सोमवार, 20 दिसंबर 2010

कामशास्‍त्र बनते प्रिंट और वेब अखबार

''मुन्‍नी के बदनाम होने'' या ''शीला के जवान होने'' की चिंता तो बहुतों को सता रही है लेकिन मीडिया जगत के कामशास्‍त्र बनते जाने की फिक्र किसी को नहीं। 
भारत की सुंदर देसी लड़कियों से गरमा-गरम दोस्‍ती और मजेदार बातें करने के लिए फोन करें- 0096097***** , 004179977****.  ( 24 घण्‍टे ) फ्री मैम्‍बरशिप। Sobana फ्रेंडशिप नेटवर्क ( रजि.) स्‍थानीय हाई सोसायटी स्‍मार्ट यंग स्‍त्री/पुरुष संग मनचाही मित्रता पाएं केवल 30 मिनट में (ऑल इण्‍िडया सर्विस)। लाइव चैट 24 घण्‍टे कॉल नॉउ ******************सच एण्‍ड सच नम्‍बर्स। चुलबुली बातें लाइव चैट 24 घण्‍टे कॉल नॉउ ******************सच एण्‍ड सच नम्‍बर्स।
ये उन क्‍लासीफाइड विज्ञापनों का मजमून है जो देश के अधिकांश मशहूर दैनिक अखबारों में आये दिन छपता रहता है।
रिफ्रेश होगी सेक्स लाइफ, कामसूत्र का पाठ, तस्‍वीरों में: वाइल्‍ड सेक्‍स के तरीके, तस्‍वीरों में टॉप 10 सेक्‍स गेम्‍स, तस्‍वीरों में सेक्‍स के 10 फायदे, महिलाओं को कैसे करें आकर्षित, बनायें सेक्‍स को रोचक और आनंदमय, 20, 30 और 40 की उम्र का सेक्‍स, यौन शक्‍ित कैसे बढ़ायें, पुरुषों को नापसंद हैं सात बातें यौन विस्‍तर में, नये रिश्‍ते में सेक्‍स सम्‍बन्‍ध के लिए सही समय।
ये कुछ प्रमुख नेट अखबारों के आर्टीकल्‍स की हेडिंग्‍स हैं। इनमें वो अखबार भी शामिल हैं जिनकी हार्ड कॉपीज यानी अखबार भी बड़े पैमाने पर छपते हैं। खुद को देश के शीर्ष अखबारों में शुमार करने वाले इन अखबारों के मालिकान व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा के चलते तथा अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर अभी और कितना नीचे गिरेंगे, यह बता पाना तो फिलहाल मुश्‍िकल है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है समाचार पत्रों को इन्‍होंने जैसे ''कामशास्‍त्र'' बनाकर रख दिया है।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

when british soldiers leaving india

बनारस ब्‍लास्‍ट..ध्‍यान बांटने की कोशिश!

लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
बनारस के शीतला माता घाट पर आतंकियों द्वारा किये गये बम विस्‍फोट के बाद किसी युवक ने सोशल नेटवर्किंग साइट 'फेसबुक' पर लिखा कि कहीं ये ब्‍लास्‍ट भ्रष्‍टाचार से घिरे नेताओं ने जनता का ध्‍यान बांटने के लिए तो नहीं कराया।
इसी प्रकार जब संसद पर आतंकी हमला हुआ और सुरक्षा बलों ने अपनी जान पर खेलकर उस हमले को विफल किया तो अधिकांश युवा यह कहते सुने गये कि काश !  सुरक्षा बल आतंकियों को अंदर घुस जाने देते।
बेशक ये दोनों ही टिप्‍पणियां गैरजिम्‍मेदारी का परिचय देती हैं लेकिन इनसे एक बात का पता जरूर लगता है कि देश की जनता और विशेषकर युवा वर्ग उन लोगों से किस कदर आजिज आ चुका है जो खुद को देश का कर्णधार तथा भाग्‍यविधाता कहते हैं। 
यदि देखा जाए तो यह एक संदेश भी है कि स्‍वतंत्र भारत का युवा क्‍या सोचता है और वह किस मन: स्‍थति में जी रहा है। युवाओं की इन टिप्‍पणियों के गूणार्थ समझना यूं भी जरूरी है कि भारत को युवा देश माना जा रहा है यानि वो देश जिसकी कुल जनसंख्‍या में सबसे ज्‍यादा संख्‍या युवाओं की है।
संसद पर हमले को एक लम्‍बा अरसा गुजर गया लेकिन बनारस का बम ब्‍लास्‍ट हाल का है इसलिए फिलहाल यदि वहीं की बात करें तो अब सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या भ्रष्‍टाचार ने वाकई देश के हालात इतने खराब कर दिये हैं कि युवक ऐसा सोचने को बाध्‍य है ?
इस प्रश्‍न का उत्‍तर 'हां' में मिलता है क्‍योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के चारों स्‍तंभों से भ्रष्‍टाचार की 'बू' आने लगी है। संवैधानिक तीनों स्‍तंभ यानि विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका में से विधायिका व कार्यपालिका तो काफी पहले भ्रष्‍ट हो चुके थे। यह भी कह सकते हैं कि वह कभी ईमानदार रहे ही नहीं। बाकी बची थी न्‍यायपालिका, तो वह भी अब अछूती नहीं रही। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ऐसे ही नहीं कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ सड़ रहा है। उधर सुप्रीम कोर्ट में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं है। 
चौथा और गैर संवैधानिक स्‍तंभ कहलाता है मीडिया। गैर संवैधानिक होते हुए लोकतंत्र में मीडिया की एक अहम् व सशक्‍त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वह भूमिका जिसके कारण मीडिया का महत्‍व कभी कम नहीं हुआ और जिसके कारण तीनों संवैधानिक स्‍तंभ उसे अहमियत देने के लिए मजबूर रहे।
यह मीडिया भी भ्रष्‍टाचार की दलदल में बड़ी तेजी के साथ समा रहा है। पहले तो पेड न्‍यूज़ ने और अब स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने मीडिया में भ्रष्‍टाचार को रेखांकित किया है लिहाजा सबका ध्‍यान इस ओर गया।
अब जबकि चारों स्‍तंभों को भ्रष्‍टाचार का घुन लग चुका हो और किसी भी देश का भविष्‍य कहलाने वाले युवाओं के भविष्‍य पर गहरा सवालिया निशान लगा हो, तो युवा सोचेगा भी क्‍या।
वह यही सोच सकता है क्‍योंकि उसे यह सब सोचने पर लगभग मजबूर किया जा रहा है।
बनारस के शीतला माता घाट पर किये गये बम विस्‍फोट से हालांकि बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि आतंकी आखिर बार-बार हमारे यहां ब्‍लास्‍ट कर हमारी संप्रभुता को खुली चनौती दे रहे हैं और हम आज तक उनके रहमोकरम पर जिंदा हैं।
यही कारण है कि लोग आज पूछ रहे हैं- बनारस के बाद कहां ? उन्‍हें सरकार से कहीं अधिक आतंकियों के नेटवर्क पर भरोसा है। उन्‍हें मालूम है कि सरकार अभी तक ऐसा कोई तंत्र खड़ा नहीं कर पायी है जो आतंकवादियों की प्‍लानिंग का उसके अंजाम तक पहुंचने से पहले पता लगा सके।
सरकार प्रदेश की हो या देश की, उसे आतंकियों के बावत जो जानकारियां मिलती भी हैं वो इतनी मामूली होती हैं जिनके आधार पर किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जा सकता।
संभवत: इसीलिए बनारस ब्‍लास्‍ट के बाद केन्‍द्र और प्रदेश सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप में उलझी हैं जबकि ब्‍लास्‍ट करने वालों का कोई सुराग नहीं लगा। जिनके ऊपर कानून-व्‍यवस्‍था का निर्वहन करने की जिम्‍मेदारी है, वह अंधेरे में तीर चला रहे हैं। वोट की राजनीति के लिए आजमगढ़ में दबिश न देने की हिदायत दे रहे हैं। दलील दी जा रही है कि आजमगढ़ को बदनाम किया जा रहा है। इनसे कोई ये पूछने वाला नहीं है कि विस्‍फोट करने वालों के तार आजमगढ़ से जुड़े होने की सूचना आम पब्‍िलक ने नहीं दी। ये सूचना भी सरकारी तंत्र ने ही दी। फिर आजमगढ़ में दबिश देने से मनाही क्‍यों ? सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि एक खास तबके का वोट बैंक उसकी वजह से प्रभावित न हो।
नेताओं के लिए राष्‍ट्रहित कोई मायने नहीं रखता, यह एक आम धारणा बन चुकी है। यह धारणा यूं ही नहीं बनी, इसके पीछे कुछ खास कारण हैं। सब जानते हैं कि जब कभी कोई आतंकी वारदात देश के अंदर कहीं होती है तो आतंकियों तक पहुंचने की बजाय सारा तंत्र इस बहस में उलझ जाता है कि वारदात को अंजाम देने वाले किस तबके से थे। वो हिंदू थे या मुसलमान। सिख थे या ईसाई। कोई यह नहीं सोचता कि वो किसी वर्ग से हों समाज, देश व मानवता के अपराधी हैं। उनकी पहचान किसी समुदाय से नहीं, उनके अपराध से की जानी चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं। बस इसीलिए आज यह पूछा जा रहा है कि बनारस के बाद कहां ?
बात सही भी है क्‍योंकि कोई आतंकी वारदात आखिरी साबित नहीं होती। मुंबई पर किये गये आतंकी हमले के बाद यह माना जा रहा था कि सरकार शायद अब ऐसे कुछ मुकम्‍मल इंतजामात करेगी कि कोई आतंकी संगठन कहीं किसी वारदात को अंजाम नहीं दे पायेगा लेकिन यह विश्‍वास टूट गया।
जब आतंकवादी किसी एक जगह को बार-बार टारगेट बना सकते हैं तो उनके लिए किसी नई जगह पर वारदात करना और भी आसान है। बनारस को फिर टारगेट बनाकर उन्‍होंने यह संदेश दिया है कि वह जब चाहें और जहां चाहें, अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे सकते हैं। रही बात किसी नई जगह की तो कहीं भी कुछ करने को स्‍वतंत्र हैं।
जिन प्रमुख स्‍थानों पर आतंकी साया मंडराने की सूचनाएं मिलती रहती हैं, उनमें मथुरा तथा आगरा शामिल हैं। अब अगर बात करें यहां की सुरक्षा-व्‍यवस्‍था को लेकर तो वह कृष्‍ण जन्‍मभूमि, मथुरा रिफाइनरी तथा ताजमहल तक सीमित है। इसके बाद सब भगवान भरोसे हैं।
मथुरा हो या आगरा, कहीं के जिला प्रशासन को न तो यह मालूम है कि उनके जिलों में कितने मोबाइल उपभोक्‍ता हैं। कितने पोस्‍टपेड कनैक्‍शन हैं और कितने प्रीपेड। उनकी आइडेंटिटी सही है या फर्जी।
यहीं नहीं, पुलिस तथा प्रशासन को तो यह तक नहीं मालूम कि इन दो अति संवेदनशील जिलों में कितने साइबर कैफे हैं और कितने लोग व्‍यक्‍ितगत रूप से इंटरनेट का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जो इंटरनेट यूजर हैं, उनका पेशा क्‍या है।
इन हालातों में किसी के भी द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाना बहुत मामूली बात है। फिर सांप जब डस कर निकल जाता है तब लकीर पीटने की औपचारिकता निभाई जाती है। वो भी तब तक जब तक आम पब्‍िलक का गुस्‍सा ठण्‍डा नहीं पड़ जाता। विरोधियों के तीर चलने बंद नहीं हो जाते। जैसे ही आक्रोश ठण्‍डा पड़ने लगता है, लकीर पीटने की कवायद भी बंद कर दी जाती है। शायद इस इंतजार में कि जब अगली बारदात होगी, तब देखा जायेगा।
शासन-प्रशासन की इसी मानसिकता के कारण संभवत: कोई आतंकी वारदात, आखिरी वारदात साबित नहीं होती।
संभवत: यही वो वजह है जो युवाओं को ऐसा कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है कि कहीं बनारस का ब्‍लास्‍ट नेताओं ने ही जनता का ध्‍यान भ्रष्‍टाचार व महंगाई जैसी लाइलाज समस्‍याओं से हटाने के लिए तो नहीं कराया।
युवाओं की इस सोच को गैरजिम्‍मेदाराना भले ही मान लिया जाए लेकिन पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता क्‍योंकि आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूब चुके हमारे तंत्र का किसी भी हद तक गिर जाना, आश्‍चर्य की बात नहीं रह गई। वह निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी कर और करा सकते हैं। किसी भी हद तक जा सकते हैं। वो दंगे-फसाद करा सकते हैं तो बम ब्‍लास्‍ट भी करा सकते हैं।
वो देश का पैसा लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर सकते हैं तो पैसे की खातिर विदेशी एजेंट भी बन सकते हैं। ऐसे उदाहरण सामने हैं।
फिर कैसे तो जनता यह भरोसा करे कि नेता चाहे कुछ भी कर लें लेकिन देश की संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेंगे। वह कैसे मान ले कि बनारस का ब्‍लास्‍ट आखिरी ब्‍लास्‍ट साबित होगा।
अगर आज कोई युवा फेसबुक पर यह लिख रहा है कि बनारस में ब्‍लास्‍ट आतंकियों की बजाय नेताओं ने तो नहीं कराया, तो इसमें युवक का क्‍या दोष ?

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

दलालों का देश या देश के दलाल ?


 
विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र में घोटालों की जो श्रृंखला बन चुकी है, उसे देखकर ऐसा महसूस होता है कि या तो ईमानदारी और बेईमानी की परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी या फिर भ्रष्‍टाचार को लेकर अपनी सोच को ज्‍यादा उदार बनाना होगा।
घोटालों के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी लकीर खींचने वाले 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने भ्रष्‍टाचार के बावत एक प्रकार की अघोषित बहस छेड़ दी है। इस बहस का मूल मुद्दा यह है कि आखिर भ्रष्‍टाचार कहते किसे हैं और भ्रष्‍ट आचरण के मानदण्‍ड क्‍या हैं ?
बहस में पड़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाला है क्‍या और इसे किस तरह अंजाम दिया गया।
सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 1.77 लाख करोड़ रुपये का है। सीएजी ने यह आंकड़ा निकालने के लिए 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन और मोबाइल कंपनी एस-टेल के सरकार को दिए प्रस्तावों को आधार बनाया है।
दूरसंचार की रेडियो फ्रिक्वेंसी को सरकार नियंत्रित करती है और अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीए) से तालमेल बनाकर काम करती है। दुनिया में आई मोबाइल क्रांति के बाद कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। सरकार ने हर कंपनी को फ्रिक्वेंसी रेंज यानी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर लाइसेंस देने की नीति बनाई। उन्नत तकनीकों के हिसाब से इन्हें पहली जनरेशन (पीढ़ी) अर्थात 1जी, 2जी और 3जी का नाम दिया गया। हर नई तकनीक में ज्यादा फ्रिक्वेंसी होती है और इसीलिए टेलीकॉम कंपनियां सरकार को भारी रकम देकर फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस लेती हैं।
सीएजी रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने 2008 में नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन किया। इसके लिए उनके विभाग ने 2001 में आवंटन के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को आधार बनाया, जो काफी पुरानी तथा आज के संदर्भ में औचित्‍यहीन थी। उन्होंने इसके लिए नीलामी के बिना ही पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर आवंटन किए। इससे 9 कंपनियों को काफी लाभ हुआ। प्रत्येक को केवल 1651 करोड़ रुपयों में स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए जबकि हर लाइसेंस की कीमत 7,442 करोड़ रुपयों से 47,912 करोड़ रुपये तक हो सकती थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस नीलामी का आवंटन
हालांकि दूरसंचार विभाग ने पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किया, लेकिन इसमें भी अनियमितताएं कर कुछ कंपनियों को सीधा लाभ पहुंचाया। कुल 122 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस अयोग्य और अपात्र कंपनियों को दिए गए। लाइसेंस आवंटन में कानून मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के सुझावों को भी ताक पर रख दिया गया।
सीएजी ने 1.77 लाख करोड़ का आंकड़ा निकालने के लिए दो तथ्यों को आधार बनाया। उन्होंने इस साल 3जी आवंटन में मिली कुल रकम और 2007 में एस-टेल कंपनी द्वारा लाइसेंस के लिए सरकार को दिए प्रस्ताव के आधार पर यह नतीजा निकाला। सीएजी के अनुसार 122 लाइसेंस के आवंटन में सरकार को जितनी रकम मिली, उससे 1.77 लाख करोड़ रुपए और मिल सकते थे। कहने का तात्‍पर्य यह है कि 1.77 लाख करोड़ रुपये कम लिये गये इसीलिए यह घोटाला 1.77 लाख करोड़ रुपयों का माना गया।
जाहिर है कि ये सब अनियमितताएं यूं ही नहीं बरती गयी होंगी। ऐसा करने के पीछे कुछ खास निजी मकसद जरूर रहे होंगे और उन्‍हें स्‍पेक्‍ट्रम के आवंटन से पहले अथवा बाद में पूरा किया गया होगा। उक्‍त खास और निजी मकसद का इल्‍म सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाने वाले याची द्वारा दी गयी कुछ जानकारियों से हो रहा है। उसने याचिका के माध्‍यम से जानना चाहा है कि 18 अक्टूबर 2007 को अनिल अंबानी की कंपनी टाइगर ट्रस्टी ने किसी विदेशी कंपनी को अपने 50 लाख शेयर ट्रांसफर किए, जबकि कंपनी के बैंक अकाउंट में एक हजार करोड़ रु. थे। सीबीआई ने यह जानने की कोशिश नहीं की है कि यह शेयर किसे ट्रांसफर किए गए। यही नहीं, याचिकाकर्ता द्वारा दी गयी ठोस जानकारी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआई द्वारा अक्टूबर 2009 में दर्ज एफआईआर पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। 1.77 लाख करोड़ रुपए के इस घोटाले में लाभ कमाने वाली दो कंपनियों का सीवीसी की रिपोर्ट में नाम था, लेकिन सीबीआई की एफआईआर में उन्हें शामिल नहीं किया गया। दो कंपनियों को 1500-1600 करोड़ रुपए में स्पेक्ट्रम दिया गया, जबकि कुछ दिन बाद ही इसके लिए छह हजार करोड़ रुपए वसूले गए। सीबीआई ने सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर अज्ञात लोगों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया था।
इतना सब कुछ हो गया और सरकार का मुखिया गांधी जी के तीनों बंदरों की सीख को आत्‍मसात कर हाथ पर हाथ रखे बैठा रहा। उसने न कुछ देखा, ना सुना और ना बोला। इस सब के बावजूद संप्रग की अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस के घोषित राष्‍ट्रीय महासचिव व अघोषित युवराज राहुल गांधी आज प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बचाव कर रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्‍टाचार सिर्फ रिश्‍वत खाने तक सीमित है। भ्रष्‍टाचार की शिकायतों को लगातार अनदेखा करना, उन पर कोई टिप्‍पणी तक ना करना और कानों में तेल डालकर सोते रहना सोनिया व राहुल के मुताबिक भ्रष्‍टाचार नहीं है।
सोनिया गांधी द्वारा मनमोहन सिंह पर लग रहे आरोपों को शर्मनाक बताने का कुल जमा निष्‍कर्ष तो यही निकलता है कि किसी सरकार का मुखिया अपनी नाक के नीचे लाखों करोड़ का घोटाला होते देखकर भी केवल इसलिए ईमानदार है क्‍योंकि उसने खुद रिश्‍वत नहीं खायी।
अगर ईमानदारी ऐसी किसी कमजोरी का नाम है जो अपनी आंखों के सामने हो रही बेईमानी के खिलाफ मुंह खोलने की इजाजत नहीं देती तो निश्‍चित ही वो ईमानदारी, बेईमानी से भी बदतर है और ऐसा ईमानदार आदमी, बेईमानों से भी गया-गुजरा है।
2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले में किस-किस की भूमिका रही और यह भूमिका किस स्‍तर की थीं, यह तो आगे आने वाला वक्‍त ही बतायेगा लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि 1.77 लाख करोड़ रुपए का यह घोटाला न तो रातों-रात हुआ है तथा ना ही इसे अकेले ए. राजा ने अंजाम दिया है।
अभी तक इस मामले का जो आंशिक सच सामने आ पाया है, उससे साबित होता है कि देश इस समय स्‍वतंत्रत भारत के सर्वाधिक संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसा लगता है जैसे इस देश की कमान राजनीतिक पार्टियों या उनके नेताओं के हाथ में न होकर दलालों के हाथ में है और वही राज कर रहे हैं। यहां ना डेमोक्रेसी कायम है और ना ब्‍यूरोक्रेसी, यहां अगर कुछ कायम है तो वह है हिप्‍पोक्रेसी। जो जितना बड़ा हिप्‍पोक्रेट, वह उतना सफल इंसान।
हिप्‍पोक्रेट्स की इस जमात में एक तबका बड़ी शिद्दत तथा तेजी के साथ और जुड़ा है, और यह तबका है मीडियाकर्मियों का। वह मीडियाकर्मी जिन्‍हें अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर किसी के भी ऊपर कीचड़ उछालने का लाइसेंस मिला हुआ है। वह मीडियाकर्मी जो खुद को लोकतंत्र का सच्‍चा 'पहरुआ' कहते हैं लेकिन हकीकत में वह उसके लिए कलंक बन चुके हैं। एनडीटीवी की ग्रुप एडीटर बरखा दत्‍त और हिंदुस्‍तान टाइम्‍स के एडीटोरियल एडवाइजर वीर सिंघवी का नाम कार्पोरेट दलाल नीरा राडिया के साथ सार्वजनिक हो ही चुका है। अभी और ऐसे कितने नाम सामने आयेंगे, यह तो फिलहाल भविष्‍य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इलैक्‍ट्रॉनिक पत्रकारिता व इसके पॉलिश्‍ड पत्रकारों ने मीडिया को गर्त तक ले जाने का काम बखूबी किया है।
ये वो लोग हैं जो आज तक छोटे शहरों और कस्‍बों में खुद इन्‍हीं के लिए काम करने वाले स्‍ट्रिंगर्स को जर्नलिज्‍म का कोढ़ तथा दलाल प्रचारित करते रहे हैं जबकि कड़वा सच यह बखूबी जानते हैं। ये और इनके मालिकान खूब जानते हैं कि दिन-रात एक करके और जान हथेली पर लेकर काम करने वाले स्‍ट्रिंगर इनसे उतना पैसा भी नहीं पाते जितने में अपनी भागदौड़ का खर्चा पूरा कर सकें। घर-परिवार चलाने की तो सोचना तक बेमानी है। इन हालातों में वह कैसे और क्‍यों काम करते हैं, इस सच्‍चाई से भी कोई मीडिया व्‍यवसायी अनभिज्ञ नहीं होता। अगर यह कहा जाए कि मीडिया तथा मीडियाकर्मियों को भ्रष्‍ट बनाने में सबसे बड़ी भूमिका मीडिया व्‍यवासाइयों की है तो कुछ गलत नहीं होगा।
बहरहाल, 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने एक बात पूरी तरह साफ कर दी है कि इस देश के अंदर बह रही भ्रष्‍टाचार की गंगा में हर कोई हाथ धोने को बेताब है। फर्क है तो केवल इतना कि कोई हाथ धोकर तमाशबीन बना बैठा है और कोई किनारे बैठा मौके की तलाश कर रहा है।
लोकतंत्र के तीनों घोषित स्‍तंभ विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका पर तो भ्रष्‍टाचार के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब एकमात्र अघोषित स्‍तंभ 'पत्रकारिता' भी
इसमें न केवल शामिल हो चुका है बल्‍िक इनके लिए मध्‍यस्‍थ तथा लायजनर का काम कर रहा है।
इन हालातों में विचारणीय प्रश्‍न यह है कि जब 'मेढ़' ही 'खेत' को खाने पर आमादा हो तो वह खेत बचेगा कैसे और कब तक बचेगा। देश की अर्थव्‍यवस्‍था पर सीधी चोट करने वालों का बचाव यदि इसलिए किया जायेगा कि किसी भी प्रकार सरकार चलती रहे, यदि इसलिए एक प्रधानमंत्री अपने ही बेईमान मंत्रियों को खुली लूट करते देखता रहेगा कि वह कथित रूप से ईमानदार है तो उस देश को कितने समय तक बचाया जा सकता है। सरकारी खजाना किसी राजनीतिक पार्टी या सत्‍ताधारी दल की निजी सम्‍पत्‍ति नहीं होता। उस पर एकमात्र अधिकार जनता का है। उस खजाने को सुरक्षित ना रख पाने वाला, उसमें सेंध लगाने वाला तथा उसको नुकसान पहुंचाने वाला व्‍यक्‍ित जितना दोषी है, उतना ही दोषी वह व्‍यक्‍ित भी है जो जिम्‍मेदार पद पर रहते हुए चुपचाप यह सब देख रहा हो। तल्‍ख सच्‍चाई तो यह है कि वह उस पद पर रहने का हकदार ही नहीं है क्‍योंकि किसी की ईमानदारी अगर उसके लिए कमजोरी बन जाए तो न ऐसी ईमानदारी किसी काम की और ना ऐसा व्‍यक्‍ित।
देश इस समय ऐसे संक्रमण काल से गुजर रहा है जहां कुछ कठोर निर्णय लेने ही होंगे क्‍योंकि यदि अब भी वो निर्णय नहीं लिये गये तो हम निर्णय लेने लायक भी नहीं रहेंगे।
खोखली तरक्‍की के जिस सोपान पर चढ़कर हम इतरा रहे हैं, वह हमें एक झटके में किसी भी वक्‍त रसातल दिखा सकता है।
मैंने सुना है कि किसी देश में मैडम ट्रेसा द्वारा स्‍थापित ''चैम्‍बर ऑफ हॉरर्स'' नामक एक अनोखा अजायबघर था। इस अजायबघर में उसके नाम को सार्थक करती हुई भयानक वस्‍तुओं का संग्रह था।
अगर हमारे देश में सब-कुछ इसी प्रकार चलता रहा और देश को लूटने वाले तथा उसे लुटते देखने वाले अपने-अपने पक्ष में दलीलें देकर एक-दूसरे को इसी तरह जिम्‍मेदार ठहराते रहे तो मुझे पूरा यकीन है कि शीघ्र ही एक चैम्‍बर ऑफ हारर्स नामक अजायबघर हमारे यहां भी कायम किया जायेगा। इस अजायबघर में हमारे मंत्रियों और नेताओं की मूर्तियां स्‍थापित होंगी ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां यह जान सकें कि कभी भारत को कैसे-कैसे जीव-जंतु चलाते थे।
आने वाले युग के छात्रों को अध्‍यापक इन मंत्री व नेताओं की मूर्तियां दिखाकर इस बेईमान व भ्रष्‍ट दौर की दास्‍तां सुनायेंगे और बतायेंगे कि किस तरह के अकर्मण्‍य लोग सत्‍ता पर काबिज थे।
अध्‍यापक उन बच्‍चों को बतायेंगे कि सच्‍चाई व सिद्धांत पर दृढ़ रहना ऐसे अवगुण थे जिनसे ये मंत्री पद के भूखे महापुरुष हमेशा दूर रहते थे और उसी के सिर पर सेहरा बंधता था जो सच्‍चाई का पूरी तरह गला घोंट सके तथा जिस सिद्धांत पर खड़ा है, उसी की पीठ में छुरा घोंप सके।
निश्‍चित ही आने वाले युग के ये विद्यार्थी आश्‍चर्य करेंगे कि देश चलाने वाले जिन लोगों को बुद्धि की सबसे अधिक जरूरत थी, वही इस दृष्‍टि से सर्वथा शून्‍य थे।
उन्‍हें ऐसी जनता पर भी आश्‍चर्य होगा जो शेर की खाल ओढ़कर देश को पूरी तरह बर्बाद करने वाले इन गीदड़ों से शासित होती रही। 

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