानी से तैयार नहीं होता लिहाजा उनकी आवाज़ नक्‍कारखाने की तूती बन कर रह गई है।
दलगत राजनीति के चंगुल में लोग इस कदर फंस चुके हैं कि उन्‍हें अपने परिवार के सदस्‍यों का जन्‍मदिन याद हो या न हो लेकिन पार्टी के नेता का जन्‍मदिन कभी नहीं भूलते। अपने पिता को कोई गाली देकर चला जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन नेताजी की शान में किसी ने गुस्‍ताख़ी कर दी तो जान देने और लेने पर आमादा हो जाते हैं।
कांग्रेस को केंद्र की सत्‍ता पर रहते किसानों के लिए कुछ अच्‍छा स्‍थाई काम करने के लिए पूरे दस साल कम पड़ गये थे और मोदी सरकार के लिए दस महीने बहुत ज्‍यादा हो गये। इस बात का जवाब क्‍या किसी के पास है?
यदि यह मान भी लिया जाए कि मोदी सरकार का भूमि अधिग्रहण बिल किसान विरोधी तथा उद्यमियों के हित में है, तो उसे सामने आने दीजिए। ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉमनवेल्‍थ गेम्‍स, टूजी स्‍पेक्‍ट्रम तथा कोलगेट घोटाले का सच सामने आ ही गया जबकि यूपीए सरकार ने इन सब को पूरी तरह झुठलाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी।
चुनाव कोई कुंभ के मेले की तरह तो हैं नहीं, अगले पांच साल बाद फिर होने हैं। तब मोदी जी की सरकार का जनता खुद-ब-खुद वही हाल कर देगी जो आज कांग्रेस का कर रखा है। पांच साल के लिए उन्‍हें स्‍पष्‍ट जनादेश मिला है तो उससे पहले आप उन्‍हें सत्‍ता से च्‍युत कर नहीं सकते। फिर इतनी निम्‍न स्‍तरीय राजनीति का मतलब क्‍या है।
मतलब साफ है, कांग्रेस हो या भाजपा…सपा हो या बसपा…राजद हो या बीजद…सबके नेता जानते हैं कि मार्कण्‍डेय काटजू का कथन ही अंतिम सत्‍य है। वह उनके कथन पर राजनीति बेशक कर लें किंतु सच्‍चाई पर उन्‍हें भी तनिक शक नहीं है। वह जानते हैं कि जो जनता आज भी आसाराम बापू, नारायण साईं, स्‍वामी नित्‍यानंद तथा शिवानंद तिवारी जैसे दुराचारियों को संत मान रही है और जो लोग आज भी सहाराश्री की चिटफंड कंपनी में पैसा जमा कर रहे हैं, जिनके लिए देश में हुए खरबों के घोटाले कोई मायने नहीं रखते, जिनकी अंधभक्‍ति किसी तर्क अथवा तथ्‍य को मानने के लिए तैयार नहीं होती, उन्‍हें भेड़ की तरह हांकना कोई मुश्‍किल काम नहीं।
कोई भी राजनीतिक दल, चाहे वह क्षेत्रीय हो या राष्‍ट्रीय…सत्‍ता से बेदखल होते ही इस कवायद में लग जाता है कि अपने अंधभक्‍तों की आंखों पर चढ़े चश्‍मे का रंग हर हाल में बरकरार रखा जाए। चाहे किसी भूमि अधिग्रहण बिल के जरिये और चाहे किसान रैली के जरिए। चाहे संसद के अंदर से, चाहे संसद के बाहर बैठकर…अंधभक्‍तों का अपने पक्ष में ”ब्रेनवॉश” करते रहना जरूरी है क्‍योंकि सत्‍ता की कुंजी वही लोग हैं। इसीलिए तो भाजपा ने सत्‍ता पर काबिज होने के साथ अपने अंधभक्‍तों की संख्‍या का विश्‍व रिकॉर्ड बनाने जैसे महत्‍वपूर्ण कार्य को अंजाम तक पहुंचाया। भाजपा हो या कांग्रेस…या कोई भी अन्‍य पार्टी…सभी के नेता जानते हैं कि उनका वोटर ही उन्‍हें सत्‍ता तक पहुंचाता है, विपक्षी अंधभक्‍तों के मत उन्‍हें कभी नहीं मिलने वाले। शिखर तक पहुंचाने में दिमाग से दिवालिया दलगत राजनीति के शिकार ही निर्णायक साबित होते हैं, विचारवान बुद्धिजीवी नहीं। वह उनकी दृष्‍टि में किसी खेत की मूली नहीं हैं।
यही कारण है कि स्‍वतंत्र भारत में सत्‍ता का स्‍वाद बारी-बारी से चखा जाता रहा है। यह बात अलग है कि किसी को समय ज्‍यादा मिला और किसी को कम। किंतु सत्‍ता हमेशा ऐसे तत्‍वों के हाथ में रही जिन्‍हें फिरंगियों की कार्बन कॉपी कह सकते हैं। इतना कहने में आपत्‍ति हो तो यह जरूर कह सकते हैं कि पिछले 67 सालों में किसी सत्‍ता ने कभी ऐसा कुछ महसूस नहीं कराया जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि वाकई यह देश स्‍वतंत्र हो चुका है और लोकतंत्र को सही-सही परिभाषित करने वाली सरकार काम कर रही है। यानि जनता के द्वारा चुनी गई, जनता के लिए, जनता की सरकार।
आज तक जितनी भी सरकारें रहीं हैं, फिर चाहे वह केंद की हों या राज्‍यों की, गठबंधन की रही हों, या स्‍पष्‍ट बहुमत वाली…एक दल की रही हों या अनेक दलों की…सबका आचरण समय के साथ रंग बदलता रहता है। विपक्ष में रहते उनके रंग-ढंग कुछ और रहते हैं तथा सत्‍ता हासिल होते ही कुछ और हो जाते हैं। गिरगिट भी फिर इनके आचरण के सामने कुछ नहीं रह जाता।
जाहिर है कि न तो कांग्रेस कुछ अजूबा कर रही है और न भाजपा या उसके साथ सत्‍ता का स्‍वाद चख रहे उसके सहयोगी दल। सब वही कर रहे हैं जो स्‍वतंत्र भारत की राजनीति अब तक करती रही है।
मार्कण्‍डेय काटजू को हम सनकी कह सकते हैं, आत्‍ममुग्‍ध कह सकते हैं, बड़बोला या अभिमानी बता सकते हैं…यह भी आरोप लगा सकते हैं कि वह मीडिया की सुर्खियों में रहने के लिए ऊट-पटांग बयान देने तथा अनर्गल बोलते रहने के आदी हैं किंतु इन सारी बातों को स्‍वीकार कर लेने के बावजूद कहीं न कहीं उनका यह कथन एकबार सोचने पर बाध्‍य अवश्‍य कर देता है कि क्‍या वाकई देश की अधिकांश जनता मूर्ख है।
खासतौर पर ऐसे समय जरूर उनका कथन विचार करने पर मजबूर कर देता है जब कोई नेता अपनी बेतुकी बातों, कुतर्कों, निरर्थक आरोप एवं प्रत्‍यारोपों, अभद्र भाषा-शैली वाले भाषणों तथा बेहूदी बयानबाजी के बावजूद तालियां बटोर लेता है तथा शत-प्रतिशत निजी स्‍वार्थों की पूर्ति यानि सत्‍ता हथियाने अथवा सत्‍ता बरकरार रखने के लिए चिलचिलाती धूप, तेज बारिश, आंधी-तूफान या कड़कड़ाती ठंड में लाखों लोगों को एकत्र कर पाता है। वो भी मात्र इसलिए कि उसे आपको मूर्ख बनाना है। यह जानते हुए कि वह आपके लिए कुछ नहीं कर सकता।
यह भी जानते हुए कि उसके पास अकूत दौलत है, बेहिसाब ताकत है, दुनिया भर में शौहरत है।
यह जानते व समझते हुए कि सड़क से संसद तक कुत्‍ते-बिल्‍लियों की भांति जन्‍मजात दुश्‍मन दिखाई देने वाले तथा एक दूसरे पर गुर्राते नजर आने वाले कैमरा ऑफ होते ही एक दूसरे की कुशलक्षेम किसी सहोदर की तरह पूछते हैं। ऑन रिकार्ड इनकी सूरत व सीरत कुछ और होती है तथा ऑफ रिकॉर्ड कुछ और।
हो सकता है कि मार्कण्‍डेय काटजू के कथन में मूर्खों की जमात का प्रतिशत आंशिक रूप से कुछ ऊपर-नीचे हो, किंतु बहुत ज्‍यादा नहीं है।
स्‍वतंत्र भारत से लेकर आज तक की राजनीति और राजनेताओं की सफलता का प्रतिशत तो यही बताता है।
यदि कभी इस बिंदु पर विचार न किया हो तो अब करके देखें, हो सकता है कि खुद आपको भी अहसास हो कि आप अब तक उसी जमात का हिस्‍सा बने हुए हैं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी