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मंगलवार, 23 अगस्त 2022

अन्ना के चेलों ने बहुत जल्द पूरा कर लिया "राजनीति" से "शराबनीति" तक का सफर


 बाबूराव हजारे यानी अन्ना हजारे। ये वो शख्सियत है जिसने कई दशक पहले शराब निषेध अभियान की शुरूआत महाराष्‍ट्र के रालेगण सिद्धि से की थी। हजारे और उनके युवा समूह ने सुधार की प्रक्रिया जारी रखने के लिए शराब के मुद्दे को उठाने का फैसला किया। गांव के मंदिर में आयोजित एक बैठक के तहत ग्रामीणों ने शराब के ठेके बंद करने और शराब पर प्रतिबंध लगाने का संकल्प लिया। चूंकि ये संकल्प मंदिर में किए गए थे इसलिए वे एक तरह से धार्मिक प्रतिबद्धता बन गए। तीस से अधिक शराब बनाने वाली इकाइयों ने स्वेच्छा से अपने प्रतिष्ठान बंद कर दिए। जो लोग सामाजिक दबाव के आगे नहीं झुके उन्हें अपने व्यवसाय बंद करने के लिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि हजारे के युवा समूह ने उनके परिसर को तोड़ दिया। 

बताते हैं कि एक बार अन्‍ना के युवा समूह ने 3 शराबी ग्रामीणों को खंभों से बांध दिया और फिर हजारे ने खुद सेना की अपनी बेल्ट से उन्‍हें पीटा। उन्होंने इस सजा को यह कहते हुए उचित भी ठहराया कि "एक माँ अपने बीमार बच्चे को इसलिए कड़वी दवाएँ पिलाती है क्योंकि उसे पता होता है कि वह दवा उसके बच्चे को ठीक कर सकती है। हो सकता है कि बच्चे को दवा पसंद न आए, लेकिन माँ ऐसा इसलिए करती है क्योंकि वह बच्चे की परवाह करती है। शराबियों को दंडित किया गया ताकि उनके परिवारों को नष्ट होने से बचाया जा सके।"  
अन्‍ना ने महाराष्ट्र सरकार से एक कानून पारित करने की अपील की, जिसके तहत 25 फीसदी महिलाओं की मांग पर गांव में शराबबंदी लागू कर दी जाए। 2009 में राज्य सरकार ने इसे दर्शाने के लिए बॉम्बे प्रोहिबिशन एक्ट 1949 में संशोधन किया। 
"राजनीति" से "शराबनीति" पहुंचे अन्‍ना के चेले
एक दशक पूर्व 2011 में अन्ना के ही आंदोलन से उपजे उनके चेले आज 'हर घर तक' पहुंच बनाने वाली अपनी "शराबनीति" को न सिर्फ जायज ठहरा रहे हैं बल्‍कि उसके लिए किए गए सैकड़ों करोड़ रुपए के घोटाले को राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से जोड़ रहे हैं। 
भ्रष्‍टाचार के खिलाफ खड़े किए गए एक जनआंदोलन की कोख से पैदा हुई आम आदमी पार्टी के नेता अब कहते हैं- वह चूंकि "कट्टर ईमानदार" हैं इसलिए जब तक उनके ऊपर लगे भ्रष्‍टाचार के आरोप साबित न हो जाएं, तब तक कार्रवाई किया जाना राजनीतिक प्रतिशोध है। 
वो इस शब्‍द को गढ़ने से पहले इतना भी विचार नहीं करते कि 'कट्टरवाद' किसी किस्‍म का हो, अच्‍छा नहीं माना जाता। पूरा विश्‍व आज किसी न किसी किस्‍म के 'कट्टरवाद' का शिकार है। फिर वह कट्टरवादिता धर्म से जुड़ी हो या समाज से। कट्टरवादिता अपने आप में मिलावटी तथा दिखावटी होने का संदेश देती है। कोई व्‍यक्‍ति ईमानदार है तो उसका ईमानदार होना ही काफी है, उसके लिए 'कट्टर' नहीं होना पड़ता। आंशिक भ्रष्‍ट या कट्टर ईमानदार जैसे शब्‍द खुद एक धोखा हैं। 
मजे की बात यह है कि कल तक स्‍वयं को 'आम आदमी' मानने वाले सड़क से सत्ता तक पहुंचे ये लोग अब अघोषित रूप से यह बताना चाहते हैं कि वो कानून से ऊपर हैं और इसलिए उनके साथ कानून भी विशिष्‍ट व्‍यवहार करे। 
यही नहीं, इनकी मानें तो इन्‍हें लेकर होने वाली हर कार्रवाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीधा हाथ होता है। मोदी इनसे इतने डरे हुए हैं कि इन्‍हें नष्‍ट करना चाहते हैं। इनके दावे पर यकीन किया जाए तो इनका कद इतना बढ़ चुका है जिससे प्रधानमंत्री परेशान हैं और वो दिन-रात इनका ही स्‍मरण करते हैं। 
आश्‍चर्य भी होता है और हंसी भी आती है जब ये खेत की बात को खलिहान तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। शराब घोटाले को लेकर सीबीआई ने छापामारी शुरू की तो कहा जाने लगा कि हमारी शिक्षा नीति समूचे विश्‍व में सराही जा रही है इसलिए ये छापामारी की गई है। देखिए न्यूयॉर्क टाइम्‍स के फ्रंट पेज पर मनीष सिसोदिया की शिक्षा नीति को जगह मिली है इसलिए मोदी सरकार डर गई है। मनीष सिसोदिया की शिक्षा नीति विश्‍व में सर्वोत्तम है। 
भ्रष्‍टाचार की बात पर ये दूसरे दलों का भ्रष्‍टाचार गिनाने लगते हैं। बेशक दूध का धुला कोई नहीं लेकिन जिस तरह नमक से नमक नहीं खाया जा सकता, उसी तरह दूसरे को भ्रष्‍ट बताकर अपना भ्रष्‍टाचार उचित नहीं ठहराया जा सकता। 
जिस पार्टी को अभी राष्‍ट्रीय पार्टी तक का दर्जा हासिल नहीं है, उसके कर्ता-धर्ता ढिंढोरा पीट रहे हैं कि 2024 में प्रधानमंत्री पद के लिए अरविंद केजरीवाल सीधे नरेंद्र मोदी मुकाबले में आ खड़े हुए हैं इसलिए मोदी सरकार सीबीआई के छापे पड़वा रही है। 
अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और राघव चड्ढा जैसे आम आदमी पार्टी के नेता संभवत: यह मान बैठे हैं कि न्यूयॉर्क टाइम्‍स में खबरें छपवाकर वह एक ओर जहां विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद की उम्‍मीवारी हासिल कर लेंगे, वहीं दूसरी ओर केंद्र की सत्ता उतनी ही आसानी से प्राप्‍त कर पाएंगे जितनी कि पंजाब की प्राप्‍त कर ली थी। 
राजनीति में आए हैं तो सत्ता के ख्‍वाब देखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन सूरज की ओर ऊपर मुंह करके थूकने से सूरज तक नहीं पहुंचा जा सकता। वो थूक खुद के थोबड़े पर ही आकर गिरता है, यह सर्वविदित है। चेहरे पर कालिख लगी हो तो शीशा साफ करने से काम नहीं चलता।
राजनीति में कोई व्‍यक्‍ति या कोई दल अजेय नहीं होता। उत्‍थान और अवसान एक सतत प्रक्रिया है और उससे हर एक को गुजरना होता है, किंतु आम आदमी पार्टी के नेताओं की प्रॉब्‍लम यह है कि वो कुएं को तालाब नहीं, समुद्र समझ बैठे हैं। 
दिल्‍ली और पंजाब जीतकर वो समझ रहे हैं कि वो देश ही नहीं, दुनिया के ऐसे नायाब हीरे हैं जिनकी चमक ने सबको चौंधिया दिया है। रसोली अपनी आंखों में हैं और दोष दूसरे में ढूंढ रहे हैं। 
तमाम बुध्‍दिजीवी समय-समय पर ये सलाह देते रहे हैं कि यदि किसी को जरूरत से ज्‍यादा अभिमान हो जाए तो उसे अपनी जड़ों की ओर देख लेना चाहिए। इससे भ्रम दूर होने में मदद मिल सकती है। 
बेहतर होगा कि अन्‍ना के आंदोलन की उपज आम आदमी पार्टी के नेता एकबार फिर अन्‍ना की शरण में जाकर बैठें और उनसे पूछें कि क्या वो हर किस्‍म के आरोप-प्रत्‍यारोपों से परे हैं, क्या वो भ्रष्‍टाचार प्रूफ हैं, क्या वो कानून से ऊपर हैं। उम्‍मीद ही नहीं पूरा विश्‍वास है कि अन्‍ना उनके इस मुगालते को दूर कर देंगे। 
हो सकता है कि अन्‍ना अपने मंदिर के किसी कोने में ले जाकर इन्‍हें उनकी खोई हुई वो सूरत और सीरत भी दिखा दें जिसे सामने रखकर इन्‍होंने अन्‍ना को धोखा दिया और कभी राजनीति में न आने का वायदा करके राजनीति को ही पेशा बना लिया। 
रही बात दिल्‍ली की तो वो अभी बहुत दूर है। दिल्‍ली के अधीन होने में और दिल्ली हासिल करने में बहुत फर्क होता है। अलबत्ता 'तिहाड़' बहुत नजदीक नजर आ रही है। इसे जितनी जल्‍दी समझ लें, उतना अच्‍छा है। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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