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मंगलवार, 1 जून 2021
मथुरा रिफाइनरी के तेल का खेल: कभी किसी वजीर के गिरेबां तक हाथ डालने की हिमाकत नहीं कर पायी पुलिस
मथुरा रिफाइनरी से हो रहे तेल के खेल में जिन हमराहों पर हाथ डालकर मथुरा पुलिस उन्हें वजीर साबित करने की कोशिश कर रही है, वह दरअसल इस खेल का वजीर तो क्या, प्यादे तक नहीं हैं।वजीर तो वाकई वजीर हैं, और उनके गिरेबां तक हाथ डालने की हिमाकत आगरा तथा मथुरा पुलिस का कोई अफसर नहीं कर पाया। ये वजीर हर सत्ता में अपना रसूख कायम रखते हैं, फिर चाहे वो सत्ता सपा की हो अथवा बसपा की, और किसी गठबंधन की हो या भाजपा की ही क्यों न हो।
इन दिनों मथुरा पुलिस थोड़ी-बहुत उछल-कूद करके अपनी जो सक्रियता दिखा रही है, उसका एकमात्र कारण है तेल के खेल में अपनी संलिप्तता से बचने का प्रयास करना वर्ना क्या ऐसा संभव है कि बार-बार पाइप लाइन में सूराख करके करोड़ों का माल पार कर लिया जाए और पुलिस लकीर पीटती रहे।
ऐसा नहीं है कि मथुरा को अब तक कोई ईमानदार पुलिस अफसर मिला ही न हो, पहले कई जांबाज पुलिस अफसरों ने मथुरा रिफाइनरी से होने वाले तेल के खेल में दखल देने की कोशिश की है लेकिन आज तक न तो कोई पुलिस अफसर किसी वजीर तक पहुंच पाया और न किसी वजीर के प्यादे को अपना मोहरा बना पाया। हां, थोड़े-बहुत हाथ-पैर मारने के बाद वह खुद उन वजीरों का मोहरा जरूर बन गया और अंतत: उनके तथा उनके हलूकरों के इशारों पर नाचते देखा गया।
इसी क्रम में नाम कमाने की चाह रखने वाले कुछ पुलिस अफसर दाम भले ही कमा गए परंतु बदनाम होने से नहीं बच सके। जो ये नहीं कर पाए उन्हें तत्काल प्रभाव से स्थानांतरित कर दिया गया।
आज उनमें से कोई डीआईजी बना बैठा है तो कोई आईजी और एडीजी। एक-दो पुलिस अफसर तो डीजी बनकर सेवामुक्त भी हो लिए और आज टीवी चैनल्स पर होने वाली डिबेट्स में खाकी पहनने वालों को नैतिकता व ईमानदारी का पाठ पढ़ाते देखे व सुने जा सकते हैं।
कड़वा सच यह है कि मथुरा में रिफाइनरी स्थापित होने के बाद से शुरू हुआ तेल का खेल कभी बंद हुआ ही नहीं। एक-दो मौकों पर इसमें शिथिलता अवश्य दिखाई दी किंतु वह भी चंद दिनों के लिए।
यही कारण है कि मथुरा तथा आगरा में इस खेल के चलते एक-दो नहीं दर्जनों मनोज गोयल पैदा हुए और दर्जनों मनोज अग्रवाल व सुजीत प्रधान। तेल के खेल की जन्मकुंडली खंगाली जाए तो पता लग जाएगा कि आज उनमें से कोई नामचीन बिल्डर बन चुका है तो कोई मशहूर व्यवसाई। किसी के नाम से उद्योगपति का टैग चस्पा किया जा चुका है तो कोई जनप्रतिनिधि बनकर जनता की सेवा करने का दम भर रहा है।
इतना सब होने के बावजूद हजारों करोड़ रुपए सलाना कमाई वाले तेल के इस खेल का वजीर हमेशा सत्ता के सोपान से चिपके रहने वाला ही कोई बन पाया, और वहां तक पहुंचने के माद्दा मथुरा-आगरा के इन चिरकुटों में था नहीं। ये लोग सत्ता के गलियारों में भटकते रह गए और उन्हीं झरोखों से झांककर खुदमुख्त्यारी का दम भरते रहे।
मथुरा रिफाइनरी से होने वाले तेल के खेल में संलिप्त हमराह, हलूकर, मोहरे तथा प्यादे तक नहीं जानते कि उनकी गर्दन में बंधी डोर का छोर आखिर है किसके हाथ में। वो तो सिर्फ इतना जानते हैं कि उस डोर के इशारे पर ही उन्हें नाचना है और उसी के इशारे पर अपने अधीनस्थों को नचाना है।
पाइप लाइन में सेंध लगाकर पेट्रोलियम पदार्थों की चोरी करने और पाइप लाइन तक पहुंचने के लिए सुरंग बनाने का मथुरा में यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी कई मर्तबा ऐसे कारनामे लोग करते रहे हैं लेकिन कभी ऐसी प्रभावी कार्यवाही किसी स्तर से नहीं हुई जिसके बाद यह मान लिया जाए कि आगे वैसा हो पाना संभव नहीं होगा। हर बार सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने का तमाशा किया गया जिसके परिणाम स्वरूप कोई उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं हुई।
तेल शोधक कारखाना कहीं का भी हो, उसकी सुरक्षा एक अत्यंत महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। इस जिम्मेदारी को यूं तो केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) निभाती है किंतु कई दूसरे विभागों सहित सिविल पुलिस की भी इसमें अहम भूमिका होती है।
ऐसे में रिफाइनरी के अंदर और बाहर होने वाली किसी भी गैरकानूनी गतिविधि का इतने लंबे समय तक पता न लग सके कि कोई सुरंग बनाकर पाइप लाइन से तेल निकालने में सफल हो जाए, यह हो नहीं सकता। ये तभी संभव है कि अंदर से लेकर बाहर तक और ऊपर से लेकर नीचे तक के लोगों की इसमें संलिप्तता हो और वो लोग किसी भी हद तक गिरने के लिए तत्पर हों।
रिफाइनरी से ही जुड़े सूत्रों की मानें तो तेल के इस खेल में सबसे बड़ी भूमिका मार्केटिंग डिवीजन से ताल्लुक रखने वाले उन कर्मचारियों की रहती है जो सप्लाई का काम देखते हैं और जिन्हें रिफाइनरी की ओर आने व जाने वाली एक-एक पाइप लाइन की जानकारी है।
बताया जाता है कि इन रिफाइनरी कर्मियों के पास पाइप लाइन के पूरे जाल का नक्शा रहता है और वही बता सकते हैं कि कहां-कहां वॉल्व लगे हैं तथा कहां-कहां सुरक्षा में सेंध लगाना संभव है।
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यही वो लोग हैं जिनका प्रत्यक्ष में तो तेल के खेल से कोई सरोकार नहीं रहता लेकिन इनकी कमाई लाखों नहीं करोड़ों में होती है।
बताया जाता है कि ड्यूटी पर मौजूद रिफाइनरी कर्मियों के अलावा ऐसे रिफाइनरी कर्मियों की कोई कमी नहीं है जो अवकाश प्राप्त करने के बावजूद सिर्फ पाइप लाइन के नक्शों की बिना पर घर बैठे लाखों रुपए हासिल कर रहे हैं अन्यथा कितने आश्चर्य की बात है कि जिस पाइप लाइन की सुरक्षा पर बेहिसाब पैसा खर्च होता हो और जिसके अंदर चलने वाले प्रेशर तक से उसके लीकेज का पता लगाया जा सकता हो, उसमें छेद करके करोड़ों रुपए मूल्य का पेट्रोलियम पदार्थ चुरा लिया जाए फिर भी रिफाइनरी प्रशासन को तब भनक लगे जब कोई जनसामान्य अपनी जान हथेली पर रखकर अफसरों को बताने पहुंचे कि पाइप लाइन में सेंध लग चुकी है।
रिफाइनरी प्रशासन के दावों पर भरोसा करें तो समूची पाइप लाइन की एक ओर जहां नियमित चैकिंग होती है वहीं दूसरी ओर उसके ऊपर ऐसी प्लास्टिक कोटिंग भी की जाती है जिसे काटकर वॉल्व तक पहुंचना या पाइप लाइन में छेद कर पाना आसान नहीं होता। ऐसा करने की कोशिश के दौरान ही रिफाइनरी के अंदर बैठे अधिकारी व कर्मचारियों को आधुनिक उपकरणों के सहारे पता लग जाता है लेकिन यहां तो जैसे पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है लिहाजा आज तक मौके पर कभी कोई पकड़ा नहीं जा सका।
बहुत समय नहीं बीता जब रिफाइनरी के अंदर से सैकड़ों करोड़ रुपए मूल्य वाले पेट्रोलियम पदार्थों से भरे कंटेनर चोरी हो गए थे। तब भी इसी प्रकार शोर-शराबा हुआ और दावा किया गया कि इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने वाला कोई अपराधी बच नहीं पाएगा, चाहे वह रिफाइनरी के अंदर बैठा हो अथवा बाहर। समय के साथ यह मामला पहले ढीला पड़ा और अब ठंडे बस्ते के हवाले किया जा चुका है।
जिस समय कृष्ण की इस पावन जन्मभूमि पर रिफाइनरी की शक्ल में एक आधुनिक मंदिर की नींव रखी जा रही थी तब कहा गया था कि मथुरा तथा मथुरा वासियों के लिए यह मंदिर बड़ा वरदान साबित होगा किंतु आज स्थिति इसके ठीक उलट है।
मथुरा रिफाइनरी आज की तारीख में तेल का अवैध कारोबार करने वालों, भ्रष्ट अफसरों, सफेदपोश नेताओं तथा पुलिस-प्रशासन के लिए भले ही वरदान बनी हुई हो किंतु मथुरा-आगरा के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है।
रिफाइनरी के कारण वायु और जल प्रदूषण तो बढ़ा ही है, साथ ही खतरा भी बहुत बढ़ गया है। आतंकवादियों के लिए यह एक बड़ा टारगेट है और दुश्मन देशों की भी इस पर हमेशा पैनी नजर रहती है।
कहने को मथुरा रिफाइनरी अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा शहर के विकास और उसके बेहतर रख-रखाव के लिए निकालती है लेकिन यह हिस्सा कहां जाता है, इसका कभी पता नहीं लगा।
रिफाइनरी स्थापित हुए साढ़े तीन दशक होने को आए लेकिन कृष्ण की पावन जन्मस्थली आज तक अपनी गरिमा के अनुरूप विकास को तरस रही है। सड़क, बिजली, पानी, जलभराव जैसे सामान्य समस्याओं तक के समाधान में मथुरा रिफाइनरी ने कोई उल्लेखनीय भूमिका कभी अदा की हो, ऐसा याद नहीं आता। हां, इसके कारण जनसामान्य की जिंदगी हर वक्त खतरे में जरूर पड़ी रहती है क्योंकि पता नहीं कब कौन तेल को चोरी करके पैसे बनाने की जगह उसका दूसरा गलत इस्तेमाल करने की ठान ले।
मथुरा का हर जागरूक नागरिक जानता है कि रिफाइनरी की सीमा में पड़ने वाले ”बाद रेलवे स्टेशन” से लेकर तेल के भण्डारण तक में सेंध लगाकर चोरी करने का सिलसिला कभी थमा नहीं है। रेलवे स्टेशन पर जहां वैगनों से बाकयदा पाइप डालकर तेल खींच लिया जाता है वहीं गोदामों से कंटेनर के कंटेनर गायब कर दिए जाते हैं किंतु सब तमाशबीन बने रहते हैं। यही हाल रिफाइनरी के लिए बिछी पाइप लाइनों को क्षतिग्रस्त करने के मामले में है। कितनी बार पाइप लाइनों में सूराख करके करोड़ों रुपए की चपत लगाई गई है लेकिन सरकारी माल पर हाथ साफ करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने वाले अधिकारी और कर्मचारी, अपराधियों को संरक्षण देने से नहीं चूकते। उनके लिए वह दुधारु गाय बने हुए हैं।
मथुरा की ओर आने वाली कोई सड़क हो अथवा यहां से दूसरे जनपदों एवं राज्यों को जोड़ने वाली कोई सड़क क्यों न हो, हरेक पर अवैध तेल के गोदामों का जाल बिछा मिल जाएगा लेकिन क्या मजाल कि कोई इनकी ओर आंख उठाकर देख ले।
देखेगा भी कैसे, आखिर तेल की धार से निकलने वाले पैसों की चमक किसी की भी आंखें चुंधियाने को काफी हैं। तभी तो कहावत है कि तेल देख और तेल की धार देख।
कहते हैं कि मथुरा तीन लोक से न्यारी है। कुछ समय के अंदर गधों को घोड़ों की तरह सरपट दौड़ते और फर्श से अर्श तक का सफर काफी कम समय में पूरा करते देखकर तो लगता है कि वाकई मथुरा तीन लोक से न्यारी है।
यहां हमराह पकड़े जाते हैं, हलूकर भी पकड़े जा सकते हैं लेकिन वजीरों का बाल भी बांका नहीं होता। सत्ता की खातिर उनकी निष्ठाएं बेशक लचीली हो जाती हों लेकिन उनके गोरखधंधों में लचीलापन कभी नहीं आता।
इसलिए तेल का खेल जारी था, जारी है और बदस्तूर जारी रहेगा। फॉलोअर पहले भी पकड़े जाते रहे हैं और हमेशा पकड़े जाते रहेंगे जिससे पुलिस इसी तरह अपनी पीठ खुद थपथपाती रहे किंतु वजीरों की वजारत कायम रहेगी। चुनाव का सीजन बीतने दें और फिर तेल भी देखना और तेल व तेलियाओं की धार भी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
कहीं ऐसा न हो कि जैसे-तैसे बनाए जा रहे कोविड अस्पतालों को फिर पागलखानों में तब्दील करना पड़ जाए
चीन के वुहान में उपजा कोरोना नामक वायरस जब से ग्लोबल हुआ है, तब से तमाम दूसरे वायरस भी दुनियाभर में सक्रिय हो चुके हैं। कोरोना की हर लहर के साथ इनकी संख्या बढ़ती जा रही है लिहाजा समझ में नहीं आ रहा इनसे बचाव कैसे किया जाए?दो गज की दूरी और मास्क जरूरी, सोशल डिस्टेंसिंग, सैनिटाइजेशन, आइसोलेशन, वर्क फ्रॉम होम आदि को अपनाकर शायद कोविड-19 से तो बचा जा सकता है किंतु वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों के रूप में सोशल मीडिया, वेब मीडिया, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के जरिए फैल चुके वायरसों से बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा।
दुनिया अभी जहां बमुश्किल कोरोना की वैक्सीन ही ईजाद कर सकी है वहीं ये वैज्ञानिक और विशेषज्ञ दिन-रात नए-नए नतीजे निकाल कर और कोरोना के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का बखान करके लोगों को भयभीत करने का काम कर रहे हैं।
लोगों के दिलो-दिमाग में भय का भूत व्याप्त करने वाले ये तत्व इस कदर वायरल हो चुके हैं कि आदमी “मीडिया” से दूर भागने लगा है। हालांकि ये फिर भी पीछा नहीं छोड़ रहे।
आश्चर्य की बात यह है कि ऐसे तत्वों में विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO सहित कई विकसित देशों के वो विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी शामिल हैं जिन्होंने अब तक अपनी ऐसी ही कथित योग्यता के बल पर न केवल मान-सम्मान बल्कि धन-दौलत और तमाम पुरस्कार भी हासिल किए हैं।
ख्याति प्राप्त ये संस्थाएं और व्यक्ति आज न तो कोरोना के किसी एक इलाज पर एकमत हैं और न उसके लक्षण एवं दुष्प्रभावों पर। सब अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं जिससे आम आदमी अधिक भ्रमित हो रहा है।
इनकी मानें तो अब पृथ्वी से सारे रोग दूर हो चुके हैं। जो कुछ है, वो कोरोना है। समूचे विश्व में जितने भी लोग मर रहे हैं, वो सिर्फ और सिर्फ कोरोना से मर रहे हैं। भविष्य में भी हर रोग कोरोना की देन होगा क्योंकि इनके अनुसार उसके आफ्टर इफेक्ट्स ही इतने हैं कि उनमें सब-कुछ समाहित हो जाएगा।
कुल मिलाकर मौत के लिए आत्मा का शरीर छोड़ देना भले ही जरूरी हो किंतु तब भी कोरोना पीछा छोड़ दे, यह जरूरी नहीं है।
ऐसे में हिंदू धर्मावलंबियों को तो एक सवाल और परेशान कर रहा है कि क्या शरीर के खाक हो जाने पर भी कोरोना उसमें शेष रहता होगा।
क्या कोरोना उस फ़ीनिक्स नामक पक्षी की तरह है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसकी राख से ही उसका पुनर्जन्म होता है।
यदि ऐसा है तो फिर उन धर्मों के मृत शरीरों का क्या जिनमें दफनाने, लटकाने अथवा दूसरे जीवों का भोजन बना देने के लिए उन्हें छोड़ देने का रिवाज है। वो तो बहुत खतरनाक साबित हो सकते हैं।
इस तरह कोरोना सर्वव्यापी हो जाएगा और उससे कभी पीछा छूटेगा ही नहीं। वो हवा में तो होगा ही, कब्र में लेटी लाश में भी होगा और जल, जंगल तथा पहाड़ों पर भी चारों ओर फैला होगा।
सिरदर्द, बदन दर्द, बुखार, खांसी, जुकाम, त्वचा विकार, उल्टियां, दस्त, एसिडिटी, सांस फूलना, आंखों में जलन, सुगंध एवं दुर्गन्ध का अहसास न होने, सीने में दर्द और यहां तक कि कम सुनाई देने तथा मुंह का स्वाद चले जाने जैसे अनगिनत लक्षणों के प्रचार-प्रसार से कोरोना हमारे दिमाग में तो पूरी तरह घुस ही गया है… अब इससे पहले कि वह हमें पागल कर दे, सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मानसिक रोगियों की तादाद परेशान न करने लगे।
कहीं ऐसा न हो कि जैसे-तैसे बनाए जा रहे कोविड अस्पतालों को फिर पागलखानों में तब्दील करना पड़ जाए क्योंकि किसी भी बीमारी का खौफ उसके वास्तविक खतरे से कहीं अधिक भारी होता है।
कहते हैं कि दुनिया में सांपों की जितनी भी प्रजातियां पाई जाती हैं, उनमें से बहुत कम ही ऐसी होती हैं जिनमें आदमी को मारने लायक जहर होता हो। इसीलिए सांप के काटने पर मरने वालों में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा होती है जिनका दहशत में हार्टफेल हो जाता है।
बेशक कोरोना इस दौर में उपजा एक खतरनाक वायरस है और इसे गंभीरता से लेना चाहिए किंतु इसका यह मतलब नहीं कि जागरूकता के नाम पर भय का ऐसा वातावरण बना दिया जाए कि वह लोगों के अंदर घर कर बैठे। बिना किसी ठोस आधार के और रिसर्च किए बगैर उसके इतने आफ्टर इफेक्ट्स प्रचारित कर दिए जाएं कि कोरोना से मुक्ति मिलने पर भी लोग उससे मुक्त न हो सकें तथा मानसिक विकृति के शिकार हो जाएं।
उचित तो ये होगा कि ऐसे ज्ञानियों, विज्ञानियों तथा विशेषज्ञों के निजी निष्कर्षों पर सरकारें सख्ती के साथ लगाम लगाने की व्यवस्था करें अन्यथा इसके दूरगामी परिणाम भुगतने होंगे, और वो किसी भी वायरस से अधिक घातक हो सकते हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
जेल के अंदर गैंगवार पर आश्चर्य नहीं, आश्चर्य है मथुरा व बागपत के बाद चित्रकूट में भी 9 MM पिस्टल के यूज... पर?
उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में कल जेल के अंदर हुई गैंगवार न तो कोई नई बात है और न बहुत आश्चर्य जताने वाली क्योंकि पूर्व में भी जेल के अंदर ऐसी गैंगवार होती रही हैं।सोचने की बात यदि कोई है तो वो ये कि मथुरा जिला कारागार में हुई गैंगवार के बाद बागपत जेल में हुई गैंगवार और अब चित्रकूट जेल की गैंगवार में आश्चर्यजनक रूप से 9 एमएम पिस्टल का ही इस्तेमाल हुआ है।
बागपत जिला जेल में 09 जुलाई 2018 को कुख्यात माफिया डॉन मुन्ना बजरंगी को गोलियों से भून डाला गया।
इससे पहले 17 जनवरी 2015 की दोपहर मथुरा जिला जेल में हुई गोलीबारी के दौरान एक गैंग से अक्षय सोलंकी को मौत के घाट उतार दिया गया। दूसरे गैंग से राजकुमार शर्मा, दीपक वर्मा और राजेश ऊर्फ टोंटा घायल हुए।
दूसरे ही दिन 18 जनवरी को टोंटा को तब गोलियों से भून डाला गया जब उसे इलाज के लिए एंबुलेंस में भारी पुलिस फोर्स के साथ मथुरा की तत्कालीन एसएसपी मंजिल सैनी आगरा ले जा रही थीं।
मथुरा के फरह थाना क्षेत्र में नेशनल हाईवे नंबर 2 पर मथुरा-आगरा के बीच पचासों पुलिसकर्मियों के रहते एंबुलेंस के अंदर राजेश टोंटा को गोलियों से छलनी कर दिया गया और पुलिस न तो एक भी बदमाश को मौके से पकड़ सकी और न टोंटा के साथ एंबुलेंस में मौजूद कोई पुलिसकर्मी घायल हुआ।
मिली जानकारी के अनुसार मुन्ना बजरंगी की हत्या में सिर्फ एक असलाह का इस्तेमाल हुआ किंतु मथुरा जिला जेल में हुई गैंगवार के दौरान दोनों पक्षों ने आधुनिक हथियार चलाए। पुलिस की कहानी के अनुसार इस गैंगवार में इस्तेमाल किए गए 9 एमएम हथियार बंदी रक्षक कैलाश गुप्ता ने पहुंचाए थे। इस गैंगवार के बाद मथुरा जिला जेल से बरामद दोनों हथियार 9 एमएम (प्रतिबंधित बोर) के थे।
इत्तेफाक देखिए कि मुन्ना बजरंगी की हत्या में भी इसी बोर के हथियार को इस्तेमाल किए जाने की बात सामने आई।
अब चित्रकूट जिला जेल की गैंगवार में भी 9 एमएम पिस्टल इस्तेमाल किए जाने की बात कही गई है।
कुल मिलाकर यदि ये कहा जाए कि उत्तर प्रदेश की जेलें हर दौर में कुख्यात अपराधियों के लिए सजा का ठिकाना न होकर संरक्षण के केंद्र रही हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। राज चाहे आज योगी का हो अथवा इससे पहले अखिलेश, मुलायम या मायावती का।
भाजपा के सहयोग से सरकार चला रही मायावती के शासनकाल के दौरान 1995 में मथुरा जिला कारागार के अंदर वाले गेट पर भाड़े के बदमाशों ने किशन पुटरो की हत्या कर दी थी। इस हत्याकांड में तब किशन पुटरो के अलावा जेल का एक सफाईकर्मी भी मारा गया।
कहने का आशय यह है कि उत्तर प्रदेश की जेलों में एक लंबे समय से कुख्यात अपराधी मनमानी करते रहे हैं। यह बात अलग है कि जिस तरह आज योगी आदित्यनाथ पहले से बेहतर कानून-व्यवस्था होने का दावा करते हैं, उसी तरह मायावती और अखिलेश भी अपने-अपने समय में कानून का राज होने का दावा करते थे किंतु सच्चाई यही है जो आज चित्रकूट जेल से सामने आई है या इससे पहले मुन्ना बजरंगी की हत्या के रूप में बागपत जेल से और अक्षय सोलंकी की हत्या के रूप में मथुरा जिला कारागार से सामने आई थी।
मथुरा और बागपत के बाद अब चित्रकूट की गैंगवार में भी 9 एमएम पिस्टल का इस्तेमाल किया जाना यह साबित करता है कि किसी न किसी स्तर पर जितनी आवश्यकता प्रदेश के जेल तंत्र को परखने की है, उससे ज्यादा यह जानने की है कि आखिर एक ही किस्म का हथियार जेलों के अंदर क्यों और कैसे पहुंच रहा है। कहीं इसके पीछे भी समूचे प्रदेश में जेल तंत्र तथा अपराधियों का विशेष गठजोड़ तो काम नहीं कर रहा।
मायावती और अखिलेश राज के बाद अब योगीराज में भी जेल के अंदर की ये गैंगवार साबित करती है कि यहां सरकारें भले ही बदलती हों लेकिन बाकी कुछ नहीं बदलता। निश्चित ही इसके लिए वो व्यवस्था दोषी है जिसके चलते पूरे तंत्र का बुरी तरह राजनीतिकरण हो चुका है। ऐसे में जाहिर है कि जब तक इस राजनीतिकरण को खत्म नहीं किया जाता तब तक न सड़क पर अपराध कम होंगे और न जेल के अंदर।
-Legend News
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