शनिवार, 25 जून 2016

खौफ के साये में खाकी: पुलिस ही पुलिस की सबसे बड़ी दुश्‍मन

मथुरा में 2 जून को जवाहर बाग खाली कराते वक्‍त एसपी सिटी तथा एसओ की शहादत के बाद भी दो उप निरीक्षकों को मौत के घाट उतारा जा चुका है
ड्यूटी के लिए खाक में मिल जाने की प्रेरणा देने वाली खाकी इस समय खुद खतरे में है। यूपी में खाकी पर मंडरा रहे खतरे का आलम यह है कि हर रोज Police मजामत व शहादत की खबरें अखबारों की सुर्खियां बन रही हैं। मथुरा में 2 जून को जवाहर बाग खाली कराते वक्‍त एसपी सिटी तथा एसओ की शहादत के बाद भी दो उप निरीक्षकों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। एक को बदमाशों ने बदायूं में मार डाला तो दूसरे को हापुड़ में।
2 जून से पहले भी पुलिस पर हमलावर होने की घटनाएं लगातार मिलती रही हैं।
कल यानि शुक्रवार को आगरा के आंवलखेड़ा में खनन माफिया ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा।
इससे पहले मथुरा में नेशनल हाईवे पर लावारिस खड़े ट्रक के अंदर गौवंश की बेरहमी से हुई मौत के बाद लोगों के आक्रोश ने कानून-व्‍यवस्‍था की पोल खोलकर रख दी थी। पूरे दो दिन नेशनल हाईवे पर गौवंश से भरा ट्रक खड़ा रहा और इलाका पुलिस ने यह तक जानने की जहमत नहीं उठाई कि आखिर यह ट्रक इस तरह खड़ा क्‍यों हैं तथा उसके अंदर है क्‍या ?
काफी उपद्रव हो जाने के बाद कोतवाल वृंदावन तथा रिपोर्टिंग चौकी प्रभारी जैत को निलंबित करके लोगों का आक्रोश शांत करने की कोशिश की गई है।
ऐसे में इस तरह के सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर क्‍यों बदमाशों के अंदर पुलिस का भय पूरी तरह खत्‍म होता जा रहा है ?
क्‍यों खाकी से सिर्फ शरीफ लोग खौफ खाते हैं और बदमाश उन्‍हें कहीं अपना सहयोगी तो कहीं अपना प्रतिद्वंदी मानकर चलते हैं ?
खाकी की इमेज क्‍यों सिर्फ और सिर्फ वर्दीधारी अपराधियों की बनकर रह गई है और कैसे उसका इकबाल पूरी तरह खत्‍म होता जा रहा है ?
क्‍यों सामाजिक लोग भी अब पुलिस के खिलाफ एकजुट होने लगे हैं और आपराधिक तत्‍व उस पर हमला करने से नहीं चूकते ?
इसमें कोई दोराय नहीं कि खाकी पर खादी के आधिपत्‍य ने पुलिस के इकबाल को खत्‍म करने में बड़ी भूमिका अदा की है, किंतु खाकी की वर्तमान दुर्दशा के लिए पुलिस खुद भी कम जिम्‍मेदार नहीं है।
पुलिस की इस दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है, उसके द्वारा की जाने वाली वो अवैध कमाई जो उनके वेतन-भत्‍तों से भी कई गुना अधिक होती है।
इस अवैध कमाई ने पुलिस की छवि एक ऐसे सड़क छाप गुंडे की बनाकर रख दी है जो लोगों को लूटने खसोटने के लिए किसी भी स्‍तर तक जा सकता है और जिसका एकमात्र धर्म तथा कर्म आमजन में भय व्‍याप्‍त कर अपना उद्देश्‍य पूरा करना होता है।
बेशक दूसरे तमाम सरकारी महकमे अवैध कमाई के मामले में पुलिस से कहीं पीछे नहीं हैं किंतु पुलिसिया कार्यप्रणाली ने जितनी बदनामी हासिल की है, उतनी किसी दूसरे विभाग ने नहीं की।
पुलिस की अवैध कमाई और उसकी बदनामी के कुछ महत्‍वपर्णू कारणों को चंद उदाहरणों से समझा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर एक अनुमान के अनुसार विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल मथुरा जनपद के शहरी क्षेत्र में ही पर्चा सट्टे की करीब 80 गद्दियां संचालित होती हैं। प्रत्‍येक गद्दी से पुलिस 90 हजार रुपया हर महीना लेती है। इस तरह शहरी पुलिस के पास हर माह सट्टे के अवैध करोबार से 72 लाख रुपया महीना आता है।
एमसीएक्‍स का गोरखधंधा भी इस जिले में खूब फल-फूल रहा है और क्रिकेट के सट्टे में मथुरा अपनी एक अलग पहचान बना चुका है। एमसीएक्‍स का अवैध धंधा तो अब तक दर्जनों लोगों की जान ले चुका है लेकिन पुलिस के लिए वह भी अवैध कमाई का अच्‍छा स्‍त्रोत है। एमसीएक्‍स का संचालन चूंकि पुलिस के सहयोग बिना संभव ही नहीं है इसलिए एमसीएक्‍स संचालकों को एक ओर जहां पुलिस के संरक्षण की जरूरत रहती है वहीं दूसरी ओर वसूली के लिए भी पुलिस का सहयोग जरूरी है।
इसी प्रकार डग्‍गेमार वाहनों में थ्री व्‍हीलर पुलिस की अतिरिक्‍त आमदनी का बड़ा जरिया हैं। जनपदभर में चलने वाले छोटे और बड़े टेम्‍पो से हर थाने-चौकी के लिए अवैध वसूली की जाती है। अनुमानत: जिले में लगभग 1500 टेम्‍पो चलते हैं और इन टेम्‍पो से वसूली का एवरेज 250 रुपया प्रति टेम्‍पो प्रतिमाह निकलता है। इस तरह पुलिस पौने चार लाख रुपए हर महीने टेम्‍पो चालकों से वसूलती है। इस काम को पुलिस ने जिन गुर्गों को लगा रखा है, उन्‍हें ठेकेदार कहते हैं। पुलिस इन टेम्‍पो चालकों से बेगार भी लेती है जिसमें चौकी-थानों के लिए पानी लेकर आने से लेकर इधर-उधर घुमाने, गश्‍त के लिए ले जाने तथा नाते-रिश्‍तेदारों को ब्रजदर्शन कराना तक शामिल है।
इसके अलावा जिलेभर में दूसरे बड़े अवैध डग्‍गेमार वाहन दौड़ते हैं जिनमें बसें तो हैं ही, ट्रक तथा बड़ी संख्‍या में जुगाड़ भी हैं। इन सभी वाहनों से पुलिस की महीनेदारी बंधी हुई है। पुलिस की मेहरबानी के बिना जिलेभर में किसी मार्ग पर कोई वाहन न तो सवारी ढो सकता है और न माल।
जुगाड़ तथा ट्रैक्‍टर तो चूंकि सबसे अधिक ईंट ढोने के काम में प्रयोग होते हैं और इसलिए वह पुलिस की कमाई का बड़ा जरिया हैं।
यहां यह जान लेना जरूरी है कि ताज ट्रपेजियम जोन में आने के कारण मथुरा की सीमा के अंदर ईंट भट्टा संचालित करना एक बड़ा अपराध है, बावजूद इसके न केवल यहां खुलेआम ईंटभट्टे चलते हैं बल्‍कि राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर नियम-कानूनों को धता बताते हुए ईंट मंडी भी लगती है। सुबह से ही पूरे राजमार्ग पर सैकड़ों की संख्‍या में जगह-जगह ईंटों के ट्रैक्‍टर व जुगाड़ खड़े देखे जा सकते हैं। सड़क को घेरकर अवैध ईंट मंडी बना देने वाले इन वाहनों की वजह से आए दिन दुर्घटनाएं होती हैं लेकिन न कोई बोलने वाला है और न सुनने वाला।
यमुना से निकलने वाली बालू और जिले भर में हो रहा मिट्टी का अवैध खनन भी पुलिस के लिए किसी वरदान से कम नहीं।
राजस्‍थान सीमा से लगे मथुरा के गोवर्धन व बरसाना आदि में अरावली पर्वत श्रृंखला का अवैध खनन और यमुना से मछली व कछुओं की तस्‍करी में भी पुलिस की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता।
नशीले पदार्थों की तस्‍करी जिसमें शराब भी शामिल है, के लिए मथुरा अच्‍छी-खासी शौहरत रखता है। एक ओर हरियाणा तथा दूसरी ओर राजस्‍थान की सीमा से सटे होने तथा राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से उसकी बहुत कम दूरी इस काम में मददगार है।
सर्वविदित है कि मथुरा में हेरोइन, चरस व गांजे के अतिरिक्‍त शराब, स्‍मैक तथा ब्राउन शुगर जैसे महंगे नशीले पदार्थों की भी अच्‍छी खपत है और इसलिए इन्‍हें बेचने वालों का यहां बड़ा नेटवर्क है।
वृंदावन, गोवर्धन तथा बरसाना में मौजूद तथाकथित विदेशी ”भक्‍त” इन नशीले पदार्थों का सेवन हर रोज करते देखे जा सकते हैं। ऐसे में यह अंदाज लगाना कोई मुश्‍किल काम नहीं कि उन्‍हें वह पदार्थ कहां से व कैसे मिलता होगा।
जाहिर है कि पुलिस की मदद के बिना किसी देसी या विदेशी नशीले पदार्थ की बिक्री के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। ड्रग्‍स के यह तस्‍कर पुलिस के पास अच्‍छा-खासा पैसा पहुंचाते हैं।
इन तमाम अवैध धंधों से ऊपर मथुरा में तेल से होने वाला वह खेल है जिसकी धार मथुरा रिफाइनरी से निकलती है। तेल के इस खेल ने मथुरा के कई लोगों को देखते-देखते रंक से राजा बना दिया। कल तक जिनकी हैसियत हजारों की नहीं थी, आज वह करोड़ों के मालिक हैं। तेल के इस खेल को पुलिस के साथ-साथ प्रशासन व स्‍थानीय नेताओं का भी पूरा वरदहस्‍त प्राप्‍त है। जिले में शायद ही कोई ऐसा बड़ा नेता हो, जो तेल के खेल में परोक्ष या अपरोक्ष भूमिका न निभाता रहा हो। तेल की बहती गंगा में अधिकांश नेता हाथ धोते हैं। रहा सवाल पुलिस का, तो पुलिस की मर्जी के बिना न तो तेल का कोई टैंकर जिले की सीमा से बाहर जा सकता है और न सड़क पर खड़ा हो सकता है। करोड़ों रुपए के इस खेल में पुलिस की भी अच्‍छी-खासी हिस्‍सेदारी रहती है।
कहने का तात्‍पर्य यह है कि यूपी के एक सी ग्रेड जिले मथुरा का जब यह हाल है तो बाकी उन जिलों का क्‍या होगा जो ए तथा बी ग्रेड जिले कहलाते हैं।
पुलिस की प्रति जिला अवैध कमाई को यदि जोड़ा जाए तो वह सरकारी खजाने से प्रति माह आने वाले उसके वेतन से भी अधिक बैठेगी।
संभवत: यही कारण है कि पेशेवर अपराधियों व अवैध काम करने वालों के मन से खाकी का खौफ दिन-प्रतिदिन खत्‍म होता जा रहा है और इसीलिए वह पुलिस पर हमलावर होने में रत्‍तीभर भी नहीं हिचकिचाते।
टेम्‍पो चालक इसके सबसे बड़े प्रतीक हैं। तिराहे-चौराहों पर बेतरतीब खड़े रहने वाले किसी टेम्‍पो चालक में पुलिस का लेशमात्र भी भय दिखाई नहीं देता। आश्‍चर्य की बात तो यह है कि यातायात व्‍यवस्‍था को सर्वाधिक बाधित करने का काम टेम्‍पो चालक पुलिस की नाक के नीचे और चौकी-थानों के सामने करते हैं। वहां करते हैं जहां पुलिस पिकेट हर वक्‍त मौजूद रहती है क्‍योंकि वह जानते हैं कि उनसे हर महीने मोटी कमाई करने वाली पुलिस उन्‍हें गीदड़ भभकी तो दे सकती है लेकिन ठोस कार्यवाही नहीं कर सकती। आखिर वह उसके लिए सोने का अंडा देने वाली मुर्गी जो हैं।
टेम्‍पो चालक तो मात्र एक उदाहरणभर हैं अन्‍यथा किसी भी धंधे को नियम-कानून से इतर जाकर सुविधाएं देने अथवा पूरी तरह अवैध धंधे को संचालित कराने में पुलिस जब खुद शामिल रहेगी तो उस धंधे को करने वाला पुलिस से डरने भी क्‍यों लगा। पुलिस उसके लिए उस स्‍थिति में सिर्फ और सिर्फ उसकी ऐसी हिस्‍सेदार बनकर रह जाती है जिसने वर्दी के रूप में कानून का जामा पहन रखा है वर्ना उसमें तथा पुलिस में फर्क ही कहां है। पुलिस के प्रति अवैध कारोबारियों तथा अपराधियों में बन रही यही छवि अब उसकी जान की दुश्‍मन बनने लगी है।
इन स्‍थिति तथा परिस्‍थितियों के बीच पुलिस की कांटे से कांटा निकालने की चिर-परिचित कार्यशैली भी अब पुलिस पर भारी पड़ने लगी है। जिस थ्‍यौरी को कभी पुलिस बदमाशों के ऊपर लागू करती थी, वह अब पुलिस ही पुलिस के ऊपर लागू करने लगी है।
पुलिस मजामत के अधिकांश मामलों की तह तक यदि जाया जाए तो पता लगेगा कि उसकी भी जड़ में कहीं न कहीं पुलिस ही है। जातिगत भेदभाव, वर्ण व्‍यवस्‍था, आरक्षण, आउट ऑफ टर्म प्रमोशन आदि के मामले तथा उससे उपजे द्वेषभाव अब पुलिस बल में इस कदर समा चुका है कि पुलिस अब संगठित बल नहीं रह गया। द्वेषभाव के दंश से कोई थाना-चौकी आज की तारीख में अछूता नहीं है। ऐसे में परस्‍पर दुश्‍मनी का भाव अंदर ही अंदर पनपने लगता है और मौका मिलने पर सबक सिखाने की मंशा मन में समा जाती है। दबिश, गश्‍त तथा अपराधियों की धर-पकड़ के मौकों पर पुलिस मजामत के मामले ऐसे ही द्वेषभाव की उपज होते हैं लेकिन पुलिस अधिकारी कभी इनकी तह में जाने का प्रयास नहीं करते। प्रथमद्ष्‍टया जिसका दोष परिलक्षित होता है, उसे लाइन भेजकर या अधिक से अधिक निलंबित करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर लेते हैं।
यही सब कारण हैं कि भले ही हर वर्ष पुलिस स्मृति दिवस (इक्कीस अक्तूबर) पर विभिन्न पुलिसबलों के सैकड़ों शहीद याद किए जाते हैं और कर्तव्य-वेदी पर प्राणों की आहुति की वार्षिक रस्म-अदायगी देश की तमाम पुलिस यूनिटों में हो रही होती है लेकिन पुलिस की छवि को लेकर भारतीय समाज में मिश्रित कुंठाएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं।
इस संबंध में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी वाली प्रकाश सिंह कमेटी द्वारा प्रस्‍तुत ‘पुलिस सुधार’ की कवायद भी मददगार सिद्ध नहीं हो सकी क्‍योंकि तमाम राज्‍य सरकारों की इन्‍हें लागू करने में कोई रुचि नहीं है जबकि औपनिवेशिक काल वर्ष 1861 के अधिनियम पर काम करने एवं नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की उपेक्षा करने वाली पुलिस की साख सामान्य अपराध के आंकड़ों में हेराफेरी करके ही अपनी कुशलता दिखाने और शातिर अपराधियों से मिलीभगत करने की बनकर रह गई है।
राज्‍य सरकारें जानती हैं कि पुलिस को स्वायत्तता देने का मतलब समूची राजनीतिक बिरादरी के पैरों पर कुल्‍हाड़ी मारने के समान है।
गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय का पुलिस सुधार मुख्यत: स्वायत्तता, जवाबदेही और लोकोन्मुखता जैसे पांच बिंदुओं पर केंद्रित है।
इसमें डीजीपी, आईजीपी, एसपी, एसएचओ की दो वर्ष की निश्चित तैनाती और डीजीपी और चार अन्य वरिष्ठतम पुलिस अधिकारियों के (एस्टैब्लिशमेंट) बोर्ड को उप पुलिस अधीक्षक स्तर तक के तबादलों का अधिकार देने तथा पुलिस की स्वायत्तता को मजबूत कर उसे बाह्य दबावों से मुक्त रखने की सिफारिश की गई है।
इसमें पुलिस को भी कानूनी दायरे में रखने के लिए राज्य पुलिस आयोग और पुलिस शिकायत प्राधिकरण की व्‍यवस्‍था है लेकिन राज्‍यों की रुचि लोकोन्मुख पुलिस बनाने में है ही नहीं। राज्‍य सरकारें तो यही चाहती हैं कि पुलिस उनके हाथ की कठपुतली बनी रहे और वो उसे जैसे चाहें वैसे नचाती रहें।
इन हालातों में पुलिस को खुद हवा के बदलते रुख का भली-भांति अध्‍ययन करना होगा, और समझना होगा कि यदि समय रहते उसने पैसे के पीछे अंधी दौड़ की प्रवृत्‍ति को नहीं त्‍यागा तथा ट्रांसफर-पोस्‍टिंग आदि के लिए राजनेताओं की हर जायज-नाजायज बात सिर झुकार मान लेने की आदत नहीं बदली तो आगे आने वाला समय उसके लिए कितना घातक हो सकता है।
पुलिस को यह भी समझना होगा कि कम से कम कानून-व्‍यवस्‍था के अनुपालन में उसे जाति, धर्म व संप्रदाय से ऊपर उठकर काम करना होगा तथा अपराध व अपराधियों के उन्‍मूलन में कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा अन्‍यथा अपराधियों के उसके ऊपर हमलावर होने का सिलसिला दिन-प्रतिदिन बढ़ेगा ही। कम होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्‍योंकि अब अपराधी, राजनेताओं से संपर्क साधने तक सीमित नहीं रहे। वह अब राजनीतिक दलों तथा राजनीतिज्ञों के हमराह हो चुके हैं।
खाकी को बदमाशों के मन में पहले जैसा खौफ पैदा करने तथा भद्रजनों के प्रति सद्भाव प्रदर्शित करने के लिए अपने सूत्रवाक्‍य ‘परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम’ को सार्थक करना होगा, उस पर अमल करना होगा क्‍योंकि यही सूत्रवाक्‍य उसका अपना इकबाल पुनर्स्‍थापित करने की क्षमता रखता है। यही सूत्रवाक्‍य उसे बिना किसी बड़े फेर-बदल के सही मायनों में नागरिक पुलिस बनाने का माद्दा रखता है।
राजनीतिज्ञों का क्‍या है, उसके लिए पुलिस बल मात्र एक ऐसा संख्‍या बल है जिसकी शहादत भी आंकड़ों की बाजीगरी में दबा दी जायेगी और खाकी इसी प्रकार कभी नेताओं को बचाने तथा कभी आत्‍मरक्षा में खाक होती रहेगी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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