मंगलवार, 26 मई 2020

डूबने के कगार पर ‘नयति’, वेंटिलेटर‍ तक पहुंचा ‘नीरा राडिया’ का मल्टी सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल

28 फरवरी 2016 को नयति हॉस्‍पिटल का उद्घाटन करते उद्योगपति रतन टाटा, साथ हैं चेयरपरसन नीरा राडिया
बहुत दिन नहीं हुए जब देश के प्रमुख उद्योगपति रतन टाटा ने ”2G स्‍पैक्‍ट्रम” घोटाला फेम और ”पनामा लीक्‍स” चर्चित महिला लाइजनर ”नीरा राडिया” के हॉस्‍पिटल ‘नयति’ का मथुरा में भव्‍य उद्घाटन किया था।

राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर- 2 के किनारे बने इस हॉस्‍पिटल के प्रमोटर्स में चार्टर्ड एकाउंटेंट दीनानाथ चतुर्वेदी के पुत्र राजेश चतुर्वेदी का नाम भी शामिल है। दीनानाथ चतुर्वेदी मूल रूप से मथुरा के ही निवासी हैं।


अब बताते हैं कि खोटी नीयत के चलते ‘नयति’ ही अपनी ‘नियति’ के करीब है और वेंटिलेटर‍ पर पहुंच चुका है।
रविवार 28 फरवरी 2016 को नयति के उद्घाटन समारोह में पद्म विभूषण रतन टाटा ने कहा था कि इसके पीछे व्यक्तिगत बलिदान के साथ समाज सेवा का एक जुनून है और सच्ची चाहत है।
नयति हेल्थकेयर की चेयरपरसन नीरा राडिया ने भी कहा था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को उनके क्षेत्र में ही विश्वस्तरीय स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा प्रदान करने का अवसर हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
हमारा उद्देश्य छोटे शहरों में मरीजों को उपचार की सुविधा प्रदान कर आम लोगों पर बीमारी की वजह से पड़ने वाले शारीरिक, भावनात्मक और आर्थिक बोझ को कम करना है।
नयति द्वारा विधिवत् काम शुरू कर देने के बाद पता लगा कि मथुरा के लोगों की सेवा करने तथा उन्‍हें अत्‍याधुनिक सुविधाएं मुहैया कराने के प्रचार सहित खोले गए इस हॉस्‍पिटल में चिकित्‍सा काफी महंगी है और जनसामान्‍य के लिए तो वहां उपचार कराना संभव ही नहीं है।
देखते-देखते नयति से ऐसी खबरें भी बाहर आने लगीं कि वहां लोगों से पैसे वसूलने के लिए वो सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, जिनके लिए दूसरे मशहूर अस्‍पताल पहले से बदनाम हैं।
मसलन मरीज की नाजुक स्‍थिति का हवाला देकर मोटी रकम जमा करा लेना, विशेषज्ञ चिकित्‍सकों की आड़ में मनमानी फीस वसूलना, पैसा जमा करने में जरा सी भी देरी हो जाने पर मरीज व उसके परिजनों के साथ अभद्र भाषा का प्रयोग करना तथा कैजुअलिटी हो जाने पर पूरा बिल वसूल किए बिना ‘लाश’ तक पर कब्‍जा कर लेना आदि।
मात्र चार साल में नयति और उसकी खोटी नीयत एक-दूसरे के पूरक बन गए, नतीजतन आए दिन झगड़े होना और बात पुलिस-प्रशासन तक पहुंचना आम बात हो गई।
हालांकि ऊंची पहुंच और मथुरा से लेकर लखनऊ और दिल्‍ली तक शासन एवं प्रशासन में गहरी पैठ होने के कारण पीड़ितों को हर बार मुंह की खानी पड़ी।
नीरा राडिया के हाईप्रोफाइल स्‍टेटस का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रमुख मीडिया संस्‍थान भी उसके या नयति के खिलाफ एक शब्‍द लिखने अथवा बोलने की हिमाकत नहीं करते।
मौके-बेमौके प्रमुख अखबारों में नयति के छपने वाले बड़े-बड़े विज्ञापन और उसकी प्रशंसा में लिखे जाने वाले समाचार यह समझाने के लिए काफी हैं कि कोई ऐरा-गैरा तो क्‍या, विशिष्‍ट कहलाने वाले लोग भी नयति की शान में गुस्‍ताखी करने वाला समाचार नहीं छपवा सकते।
बेशक कुछ मीडियाकर्मी समय-समय पर नयति के कारनामों को उजाकर करने की हिम्‍मत दिखाते रहे हैं किंतु उन्‍हें उसकी कीमत कभी लीगल नोटिस के जरिए तो कभी ब्‍लैकमेलर प्रचारित करके चुकानी पड़ी है।
मीडिया को साधने वाले नयति के जनसंपर्क विभाग की बात करें तो हर विवाद में हॉस्‍पिटल प्रशासन ही सही होता है और शिकायतकर्ता तथा पीड़ितों के परिजन गलत। शायद ही कभी किसी मामले में नयति के प्रबंधतंत्र ने ये स्‍वीकार किया हो कि चूक उनसे भी हो सकती है।
बहरहाल, हाल ही में नयति के अमानवीय आचरण से जुड़े ऐसे दो मामले फिर सामने आए हैं जिनमें मरीजों को जान गंवानी पड़ी है किंतु नयति ने इन दोनों मामलों में भी खुद को सही ठहराते हुए सारा दोष पीड़ित परिजनों के सिर थोप दिया है।
हॉस्‍पिटल से जुड़े अत्‍यंत भरोसमंद सूत्रों का कहना है कि सेवा की आड़ में मनमानी करने के नयति के रवैए की एक बड़ी वजह उसका जहाज डूबने की नौबत आना है।
सूत्रों के अनुसार नयति अब अपना ही बोझ ढो पाने में खुद को असहाय महसूस कर रहा है। कई बड़े डॉक्‍टर पिछले कुछ समय के अंदर नयति छोड़कर जा चुके हैं। स्‍टाफ को समय से वेतन न मिलना तथा तय वेतन में से कटौती करना आम बात हो गई है।
पांच साल से भी कम समय में ‘नयति’ की यह ‘नियति’ बताती है कि नीरा राडिया और उसके लोग चाहे कैसे भी दावे करें परंतु आम आदमी उसकी नीयत पहचान चुका है। यही कारण है कि किसी मरीज के ठीक होने का समाचार जहां नयति के प्रशासन को प्रेस विज्ञप्‍ति भेजकर छपवाना पड़ता है वहीं विवाद होने पर साम, दाम दण्‍ड भेद की नीति अपनाकर समाचारों को छपने से रोकना पड़ जाता है।
आगे आने वाले समय में नयति किस गति को प्राप्‍त होगा, इस बात को यदि ‘नियति’ पर छोड़ दिया जाए तो जरूरी है कि उसकी शुरूआत से लेकर अब तक उसके हर क्रिया-कलाप को जांच के दायरे में लाया जाए और पता किया जाए कि आखिर क्‍यों अत्‍याधुनिक उपकरणों से सुसज्‍जित कृष्‍ण की नगरी के इस हॉस्‍पिटल में जितने लोगों को जीवनदान नहीं मिला, उससे अधिक लोगों को अकाल मौत प्राप्‍त हुई?
नयति की स्‍थापना से लेकर अब तक वहां हुई मौतों का आंकड़ां यदि देखा जाए तो बहुत सी बातें खुद-ब-खुद साफ हो जाती हैं।
इस सबके बावजूद चूंकि कानूनी पहलुओं के लिए सबूतों की दरकार होती है इसलिए जरूरी है कि नयति के कारनामों की जांच किसी केंद्रीय एजेंसी से कराने की पुरजोर मांग ब्रजवासियों के स्‍तर से की जाए अन्‍यथा यदि नीरा राडिया का जहाज डूब भी गया तो चार वर्ष से अधिक समय में किए गए उसके कृत्‍यों का हिसाब अधूरा रह जाएगा।
ब्रजवासियों को चाहिए कि बाकायदा अभियान चलाकर नयति की नीयत सार्वजनिक करें और विभिन्‍न कारणों से आवाज उठाने में असमर्थ रहे लोगों को न्‍याय दिलाएं ताकि फिर कोई नीरा राडिया कृष्‍ण की नगरी के नागरिकों की भावनाओं का इतनी बेहरहमी के साथ दोहन न कर सके।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

सोमवार, 18 मई 2020

पत्रकारिता और पत्रकारों को समर्पित है यह आर्टिकल क्‍योंकि…

This article is dedicated to journalism and journalists because ...


अधिकांशत: पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग इस बात से क्षुब्‍ध रहता है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के अधीन कार्यरत जिला सूचना अधिकारी उन्‍हें तरजीह नहीं देते।
वो पत्रकारों के बीच न सिर्फ भेदभाव बरतते हैं बल्‍कि उन्‍हें बड़े और छोटे में विभक्‍त करते हैं। सतही तौर पर देखें तो उनकी यह पीड़ा जायज लगती है परंतु हकीकत कुछ और है।
हकीकत जानने के लिए पत्रकारों को एक ओर जहां पहले अपने अधिकार और कर्तव्‍य जानने होंगे वहीं दूसरी ओर ‘जिला सूचना अधिकारी’ के पद की वास्‍तविकता और सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के औचित्‍य को भी समझना होगा।
सबसे पहले तो पत्रकारों को अपने दिमाग से यह निकालना होगा कि जिला सूचना अधिकारी, कोई उनके ऊपर बैठा सरकारी अधिकारी है। सच तो यह है कि जिला सूचना अधिकारी उनसे है, वो जिला सूचना अधिकारी से नहीं हैं।
जिला सूचना अधिकारी देशभर में जिलाधिकारी के पीआरओ की भूमिका निभाते हैं इसलिए वो ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की कहावत को ही चरितार्थ करते हैं। उनसे इससे अधिक की अपेक्षा की भी नहीं जा सकती।
इसके अलावा पत्रकारों को उस दौर की रटी-रटाई पत्रकारिता से बाहर निकलना होगा जिसमें सूचना अधिकारी ही उसके पास सूचना का एकमात्र स्‍त्रोत हुआ करता था। आज हर पल विभिन्न माध्‍यमों से खबरें तैरती रहती हैं। जिला सूचना अधिकारी आपको उनमें से कोई सूचना देने के लिए अधिकृत भी नहीं है। यदि आप उनमें से विश्‍वसनीय खबरों का संकलन कर पाते हैं तो सूचना विभाग चलकर आपके पास आएगा, आपको सूचना विभाग का मुंह देखने की कभी जरूरत महसूस नहीं होगी।
जहां तक सवाल पत्रकारों को मान्‍यता देने अथवा दिलाने का है तो उसका लोभ भी पत्रकारों को छोड़ देना चाहिए क्‍योंकि आज खुद सूचना विभाग ही मान्‍यता का मोहताज है। जनसामान्‍य तो जानता तक नहीं कि जिले में कोई सूचना विभाग भी होता है और वो पत्रकारों को मान्‍यता दिलाता है। आम आदमी के लिए हर वो व्‍यक्‍ति पत्रकार के रूप में मान्‍य है जो उनके बीच काम करता है और उनकी समस्‍याओं को अपने माध्‍यम से उठाता है।
वो समय भी बीत गया जब सूचना विभाग अखबारों की कटिंग चिपकाकर ऊपर तक फाइल भेजा करता था। आज सूचना विभाग जब तक किसी कटिंग पर निशान लगाने की सोचता है, तब तक तो सोशल मीडिया के माध्‍यम से वो खबर शासन के हर वर्ग तक पहुंच चुकी होती है।
सोशल मीडिया के जमाने में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग और उसके अधीनस्‍थ कार्यरत जिला सूचना अधिकारी आउट डेटेड हो चुके हैं। जब तक उसे सरकार अपडेट नहीं करती तब तक उसका होना या न होना कोई मायने नहीं रखता। इनफेक्‍ट सूचना अधिकारी का पद औचित्‍यहीन हो गया है।
और हां, जो पत्रकार किसी सरकारी विभाग अथवा सरकार के अधिकारी से कोई मान-सम्‍मान पाने की अपेक्षा रखते हों तो उन्‍हें समझ लेना चाहिए कि सम्‍मान कभी किसी को भीख में नहीं मिलता।
सच तो यह है कि सूचना विभाग ही नहीं, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया भी अपना महत्‍व खो चुकी है। आज तक उसके दायरे में न इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया है और न वेब मीडिया या सोशल मीडिया।
जिस प्रिंट मीडिया के लिए उसका महत्‍व है, वो भी वेब मीडिया के बिना आज अधूरा है इसलिए प्रेस काउंसिल एक ऐसी अपूर्ण संस्‍था बनकर रह गई है जो सिर्फ अधिकार और कर्तव्‍यों की लकीर पीट रही है।
यूं भी यदि किसी पत्रकार पर कोई हमला होता है, या उसका किसी के द्वारा उत्‍पीड़न किया जाता है तो प्रेस काउंसिल के पास कोई दंडात्‍मक कार्यवाही करने का अधिकार पहले से नहीं है। उसके पास अधिकतम अधिकार संस्‍तुति करने का है, जिसे मानना या न मानना संबधित विभाग के अधिकारियों पर निर्भर करता है। और यदि पत्रकार न्‍यायालय की शरण में चला जाता है तो प्रेस काउंसिल के पास दखल देने का उतना अधिकार भी नहीं रह जाता।
आज से ठीक तीन साल पहले प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के तत्‍कालीन अध्‍यक्ष न्यायमूर्ति सीके प्रसाद ने कहा था कि सभी प्रकार की मीडिया को इस वैधानिक निकाय के दायरे में लाना चाहिए किंतु आज तक कुछ नहीं हुआ। इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया ने अपनी एक स्‍वयंभू संस्‍था का गठन किया हुआ है और वेब मीडिया के लिए तो डोमेन नेम तक अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर रजिस्‍टर्ड होता है। ऐसे में सूचना विभाग का उसके लिए कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इन परिस्‍थितियों में पत्रकारों को यदि मांग ही करनी है तो इस बात की करनी चाहिए कि सरकार या तो सूचना एवं जनसंपर्क विभाग को अपडेट करे या फिर उसे समाप्‍त कर दे।
इस आर्टिकल के साथ लगाया गया इजिप्‍ट के एक पेंटर का पत्रकारों एवं पत्रकारिता को रेखांकित एवं परिभाषित करता हुआ चित्र संभव है कि बहुत से पत्रकारों को समझ में न आए, लेकिन कोशिश जरूर कीजिए क्‍योंकि यदि समझ में आ गया तो अधिकारियों को आपसे शिकायत होगी, आपको अधिकारियों से नहीं।
– सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी





मंगलवार, 12 मई 2020

इनसे मिलिए… ये हैं मथुरा की ‘लॉकडाउन’ सांसद ‘हेमा जी’, परेशान हैं मदद कीजिए प्‍लीज!

इनसे मिलिए…. ये हैं फिल्‍मी दुनिया में ‘स्‍वप्‍न सुंदरी’ का खिताब प्राप्‍त ‘अभिनेत्री’ हेमा मालिनी। अपने ‘सौभाग्‍य’ और जनता के ‘दुर्भाग्‍यवश’ ये कृष्‍ण की नगरी मथुरा से ‘सांसद भी’ हैं। इनके सामने बैठे हैं महाराष्‍ट्र के राज्‍यपाल महामहिम भगत सिंह कोश्‍यारी जी।
लगातार दूसरी बार मोदी जी की मेहरबानी और कृष्‍ण की नगरी के लोगों की कृपा से लोकसभा पहुंचीं हेमा जी इन दिनों मुंबई स्‍थित अपने ‘घर’ में ‘लॉकडाउन’ हैं।
वैसे उनका एक घर वृंदावन (मथुरा) की ‘ओमेक्‍स सिटी’ में भी है लेकिन रहती वो जुहू (मुंबई) में ही हैं। यूं भी ओमेक्‍स सिटी का घर ‘दान की बछिया’ सरीखा है, इसलिए उसे जाने दीजिए।
यूं भी हेमा जी ने दूसरी बार चुनाव मैदान में उतरने से पहले ही कह दिया था कि ये उनका मथुरा से आखिरी चुनाव है इसलिए कोई ये नहीं कह सकता कि उन्‍होंने किसी को धोखे में रखा। अथवा मथुरा की जनता को गुमराह किया। अब जनता ही गुमराह हो जाए तो इसके लिए हेमा जी कहां कसूरवार हैं।
बात की धनी हेमा जी ने मथुरा जिले की सीमा में घर बनाने का वादा किया था, वो निभा दिया। सुख-दुख में “साथ रहने” का आश्‍वासन तो शायद उन्‍होंने कभी दिया नहीं था लिहाजा उसकी चर्चा अब क्‍यों।
दरअसल, लॉकडाउन में निठल्ले बैठे कुछ ‘विपक्षी दल’ टाइप के लोग ऐसी शिकायत कर रहे थे कि लॉकडाउन के दो टर्म पूरे हो गए और तीसरा भी पूरा होने को आया किंतु हमारी सांसद कहीं दिखाई नहीं दे रहीं।
विपक्षी टाइप के लोगों (चाहे वो अपनी पार्टी के ही क्‍यों न हों) का तो काम ही है मीन-मेख निकालना इसलिए निकालने लगे। लेकिन हेमा जी ठहरी दया की मूर्ति और करुणावतार, लिहाजा सहन नहीं हुए बेबुनियाद आरोप। जा बैठीं तुरंत महाराष्‍ट्र के राज्‍यपाल महोदय के सामने और कहने लगीं, मेरे मथुरा की जनता बहुत परेशान है। उनकी परेशानी मैंने ‘देखी तो नहीं है’ लेकिन ‘सुनी’ अवश्‍य है।
महामहिम जरा विचार कीजिए कि जिसे मात्र सुनकर ही मैं ”मुंबई से मुंबई तक” दौड़ी चली आई, उसे देख रहे और भोग रहे लोगों का क्‍या हाल होगा। कुछ कीजिए न।
खुद हेमा जी के शब्‍दों में बहुत से लोगों ने उन्‍हें फोन करके अपनी परेशानी बताई और पूछा कि उन्‍हें अगर मथुरा जाना है तो कैसे जाएं ?
माफ कीजिए, हेमा जी को कोई सपना नहीं आया था कि उनके संसदीय क्षेत्र से भी कुछ लोग महाराष्‍ट्र में रहते हैं और घर जाने के लिए परेशान हैं। वो भाजपा के वीआईपी कोटे से सांसद हुई हैं, कोई ऐरी-गैरी सांसद नहीं हैं जो खुद पता कर लें कि क्षेत्र के लोग किसी परेशानी में तो नहीं हैं।
पता करें भी क्‍यों, आज के जमाने में तो कोई वार्ड मेंबर या पार्षद नहीं पूछता क्षेत्र की जनता का हाल, फिर वो तो विशिष्‍ट सांसद हैं।
बहरहाल, अपने संसदीय क्षेत्र की जनता का दुख सुनकर हेमा जी इतनी द्रवित हो उठीं कि ‘लॉकडाउन की परवाह किए बिना और ‘मुंह पर मास्‍क’ भी लगाने की सुध-बुध न रखते हुए सीधे गवर्नर हाउस जा पहुंची। मास्‍क लगा लेतीं तो उनकी मुस्‍कुराहट का क्‍या होता। कैसे पता लगता कि आमलोगों का खास दुख भी वो कैसे हंसते-हंसते कटवा देती हैं।
राज्‍यपाल भगत सिंह कोश्‍यारी से मुस्‍कुराते हुए उन्‍होंने न सिर्फ महाराष्‍ट्र में रह रहे मथुरा के लोगों का दुख व्‍यक्‍त किया बल्‍कि मथुरा के अस्‍पतालों में एक गर्भवती महिला के साथ हुए दुर्व्‍यवहार का भी जिक्र किया। यकीन न हो तो नीचे स्‍वयं सुन लें अपने कानों से और हेमा जी के मुखारबिंद से

आपने सुन लिया होगा कि हेमा जी ने इस दौरान महाराष्‍ट्र के गवर्नर से महाराष्‍ट्र की भी बात की और देश से लेकर विदेशों तक में फैले मथुरा के लोगों को वापस भेजने का इंतजाम करने की बात कही।
हेमा जी को लगा कि उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ इसके लिए उपयुक्‍त नहीं रहेंगे क्‍योंकि उनसे फिलहाल मुलाकात कर पाना संभव नहीं होता। मुलाकात नहीं होती तो फोटो नहीं खिंचता, फोटो नहीं खिंचता तो न्‍यूज़ नहीं बनती। फोन पर वार्तालाप करने की बात कहकर न्‍यूज़ छपवाने में से वो वजन नहीं पड़ता जो सीधे गवर्नर साहब के साथ फोटो खिंचवाकर स्‍टेटमेंट जारी करने से पड़ा।
अब योगी जी को भी पता लग गया कि वो अकेले अपनी यूपी के मजदूरों को लेकर हलकान नहीं हुए जा रहे, मुंबई में लॉकडाउन हेमा जी भी उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगी हुई हैं। योगी जी अगर हेमा जी की एक आवाज पर मथुरा में होली खेलने आ सकते हैं तो क्‍या हेमा जी उनके लिए जुहू से गवर्नर हाउस नहीं जा सकतीं।
वो ये जानते हुए भी गईं कि अब उन्‍हें मथुरा से तीसरा चुनाव नहीं लड़ना। जुहू से गवर्नर हाउस कितने किलोमीटर दूर है, इसका अंदाज यदि विपक्षी टाइप के पार्टीजनों को होता तो वो ऐसी-वैसी बे-सिरपैर की बातें न करते। लॉकडाउन तोड़कर उतने किलोमीटर निकलना इतना आसान समझते तो निकलके दिखाओ न। हेमा जी पर उंगली मत उठाओ।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी 

शुक्रवार, 8 मई 2020

बहुत कुछ कहता है ‘कोरोना वॉरियर्स’ पत्रकार पंकज कुलश्रेष्‍ठ का ‘बलिदान’, श्रद्धांजलि देकर काम न चलाएं


Says a lot 'Corona Warriors' journalist Pankaj Kulshreshtha's 'sacrifice'

लगभग ढाई दशक से दैनिक जागरण में सेवारत और फिलहाल उप समाचार संपादक के तौर पर कार्यरत पत्रकार पंकज कुलश्रेष्‍ठ का कल देर शाम निधन हो गया। दैनिक जागरण के आगरा संस्‍करण में चौथे पन्‍ने पर छपे दो कॉलम वाले छोटे से समाचार के मुताबिक उनके कोरोना संक्रमित होने की पुष्‍टि 4 मई को हुई।
पंकज कुलश्रेष्‍ठ ‘मथुरा’ में भी करीब 8 साल दैनिक जागरण के ‘ब्‍यूरो चीफ’ रहे लिहाजा कृष्‍ण नगरी के लिए उनका नाम भली प्रकार जाना पहचाना था। यही कारण रहा कि दैनिक जागरण के मथुरा संस्‍करण में भले ही उनके निधन की खबर अगले दिन यानि ‘आज भी नहीं छपी’ और एक अन्‍य प्रमुख अखबार ने छापी भी तो कोरोना से मरने वालों की संख्‍या के साथ, बिना किसी परिचय के ढाई लाइन लिखकर। इस तरह दो प्रमुख अखबारों ने अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली और तीसरे ने इतना भी जरूरी नहीं समझा, किंतु मथुरा में विभिन्‍न माध्‍यमों से कल ही उनके निधन की सूचना सोशल मीडिया पर तैरने लगी थी।
यूं तो किसी भी पत्रकार का असमय जाना पत्रकार जगत को कभी नहीं चौंकाता क्‍योंकि पत्रकारिता का पेशा ही ऐसा है किंतु पंकज की मृत्‍यु जिन परिस्‍थितियों में हुई है, वो न सिर्फ ‘पत्रकारिता’ बल्‍कि बड़े-बड़े मीडिया संस्‍थानों और शासन-प्रशासन सहित पत्रकारों के उन तथाकथित संगठनों पर भी सवाल खड़े करती है जिनके पदाधिकारी विशुद्ध राजनेताओं की तरह आचरण करते हुए पत्रकारों के हितों की हिमायत का ढकोसला करते हैं।
आज भी बहुत कम लोग इस कड़वे सच से वाकिफ होंगे कि पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्‍तंभ सिर्फ ‘कहा जाता है’, क्‍योंकि उसे ऐसे कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्‍त नहीं हैं जैसे बाकी तीनों स्‍तंभों न्‍यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका को प्राप्‍त हैं।
देश ने पत्रकारों को पिछले 70 वर्षों से लोकतंत्र के ‘चौथे स्‍तंभ’ का ‘तथाकथित सम्‍मान’ एक झुनझुने की तरह थमा रखा है जिसे बजा-बजाकर वह यदा-कदा खुश हो लेते हैं। मजे की बात ये है कि वह झुनझुना भी ‘पत्रकारों’ के हाथ में न होकर मीडिया संस्‍थानों के हाथ में है जो किसी नजरिए से पत्रकार नहीं कहे जा सकते। वो ठीक उसी प्रकार विशुद्ध व्‍यापारी व उद्योगपति हैं जिस प्रकार कोई दूसरा व्‍यापारी अथवा उद्योगपति होता है और जिसके लिए उसके कारिंदे ‘कामगार’ होते हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो दिवतिया आयोग, शिंदे आयोग, पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाना आयोग और उसके बाद मजीठिया वेतन आयोग तक की सिफारिशें यूं जाया नहीं होतीं और तमाम बातों का स्‍वत: संज्ञान लेने वाला सर्वोच्‍च न्‍यायालय भी तमाशबीन बना न बैठा होता।
क्‍या कहती हैं इन आयोगों की सिफारिशें और सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों एवं समाचार एजेंसियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू करने का आदेश दिया और कहा कि वे अपने कर्मचारियों को संशोधित पे स्केल के हिसाब से भुगतान करें।
न्यायालय के आदेश के अनुसार यह वेतन आयोग 11 नवंबर 2011 से लागू होना था, जब इसे सरकार ने पेश किया था और 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 के बीच बकाया वेतन भी पत्रकारों को एक साल के अंदर चार बराबर किस्तों में दिया जाना था।
आयोग की सिफारिशों के अनुसार अप्रैल 2014 से नया वेतन लागू होना चाहिए था। तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई तथा जस्टिस एसके सिंह की बेंच ने इस आयोग की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं।
बेंच ने आयोग की सिफारिशों को वैध ठहराया और कहा कि सिफारिशें उचित विचार-विमर्श पर आधारित हैं इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इसमें हस्तक्षेप करने का कोई वैध आधार नहीं है।
बहरहाल, तमाम अखबारों के प्रबंधन मजीठिया आयोग के विधान, काम के तरीके, प्रक्रियाओं और सिफारिशों से नाखुश थे। इनका मानना था कि अगर इन सिफारिशों को पूरी तरह माना गया तो वेतन में एकदम से 80 से 100 फीसदी तक इजाफा करना पड़ सकता है और जिस कारण छोटे और कमजोर समूहों व कंपनियों पर तालाबंदी का अंदेशा बढ़ा सकता है। दलील यह भी थी कि अन्य उद्योगों की तुलना में प्रिंट मीडिया में गैर-पत्रकार कर्मचारियों को वैसे भी ज्यादा वेतन दिया जा रहा है। अगर सिफारिशें लागू की गईं तो वेतन में अंतर का यह दायरा और बढ़ जाएगा। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इनमें से किसी दलील को तवज्जो नहीं दी। साथ ही कहा कि यह केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि वह सिफारिशों को मंजूर करे या खारिज़ कर दे। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार ने कुछ सिफारिशें मंजूर नहीं कीं तो यह पूरी रिपोर्ट को खारिज़ करने का आधार नहीं है। इसके बाद मीडिया संस्‍थानों की रिव्यू पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दी।
मीडिया हाउसेस की चालबाजी से धूल फांक रहे आदेश-निर्देश
न्यायपालिका के इतने सख्त आदेश-निर्देशों के बावजूद मीडिया संस्थान इसे लागू नहीं कर रहे। 6 साल से ये आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं क्‍योंकि सिफारिशें लागू न करने के इनके पास अनेक हथकंडे जो हैं।
मसलन उनके खिलाफ कोर्ट में जाने वाले पत्रकारों का शोषण, कंपनी को छोटी यूनिटों में बांटना, कम आय दिखाना, कर्मचारियों से कांट्रैक्ट साइन करवाना कि उन्हें आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए। हालांकि मीडिया संस्‍थानों द्वारा किए जा रहे इस शोषण की पीछे एक ही बड़ा कारण है, और वो कारण है पत्रकारों में एकजुटता कमी।
मीडिया संस्‍थानों के मालिक यहां फंसा रहे पेंच
दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, हिन्‍दुस्‍तान व अन्य बड़े अखबारों के प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से एक फॉर्म पर इस आशय के साइन ले लिए कि उन्हें मजीठिया आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए। वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं। कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है। समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इंक्रीमेंट लगता है, बच्चे अगर हैं तो उनकी पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा, उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है।
कौन नहीं जानता कि मीडिया संस्‍थानों के सारे हथकंडे पूरी तरह झूठ पर आधारित हैं।
मीडिया संस्‍थानों के झूठ का सबसे बड़ा उदाहरण है पंकज कुलश्रेष्‍ठ का उनके संस्‍थान दैनिक जागरण में पद। 25 वर्षों से एक ही संस्‍थान में सेवारत पंकज कुलश्रेष्‍ठ अब भी उप समाचार संपादक थे जिसकी हैसियत कोई भी मीडियाकर्मी अच्‍छी तरह समझता है।
चूंकि इसी से जुड़ी हैं वेतन, इंक्रीमेंट, स्वास्थ्य, चिकित्सा, बच्‍चों की पढ़ाई लिखाई आदि की सुविधाएं, इसलिए समझा जा सकता है कि पंकज कुलश्रेष्‍ठ ढाई दशक बाद भी संस्‍थान में क्‍या हैसियत रखते थे।
आज भी बड़े-बड़े अखबारों में ‘उप-संपादक’ का भी मासिक वेतनमान इतना नहीं है जिसमें वह अपने परिवार का ठीक तरह भरण-पोषण कर सके। जिलों में ब्‍यूरो चीफ के पदों को सुशोभित करने वाले पत्रकारों का भी वेतन सम्‍मानजनक नहीं होता।
और यदि बात करें जिले के स्‍टाफ और तहसील आदि में कार्यरत पत्रकारों की तो उनका ‘मानदेय’ बताने तक में शर्म आती है। उनके लिए वेतन तो कल्‍पना से परे की बात है।
यही नहीं, आज के दौर में जहां चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को भी वेतन के साथ आवश्‍यक भत्‍ते और अवकाश प्राप्‍ति के उपरांत पेंशन मिलना तय है वहां किसी पत्रकार के लिए कोई ऐसा प्रावधान नहीं है।
सरकारी कर्मचारी की मृत्‍यु के बाद भी उसके परिवार को पेंशन का एक भाग मिलता है परंतु पत्रकारों के परिवार उनकी मौत के बाद भगवान भरोसे जिंदा रहने की जद्दोजहद में लगे रहने पर मजबूर हैं।
माना कि राजनीति के गलियारों में जिस तरह लुटियंस जोन है, उसी प्रकार मीडिया में भी एक क्रीमी लेयर है और उस लेयर का एक-एक पत्रकार नेताओं की भांति ही सैकड़ों करोड़ रुपए का मालिक बना बैठा है परंतु वो उंगलियों पर गिने जाने लायक हैं। बाकी तो सारा धान बाईस पसेरी बिकता है।
प्रिंट हो या इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया, सब अपने मुलाजिमों का खून चूसने में पीछे नहीं रहते। हाथ में लगे ‘LOGO’ को किसी के भी मुंह में ठूंस देने का रुतबा हासिल करने वाले बड़े-बड़े न्यूज़ चैनल्‍स के स्‍ट्रिंगर की दयनीय दशा किसी से नहीं छिपी।
हजारों करोड़ रुपए की पूंजी वाले उनके संस्‍थान उन्‍हें कई बार आंशिक मानदेय देने की बजाय LOGO पकड़ाने के बदले उनसे उलटी वसूली कर लेते हैं। फिर वो उसकी भरपाई के लिए क्‍या कुछ नहीं करते।
शोषण-शोषण और खालिस शोषण का जितना घिनौना खेल मीडिया हाउस पत्रकारों के साथ खेलते हैं, उतना शायद ही किसी दूसरे क्षेत्र में खेला जाता होगा।
पत्रकारों के साथ दशकों से खेले जा रहे इस खेल से नेतानगरी भली प्रकार परिचित है और इसीलिए उसकी नजर में कोई पत्रकार ‘कोरोना वॉरियर्स’ भी नहीं है। अपनी जान देकर भी नहीं।
कोरोना वॉरियर्स की श्रेणी में पत्रकारों को शामिल कर लिया गया तो संभवत: शासन-प्रशासन की दुविधा बढ़ जाएगी। उन्‍हें दूसरे कोरोना वॉरियर्स की तरह मान-सम्‍मान एवं कानूनी अधिकारों के साथ मुआवजा भी देना पड़ सकता है।
आगरा मंडल ही नहीं, शायद समूचे उत्तर प्रदेश में कोरोना से जान गंवाने वाले पंकज कुलश्रेष्‍ठ शायद पहले पत्रकार होंगे लेकिन कोरोना संक्रमित पत्रकारों की संख्‍या अच्‍छी-खासी हो सकती है।
न करे भगवान कि कल किसी और को अपना कर्तव्‍य निभाते-निभाते जान से हाथ धोने पड़ जाएं, तो भी क्‍या पत्रकार इसी गति को प्राप्‍त होते रहेंगे।
पंकज कुलश्रेष्‍ठ का बलिदान ऐसे कई सवाल पीछे छोड़ गया है। यदि समय रहते इनके जवाब नहीं मांगे गए तो पत्रकारों की मौत सिर्फ एक आंकड़ा बनकर रह जाएगी क्‍योंकि उसकी गिनती कोरोना वॉरियर्स में नहीं, कोरोना संक्रमित लाशों के साथ होगी।
पत्रकारों की दशा और दिशा पर किसी अनाम शायर द्वारा लिखा गया यह शेर इस दौर में बड़ा सार्थक प्रतीत होता है कि-
‘बड़ा महीन है ये अखबार का मुलाजिम भी, खुद में खबर है मगर दूसरों की छापता है’
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...