सोमवार, 31 दिसंबर 2018

मथुरा रिफाइनरी के कुख्‍यात तेल माफिया पर जिला प्रशासन ने फिर रखा वरदहस्‍त, अरबों की कुर्क संपत्ति को सुपुर्द करने की तैयारी

मथुरा। रिफाइनरी क्षेत्र के मूल निवासी प्रदेश के कुख्‍यात तेल माफिया पर जिला प्रशासन ने फिर अपना वरदहस्‍त रख दिया है। जिला प्रशासन बड़ी चालाकी के साथ उसकी अरबों रुपए की कुर्क की गई उस अचल संपत्ति को उसी के गुर्गों को सुपुर्द करने में लगा है जिन्‍हें बमुश्‍किल कुर्क किया गया था।
रिफाइनरी थाना क्षेत्र का रहने वाला यह तेल माफिया सबसे पहले लाइम लाइट में तब आया जब तेल के खेल में इसने अपने एक प्रतिद्वंदी का कत्‍ल करा दिया। हालांकि इससे पहले भी जिले का समूचा पुलिस-प्रशासन इसकी असलियत से वाकिफ हो चुका था किंतु सेटिंग-गेटिंग के चलते इसकी गिनती अपराधियों में न होकर व्‍यापारियों में की जाती थी।
मात्र एक दशक में फर्श से अर्श तक पहुंचने वाले इस तेल माफिया की पुलिस व प्रशासन के बीच बढ़ती पैठ का एक प्रमुख कारण यह भी था कि मथुरा रिफाइनरी के जरिए होने वाले तेल के खेल में संलिप्‍त हर व्‍यक्‍ति इसके अधीन हो गया और यही उन सबकी ओर से सुविधा शुल्‍क बांटने लगा।
बताया जाता है कि तत्‍कालीन एसएसपी और डीएम को भी यही तेल माफिया हर महीने सीधे खुद सुविधा शुल्‍क पहुंचाता था।
यही कारण रहा कि जब यह हत्‍या के आरोप में नामजद हुआ, तब भी उच्‍च पुलिस अधिकारियों के साथ बैठा देखा जाता था।
यहां तक कि स्‍थानीय पुलिस एवं प्रशासन के बीच जब इसकी गहरी पैठ के चर्चे लखनऊ के राजनीतिक गलियारों में पहुंचे और पुलिस पर इसकी गिरफ्तारी के लिए दबाव बढ़ा तब भी एक पुलिस अधिकारी ने इससे एकमुश्‍त काफी बड़ी रकम लेकर इसका नाम निकालने की कोशिश की।
चूंकि मामला काफी उछल चुका था इसलिए पुलिस ने मलाई मारने के बावजूद हाथ खड़े कर दिए और इसे जेल जाना पड़ा।
मथुरा के एक अरबपति हलवाई को अपना जीजाजी बताने वाला यह तेल माफिया जेल भले ही चला गया किंतु पैसे के बल पर इसने मथुरा रिफाइनरी और जिला प्रशासन के बीच इतनी गहरी पैठ बना ली थी कि जेल में रहते हुए इसके तेल का खेल जारी रहा। नेशनल हाईवे, हाईवे और एक्सप्रेस वे पर इसके तेल के टैंकर दोड़ते रहे।
इस तेल माफिया के दुस्‍साहस का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि यदि इसका अपना कोई मुलाजिम अथवा ड्राईवर या क्‍लीनर भी इसके आदेश-निर्देश की अवहेलना करता पाया जाता था तो यह उसे टैंकर के अंदर जिंदा जलाकर मरवा देता था। इस तरह की कई जघन्‍य वारदातों से समय-समय पर इसका नाम जुड़ता रहा है।
हद तो तब हो गई जब इसने मथुरा रिफाइनरी की भूमिगत पाइप लाइन में ही सूराख कर डाला और अपने गैंग के जरिए करोड़ों रुपए का पेट्रोलियम पदार्थ खपाने लगा।
देश की सुरक्षा और रिफाइनरी की व्‍यवस्‍था पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाने वाली इस दुस्‍साहसिक आपराधिक वारदात ने प्रदेश ही नहीं, देशभर को हिलाकर रख दिया लिहाजा उसके बाद पुलिस-प्रशासन ने मजबूरी में इस पर शिकंजा कसना शुरू किया।
पुलिस-प्रशासन द्वारा शिकंजा कसने का परिणाम यह हुआ कि मामूली गांव से निकलकर शहर की पॉश कॉलोनियों में कई-कई आलीशन घरों का मालिक अपने बिल से निकलकर भागने पर मजबूर हो गया।
बताया जाता है कि तेल के खेल में अरबों रुपए की चल-अचल संपत्ति जोड़ लेने वाले इस माफिया के अपनी पत्‍नी से भी संबंध खराब हो गए लिहाजा उसने इससे दूरी बना ली और जो कुछ उसके नाम था उसे आमदनी का स्‍त्रोत बनाकर रहने लगी।
इसी दौरान शासन और न्‍यायपालिका के दबाव में जिला प्रशासन ने अरबों रुपए की वो सारी संपत्ति कुर्क कर ली जो इसके नाम थी किंतु कहीं न कहीं प्रशासन का सॉफ्ट कॉर्नर इसके लिए बना रहा।
पुलिस-प्रशासन से पुराने रिश्‍ते काम आए तो इस तेल माफिया ने नए सिरे से अपना जाल बिछाना शुरू कर दिया। नेशनल हाईवे से लगी एक पॉश कॉलोनी में रहकर इसने कुछ प्रभावशाली लोगों की मदद से एक ओर जहां जिला प्रशासन में पैठ बनाई वहीं दूसरी ओर राजनीतिक संरक्षण भी प्राप्‍त कर लिया।
विश्‍वस्‍त सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार राजनीतिक संरक्षण मिलते ही अब इसने न सिर्फ अपनी कुर्क संपत्ति को अपने ही कुछ खास गुर्गों के नाम सुपुर्द कराने का प्रयास प्रारंभ कर दिया है बल्‍कि अपनी पत्‍नी के नाम वाले बेशकीमती भूखंड पर भी नीयत खराब करनी शुरू कर दी।
अपनी इस योजना के तहत गत दिवस इसने पत्‍नी के स्‍वामित्व वाले भूखंड की बाउंड्रीवाल गिराकर उस पर कब्‍जा करने की कोशिश की लेकिन पत्‍नी को किसी तरह इसकी जानकारी मिल गई और उसने मौके पर पहुंचकर हंगामा खड़ा कर दिया।
फिलहाल तो पत्‍नी अपने तेल माफिया पति से अपनी जमीन को बचाने में सफल रही किंतु वह कितने दिन सफल रहेगी, यह कहना मुश्‍किल है।
इधर पता लगा है कि प्रदेश सरकार के एक प्रभावशाली मंत्री तथा जिला प्रशासन में अच्‍छी पकड़ रखने वाले इसके कथित जीजाजी द्वारा इसके लिए लॉबिंग की जा रही है जिससे कि इसकी अरबों रुपए मूल्‍य की संपत्ति को अपने किसी खास आदमी के नाम सुपुर्द कराकर सबकी आंखों में धूल झोंकी जा सके और पीछे के रास्‍ते तेल का खेल बड़े पैमाने पर शुरू किया जा सके।
देखना यह है कि कुर्क संपत्ति की सुपुर्दगी किसके नाम होती है और कौन इस तेल माफिया के खेल का नया सहभागी बनता है।
-Legend News

लोकसभा चुनाव 2019: किस करवट बैठेगा मथुरा का ऊंट, क्‍या एकबार फिर आमने सामने होंगे पुराने प्रतिद्वंदी ?

2018 का कैंलेंडर बदलते ही सर्द हवाओं के बावजूद लोकसभा चुनाव 2019 की सरगर्मियां शुरू हो जाएंगी। खुद प्रधानमंत्री मोदी भी केरल से 06 जनवरी को लोकसभा के चुनाव प्रचार का आगाज़ करने जा रहे हैं।
इस बार के लोकसभा चुनाव यूं तो कई मायनों में संपूर्ण भारत की राजनीति के लिए विशेष अहमियत रखते हैं किंतु जब बात आती है उत्तर प्रदेश की तो जवाब देने से पहले भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष अमित शाह की पेशानी पर भी बल साफ-साफ दिखाई देने लगते हैं।
अमित शाह समय-समय पर यह स्‍वीकार भी करते रहे हैं कि संभावित गठबंधन से पार्टी के सामने यदि कहीं कोई परेशानी खड़ी हो सकती है तो वह उत्तर प्रदेश ही है।
उत्तर प्रदेश के रास्‍ते ही केंद्र में सरकार बनने का मार्ग प्रशस्‍त होने की कहावत वैसे तो काफी पुरानी है लेकिन 2014 के चुनावों ने इस कहावत में तब चार चांद लगा दिए जब भाजपा को यहां से छप्‍पर फाड़ विजय प्राप्‍त हुई। इस विजय ने ही भाजपा को इतनी मजबूती प्रदान की कि वह सरकार चलाने के लिए एनडीए के किसी घटक दल पर आश्रित नहीं रही।
आज एक ओर प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक उत्तर प्रदेश से सांसद हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस के सर्वेसर्वा राहुल और सोनिया गांधी का चुनाव क्षेत्र भी यूपी ही है।
देश की दिशा और दशा तय करने वाले राम, कृष्‍ण और बाबा विश्‍वनाथ के धाम भी यूपी का हिस्‍सा हैं। विश्‍वनाथ के धाम वाराणसी से स्‍वयं प्रधानमंत्री सांसद हैं और कृष्‍ण की नगरी मथुरा का प्रतिनिधित्‍व भाजपा की ही स्‍टार सांसद हेमा मालिनी कर रही हैं। अयोध्‍या (फैजाबाद) के सांसद लल्‍लूसिंह हैं।
वाराणसी से तो 2019 का चुनाव भी प्रधानमंत्री ही लड़ेंगे इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन मथुरा तथा अयोध्‍या के बारे में अभी से कुछ कहना जल्‍दबाजी होगी, हालांकि माना यही जा रहा है कि इन सीटों पर भी हेमा मालिनी और लल्‍लूसिंह को दोहराया जाएगा।
यदि ऐसा होता है तो न सिर्फ भाजपा के लिए बल्‍कि गठबंधन प्रत्‍याशी के लिए भी सबसे बड़ी चुनौती मथुरा सीट बनने वाली है।
मथुरा ही क्‍यों
काशी, अयोध्‍या एवं मथुरा में से मथुरा सीट पर सत्तापक्ष को चुनौती मिलने का बड़ा कारण इसका विकास के पायदान पर काशी और अयोध्‍या के सामने काफी पीछे रह जाना है जबकि विपक्ष के लिए प्रत्‍याशी का चयन ही किसी चुनौती से कम नहीं होगा। सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन हो जाने की सूरत में इतना तो तय है कि जाटों का गढ़ होने की वजह से पश्‍चिमी उत्तर प्रदेश की यह सीट रालोद के खाते में जाएगी किंतु रालोद के लिए यह सीट निकालना टेढ़ी खीर साबित होगा।
रालोद ने 2009 का लोकसभा चुनाव मथुरा से तब जीता था जब उसे भाजपा का समर्थन प्राप्‍त था अन्‍यथा इससे पूर्व उनकी बुआ डॉ. ज्ञानवती और दादी गायत्री देवी को भी यहां से हार का मुंह देखना पड़ा था।
रालोद युवराज जयंत चौधरी को पहली बार संसद भेजने वाले मथुरा के मतदाता तब निराश हुए जब जयंत चौधरी ने मथुरा को न तो स्‍थाई ठिकाना बनाया और न विकास कराने में कोई रुचि ली।
रही-सही कसर लोकसभा चुनाव 2009 के बाद हुए 2012 के विधानसभा चुनावों ने पूरी कर दी जिसमें जयंत चौधरी मथुरा की मांट सीट से इस कमिटमेंट के साथ उतरे थे कि यदि वह मांट से चुनाव जीत जाते हैं तो लोकसभा की सदस्‍यता से इस्‍तीफा दे देंगे और बतौर विधायक क्षेत्रीय जनता की सेवा करेंगे।
दरअसल, जोड़-तोड़ की राजनीति के चलते जयंत चौधरी को उस समय अपने लिए बड़ी संभावना नजर आ रही थी किंतु जैसे ही वह संभावना धूमिल हुई जयंत चौधरी ने मांट सीट से इस्‍तीफा दे दिया और लोकसभा सदस्‍य बने रहे।
जयंत चौधरी से क्षेत्रीय लोगों की नाराजगी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके इस्‍तीफे से खाली हुई मांट विधानसभा सीट के उपचुनाव में उनका प्रत्‍याशी हार गया और अजेय समझे जाने वाले जिन श्‍यामसुंदर शर्मा को जयंत चौधरी हराने में सफल हुए थे, वह एक बार फिर चुनाव जीत गए।
यही नहीं, 2017 के विधानसभा चुनावों में भी रालोद उम्‍मीदवार मांट से फिर चुनाव हार गया।
2014 का लोकसभा चुनाव भी जयंत चौधरी ने मथुरा से लड़ा किंतु इस बार न तो उन्‍हें भाजपा का समर्थन प्राप्‍त था और न जनता का। 2009 में रालोद को समर्थन देने वाली भाजपा ने जयंत चौधरी के सामने हेमा मालिनी को चुनाव मैदान में उतारा, नतीजतन जयंत चौधरी 2014 का लोकसभा चुनाव भारी मतों से हार गए।
आज मथुरा की कुल पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा काबिज है जबकि एक बसपा के खाते में है। जाटों का गढ़ मानी जाने वाली मथुरा में फिलहाल रालोद कहीं नहीं है।
रहा सवाल सपा और बसपा का, तो सपा अपने स्‍वर्णिम काल में भी कभी मथुरा से अपने किसी प्रत्‍याशी को जीत नहीं दिला सकी। मथुरा उसके लिए हमेशा बंजर बनी रही। हां बसपा ने वो दौर जरूर देखा है जब उसके यहां से तीन विधायक हुआ करते थे। लोकसभा का कोई चुनाव बसपा भी मथुरा से कभी नहीं जीत सकी।
इस नजरिए से देखा जाए तो रालोद के लिए 2009 के लोकसभा चुनाव में जितना फायदा भाजपा के समर्थन से मिला, उतना अब सपा और बसपा दोनों के समर्थन से भी मिलने की उम्‍मीद नहीं की जा सकती क्‍योंकि सपा-बसपा का वोट बैंक इस बीच खिसका ही है, बढ़ा तो कतई नहीं है।
जयंत चौधरी के अलावा कोई और
2019 के लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट के साथ अब यह प्रश्‍न बड़ी शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्‍या सपा-बसपा से गठबंधन की सूरत में रालोद मथुरा सीट पर जयंत चौधरी की जगह किसी अन्‍य प्रत्‍याशी को चुनाव लड़ा सकता है।
इस प्रश्‍न का महत्‍व इसलिए बढ़ जाता है क्‍योंकि रालोद की ओर से भी कुछ ऐसे ही संकेत दिए जा रहे हैं और संभावित प्रत्‍याशियों की लंबी-चौड़ी लिस्‍ट तैयार होने लगी है।
ऐसे में इस प्रश्‍न के साथ एक प्रश्‍न और स्‍वाभाविक तौर पर जुड़ जाता है कि क्‍या जयंत चौधरी के अतिरिक्‍त भी रालोद के किसी नेता में मथुरा से भाजपा को हराने का माद्दा है?
इस प्रश्‍न का जवाब देने में रालोद के स्‍थानीय नेताओं सहित उन नेताओं को भी पसीने आ गए जो मथुरा से लोकसभा चुनाव लड़ने का दम भर रहे हैं।
संभवत: वो जानते हैं कि सपा और बसपा का साथ मिलने के बाद भी रालोद के लिए भाजपा को मथुरा से हराना इतना आसान नहीं होगा। जयंत चौधरी ही एकमात्र ऐसे उम्‍मीदवार हो सकते हैं जिनके लिए मान मनौवल करके अपना गणित फिट करने की संभावना दिखाई देती है।
अब बात भाजपा प्रत्‍याशी की
भाजपा के बारे में सर्वविदित है कि वह अपने उम्‍मीदवारों का चयन करने में बहुत समय लेती है। 2014 के लोकसभा चुनावों में भी हेमा मालिनी को सामने लाने में बहुत देर की गई थी किंतु 2019 के लिए अब तक हेमा मालिनी को ही दोहराए जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। स्‍वयं हेमा मालिनी भी दूसरा चुनाव मथुरा से लड़ने की ही इच्‍छा जता चुकी हैं और जनता से अपने लिए और पांच साल मांग भी चुकी हैं। हालांकि इस बार मथुरा से कई अन्‍य भाजपा नेता भी ताल ठोक रहे हैं और उनमें मथुरा से विधायक प्रदेश सरकार के दोनों कबीना मंत्री श्रीकांत शर्मा व लक्ष्‍मीनारायण चौधरी भी शामिल हैं। इनके अलावा कई युवा नेता और कुछ पुराने चावल उम्‍मीद लगाए हुए हैं।
ये बात अलग है कि भाजपा के केंद्रीय नेतृत्‍व को एक लंबे समय से मथुरा में पार्टी के लिए कोई ऊर्जावान नेता नजर नहीं आता और इसीलिए उसने चौधरी तेजवीर सिंह के बाद किसी स्‍थानीय नेता को लोकसभा चुनाव लड़ाने का जोखिम मोल नहीं लिया।
बहरहाल, इतना तय है कि 2019 में मथुरा की सीट जीतना भाजपा के लिए भी उतना आसान नहीं होगा जितना 2014 में रहा था। प्रथम तो 2014 जैसी मोदी लहर अब दिखाई नहीं देती और दूसरे हेमा मालिनी का ग्‍लैमर भी ब्रजवासियों के सिर चढ़कर बोलने का समय बीत गया।
हेमा मालिनी मथुरा में काफी काम कराने के चाहे जितने भी दावे करें और भाजपा मथुरा को वाराणसी बनाने के कितने ही ख्‍वाब दिखाए किंतु हकीकत यही है कि धरातल पर कृष्‍ण की नगरी विकास के लिए तरस रही है। नि:संदेह योजनाएं तो तमाम हैं परंतु उनका नतीजा कहीं दिखाई नहीं देता। कोढ़ में खाज यह और कि यहां का सांगठनिक ढांचा चरमरा रहा है, साथ ही जनप्रतिनिधियों के बीच कलह की कहानियां भी तैर रही हैं।
माना कि मथुरा, भाजपा के लिए वाराणसी व अयोध्‍या जैसा महत्‍व नहीं रखती लेकिन महत्‍व तो रखती है क्‍योंकि महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्‍ण की जन्‍मभूमि भी ठीक उसी तरह कोई दूसरी नहीं हो सकती जिस तरह मर्यादा पुरुषात्तम श्रीराम की जन्‍मभूमि अयोध्‍या के अन्‍यत्र नहीं हो सकती।
1992 से पहले भाजपा भी विहिप और बजरंग दल के सुर में सुर मिलाकर कहती थी कि ” राम, कृष्‍ण, विश्‍वनाथ, तीनों लेंगे एकसाथ”।
राजनीति के धरातल पर आज भाजपा की झोली में अयोध्‍या, मथुरा और काशी तीनों एकसाथ हैं लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्‍या यह तीनों 2019 में भी भाजपा अपनी झोली में रख पाएगी।
निश्‍चित ही यह भाजपा के लिए 2014 जितना आसान काम नहीं होगा लेकिन आसान सपा-बसपा और रालोद के गठबंधन प्रत्‍याशी के लिए भी नहीं होगा। तब तो बिल्‍कुल नहीं जब मथुरा की सीट रालोद के खाते में जाने पर भी रालोद अपने युवराज की जगह किसी दूसरे उम्‍मीदवार पर दांव लगाने की सोच रहा हो।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

‘समाजवादी पेंशन योजना’ में 11 अरब रुपए का घपला सामने आया, मृतकों तक को दी जा रही थी धनराशि

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार द्वारा शुरू की गई ‘समाजवादी पेंशन योजना’ के तहत करीब 11 अरब रुपए के घपले का पता लगा है।
अब तक प्राप्‍त जानकारी के अनुसार प्रदेश भर में ऐसे 4.50 लाख अपात्रों की पहचान की गई है जिन्‍हें ये पेंशन दी जा रही थी। इसके अलावा पेंशन धारकों में मृतकों के नाम शामिल होने का भी खुलासा हुआ है।
गौरतलब है कि समाजवादी पेंशन योजना के लाभार्थियों को तिमाही किस्त के तौर पर 1500 रुपये उनके बैंक अकाउंट में भेजे जाते हैं।
‘समाजवादी पेंशन योजना’ साल 2014-15 में अखिलेश यादव के नेतृत्‍व वाली तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार द्वारा शुरू की गई थी। यह अखिलेश सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी।
हालांकि इन अपात्र लाभार्थियों से अब पैसे की रिकवरी होगी या फिर इनके खिलाफ अन्य कोई कार्यवाही अमल में लाई जाएगी, इसका फिलहाल पता नहीं लग पाया है किंतु इतना तय है कि जल्द ही मृत व्यक्तियों और अपात्रों को योजना का लाभ पहुंचाने वाले अफसरों के खिलाफ कार्यवाही की तैयारी हो चुकी है।
गड़बड़ी सामने आते ही ‘समाजवादी पेंशन योजना’ पर रोक लगाने के बाद अपात्रों की पहचान करने के निर्देश दिए थे।
एक महीने की जगह 20 महीने में तैयार हुई रिपोर्ट
समाजवादी पेंशन योजना में धांधली की शिकायत मिलने के बाद प्रमुख सचिव समाज कल्याण ने मई 2017 में जांच कर एक महीने में रिपोर्ट तलब की थी, लेकिन यह रिपोर्ट अब जाकर तैयार हुई है। अब ऐसे अधिकारियों की भी सूची तैयार हो रही है, जिनके जिलों में सबसे ज्यादा अपात्र पाए गए हैं।
दरअसल, ‘समाजवादी पेंशन योजना’ शुरू करने का उद्देश्‍य गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के बीच बचत को प्रोत्साहित करना और उन्हें वित्तीय सहायता प्रदान करना बताया गया था।
ये थे मापदंड 
समाजवादी पेंशन योजना के तहत आवदेन के लिए उक्‍त मापदंड निर्धारित किए गए थे:
1-गरीबी रेखा से नीचे रहने वाला कोई भी परिवार इस योजना के लिए पात्र हो सकता था।
2- ऐसे परिवार का उत्तर प्रदेश निवासी होना जरूरी था।
3- उत्तर प्रदेश में निवास संबंधी एक वैध सबूत की आवश्यकता थी।
मुख्य लाभार्थी का या तो भारतीय स्टेट बैंक या किसी अन्य राष्ट्रीयकृत बैंकों में एक खाता आवश्‍यक था।
पात्रों की पेंशन पर ग्रहण नहीं
निदेशक समाज कल्याण जगदीश प्रसाद के अनुसार समाजवादी पेंशन योजना की जगह कोई नई पेंशन योजना लागू की जा सकती है। उल्‍लेखनीय है कि समाजवादी पेंशन योजना के तहत प्रदेश के 75 जिलों में 54 लाख लाभार्थियों को लाभ पहुंचाया जा रहा था। अपात्रों के चयन की शिकायत मिलने के बाद शासन स्तर से जांच करवाई गई। इसमें साढ़े 4 लाख से अधिक ऐसे अपात्र व्यक्तियों की पहचान हुई, जिन्हें सरकारी नियमों को ताक पर रखकर योजना का लाभ दिया जा रहा था।
अब जाकर राज्य सरकार तथा प्रमुख सचिव को इस घपले की पूरी रिपोर्ट सौंपी गई है। बताया जाता है कि शासन से निर्देश मिलने पर आगे की कार्यवाही होगी।
विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इस योजना के पात्र लाभार्थियों को किसी अन्य योजना से जोड़ने के लिए ग्राम्य विकास विभाग द्वारा सर्वे कराया गया है ताकि 60 साल से कम उम्र वाले व्यक्तियों को पेंशन योजना से लाभान्वित किया जा सके।
समाज कल्याण विभाग के मंत्री रमापति शास्त्री ने कहा कि 4.50 लाख अपात्र सरकार के 10.80 अरब रुपये हड़प गए। योजना के नाम पर हुई गड़बड़ी की रिपोर्ट मिल गई है। जल्द ही मुख्यमंत्री के साथ बैठक कर कोई अहम फैसला लिया जाएगा। पात्र लाभार्थियों के लिए सरकार जल्द ही नई स्कीम लाने की तैयारी में है। मृत व्यक्तियों को योजना का पात्र दिखाकर सरकारी धन का दुरुपयोग करने वाले अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही होगी।
-Legend News

जय-विजय के बीच यक्ष प्रश्‍न: क्‍या कभी मतदाता की भी जीत होगी?

पांच राज्‍यों के इन विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भाजपा की झोली से तीन राज्‍य एक साथ झटक लिए। इन तीन में से दो राज्‍य तो ऐसे थे जहां भाजपा पिछले 15 सालों तक लगातार सत्ता में रही। राजस्‍थान जरूर अकेला ऐसा राज्‍य है जहां हर चुनाव के बाद सत्ता बदल देने की रिवायत चली आ रही है, लिहाजा इन चुनावों में भी वहां यही हुआ। तेलंगाना और मिजोरम के नतीजों में ऐसा कुछ अप्रत्‍याशित नहीं है, जिसकी चर्चा जरूरी हो।
मिजोरम में कांग्रेस का गढ़ ढहा जरूर किंतु राजस्‍थान, मध्‍य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ जैसे महत्‍वपूर्ण राज्‍यों की जीत ने उसकी चर्चा को निरर्थक बना दिया।
किसकी जय, किसकी विजय 
हर चुनाव के बाद कुछ बातें प्रमुखता से दोहराई जाती हैं। जैसे कि यह लोकतंत्र की जीत है…जनता की जीत है।
किंतु क्‍या वाकई कभी किसी चुनाव में आज तक जनता जीत पाई है, क्‍या लोकतंत्र सही मायनों में विजयी हुआ है ?
15 अगस्‍त 1947 की रात के बाद से लेकर आज तक क्‍या वाकई कभी जनता ने कोई अपना प्रतिनिधि चुना है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र दामोदर दास मोदी तक के चुनाव में क्‍या जनता की कोई प्रत्‍यक्ष भूमिका रही है।
प्रधानमंत्री तो दूर, क्‍या जनता कभी किसी सूबे के मुख्‍यमंत्री का चुनाव अपनी पसंद से कर पाई है।
कहने को कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री का चयन संसदीय दल और मुख्‍यमंत्री का चयन विधायक दल की सर्वसम्‍मति से होता है किंतु यह कितना सच है इससे शायद ही कोई अनभिज्ञ हो।
चुनाव से पहले या चुनाव के बाद, नेता का चुनाव पार्टी आलाकमान ही तय करते आए हैं। जन प्रतिनिधि तो मात्र अंगूठा निशानी हैं। यानी आपके द्वारा चुना गया प्रतिनिधि तत्‍काल प्रभाव से गुलामों की उस फेहरिस्‍त का हिस्‍सा बन जाता है, जिसका काम मात्र हाथ उठाकर हाजिरी लगाने का होता है न कि मत व्‍यक्‍त करने का।
गुलामी की परंपरा 
ऐसा इसलिए कि फिरंगियों की दासता से मुक्‍ति मिलने के बावजूद हम आज तक गुलामी की परंपरा से मुक्‍त नहीं हो पाए। शरीर से भले ही हमें मुक्‍ति मिल गई हो परंतु मानसिक दासता हमारी रग-रग का हिस्‍सा है।
लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मतदान भी हर स्‍तर पर गुलामी की छाया में संपन्‍न होता रहा है और हम उसी दास परंपरा का जश्‍न मनाते आ रहे हैं।
कोई कांग्रेस का गुलाम है तो कोई भाजपा का, कोई सपा का पिठ्ठू है तो कोई बसपा का। किसी ने जाने-अनजाने राष्‍ट्रीय लोकदल की दासता स्‍वीकार कर रखी है तो किसी ने अपना मन-मस्‍तिष्‍क एक खास नेता के लिए गिरवी रख दिया है।
देखा जाए तो सवा सौ करोड़ की आबादी किसी न किसी रूप में, किसी न किसी नेता या दल की जड़ खरीद गुलाम बनकर रह गई है। उसकी सोचने-समझने की शक्‍ति इतनी क्षीण हो चुकी है कि वह अब इस दासता से मुक्‍ति का मार्ग तक तलाशना भूल गई है।
क्‍या याद आता है पिछले 70 वर्षों में हुआ ऐसा कोई चुनाव जिस पर दलगत राजनीति हावी न रही हो या जिसने सही अर्थों में जनता को अपना नेता चुनने का अधिकार दिया हो।
देश का सबसे पहला जुमला था वो, जब कहा गया था कि लोकतंत्र में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार का चुनाव किया जाता है।
हकीकत यह है कि स्‍वतंत्र भारत में हमेशा गुलामों द्वारा गुलामों के लिए गुलामों की सरकार चुनी गई है। देश या प्रदेश, हर जगह यही होता आया है।
हो भी क्‍यों न, जब हमारी अपनी कोई सोच ही नहीं है। हमारी प्रतिबद्धता किसी न किसी पार्टी या व्‍यक्‍ति के लिए है, राष्‍ट्र के लिए नहीं।
राष्‍ट्र के लिए प्रतिबद्धता दलगत राजनीति की मोहताज नहीं होती और इस देश की जनता दलगत राजनीति से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं चाहती।
यूं भी कहा जाता है कि भीड़ का कोई दिमाग नहीं होता, इसलिए भीड़चाल और भेड़चाल में कोई फर्क नहीं होता। दोनों उसी राह को पकड़ लेती हैं जो उन्‍हें दिखा दी जाती है।
वर्तमान भारत भीड़तंत्र से संचालित है, लोकतंत्र से नहीं और इसीलिए न लोक बचा है और न तंत्र।
चुनाव इस भीड़तंत्र को बनाए रखने की वो रस्‍म अदायगी है जिसके जरिए राजनीतिक दल अपने-अपने गुलामों की गणना करते रहते हैं।
अगर यह सच न होता तो स्‍वतंत्र भारत साल-दर-साल तरक्‍की की सीढ़ियां चढ़ रहा होता और आज उस मुकाम पर जा पहुंचता जहां दुनिया के तमाम दूसरे मुल्‍क हमसे सीख लेते दिखाई पड़ते।
क्‍या कुछ बदल पाएगा 
जिन तीन राज्‍यों की जीत पर कांग्रेस आज फूली नहीं समा रही और भाजपा अपनी हार की समीक्षा कर रही है, उन राज्‍यों में क्‍या अब ऐसा कुछ होने जा रहा है जो आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक बनेगा।
क्‍या पंद्रह-पंद्रह वर्षों के शासनकाल में भाजपा अपने शासित राज्‍यों से गरीबी, भुखमरी, भय, भ्रष्‍टाचार, अनाचार, व्‍यभिचार, बेरोजगारी जैसी समस्‍याएं समाप्‍त कर पाई।
क्‍या कांग्रेस ने अपने पूर्ववर्ती कार्यकाल में इन समस्‍याओं का समाधान कर दिया था और भाजपा ने आते ही इन्‍हें पुनर्जीवित कर डाला।
क्‍या देश पर कांग्रेस के लंबे शासनकाल में आम जनता की सुनवाई होती थी, और क्‍या आज भी आम जनता की सुनवाई बेरोकटोक होती है।
ये ऐसे यक्ष प्रश्‍न हैं जिनका उत्तर या तो किसी के पास है ही नहीं या कोई देना नहीं चाहता क्‍योंकि उत्तर के नाम पर आंकड़े हैं तथा आंकड़ों की भाषा सिर्फ और सिर्फ आंकड़ों के बाजीगरों को ही समझ में आती है। संभवत: इसीलिए किसी भी समस्‍या का आज तक मुकम्‍मल समाधान नहीं हो पाया।
धरातल पर देखने जाएं तो पता लगता है कि नौकरशाहों की मानसिकता में आज तक कोई बदलाव नहीं आया। वो परतंत्र भारत में भी खुद को शासक समझते थे और आज भी शासक ही बने हुए हैं। कहने को वो जनसेवक हैं किंतु जनता से उन्‍हें बदबू आती है। विशिष्‍टता उनके खून में इस कदर रच-बस चुकी है कि शिष्‍टता कहीं रह ही नहीं गई।
जिस तरह सड़क पर रेंगने वाला गया-गुजरा व्‍यक्‍ति भी नेता बनते ही अतिविशिष्‍ट की श्रेणी को प्राप्‍त कर लेता है उसी प्रकार जनसामान्‍य के बीच से नौकरशाही पाने वाला भी स्‍वयं को जनसामान्‍य का भाग्‍यविधाता समझ बैठता है।
यही कारण है कि सत्ताएं भले ही बदल जाएं लेकिन बदलाव किसी स्‍तर पर नहीं होता। न पुलिसिया कार्यशैली बदलती है और न प्रशासनिक ढर्रे में कोई बदलाव आता है।
सत्ता के साथ अधिकारियों के चेहरे बेशक बदलते हैं परंतु उनके चाल- चरित्र और आचार-व्‍यवहार जस के तस रहते हैं। जनता के पास यदि दलगत राजनीति का कोई विकल्‍प नहीं है तो सत्ताधीशों के पास भी नौकरशाही का फिलहाल कोई विकल्‍प नहीं है।
दिखाई चाहे यह देता है कि देश की दशा और दिशा नेता तय करते हैं किंतु कड़वा सच यह है कि देश की नियति नौकरशाह निर्धारित करते हैं। हर सरकार की नीति और नीयत का निर्धारण नौकरशाही के क्रिया-कलापों पर निर्भर करता है। नौकरशाही उसे जिस रूप में पेश कर दे, उसी रूप में उसका प्रतिफल सामने आता है। नौकरशाही में विकल्‍प हीनता और निरंकुशता का ही परिणाम है कि केंद्र से लेकर तमाम राज्‍यों की सरकारों को एक ओर जहां अदालतों के चक्‍कर लगाने पड़ रहे हैं वहीं दूसरी ओर जनता का विश्‍वास जीतने में परेशानी हो रही है।
समाधान क्‍या 
इन हालातों में एक अहम सवाल यह खड़ा होना स्‍वाभाविक है कि क्‍या 70 सालों से रटे-रटाए ढर्रे पर चल रही इस व्‍यवस्‍था को बदलने का कोई रास्‍ता है भी और क्‍या ऐसा कोई समाधान मिल सकता है जिसके माध्‍यम से हम लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था के उच्‍च मानदण्‍ड स्‍थापित कर सकें तथा सही मायनों में जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार चुनने का मार्ग प्रशस्‍त कर पाएं।
इसका एकमात्र उपाय है “राइट टू रिकाल”। जिस दिन जनता को यह अधिकार प्राप्‍त हो गया, उस दिन निश्‍चित ही एक ऐसे बड़े परिवर्तन की राह खुल जाएगी जिससे देश और देशवासियों का भाग्‍योदय संभव है।
सामान्‍य तौर पर यह मात्र एक अधिकार प्रतीत होता है परंतु यही वो सबसे बड़ा जरिया है जिससे नेताओं की देश व देशवासियों के प्रति जिम्‍मेदारी तय की जा सकती है। जिससे जनता पांच साल बाद खुद को ठगा हुआ महसूस करने से निजात पा सकती है और नेताओं को जब चाहे उनकी औकात बता सकती है। हालांकि यह अकेला उपाय काफी नहीं है।
इसके साथ कुछ ऐसे और उपाय भी करने होंगे जिनसे राजनीति शत-प्रतिशत लाभ का व्‍यवसाय न बनी रहे और राजनेताओं की जवाबदेही भी निर्धारित हो।
उदाहरण के लिए उनके वेतन-भत्तों की वर्तमान व्‍यवस्‍था, सुख-सुविधा और सुरक्षा के मानक, चारों ओर फैलने वाली व्‍यावसायिक गतिविधियां तथा उनके साथ-साथ उनके परिजनों की भी आमदनी के विभिन्‍न ज्ञात एवं अज्ञात स्‍त्रोतों का आकलन।
कुछ ऐसी ही व्‍यवस्‍था नौकरशाहों के लिए भी लागू हो जिससे वो अपने-अपने राजनीतिक आकाओं की शह पर मनमानी न कर सकें और नेताओं की बजाय जनता के प्रति लॉयल्‍टी साबित करें।
यदि ऐसा होता है तो अब तक एक-दूसरे की पूरक बनी हुई विधायिका व कार्यपालिका का गठजोड़ टूटेगा और इन्‍हें जनता के प्रति अपनी जिम्‍मेदारी का अहसास होगा।
और यदि ऐसा कुछ नहीं होता तथा जर्जर हो चुकी व्‍यवस्‍थाओं का यही प्रारूप कायम रहता है तो निश्‍चित जानिए कि सरकारें बदलने का सिलसिला तो जारी रहेगा परंतु देश कभी नहीं बदल सकेगा।
शारीरिक तौर पर स्‍वतंत्रता दुनिया को दिखाई देती रहेगी किंतु मानसिक स्‍वतंत्रता कभी हासिल नहीं हो पाएगी।
हजारों साल से चला आ रहा गुलामी का सिलसिला यदि तोड़ना है तो आमजन को उस मानसिक गुलामी से मुक्‍ति पानी होगी जिसके तहत वह कठपुतली की तरह नेताओं की डोर से बंधा है। दलगत राजनीति के हाथ का खिलौना बना अपने ही द्वारा संसद अथवा विधानसभा में पहुंचाए गए लोगों को माई-बाप समझता है। उनके एक इशारे पर जान देने और जान लेने के लिए आमादा रहता है।
मतपत्र पर ठप्पा लगाने की व्‍यवस्‍था गुजरे जमाने की बात हो चुकी हो तो क्‍या, मशीन का बटन भी अपने-अपने नेता और अपने-अपने दल के कहने पर लगाता है। वो भी बिना यह सोचे-समझे कि उस दल का प्रत्‍याशी संसद या विधानसभा में बैठने की योग्‍यता रखता है या नहीं। उसका सामान्‍य ज्ञान, जनसामान्‍य जितना है भी या नहीं।
बरगलाने के लिए कहा जाता है कि देश ने बहुत तरक्‍की की है और हर युग में की है परंतु सच्‍चाई यह नहीं है। सच्‍चाई यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला मुल्‍क आजतक पाकिस्‍तान जैसे पिद्दीभर देश से निपटने की पर्याप्‍त ताकत नहीं रखता। आतंकवादियों को सही अर्थों में मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाता और सेना की आधी से अधिक ताकत को अपने ही घर की सुरक्षा करने में जाया कर रहा है।
आंखें खोलकर देखेंगे तो साफ-साफ पता लगेगा कि इन सारी समस्‍याओं की जड़ में वही रटी-रटाई व्‍यवस्‍थाएं हैं जिन्‍हें बड़े गर्व के साथ हम लोकतंत्र के स्‍तंभ कहते हैं।
हर व्‍यवस्‍था को समय और परिस्‍थितियों के अनुरूप तब्‍दीली की दरकार होती है। भारत की वर्तमान लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था बड़ी शिद्दत के साथ बदलाव का इंतजार कर रही है। एक ऐसी व्‍यवस्‍था जिससे सही अर्थों में लोकतंत्र गौरवान्‍वित हो और गौरवान्‍वित हों वो लोग जिनके लिए यह व्‍यवस्‍था कायम की गई थी।
ऐसी किसी व्‍यवस्‍था के लिए सबसे पहले देश व देशवासियों को अंग्रेजों से मिली शारीरिक स्‍वतंत्रता का लबादा अपने शरीर से उतार फेंकना होगा और मानसिक स्‍वतंत्रता अपनानी होगी ताकि हम अपने लिए न सिर्फ सही प्रतिनिधि बल्‍कि सही नेतृत्‍व भी चुन सकें।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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