यूं तो पुलिस की हर मुठभेड़ न सिर्फ शक के दायरे में रहती है बल्कि उसके साथ तमाम सवाल भी खड़े हो जाते हैं। संभवत: इसीलिए पुलिस एनकाउंटर के दौरान हुई हर मौत की निष्पक्ष, प्रभावी और स्वतंत्र जांच के लिए कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। जैसे पूरे घटनाक्रम की एक स्वतंत्र जांच सीआईडी से या दूसरे पुलिस स्टेशन की टीम से किसी एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की निगरानी में कराना। यह वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, उस एनकाउंटर में शामिल सबसे उच्च अधिकारी से भी एक रैंक ऊपर का होना। इसके अलावा धारा 176 के अंतर्गत पुलिस फ़ायरिंग में हुई प्रत्येक मौत की मजिस्ट्रियल जांच भी जरूरी है। जिसकी एक रिपोर्ट न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेजी जाती है। ऐसे में कानपुर शूटआउट के सरगना विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत पर सवाल उठना सामान्य सी बात है, इसलिए यहां सवाल एनकाउंटर पर न उठाकर इस बात पर किया जाना चाहिए कि क्या कानपुर कांड के बाद वाकई पुलिस का ज़मीर जाग गया है ? अथवा ये सभी एनकाउंटर आठ पुलिसकर्मियों की शहादत से उपजा कोई ऐसा तात्कालिक क्रोध है, जिसका गुबार कुछ दिनों बाद स्वत: बैठ जाएगा। यही एकमात्र सवाल ऐसा है जिसमें पुलिस की कार्यशैली पर उठने वाले सभी सवालों के जवाब निहित हैं। इसी सवाल में निहित है कि कैसे कोई विकास दुबे पुलिस की नाक के नीचे फल-फूलकर इतना दुस्साहसी हो जाता है कि उसके अंदर खाकी का कोई खौफ नहीं रह जाता। यहां तक कि वह पुलिस पर पूरी प्लानिंग के साथ हमला करने से भी नहीं चूकता। कैसे वो कानून-व्यवस्था और शासन-प्रशासन से इतर अपनी एक ऐसी समानांतर सत्ता कायम कर लेता है कि आमलोग भी न्याय की गुहार उसके दरबार पर जाकर लगाने लग जाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पुलिस की एक बड़ी समस्या राजनीति का अपराधीकरण या अपराधियों का राजनीतिकरण हो जाना है, परंतु इसका यह कतई मतलब नहीं कि पुलिस अपने कर्तव्य से इस कदर विमुख हो जाए कि उसका अस्तित्व ही तक दांव पर लगता दिखाई दे। विकास दुबे ने 2/3 जुलाई की मध्य रात्रि में दरिंदगी का जो घिनौना खेल खेला, वो चंद घंटों के अंदर उपजी मनोवृत्ति का परिणाम नहीं था। वह उसे राजनीतिक गलियारों के साथ-साथ पुलिस से भी अनवरत मिलते रहे उस खाद-पानी की परिणिति थी जिसने उसे इंसान से हिंसक जानवर बनाने में मदद की। घटना वाले दिन से ही यह एकदम साफ था कि पुलिस ने ही पुलिस की मुखबिरी की, क्योंकि बिना पूर्व सूचना के इतनी तैयारी के साथ हमला कर पाना संभव ही नहीं था। हालांकि पुलिस को इस बात का पताना लगाने में भी कई दिन लग गए और उसके बाद भी गाज गिरी तो एक एसओ और एक एसआई पर जिन्हें निलंबित किया गया है। रहा सवाल पूरे चौबेपुर थाने के दूसरे पुलिसकर्मियों को लाइन हाजिर करने या सीओ के पत्र को दबाकर बैठ जाने वाले तत्कालीन एसएसपी कानपुर के तबादले का तो उसे कार्यवाही नहीं माना जा सकता। दलगत राजनीति और आदतन सवाल उठाने वालों की बात अगर छोड़ दी जाए तो विकास दुबे और उसके साथियों का पुलिस ने जो हश्र किया, उससे किसी को कोई परेशानी नहीं है। सच तो यह कि अधिकांश लोग खुश हैं, लेकिन ये खुशी तब अहमियत रखती है जब पुलिस अपने यहां से विपिन तिवारी तथा केके शर्मा जैसों सहित अनंतदेव जैसे आईपीएस अधिकारियों को भी चिन्हित कर खाकी पर चिपकी गंदगी साफ करने का बीड़ा उठाए। बेशक ये काम बहुत कठिन है और इसके लिए राजनीतिक गलियारों में पल रहे सफेदपोश अपराधियों से भी टक्कर लेनी पड़ सकती हैं परंतु असंभव कतई नहीं है। बस आवश्यकता है तो इस बात कि पुलिस अपनी इच्छाशक्ति दृढ़ कर ले और ठान ले कि अपराधी चाहे वर्दी में छिपा हो या समाज में, उसे सहन नहीं किया जाएगा। ये काम असंभव इसलिए भी नहीं है कि स्वच्छ छवि वाले राजनेताओं को शायद ही इसमें कोई दिक्कत हो, और जिन्हें दिक्कत है वो हर हाल में पुलिस के लिए सिरदर्द ही साबित होते हैं। हां, इतना जरूर है कि पुलिस को इसके लिए बाकायदा अभियान चलाकर ऐसी ही एकजुटता का प्रदर्शन करना होगा जैसा कि विकास दुबे के गैंग को नेस्तनाबूद करने के लिए दिखाई गई और तय किया गया कि चाहे जैसे भी व जितने भी सवाल उठेंगे, उनका जवाब दे दिया जाएगा। विकास दुबे व उसके अधिकांश गुर्गे बेशक उसी दुर्गति को प्राप्त हुए जिसके वो हकदार थे लेकिन सही न्याय तब माना जाएगा जब इसी आत्मबल, साहस एवं एकजुटता के साथ खाकी और खद्दर के पीछे छिपे दुर्दांत अपराधियों को भी कठघरे में खड़ा किया जाए क्योंकि उनका अपराध किसी भी तरह विकास दुबे व उसके गुर्गों से कम नहीं है। हकीकत तो यह है कि पर्दे के पीछे ही सही, लेकिन वो सब भी विकास दुबे के गैंग का हिस्सा हैं इसलिए ‘विकास दुबे’ तभी सही अर्थों में समाप्त होगा, जब वो सब भी अपनी-अपनी नियति को प्राप्त होंगे। -सुरेन्द्र चतुर्वेदी
2/3 जुलाई की रात कानपुर में हुआ शूटआउट दरअसल ”खाकी” के ऊपर से नीचे तक बिक जाने की एक ऐसी सनसनीखेज कहानी है जिसके कारण उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में कोई न कोई ‘विकास दुबे’ फल-फूल रहा है। इस शूटआउट में दर्जनभर से अधिक वर्दीधारियों का खून बह जाने की वजह से आज भले ही पुलिस एक विकास दुबे के लिए खाक छान रही हो परंतु फाइलें गवाह हैं कि प्रदेश के प्रत्येक जिले में ऐसे अपराधियों की सूचियां धूल फांकती रहती हैं और सूचीबद्ध बदमाश निश्चिंत होकर अपना ‘विकास’ करते रहते हैं। सूबे का शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहां इनामी बदमाशों की सूची न बनती हो परंतु इन बदमाशों के खिलाफ कार्यवाही होना तो दूर, इनाम की राशि भी नहीं बढ़ाई जाती नतीजतन वह पुलिस के ‘रडार’ पर भी नहीं आ पाते। ऐसा इसलिए कि पुलिस में इस तरह का कोई नियम ही नहीं है कि यदि कोई बदमाश एक दशक या उससे भी अधिक समय से फरार है तो उसकी गतिविधियों की समीक्षा कर उसके ऊपर घोषित इनाम की राशि बढ़ाई जा सके। ये बात अलग है कि विकास दुबे इस मामले में भी अपवाद बना रहा। वह न तो फरार था और न निष्क्रिय, बावजूद इसके पुलिस ने उसके ऊपर इनाम की राशि तक बढ़ाना जरूरी नहीं समझा। ऊपर से नीचे तक बिकती हैं ट्रांसफर-पोस्टिंग पुलिस विभाग में कई दशकों से हर ट्रांसफर-पोस्टिंग किसी न किसी स्तर से बिकती है, ये कोई छिपी हुई बात नहीं है। प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चाहे योगी आदित्यनाथ जैसा साफ-सुथरी छवि वाला गेरुआ वस्त्रधारी मुख्यमंत्री काबिज हो या पूर्ववर्ती सरकारों के मुखिया, पुलिस विभाग में ये खेल हमेशा जारी रहा है। योगी आदित्यनाथ की बेदाग छवि के बावजूद प्रदेश के तमाम जिलों में दागदार अधिकारियों की तैनाती इस बात की पुष्टि करती है कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में पैसे का खेल किसी न किसी स्तर से बदस्तूर चल रहा है। ऊपर से शुरू होने वाली खरीद-फरोख्त की यह चेन कोतवाली, थाने व चौकियों तक बनी हुई है लिहाजा अकर्मण्य तथा अयोग्य लोग चार्ज पाते रहते हैं और योग्य एवं ईमानदार अधिकारी फ्रस्टेशन के शिकार होकर तनाव में वर्दी का भार ढोने को बाध्य होते हैं। किसी तरह यदि कभी कोई ईमानदार और योग्य अधिकारी चार्ज पा भी जाता है तो उसका सारा समय विभाग के ही लोगों से निपटने में बीतता है क्योंकि वो उसके काम में कदम-कदम पर न केवल रोड़ा अटकाते हैं बल्कि शिकायतों का अंबार खड़ा कर देते हैं जिससे उसकी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उसी में खप जाता है। ऐसे अधिकारियों को एक जगह टिक कर काम नहीं करने दिया जाता और एक जिले से दूसरे जिले के बीच फुटबॉल बनाकर रखा जाता है। चार्ज खरीदने वाले पुलिस अधिकारियों की प्राथमिकता कौन नहीं जानता कि खरीदकर जोन, रेंज और जिले का चार्ज संभालने वाले आईपीएस अधिकारी हों अथवा सर्किल, कोतवाली, थाना या चौकी का चार्ज हासिल करने वाले पुलिसकर्मी, इन सबकी प्राथमिकता होती है अपने जेब से निकले पैसे को चक्रवर्ती ब्याज सहित वसूलने की, न कि कानून-व्यवस्था बनाने और उसके लिए ईमानदारी पूर्वक ड्यूटी निभाने की। फिर इसके लिए चाहे किसी भी स्तर तक गिरना पड़े और किसी भी व्यक्ति से हाथ मिलाना पड़े। उच्च अधिकारियों की संदिग्ध सत्यनिष्ठा कानुपर शूटआउट से धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि पूरे घटनाक्रम का जिम्मेदार सिर्फ चौबेपुर थाना ही नहीं है, पुलिस के वो आला अधिकारी भी हैं जिन्होंने अपने ही अधीनस्थ अधिकारियों की शिकवा-शिकायतों के बावजूद थाना प्रभारी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया और उसे इतना अवसर उपलब्ध कराया कि वह महीनों तक कानून को ताक पर रखकर विकास दुबे का हिमायती बना रहा। परोक्ष रूप से देखें तो इस तरह विकास दुबे या उसके जैसे दूसरे अपराधियों सहित अन्य अपराधियों को भी उच्च पुलिस अधिकारियों का ही संरक्षण प्राप्त था अन्यथा ये कैसे संभव है कि एक पांच दर्जन आपराधिक मामलों के आरोपी की गिरफ्तारी के लिए अधिकांश पुलिस बल को आधीरात में बिना हथियारों के भेज दिया गया। क्या इसके लिए एसएसपी कानपुर से ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने बिना तैयारी के पुलिस बल को दबिश पर जाने की इजाजत कैसे दे दी। कार्यवाही मात्र चौबेपुर थाने तक ही सीमित क्यों? इस अक्षम्य अपराध में अब तक जो भी और जैसी भी कार्यवाही हुई है, वह सिर्फ चौबेपुर थाने की पुलिस तक सीमित है जबकि स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि एसएसपी से लेकर दूसरे उच्च पुलिस अधिकारी भी दूध के धुले नहीं रहे होंगे। विकास दुबे अपने जरायम पेशे में लगातार सक्रिय था, फिर क्यों वह उच्च पुलिस अधिकारियों की नजरों में नहीं आया या फिर अधिकारी ही उससे नजरें फेरते रहे। आज उस पर 25 से 50 हजार और फिर एक लाख से ढाई लाख रुपए का इनाम घोषित करने वाले तब कहां थे जब वह खुलेआम एक ओर जहां समूचे इलाके को बंधक बनाए हुए था वहीं वर्दी की इज्जत को भी बार-बार तार-तार कर रहा था। जांच की आड़ में खेला जाने वाला खेल पूरे प्रदेश की पुलिस व्यवस्था पर गहरा सवालिया निशान लगाकर भाग निकलने वाला विकास दुबे घटना से पहले किस-किस पुलिसकर्मी के संपर्क में था, इस बात तक के लिए पुलिस को आज पांच दिन बाद भी जांच पूरी होने का इंतजार है। वो भी तब जबकि इस दौर में यह पता करना घंटों का भी नहीं चंद मिनटों का काम रह गया है। इसी प्रकार शहीद सीओ देवेन्द्र मिश्रा के उस पत्र की सत्यता को भी जांच की दरकार है जिसे उन्होंने कई महीने पहले चौबेपुर थाने के प्रभारी विनय तिवारी की सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठाते हुए एसएसपी को लिखा था। आखिर तत्कालीन एसएसपी से इस बात की पुष्टि करने के लिए भी कितना समय चाहिए, या फिर पहले शहीद सीओ के पत्र की फॉरेंसिक जांच कराने के बाद उनसे पूछा जाएगा कि ये पत्र आपको लिखा गया था अथवा नहीं। अपने ही विभाग के शहीदों और उनके परिजनों से किया जा रहा यह क्रूर मजाक प्रमाण है इस बात का कि ‘खाकी’ वर्दी में लिपटे अधिकांश लोगों की आत्मा किस कदर मर चुकी है और जो चेहरे उसके साथ दिखाई देते हैं वह मात्र मुखौटे हैं। एक ऐसा खोल बनकर रह गई है खाकी वर्दी जिससे आत्ममंथन की उम्मीद करना संभवत: बेमानी है। वह जिस तरह घर के अंदर किसी खूंटी पर टंगी रहती है, उसी तरह घर के बाहर एक अदद शरीर पर। ऐसा न होता तो ये कैसे संभव था कि जिस घटना ने आमजन को भी हिलाकर रख दिया, उस घटना के पांच दिन बाद भी हजारों बड़े-छोटे वर्दीधारी बस लकीर पीट रहे हैं। राजनीतिक दखल की बात बेशक ये एक कड़वा सच है कि पुलिस में राजनीति और राजनेताओं का दखल जरूरत से ज्यादा है परंतु इसके लिए भी काफी हद तक पुलिस का लालच ही जिम्मेदार है। पुलिस यदि ड्यूटी को प्राथमिकता दे और अतिरिक्त आमदनी के लिए मलाईदार तैनाती का लालच छोड़ दे तो तय है कि राजनेताओं की उसे उंगलियों पर नचाने की मंशा जरूर प्रभावित हो सकती है। फिर राजनीतिक गलियारों से विकास दुबे जैसों को दिया जा रहा संरक्षण भी बेमानी हो जाता है और खाकी की इज्जत तथा उसका इकबाल पूर्ववत कायम कराया जा सकता है। बस आवश्यकता है तो इस बात की कि पुलिस अपनी वर्तमान स्थिति पर गंभीरता पूर्वक चिंतन करे और वर्दी की इस ‘दशा’ के लिए जिम्मेदार हर उस व्यक्ति को बेनकाब करने की ठान ले जिसके कारण विकास दुबे जैसा आदतन अपराधी भी उसके ऊपर सुनियोजित तरीके से कहर ढाने में कामयाब रहा। -सुरेन्द्र चतुर्वेदी http://legendnews.in/kanpurs-shootout-is-a-sensational-story-of-khaki-being-sold-from-top-to-bottom/
पूरे सिस्टम पर गहरा सवालिया निशान लगाती है कानपुर की घटना, पुलिस के लिए भी आत्मचिंतन का ‘मौका’ कानपुर की वीभत्स घटना एक ओर जहां पूरे सिस्टम पर गहरा सवालिया निशान लगाती है वहीं दूसरी ओर पुलिस के लिए भी आत्मचिंतन का ‘मौका’ दे रही है। पुलिस के लिए इसे ‘मौका’ इसलिए कहा जा सकता है कि इतने बड़े दुस्साहस की ‘पटकथा’ लिखने वाले यदि छूट गए और कार्यवाही सिर्फ अपराधियों तक सीमित रह गई तो ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। कौन नहीं जानता कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी पुलिस, प्रशासन और राजनेताओं के गठजोड़ का ही नतीजा होते हैं। वो इसी तिकड़ी के संरक्षण में पलते और बढ़ते हैं। विकास दुबे तक पुलिस की दबिश पहुंचने से पहले सूचना कैसे लीक हुई होगी और कैसे उसने पुलिस को घेरकर मारने का फुलप्रूफ प्लान तैयार किया होगा, यह जानना बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन कोई जानने चाहेगा तब जान पाएगा अन्यथा हमेशा की तरह सतही कानूनी कार्यवाही करने की लकीर पीट दी जाएगी। कोई तो भेदिया होगा जिसने विकास दुबे को पुलिस पर हमलावर होने का इतना अवसर दिलाया ताकि वो रास्ते में आड़ी जेसीबी खड़ी करके मोर्चेबंदी कर सके। मथुरा का जवाहरबाग कांड मथुरा का जवाहरबाग कांड याद हो तो उसमें एक एसपी सिटी और एक एसओ को लगभग इसी तरह पूरी योजना के साथ घेरकर मार डाला गया। कहने को सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है किंतु 2016 से अब तक न रामवृक्ष का पता लगा न जांच आगे बढ़ी। इन दो पुलिस अधिकारियों को बेरहमी से मार डालने वाला रामवृक्ष यादव नामक अपराधी पूरे ढाई साल तक कलेक्ट्रेट में ही सारे पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों की नाक के नीचे एक सरकारी बाग की ढाई सौ एकड़ से अधिक जमीन पर अपने गुर्गों के साथ काबिज रहा लेकिन सब के सब तमाशबीन बने रहे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यदि पुलिस प्रशासन को मजबूर न किया होता तो रामवृक्ष की विषबेल कितनी और फल-फूल चुकी होती, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। डॉ. निर्विकल्प अपहरण कांड बहुत दिन नहीं बीते जब मथुरा में ही डॉक्टर निर्विकल्प को अगवा कर बदमाशों ने चंद मिनटों के अंदर 52 लाख रुपए की फिरौती वसूल ली। बात खुली तो पता लगा कि उसमें से 40 लाख रुपए की रकम पुलिस हड़प गई थी। एफआर दर्ज हुई, एक इंस्पेक्टर को निलंबित भी किया गया किंतु उसके बाद नतीजा ढाक के तीन पात है। जिन उच्च पुलिस अधिकारियों की इस अपहरण कांड में संलिप्तता का शक था, उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। एक आरोपी और एक सह आरोपी महिला को गिरफ्तार कर पुलिस ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। पुलिस चौकी से करोड़ों की शराब बेच देने का मामला मथुरा में ही नेशनल हाईवे के थाना कोसी की कोटवन बॉर्डर पुलिस चौकी से लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा दो करोड़ रुपए से ऊपर की शराब बेच दी गई लेकिन खानापूरी के अलावा उच्च अधिकारियों ने कुछ नहीं किया। आश्चर्य की बात यह है कि ये वो शराब थी जो खुद पुलिस ने ही समय-समय पर शराब तस्करों से जब्त कर कई लोगों को जेल भेजा था। अब सारा खेल खतम और पैसा हजम। तस्कर भी खुश और पुलिस भी। रहा सवाल जांच का तो वह जैसे अब चल रही है, वैसे दस साल बाद भी चलती रहेगी। छत्ता बाजार का दोहरा हत्याकांड हाल ही में मथुरा के अत्यधिक भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र छत्ता बाजार की गली सेठ भीकचंद के अंदर सुबह-सुबह मोटरसाइकिल सवार बदमाश अंधाधुंध फायरिंग करके दो लोगों की जान ले लेते हैं और तीन लोगों को घायल करके भाग जाते हैं किंतु पुलिस कुछ नहीं कर पाती। करती है तो केवल इतना कि एक युवक जो क्रॉस केस बनाने के चक्कर में जिला अस्पताल जा पहुंचा था, उसे गिरफ्तार दिखा देती है और घटना स्थल पर पड़ी मिली एक रिवॉल्वर को उससे बरामद बताकर उसका चालान कर देती है। इस दुस्साहसिक वारदात को अंजाम देने वाले नामजद और अज्ञात बदमाश आज तक पुलिस की पकड़ से दूर हैं जबकि उसमें मारे गए लोगों की तीन दिन बाद तेरहवीं होने वाली है। दरअसल पूरे प्रदेश में कहीं भी पुलिस मजामत की घटना हो अथवा कोई ऐसी दुस्साहसिक वारदात, ऐसा संभव ही नहीं है कि पुलिस उससे कतई अनजान हो या उसे भनक तक न लगे। पुलिस ही सूत्रधार इसे यूं भी कह सकते हैं कि पुलिस ही ऐसी वारदातों की सूत्रधार होती है, कभी पैसे के लालच में तो कभी आपसी द्वेषभाव के कारण। इसके अलावा एक तीसरा कारण होता है राजनीतिक संरक्षण बने रहने की वो चाहत जिसके बल पर ”चार्ज” चलता रहता है। किसी के लिए जिले का ”चार्ज” अहमियत रखता है तो किसी के लिए ”सर्किल” का, किसी को थाने के चार्ज की चाहत होती है तो कोई खास चौकी थाना छोड़ना नहीं चाहता। कोई पैसे के लिए अपनों से गद्दारी करने को तत्पर रहता है तो कोई हुकुम बजाने के लिए। जो भी हो, लेकिन एक बात तय है कि बिना भेदिया के इतनी बड़ी तो क्या छोटी से छोटी पुलिस पार्टी पर हमला करने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता। विकास दुबे का ‘इतना विकास’ संभव ही इसलिए हो पाया कि उसे पुलिस-प्रशासन और राजनेताओं की तिकड़ी का भरपूर सहयोग प्राप्त होता रहा। जरा विचार कीजिए कि यही हिस्ट्रीशीटर गुंडा विकास दुबे थाने के अंदर एक दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री ही हत्या कर देता है और इसके खिलाफ अदालत में कोई गवाही तक देने को तैयार नहीं होता, तो इसके मायने क्या हैं। आज चूंकि आठ पुलिसजनों की शहादत हुई है और आधा दर्जन से अधिक गंभीर घायल हैं इसलिए सहानुभूति होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या ये सहानुभति इस बात की गारंटी हो सकती है कि भविष्य में ऐसी किसी दुस्साहसिक घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी। क्या कोई पुलिस अधिकारी अथवा कर्मचारी दावे के साथ कह सकता है कि जो कुछ हुआ और जिन परिस्थितियों में हुआ, उसके लिए पुलिस कतई जिम्मेदार नहीं है। और यदि पुलिस जिम्मेदार है तो निश्चित ही यह घटना उसे आत्मचिंतन का मौका दे रही है ताकि हर पुलिस वाला सोच सके कि कब तक और क्यूं। इसलिए तो नहीं कि ड्यूटी की खातिर खाक में मिलने की प्रेरणा देने वाली खाकी पर ही अब इतनी गर्द जम चुकी है कि उसे कुछ दिखाई नहीं देता, कुछ सुनाई नहीं देता। दिखता है तो वही जो देखना चाहते हैं, और सुनना भी है वही जो सुनना चाहते हैं। विकास दुबे जैसों का खेल हमेशा के लिए यदि खत्म करना है तो एकबार फिर जहां खाकी का इकबाल बुलंद करना होगा वहीं उसकी मान-मर्यादा को भी और तार-तार होने से बचाना होगा अन्यथा आज जो दुस्साहस विकास तथा उसके गुर्गों ने किया है, कल कोई और करेगा। हो सकता है कि तब ये संख्या इससे भी अधिक हो। -सुरेन्द्र चतुर्वेदी