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सोमवार, 9 अगस्त 2021

बड़ा सवाल: यूपी में इस बार कौन बनेगा मुख्‍यमंत्री… बुआ, बबुआ, बबली या बाबा?


 उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में यूं तो अभी पूरे 6 महीने बाकी हैं लेकिन यह बड़ा सवाल उछलने लगा है कि इस बार मुख्‍यमंत्री बनेगा कौन?

चार नाम मुक़ाबिल हैं। बुआ, बबुआ, बबली और बाबा। 2017 के चुनाव में बुआ और बबुआ साथ थे किंतु इस मर्तबा आमने-सामने होंगे।
बबली पहली बार सीएम की संभावित उम्‍मीदवार हैं। हालांकि अंत तक उनकी पार्टी का ऊंट किस करवट बैठेगा, कहना थोड़ा मुश्‍किल है।
शेष रहे बाबा… तो उनका कोई विकल्‍प नहीं है इसलिए अपनी पार्टी के वही सीएम कैंडिडेट होंगे, इसमें किसी को कोई शक-शुबहा नहीं होना चाहिए। ये अलग बात है कि शक पैदा करने का भरसक प्रयत्‍न किया गया परंतु समय रहते उसकी हवा निकाल दी गई।
हवा निकली तो कुछ चेहरों की हवाइयां उड़ना स्‍वाभाविक था लेकिन चुनाव की चर्चा हवा टाइट करने की इजाजत नहीं देती इसलिए सबसे पहला कार्ड खेला बुआ ने।
ऐसा लगा जैसे किसी ने उन्‍हें झिंझोड़ कर नींद से उठा दिया हो, लिहाजा कल तक बुझी-बुझी सी बुआ ने ब्राह्मणों पर दांव लगाते हुए अयोध्‍या से प्रबुद्ध सम्‍मेलनों के आयोजन की शुरूआत कर डाली।
उन्‍होंने इतना भी नहीं सोचा कि जिन सजातीय बंधु-बांधवों ने उन्‍हें अर्श से फर्श तक पहुंचाया, वो क्‍या सोचेंगे। जिन्‍होंने साइकिल के डंडे की सवारी से उतारकर हाथी की सवारी करवाई, उनके कलेजे पर क्‍या बीतेगी। तिलक, तराजू और तलवार जैसे नारे का क्‍या होगा।
परंपरागत रूप से ‘स्‍वर्गीय’ कहलाने के हकदार उन कांशीराम की आत्‍मा कितनी बेचैन होगी, जिन्‍होंने कभी IAS बनने का सपना संजोने वाली एक आम सी लड़की को देखकर कहा था कि एक दिन सैकड़ों IAS तुम्‍हारे ‘चाकर’ होंगे।
यही नहीं, प्रदेश के उन 17 फीसदी अल्‍पसंख्‍यकों का धनीधोरी कौन होगा, जो कल तक यही समझते रहे कि हाथी ही उनका एकमात्र साथी है और साइकिल पंक्‍चर होने के बाद हाथी में ही वो दम बाकी है जिसकी सूंड के सहारे वह कमल को सबक सिखा सकते हैं।
बहरहाल, ब्राह्मणों को लेकर खेले गए बुआ के इस धोबी पछाड़ दांव ने बबुआ की पेशानी पर बल डलवा दिए और वो भी तत्‍काल ‘ब्राह्मण मोड’ में आते हुए बोले कि हम न सिर्फ ब्राह्मण सम्‍मेलन करेंगे बल्‍कि सरकार बनते ही प्रदेश के हर जिले में भगवान परशुराम के मंदिर स्‍थापित कराएंगे।
सरकार बनाने को लेकर बबुआ के कॉन्‍फिडेंस का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्‍होंने 350 सीटें जीतने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि उन्‍हें 400 सीटें भी मिल सकती हैं क्‍योंकि बाबा से लोग बहुतई नाराज हैं।
बबुआ के दावे पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने का अधिकार पार्टी में किसी को है नहीं, इसलिए किसी ने लगाया भी नहीं। आखिर पिछले पांच साल से वो निठल्‍ला चिंतन कर रहे थे। Twitter-Twitter भी खेल रहे थे जिससे तत्‍काल साफ पता लग जाता है कि कितने करोड़ फॉलोअर हैं।
अब इतने विश्‍वसनीय सोशल मीडिया प्‍लेटफॉर्म से मिल रहे इनपुट को अवॉइड तो नहीं किया जा सकता न। वहां सक्रिय लोग इतने नकारा नहीं हो सकते कि 350 से 400 का आंकड़ा बताकर 35-40 पर ला पटकें।
सरकारी एजेंसियों को तो बाबा ने ऐसी पट्टी पढ़ाई है कि वो अब बबुआ के भरोसे की रही नहीं। पुलिस तक अब खाकी की तरह नहीं, बाबा की तरह खांटी भाषा का इस्‍तेमाल करने लगी है। खैर… बबुआ की खुशी को ग्रहण क्‍यों लगाया जाए, और क्‍यों उनके सपने में खलल डाला जाए।
बबली की पार्टी के एक महाबली ने तो ब्राह्मणों की सियासत पर ऐसा ‘चौका’ लगाया कि कहने लगे… हमारी तो सीएम कैंडिडेट खुद ही ब्राह्मण है। उनके नाम के साथ दो सरनेम बेशक पहले से जुड़े हों लेकिन ‘छद्म’ सरनेम सदा से वही है जो आज ‘बेचारे’ कश्‍मीरी हिन्‍दुओं के साथ जुड़ गया है। वक्‍त जरूरत उसे उसी तरह कुर्ते के ऊपर धारण कर लिया जाता है जिस तरह ‘जनेऊ’ धारण किया जा सकता है। और इसमें हर्ज ही क्‍या है। राजनीति के लिए मुखौटे हमेशा मुफीद साबित हुए हैं, और यही कारण है कि राजनेता किस्‍म-किस्‍म के मुखौटों का प्रयोग करने में माहिर होते हैं। जो राजनेता मुखौटों का सही इस्‍तेमाल करना नहीं जानता, वो सही मायनों में राजनेता कहलाने का हकदार नहीं होता।
कुल मिलाकर पब्‍लिक माने या ना माने परंतु बबली की पार्टी मानती है कि वो उसी ब्राह्मण कुल की शाखा हैं जो कश्‍मीर से टूटकर ‘संगम’ घाट आ गिरी थी और फिर विभिन्‍न जाति-धर्म संप्रदायों से होकर भी एक ओर जहां ‘सनातनी’ हैं वहीं दूसरी ओर उनका सूक्ष्‍मजीवी ब्राह्मणत्‍व अमरत्‍व को प्राप्‍त है।
शेष रहे बाबा… जो गेरूआ त्‍यागे बिना वाया गोरखनाथ सत्ता पर तो काबिज हुए ही, नए-नए कीर्तिमान भी गढ़े। एक झटके में राजनीति की परिभाषा बदल दी। ‘ठीक’ न होने पर ‘ठोक’ देने के हिमायती बाबा ने ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्‍वास’ पर आगे बढ़ते हुए यह भी ऐलान कर दिया कि इसे मानना या ना मानना ‘उनकी’ मर्जी। जैसी जिसकी सोच।
बाबा ने बता दिया कि वो बिना रुके और बिना थके उस रास्‍ते पर चलते रहेंगे जिस पर चलकर प्रदेश को प्रगति के सोपान पर चढ़ाया जा सकता है।
बाबा बोलते हैं कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है इसलिए एक बार की कसरत से प्रदेश की कमान सीधी नहीं की जा सकती। उसके लिए कम से कम दो पंचवर्षीय योजनाओं की और दरकार है। नहीं तो नौ दिन चले अढ़ाई कोस की कहावत चरितार्थ होते देर नहीं लगेगी।
बाबा बोलते हैं कि ये पब्‍लिक है, सब जानती है। सबको पहचानती है। फिर चाहे वह बुआ हो या बबुआ, बबली हो या बाबा। उसे पता है कि गोरखनाथ पीठ व गेरुआ वस्‍त्रधारी चाहे कहीं भी हों, न तो जाति और धर्म की राजनीति करते हैं और न ब्राह्मणों का इतना अपमान करते हैं कि मान-मनौवल के लिए या तो ब्राह्मण सम्‍मेलन करने पड़ जाएं या स्‍वयंभू ब्राह्मण की उपाधि हासिल करने की मजबूरी आ खड़ी हो जाए।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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