सोमवार, 20 दिसंबर 2010

कामशास्‍त्र बनते प्रिंट और वेब अखबार

''मुन्‍नी के बदनाम होने'' या ''शीला के जवान होने'' की चिंता तो बहुतों को सता रही है लेकिन मीडिया जगत के कामशास्‍त्र बनते जाने की फिक्र किसी को नहीं। 
भारत की सुंदर देसी लड़कियों से गरमा-गरम दोस्‍ती और मजेदार बातें करने के लिए फोन करें- 0096097***** , 004179977****.  ( 24 घण्‍टे ) फ्री मैम्‍बरशिप। Sobana फ्रेंडशिप नेटवर्क ( रजि.) स्‍थानीय हाई सोसायटी स्‍मार्ट यंग स्‍त्री/पुरुष संग मनचाही मित्रता पाएं केवल 30 मिनट में (ऑल इण्‍िडया सर्विस)। लाइव चैट 24 घण्‍टे कॉल नॉउ ******************सच एण्‍ड सच नम्‍बर्स। चुलबुली बातें लाइव चैट 24 घण्‍टे कॉल नॉउ ******************सच एण्‍ड सच नम्‍बर्स।
ये उन क्‍लासीफाइड विज्ञापनों का मजमून है जो देश के अधिकांश मशहूर दैनिक अखबारों में आये दिन छपता रहता है।
रिफ्रेश होगी सेक्स लाइफ, कामसूत्र का पाठ, तस्‍वीरों में: वाइल्‍ड सेक्‍स के तरीके, तस्‍वीरों में टॉप 10 सेक्‍स गेम्‍स, तस्‍वीरों में सेक्‍स के 10 फायदे, महिलाओं को कैसे करें आकर्षित, बनायें सेक्‍स को रोचक और आनंदमय, 20, 30 और 40 की उम्र का सेक्‍स, यौन शक्‍ित कैसे बढ़ायें, पुरुषों को नापसंद हैं सात बातें यौन विस्‍तर में, नये रिश्‍ते में सेक्‍स सम्‍बन्‍ध के लिए सही समय।
ये कुछ प्रमुख नेट अखबारों के आर्टीकल्‍स की हेडिंग्‍स हैं। इनमें वो अखबार भी शामिल हैं जिनकी हार्ड कॉपीज यानी अखबार भी बड़े पैमाने पर छपते हैं। खुद को देश के शीर्ष अखबारों में शुमार करने वाले इन अखबारों के मालिकान व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा के चलते तथा अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर अभी और कितना नीचे गिरेंगे, यह बता पाना तो फिलहाल मुश्‍िकल है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है समाचार पत्रों को इन्‍होंने जैसे ''कामशास्‍त्र'' बनाकर रख दिया है।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

when british soldiers leaving india

बनारस ब्‍लास्‍ट..ध्‍यान बांटने की कोशिश!

लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
बनारस के शीतला माता घाट पर आतंकियों द्वारा किये गये बम विस्‍फोट के बाद किसी युवक ने सोशल नेटवर्किंग साइट 'फेसबुक' पर लिखा कि कहीं ये ब्‍लास्‍ट भ्रष्‍टाचार से घिरे नेताओं ने जनता का ध्‍यान बांटने के लिए तो नहीं कराया।
इसी प्रकार जब संसद पर आतंकी हमला हुआ और सुरक्षा बलों ने अपनी जान पर खेलकर उस हमले को विफल किया तो अधिकांश युवा यह कहते सुने गये कि काश !  सुरक्षा बल आतंकियों को अंदर घुस जाने देते।
बेशक ये दोनों ही टिप्‍पणियां गैरजिम्‍मेदारी का परिचय देती हैं लेकिन इनसे एक बात का पता जरूर लगता है कि देश की जनता और विशेषकर युवा वर्ग उन लोगों से किस कदर आजिज आ चुका है जो खुद को देश का कर्णधार तथा भाग्‍यविधाता कहते हैं। 
यदि देखा जाए तो यह एक संदेश भी है कि स्‍वतंत्र भारत का युवा क्‍या सोचता है और वह किस मन: स्‍थति में जी रहा है। युवाओं की इन टिप्‍पणियों के गूणार्थ समझना यूं भी जरूरी है कि भारत को युवा देश माना जा रहा है यानि वो देश जिसकी कुल जनसंख्‍या में सबसे ज्‍यादा संख्‍या युवाओं की है।
संसद पर हमले को एक लम्‍बा अरसा गुजर गया लेकिन बनारस का बम ब्‍लास्‍ट हाल का है इसलिए फिलहाल यदि वहीं की बात करें तो अब सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या भ्रष्‍टाचार ने वाकई देश के हालात इतने खराब कर दिये हैं कि युवक ऐसा सोचने को बाध्‍य है ?
इस प्रश्‍न का उत्‍तर 'हां' में मिलता है क्‍योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के चारों स्‍तंभों से भ्रष्‍टाचार की 'बू' आने लगी है। संवैधानिक तीनों स्‍तंभ यानि विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका में से विधायिका व कार्यपालिका तो काफी पहले भ्रष्‍ट हो चुके थे। यह भी कह सकते हैं कि वह कभी ईमानदार रहे ही नहीं। बाकी बची थी न्‍यायपालिका, तो वह भी अब अछूती नहीं रही। सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने ऐसे ही नहीं कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में कुछ सड़ रहा है। उधर सुप्रीम कोर्ट में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं है। 
चौथा और गैर संवैधानिक स्‍तंभ कहलाता है मीडिया। गैर संवैधानिक होते हुए लोकतंत्र में मीडिया की एक अहम् व सशक्‍त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। वह भूमिका जिसके कारण मीडिया का महत्‍व कभी कम नहीं हुआ और जिसके कारण तीनों संवैधानिक स्‍तंभ उसे अहमियत देने के लिए मजबूर रहे।
यह मीडिया भी भ्रष्‍टाचार की दलदल में बड़ी तेजी के साथ समा रहा है। पहले तो पेड न्‍यूज़ ने और अब स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने मीडिया में भ्रष्‍टाचार को रेखांकित किया है लिहाजा सबका ध्‍यान इस ओर गया।
अब जबकि चारों स्‍तंभों को भ्रष्‍टाचार का घुन लग चुका हो और किसी भी देश का भविष्‍य कहलाने वाले युवाओं के भविष्‍य पर गहरा सवालिया निशान लगा हो, तो युवा सोचेगा भी क्‍या।
वह यही सोच सकता है क्‍योंकि उसे यह सब सोचने पर लगभग मजबूर किया जा रहा है।
बनारस के शीतला माता घाट पर किये गये बम विस्‍फोट से हालांकि बहुत अधिक नुकसान नहीं हुआ लेकिन बड़ा मुद्दा यह है कि आतंकी आखिर बार-बार हमारे यहां ब्‍लास्‍ट कर हमारी संप्रभुता को खुली चनौती दे रहे हैं और हम आज तक उनके रहमोकरम पर जिंदा हैं।
यही कारण है कि लोग आज पूछ रहे हैं- बनारस के बाद कहां ? उन्‍हें सरकार से कहीं अधिक आतंकियों के नेटवर्क पर भरोसा है। उन्‍हें मालूम है कि सरकार अभी तक ऐसा कोई तंत्र खड़ा नहीं कर पायी है जो आतंकवादियों की प्‍लानिंग का उसके अंजाम तक पहुंचने से पहले पता लगा सके।
सरकार प्रदेश की हो या देश की, उसे आतंकियों के बावत जो जानकारियां मिलती भी हैं वो इतनी मामूली होती हैं जिनके आधार पर किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा जा सकता।
संभवत: इसीलिए बनारस ब्‍लास्‍ट के बाद केन्‍द्र और प्रदेश सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्‍यारोप में उलझी हैं जबकि ब्‍लास्‍ट करने वालों का कोई सुराग नहीं लगा। जिनके ऊपर कानून-व्‍यवस्‍था का निर्वहन करने की जिम्‍मेदारी है, वह अंधेरे में तीर चला रहे हैं। वोट की राजनीति के लिए आजमगढ़ में दबिश न देने की हिदायत दे रहे हैं। दलील दी जा रही है कि आजमगढ़ को बदनाम किया जा रहा है। इनसे कोई ये पूछने वाला नहीं है कि विस्‍फोट करने वालों के तार आजमगढ़ से जुड़े होने की सूचना आम पब्‍िलक ने नहीं दी। ये सूचना भी सरकारी तंत्र ने ही दी। फिर आजमगढ़ में दबिश देने से मनाही क्‍यों ? सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि एक खास तबके का वोट बैंक उसकी वजह से प्रभावित न हो।
नेताओं के लिए राष्‍ट्रहित कोई मायने नहीं रखता, यह एक आम धारणा बन चुकी है। यह धारणा यूं ही नहीं बनी, इसके पीछे कुछ खास कारण हैं। सब जानते हैं कि जब कभी कोई आतंकी वारदात देश के अंदर कहीं होती है तो आतंकियों तक पहुंचने की बजाय सारा तंत्र इस बहस में उलझ जाता है कि वारदात को अंजाम देने वाले किस तबके से थे। वो हिंदू थे या मुसलमान। सिख थे या ईसाई। कोई यह नहीं सोचता कि वो किसी वर्ग से हों समाज, देश व मानवता के अपराधी हैं। उनकी पहचान किसी समुदाय से नहीं, उनके अपराध से की जानी चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं। बस इसीलिए आज यह पूछा जा रहा है कि बनारस के बाद कहां ?
बात सही भी है क्‍योंकि कोई आतंकी वारदात आखिरी साबित नहीं होती। मुंबई पर किये गये आतंकी हमले के बाद यह माना जा रहा था कि सरकार शायद अब ऐसे कुछ मुकम्‍मल इंतजामात करेगी कि कोई आतंकी संगठन कहीं किसी वारदात को अंजाम नहीं दे पायेगा लेकिन यह विश्‍वास टूट गया।
जब आतंकवादी किसी एक जगह को बार-बार टारगेट बना सकते हैं तो उनके लिए किसी नई जगह पर वारदात करना और भी आसान है। बनारस को फिर टारगेट बनाकर उन्‍होंने यह संदेश दिया है कि वह जब चाहें और जहां चाहें, अपनी नापाक हरकतों को अंजाम दे सकते हैं। रही बात किसी नई जगह की तो कहीं भी कुछ करने को स्‍वतंत्र हैं।
जिन प्रमुख स्‍थानों पर आतंकी साया मंडराने की सूचनाएं मिलती रहती हैं, उनमें मथुरा तथा आगरा शामिल हैं। अब अगर बात करें यहां की सुरक्षा-व्‍यवस्‍था को लेकर तो वह कृष्‍ण जन्‍मभूमि, मथुरा रिफाइनरी तथा ताजमहल तक सीमित है। इसके बाद सब भगवान भरोसे हैं।
मथुरा हो या आगरा, कहीं के जिला प्रशासन को न तो यह मालूम है कि उनके जिलों में कितने मोबाइल उपभोक्‍ता हैं। कितने पोस्‍टपेड कनैक्‍शन हैं और कितने प्रीपेड। उनकी आइडेंटिटी सही है या फर्जी।
यहीं नहीं, पुलिस तथा प्रशासन को तो यह तक नहीं मालूम कि इन दो अति संवेदनशील जिलों में कितने साइबर कैफे हैं और कितने लोग व्‍यक्‍ितगत रूप से इंटरनेट का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। जो इंटरनेट यूजर हैं, उनका पेशा क्‍या है।
इन हालातों में किसी के भी द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाना बहुत मामूली बात है। फिर सांप जब डस कर निकल जाता है तब लकीर पीटने की औपचारिकता निभाई जाती है। वो भी तब तक जब तक आम पब्‍िलक का गुस्‍सा ठण्‍डा नहीं पड़ जाता। विरोधियों के तीर चलने बंद नहीं हो जाते। जैसे ही आक्रोश ठण्‍डा पड़ने लगता है, लकीर पीटने की कवायद भी बंद कर दी जाती है। शायद इस इंतजार में कि जब अगली बारदात होगी, तब देखा जायेगा।
शासन-प्रशासन की इसी मानसिकता के कारण संभवत: कोई आतंकी वारदात, आखिरी वारदात साबित नहीं होती।
संभवत: यही वो वजह है जो युवाओं को ऐसा कुछ सोचने पर मजबूर कर रही है कि कहीं बनारस का ब्‍लास्‍ट नेताओं ने ही जनता का ध्‍यान भ्रष्‍टाचार व महंगाई जैसी लाइलाज समस्‍याओं से हटाने के लिए तो नहीं कराया।
युवाओं की इस सोच को गैरजिम्‍मेदाराना भले ही मान लिया जाए लेकिन पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता क्‍योंकि आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूब चुके हमारे तंत्र का किसी भी हद तक गिर जाना, आश्‍चर्य की बात नहीं रह गई। वह निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए कुछ भी कर और करा सकते हैं। किसी भी हद तक जा सकते हैं। वो दंगे-फसाद करा सकते हैं तो बम ब्‍लास्‍ट भी करा सकते हैं।
वो देश का पैसा लूटकर विदेशी बैंकों में जमा कर सकते हैं तो पैसे की खातिर विदेशी एजेंट भी बन सकते हैं। ऐसे उदाहरण सामने हैं।
फिर कैसे तो जनता यह भरोसा करे कि नेता चाहे कुछ भी कर लें लेकिन देश की संप्रभुता से कोई समझौता नहीं करेंगे। वह कैसे मान ले कि बनारस का ब्‍लास्‍ट आखिरी ब्‍लास्‍ट साबित होगा।
अगर आज कोई युवा फेसबुक पर यह लिख रहा है कि बनारस में ब्‍लास्‍ट आतंकियों की बजाय नेताओं ने तो नहीं कराया, तो इसमें युवक का क्‍या दोष ?

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

दलालों का देश या देश के दलाल ?


 
विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र में घोटालों की जो श्रृंखला बन चुकी है, उसे देखकर ऐसा महसूस होता है कि या तो ईमानदारी और बेईमानी की परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी या फिर भ्रष्‍टाचार को लेकर अपनी सोच को ज्‍यादा उदार बनाना होगा।
घोटालों के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी लकीर खींचने वाले 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने भ्रष्‍टाचार के बावत एक प्रकार की अघोषित बहस छेड़ दी है। इस बहस का मूल मुद्दा यह है कि आखिर भ्रष्‍टाचार कहते किसे हैं और भ्रष्‍ट आचरण के मानदण्‍ड क्‍या हैं ?
बहस में पड़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाला है क्‍या और इसे किस तरह अंजाम दिया गया।
सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 1.77 लाख करोड़ रुपये का है। सीएजी ने यह आंकड़ा निकालने के लिए 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन और मोबाइल कंपनी एस-टेल के सरकार को दिए प्रस्तावों को आधार बनाया है।
दूरसंचार की रेडियो फ्रिक्वेंसी को सरकार नियंत्रित करती है और अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीए) से तालमेल बनाकर काम करती है। दुनिया में आई मोबाइल क्रांति के बाद कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। सरकार ने हर कंपनी को फ्रिक्वेंसी रेंज यानी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर लाइसेंस देने की नीति बनाई। उन्नत तकनीकों के हिसाब से इन्हें पहली जनरेशन (पीढ़ी) अर्थात 1जी, 2जी और 3जी का नाम दिया गया। हर नई तकनीक में ज्यादा फ्रिक्वेंसी होती है और इसीलिए टेलीकॉम कंपनियां सरकार को भारी रकम देकर फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस लेती हैं।
सीएजी रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने 2008 में नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन किया। इसके लिए उनके विभाग ने 2001 में आवंटन के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को आधार बनाया, जो काफी पुरानी तथा आज के संदर्भ में औचित्‍यहीन थी। उन्होंने इसके लिए नीलामी के बिना ही पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर आवंटन किए। इससे 9 कंपनियों को काफी लाभ हुआ। प्रत्येक को केवल 1651 करोड़ रुपयों में स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए जबकि हर लाइसेंस की कीमत 7,442 करोड़ रुपयों से 47,912 करोड़ रुपये तक हो सकती थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस नीलामी का आवंटन
हालांकि दूरसंचार विभाग ने पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किया, लेकिन इसमें भी अनियमितताएं कर कुछ कंपनियों को सीधा लाभ पहुंचाया। कुल 122 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस अयोग्य और अपात्र कंपनियों को दिए गए। लाइसेंस आवंटन में कानून मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के सुझावों को भी ताक पर रख दिया गया।
सीएजी ने 1.77 लाख करोड़ का आंकड़ा निकालने के लिए दो तथ्यों को आधार बनाया। उन्होंने इस साल 3जी आवंटन में मिली कुल रकम और 2007 में एस-टेल कंपनी द्वारा लाइसेंस के लिए सरकार को दिए प्रस्ताव के आधार पर यह नतीजा निकाला। सीएजी के अनुसार 122 लाइसेंस के आवंटन में सरकार को जितनी रकम मिली, उससे 1.77 लाख करोड़ रुपए और मिल सकते थे। कहने का तात्‍पर्य यह है कि 1.77 लाख करोड़ रुपये कम लिये गये इसीलिए यह घोटाला 1.77 लाख करोड़ रुपयों का माना गया।
जाहिर है कि ये सब अनियमितताएं यूं ही नहीं बरती गयी होंगी। ऐसा करने के पीछे कुछ खास निजी मकसद जरूर रहे होंगे और उन्‍हें स्‍पेक्‍ट्रम के आवंटन से पहले अथवा बाद में पूरा किया गया होगा। उक्‍त खास और निजी मकसद का इल्‍म सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाने वाले याची द्वारा दी गयी कुछ जानकारियों से हो रहा है। उसने याचिका के माध्‍यम से जानना चाहा है कि 18 अक्टूबर 2007 को अनिल अंबानी की कंपनी टाइगर ट्रस्टी ने किसी विदेशी कंपनी को अपने 50 लाख शेयर ट्रांसफर किए, जबकि कंपनी के बैंक अकाउंट में एक हजार करोड़ रु. थे। सीबीआई ने यह जानने की कोशिश नहीं की है कि यह शेयर किसे ट्रांसफर किए गए। यही नहीं, याचिकाकर्ता द्वारा दी गयी ठोस जानकारी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआई द्वारा अक्टूबर 2009 में दर्ज एफआईआर पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। 1.77 लाख करोड़ रुपए के इस घोटाले में लाभ कमाने वाली दो कंपनियों का सीवीसी की रिपोर्ट में नाम था, लेकिन सीबीआई की एफआईआर में उन्हें शामिल नहीं किया गया। दो कंपनियों को 1500-1600 करोड़ रुपए में स्पेक्ट्रम दिया गया, जबकि कुछ दिन बाद ही इसके लिए छह हजार करोड़ रुपए वसूले गए। सीबीआई ने सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर अज्ञात लोगों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया था।
इतना सब कुछ हो गया और सरकार का मुखिया गांधी जी के तीनों बंदरों की सीख को आत्‍मसात कर हाथ पर हाथ रखे बैठा रहा। उसने न कुछ देखा, ना सुना और ना बोला। इस सब के बावजूद संप्रग की अध्‍यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस के घोषित राष्‍ट्रीय महासचिव व अघोषित युवराज राहुल गांधी आज प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बचाव कर रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्‍टाचार सिर्फ रिश्‍वत खाने तक सीमित है। भ्रष्‍टाचार की शिकायतों को लगातार अनदेखा करना, उन पर कोई टिप्‍पणी तक ना करना और कानों में तेल डालकर सोते रहना सोनिया व राहुल के मुताबिक भ्रष्‍टाचार नहीं है।
सोनिया गांधी द्वारा मनमोहन सिंह पर लग रहे आरोपों को शर्मनाक बताने का कुल जमा निष्‍कर्ष तो यही निकलता है कि किसी सरकार का मुखिया अपनी नाक के नीचे लाखों करोड़ का घोटाला होते देखकर भी केवल इसलिए ईमानदार है क्‍योंकि उसने खुद रिश्‍वत नहीं खायी।
अगर ईमानदारी ऐसी किसी कमजोरी का नाम है जो अपनी आंखों के सामने हो रही बेईमानी के खिलाफ मुंह खोलने की इजाजत नहीं देती तो निश्‍चित ही वो ईमानदारी, बेईमानी से भी बदतर है और ऐसा ईमानदार आदमी, बेईमानों से भी गया-गुजरा है।
2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले में किस-किस की भूमिका रही और यह भूमिका किस स्‍तर की थीं, यह तो आगे आने वाला वक्‍त ही बतायेगा लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि 1.77 लाख करोड़ रुपए का यह घोटाला न तो रातों-रात हुआ है तथा ना ही इसे अकेले ए. राजा ने अंजाम दिया है।
अभी तक इस मामले का जो आंशिक सच सामने आ पाया है, उससे साबित होता है कि देश इस समय स्‍वतंत्रत भारत के सर्वाधिक संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसा लगता है जैसे इस देश की कमान राजनीतिक पार्टियों या उनके नेताओं के हाथ में न होकर दलालों के हाथ में है और वही राज कर रहे हैं। यहां ना डेमोक्रेसी कायम है और ना ब्‍यूरोक्रेसी, यहां अगर कुछ कायम है तो वह है हिप्‍पोक्रेसी। जो जितना बड़ा हिप्‍पोक्रेट, वह उतना सफल इंसान।
हिप्‍पोक्रेट्स की इस जमात में एक तबका बड़ी शिद्दत तथा तेजी के साथ और जुड़ा है, और यह तबका है मीडियाकर्मियों का। वह मीडियाकर्मी जिन्‍हें अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर किसी के भी ऊपर कीचड़ उछालने का लाइसेंस मिला हुआ है। वह मीडियाकर्मी जो खुद को लोकतंत्र का सच्‍चा 'पहरुआ' कहते हैं लेकिन हकीकत में वह उसके लिए कलंक बन चुके हैं। एनडीटीवी की ग्रुप एडीटर बरखा दत्‍त और हिंदुस्‍तान टाइम्‍स के एडीटोरियल एडवाइजर वीर सिंघवी का नाम कार्पोरेट दलाल नीरा राडिया के साथ सार्वजनिक हो ही चुका है। अभी और ऐसे कितने नाम सामने आयेंगे, यह तो फिलहाल भविष्‍य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इलैक्‍ट्रॉनिक पत्रकारिता व इसके पॉलिश्‍ड पत्रकारों ने मीडिया को गर्त तक ले जाने का काम बखूबी किया है।
ये वो लोग हैं जो आज तक छोटे शहरों और कस्‍बों में खुद इन्‍हीं के लिए काम करने वाले स्‍ट्रिंगर्स को जर्नलिज्‍म का कोढ़ तथा दलाल प्रचारित करते रहे हैं जबकि कड़वा सच यह बखूबी जानते हैं। ये और इनके मालिकान खूब जानते हैं कि दिन-रात एक करके और जान हथेली पर लेकर काम करने वाले स्‍ट्रिंगर इनसे उतना पैसा भी नहीं पाते जितने में अपनी भागदौड़ का खर्चा पूरा कर सकें। घर-परिवार चलाने की तो सोचना तक बेमानी है। इन हालातों में वह कैसे और क्‍यों काम करते हैं, इस सच्‍चाई से भी कोई मीडिया व्‍यवसायी अनभिज्ञ नहीं होता। अगर यह कहा जाए कि मीडिया तथा मीडियाकर्मियों को भ्रष्‍ट बनाने में सबसे बड़ी भूमिका मीडिया व्‍यवासाइयों की है तो कुछ गलत नहीं होगा।
बहरहाल, 2जी स्‍पेक्‍ट्रम घोटाले ने एक बात पूरी तरह साफ कर दी है कि इस देश के अंदर बह रही भ्रष्‍टाचार की गंगा में हर कोई हाथ धोने को बेताब है। फर्क है तो केवल इतना कि कोई हाथ धोकर तमाशबीन बना बैठा है और कोई किनारे बैठा मौके की तलाश कर रहा है।
लोकतंत्र के तीनों घोषित स्‍तंभ विधायिका, न्‍यायपालिका तथा कार्यपालिका पर तो भ्रष्‍टाचार के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब एकमात्र अघोषित स्‍तंभ 'पत्रकारिता' भी
इसमें न केवल शामिल हो चुका है बल्‍िक इनके लिए मध्‍यस्‍थ तथा लायजनर का काम कर रहा है।
इन हालातों में विचारणीय प्रश्‍न यह है कि जब 'मेढ़' ही 'खेत' को खाने पर आमादा हो तो वह खेत बचेगा कैसे और कब तक बचेगा। देश की अर्थव्‍यवस्‍था पर सीधी चोट करने वालों का बचाव यदि इसलिए किया जायेगा कि किसी भी प्रकार सरकार चलती रहे, यदि इसलिए एक प्रधानमंत्री अपने ही बेईमान मंत्रियों को खुली लूट करते देखता रहेगा कि वह कथित रूप से ईमानदार है तो उस देश को कितने समय तक बचाया जा सकता है। सरकारी खजाना किसी राजनीतिक पार्टी या सत्‍ताधारी दल की निजी सम्‍पत्‍ति नहीं होता। उस पर एकमात्र अधिकार जनता का है। उस खजाने को सुरक्षित ना रख पाने वाला, उसमें सेंध लगाने वाला तथा उसको नुकसान पहुंचाने वाला व्‍यक्‍ित जितना दोषी है, उतना ही दोषी वह व्‍यक्‍ित भी है जो जिम्‍मेदार पद पर रहते हुए चुपचाप यह सब देख रहा हो। तल्‍ख सच्‍चाई तो यह है कि वह उस पद पर रहने का हकदार ही नहीं है क्‍योंकि किसी की ईमानदारी अगर उसके लिए कमजोरी बन जाए तो न ऐसी ईमानदारी किसी काम की और ना ऐसा व्‍यक्‍ित।
देश इस समय ऐसे संक्रमण काल से गुजर रहा है जहां कुछ कठोर निर्णय लेने ही होंगे क्‍योंकि यदि अब भी वो निर्णय नहीं लिये गये तो हम निर्णय लेने लायक भी नहीं रहेंगे।
खोखली तरक्‍की के जिस सोपान पर चढ़कर हम इतरा रहे हैं, वह हमें एक झटके में किसी भी वक्‍त रसातल दिखा सकता है।
मैंने सुना है कि किसी देश में मैडम ट्रेसा द्वारा स्‍थापित ''चैम्‍बर ऑफ हॉरर्स'' नामक एक अनोखा अजायबघर था। इस अजायबघर में उसके नाम को सार्थक करती हुई भयानक वस्‍तुओं का संग्रह था।
अगर हमारे देश में सब-कुछ इसी प्रकार चलता रहा और देश को लूटने वाले तथा उसे लुटते देखने वाले अपने-अपने पक्ष में दलीलें देकर एक-दूसरे को इसी तरह जिम्‍मेदार ठहराते रहे तो मुझे पूरा यकीन है कि शीघ्र ही एक चैम्‍बर ऑफ हारर्स नामक अजायबघर हमारे यहां भी कायम किया जायेगा। इस अजायबघर में हमारे मंत्रियों और नेताओं की मूर्तियां स्‍थापित होंगी ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां यह जान सकें कि कभी भारत को कैसे-कैसे जीव-जंतु चलाते थे।
आने वाले युग के छात्रों को अध्‍यापक इन मंत्री व नेताओं की मूर्तियां दिखाकर इस बेईमान व भ्रष्‍ट दौर की दास्‍तां सुनायेंगे और बतायेंगे कि किस तरह के अकर्मण्‍य लोग सत्‍ता पर काबिज थे।
अध्‍यापक उन बच्‍चों को बतायेंगे कि सच्‍चाई व सिद्धांत पर दृढ़ रहना ऐसे अवगुण थे जिनसे ये मंत्री पद के भूखे महापुरुष हमेशा दूर रहते थे और उसी के सिर पर सेहरा बंधता था जो सच्‍चाई का पूरी तरह गला घोंट सके तथा जिस सिद्धांत पर खड़ा है, उसी की पीठ में छुरा घोंप सके।
निश्‍चित ही आने वाले युग के ये विद्यार्थी आश्‍चर्य करेंगे कि देश चलाने वाले जिन लोगों को बुद्धि की सबसे अधिक जरूरत थी, वही इस दृष्‍टि से सर्वथा शून्‍य थे।
उन्‍हें ऐसी जनता पर भी आश्‍चर्य होगा जो शेर की खाल ओढ़कर देश को पूरी तरह बर्बाद करने वाले इन गीदड़ों से शासित होती रही। 

बुधवार, 24 नवंबर 2010

यम के ''फांस'' में यमुना

यमद्वितीया पर विशेष

लीजेण्‍ड न्‍यूज़
आज यमद्वितीया है, यम के ''फांस'' (फंदे) से मुक्‍ित का पर्व। कहते हैं कि आज के दिन यमुना के तीर्थस्‍थल मथुरा में विश्राम घाट पर जो भाई-बहिन हाथ पकड़ कर एकसाथ स्‍नान करते हैं, उन्‍हें यम के फांस से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्‍ित मिल जाती है। यम के फांस से मुक्‍ति अर्थात बार-बार जन्‍म और मृत्‍यु के उस बंधन से मुक्‍ित जिसकी कामना बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, साधु-संत, योगी तथा वैरागी भी करते हैं।
यमुना जल के पान (आचमन) और उसमें स्‍नान से पतितों के भी पावन होने की धार्मिक मान्‍यता के कारण यूं तो वर्षभर लाखों लोग मथुरा आते हैं लेकिन यमद्वितीया पर यह संख्‍या एक ही दिन में लाखों तक पहुंच जाती है। जिला प्रशासन को इस दिन सुरक्षा व सुविधा के विशेष इंतजाम करने पड़ते हैं।
आदिकाल से चली आ रहीं धार्मिक मान्‍यताओं के तहत पतित पावनी और मोक्ष प्रदायनी यमुना बेशक अनवरत लोगों के पाप धो रही हो, उन्‍हें यम के फांस से मुक्‍ित दिला रही हो लेकिन आज वह खुद इस फांस से मुक्‍ित का मार्ग तलाश रही है। प्रदूषण ने उसके अस्‍ितत्‍व को खतरे में डाल दिया है। वह तिल-तिल उस दिशा में जा रही है जहां से उसके मात्र कागजों तक सिमट जाने की संभावना बलवती होती है। इसे कलियुग का प्रभाव कहें या कलियुगी मानसिकता का दुष्‍परिणाम कि मृत्‍यु के देवता और अपने भाई ''यम'' के फंदे से मुक्‍ित दिलाने वाली ''यमुना'' को अब अपने लिए कोई मुक्‍ितदाता नहीं मिल पा रहा। यमुना को खुद के लिए एक ऐसे तारनहार की तलाश है जो उसे प्रदूषण से मुक्‍ित दिला सके। उन लोगों का इंतजार है जो उसे पूरी तरह काल के गाल में समाने से पहले एकबार फिर जीवनदायिनी बना सकें। व्‍यवस्‍थागत दोष से आकंठ भ्रष्‍टाचार में डूबी हमारी विधायिका, कार्यपालिका तथा न्‍यायपालिका को चेता सकें, उन्‍हें यह समझा सकें कि जल के बिना जीवन संभव नहीं है इसलिए जल की अक्षय स्‍त्रोत नदियों को पवित्र बनाये रखना जीवन को बचाये रखने के लिए जरूरी है।
कहने को यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति के लिए दायर हुई जनहित याचिका के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट तथा सुप्रीम कोर्ट ने न केवल अनेक दिशा-निर्देश दिये बल्‍िक उनका पालन कराने हेतु एक कमेटी का गठन किया और एक नोडल अधिकारी की भी नियुक्‍ित की परंतु आज वह सब बेमानी हो चुके हैं।
कमेटी निष्‍क्रिय पड़ी है और माननीय न्‍यायालय के अधिकार प्राप्‍त नोडल अधिकारी (जिले के एडीएम प्रशासन) को न अपने अधिकारों का पता है, न कर्तव्‍यों का।
जाहिर है कि जब उन्‍हें ही अपने अधिकार और कर्तव्‍यों की जानकारी नहीं है तो वो यमुना एक्‍शन प्‍लान से जुड़े विभागों तथा उनके अधिकारियों को उनके अधिकार व कर्तव्‍य कैसे बतायेंगे।
ऐसे में वही हो रहा है जिसकी उम्‍मीद की जाती है। पतित पावनी की संज्ञा प्राप्‍त यमुना में नाले और नालियों की गंदगी सहित चांदी एवं साड़ियों के कारखानों का कैमिकलयुक्‍त जहरीला पानी दिन-रात समाहित हो रहा है। गटर की मल-मूत्र युक्‍त गंदगी सीधी गिर रही है और हाईकोर्ट के आदेशों को ताक पर रखकर अवैध रूप से संचालित की जा रही पशुवधशाला का रक्‍त समा रहा है।
यमुना की प्रदूषण मुक्‍ित के लिए अब तक मिला सैंकड़ों करोड़ रुपया भ्रष्‍टाचारियों की तिजोरियां भर चुका है और इस मद में मिलने वाले बाकी रुपयों को हड़पने की व्‍यवस्‍था की जा चुकी है।
आश्‍चर्यजनक रूप से माननीय न्‍यायालय भी चुप्‍पी साधे बैठे हैं जबकि विभिन्‍न माध्‍यमों से उन तक बार-बार इस आशय की शिकायतें पहुंचायी जाती रही हैं कि यमुना प्रदूषण के मामले में उनके द्वारा दिये-गये आदेश-निर्देश मजाक बनकर रह गये हैं। उनका अनुपालन न करके कोर्ट की लगातार अवमानना की जा रही है। जिन अधिकारियों पर यमुना को प्रदूषणमुक्‍त रखने के लिए सुझाये गये उपायों का अनुपालन कराने की जिम्‍मेदारी है, वही निजी आर्थिक लाभ उठाकर यमुना के अस्‍तित्‍व को षड्यंत्र पूर्वक समाप्‍त करा रहे हैं।
10 जुलाई सन् 1998 को यमुना प्रदूषण सम्‍बन्‍धी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा दिये गये आदेश-निर्देशों का लगभग तभी से खुला उल्‍लंघन किया जा रहा है लेकिन आज तक इसके लिए जिम्‍मेदार किसी अधिकारी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गयी।
अपनी गर्दन बचाये रखने एवं न्‍यायपालिका को गुमराह करने के लिए अधिकारी समय-समय पर बैठकें तो करते हैं तथा उनमें शिकायतों के निस्‍तारण का भी नाटक किया जाता है लेकिन यह सारी कवायद केवल इसलिए ताकि सनद रहे और वक्‍त जरूरत काम आये।
इन हालातों में ऐसी कोई उम्‍मीद करना कि पतित पावनी और मोक्षदायिनी यमुना खुद पावन हो पायेगी, दिवास्‍वप्‍न देखने से अधिक कुछ नहीं।
यमुना को अगर उसका खोया हुआ स्‍वरूप लौटाना है, उसे प्रदूषणमुक्‍त करना है, उसकी संज्ञाएं कायम रखनी हैं तो सबको अपने-अपने हिस्‍से का संकल्‍प करना होगा।
कुछ ऐसा करना होगा जिससे हमारे व्‍यवस्‍थागत दोष दूर हों और हम यमुना के साथ-साथ समस्‍त जीवनदायिनी नदियों की पवित्रता उसी भावना, उसी धार्मिक मान्‍यता की तरह बनाये रख सकें जिसके तहत हजारों साल बाद भी हम यमुना का पान (आचमन) तथा उसमें स्‍नान करने जाते हैं।
यदि समय रहते ऐसा कुछ नहीं किया गया तो नदियों के साथ-साथ हमारा भी अस्‍तित्‍व समाप्‍त होने से हमें कोई नहीं बचा पायेगा। तब हम पछतायेंगे जरूर लेकिन देर इतनी हो चुकी होगी कि उसका भी कोई मतलब नहीं रह जायेगा।
सचमुच पूरे देश में ही इस कहावत को बदलना होगा ,हम आपकी इस बात से पूरी तरह सहमत हैं.....सुमित्रा सिंह ,खुर्दबुर्द.ब्लागस्पाट.कॉम

प्‍लीज ! ''उल्‍लुओं'' को दोष मत दो


लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
बर्बाद गुलिस्‍तां करने को, जब एक ही उल्‍लू काफी हो ।
अंजामे गुलिस्‍तां क्‍या होगा, हर शाख पर उल्‍लू बैठा है ।।
मुझे नहीं मालूम कि ये पंक्‍ितयां कब तथा किस परिपेक्ष्‍य में लिखी गयी थीं लेकिन इतना जरूर पता है कि स्‍वतंत्रता मिलने के बाद से इनका इस्‍तेमाल अक्‍सर उन लोगों के लिए किया जाता रहा है जिन्‍हें हम ''नेता'' कहते हैं और जो खुद को देश का कर्णधार एवं भाग्‍य विधाता मानते रहे हैं।
आज में एक ऐसी कहानी आपके लिए लिख रहा हूं जो शायद इस सर्वमान्‍य धारणा को बदल सके और समझा सके कि किसी चमन की बर्बादी के पीछे वास्‍तविक कारण क्‍या होते हैं।
कहानी कुछ इस तरह है कि किसी जंगल में हंस-हंसिनी का एक जोड़ा वर्षों से रहा करता था। जंगल बहुत हरा-भरा होने के कारण उनका जीवन बड़े आनंदपूर्वक व्‍यतीत हो रहा था। एक साल उस जंगल में भयानक सूखा पड़ा। पेड़-पौधों के साथ-साथ पानी के सारे साधन सूख गये। यहां तक कि पशु-पक्षियों के पीने लायक पानी भी नहीं बचा।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कृपालु या कलंक


मथुरा। खुद को पांचवां जगद् गुरू शंकराचार्य बताने वाले कृपालु महाराज के मनगढ स्‍िथत आश्रम में भण्‍डारे के दौरान 65 लोगों की मौत के तत्‍काल बाद उन्‍हीं के द्वारा वृंदावन में फिर भण्‍डारे का वैसा ही आयोजन करना यह साबित करता है कि कृपालु महाराज और उसके अनुयायियों को इतने लोगों की मौत का न तो कोई दु:ख हुआ न कोई अफसोस। संवेदनहीनता की पराकाष्‍ठा का निम्‍नतम् एवं घिनौना उदाहरण प्रस्‍तुत करते हुए कृपालु के प्रवक्‍ता ने यह और कह दिया कि जो कुछ हुआ, वह ईश्‍वर की मर्जी थी।
यहीं नहीं, कृपालु के प्रवक्‍ता की मानें तो उनके द्वारा आयोजित इस भण्‍डारे के लिए आश्रम की ओर से किसी को निमंत्रण नहीं भेजा गया था। 65 गरीब लोगों की दर्दनाक मौत के बाद कृपालु के प्रवक्‍ता का यह बयान जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चौंकाता है प्रशासन का उस बयान को चुपचाप स्‍वीकार कर लेना। वह भी तब कि जांच रिपोर्ट में इस पूरी घटना के लिए आश्रम को प्रथम द्रष्‍ट्या दोषी बताया गया।
घटना के बाद से लगभग भूमिगत हो चुके कृपालु कल अचानक प्रकट हुए और मृतकों तथा घायलों के लिए मुआवजे का चैक मीडिया को बुलाकर प्रशासन के नाम जारी किया। इस दौरान भी कृपालु ने अपना मुंह नहीं खोला।
वृंदावन (मथुरा) स्‍िथत आश्रम में प्रशासन की रोक के बावजूद भण्‍डारे के दौरान नोट बांटे जाने का जवाब आयोजकों ने यह दिया कि भोजन के साथ दक्षिणा देना सामान्‍य बात है और ऐसा करने से प्रशासनिक रोक का उल्‍लंघन नहीं हुआ। आश्‍चर्यजनक रूप से सिटी मजिस्‍ट्रेट ने भी आश्रम की इस बेहूदा दलील पर हां में हां मिला दी जो इस बात की पुष्‍िट करती है कि धर्म के ऐसे धंधेबाजों के समक्ष शासन और प्रशासन कितना बौना है।
सच तो यह है कि कृपालु जैसे लोगों का धर्म या दान-दक्षिणा से दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, अपने कृत्‍यों पर पर्दा डालने और शौहरत हासिल करने के लिए करते हैं। अपनी पत्‍नी की बरसी के नाम पर कृपालु ने यही सब किया वरना गरीबों को मदद करने के तमाम अन्‍य तरीके ऐसे हैं जिन्‍हें अपनाकर एक पंथ दो काज जैसी कहावत चरितार्थ की जा सकती थी। यूं भी यदि कृपालु का संतत्‍व से कोई सम्‍बन्‍ध है तो फिर अपनी दिवंगत पत्‍नी के नाम पर इतने बडे आडम्‍बर का क्‍या मतलब!
दरअसल कृपालु भी उन्‍हीं तथाकथित साधुओं की जमात का हिस्‍सा हैं जिनके कुकृत्‍यों ने सम्‍पूर्ण साधु समाज पर गहरा प्रश्‍नवाचक चिन्‍ह अंकित कर दिया है और जिनके कारण योगगुरू बाबा रामदेव तथा आर्ट आफ लिविंग के संस्‍थापक श्री श्री रविशंकर सहित तमाम धर्माचार्यों को आगे आकर ऐसे तत्‍वों के खिलाफ कार्यवाही करने की हिमायत करनी पडी। हाल ही में पकडे गये इच्‍छाधारी के बावत तो योगगुरू बाबा रामदेव ने यहां तक कह दिया कि ऐसे लोगों को फांसी पर चढा देना चाहिए।
कृपालु महाराज बेशक अपनी अकूत सम्‍पत्‍ित के बल पर अब तक अपने कुकृत्‍यों को दबवाने में सफल रहे हैं लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकलता कि वह पाक-साफ हैं और साधु समाज पर कलंक लगाने वालों से किसी प्रकार भिन्‍न हैं। बात चाहे नागपुर की दो सगी बहनों के साथ बलात्‍कार के मामले से जुडी हो या फिर टुबेगो एण्‍ड त्रिनिदाद की विदेशी धरती पर एक 22 वर्षीय युवती के साथ दुराचार की जिसमें कृपालु को गत वर्ष वहां बंदी बनाया गया था। वृंदावन के आश्रम की भूमि को खरीदने में करोडों रूपयों की स्‍टाम्‍प चोरी का मामला हो या आश्रम के कर्मचारी की संदिग्‍ध मौत का, सब यह संकेत करते हैं कि कृपालु के कारनामे कम से कम संतत्‍व की श्रेणी में नहीं आते।
यह बात दीगर है कि इस सब के बावजूद कृपालु जैसों को संत मानने वालों की कोई कमी नहीं है क्‍योंकि वह उनके काले कारनामों को अपने प्रभाव तथा धर्म की आड में दबाये रखने की जुगत जानते हैं। कृपालु जैसे कथित साधु अपने इन भक्‍तों की काली कमाई को सफेद करने और सरकार की नजरों में धूल झौंकने के विशेषज्ञ हैं।
यही कारण है कि देश के कर्णधार हमारे बडे-बडे नेता इनके चरणों में शीश नवाते हैं और कानून के शिकंजे में फंसने पर इनके मददगार बनते हैं। कौन नहीं जानता कि देश से छिपाई गई कुल काली कमाई का एक बडा हिस्‍सा उन नेताओं, नौकरशाहों तथा सफेदपोशों के कब्‍जे में हैं जो कृपालु जैसे धर्म के धंधेबाजों के यहां अक्‍सर ढोक लगाते हैं। तभी तो देश में धर्म बाकायदा एक ऐसा व्‍यवसाय बन चुका है जो 100 प्रतिशत सफलता की गारण्‍टी देता है। तभी तो आज कोई चैनल ऐसा नहीं जिस पर धर्म की दुकान न सजाई जाती हो। देश का कोई हिस्‍सा ऐसा नहीं जहां धर्म के धंधेबाज पूरी सिद्दत से सक्रिय न हों। कोई शासन और कोई प्रशासन ऐसा नहीं जो इन्‍हें निजी लाभ के लिए संरक्षण न देता हो। और जब तक धर्म की ये दुकानें सरकार और सरकारी नुमाइंदों के संरक्षण में चलेंगी तब तक कृपालु एवं इच्‍छाधारी जैसे बहरूपिये देश के माथे पर कलंक लगाते रहेंगे। कभी बेबस और लाचारों को अपनी हवस का शिकार बनाकर तो कभी अपनी शौहरत की भूख पूरी करने लिए उनकी जिंदगी दांव पर लगाकर।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

शर्म क्‍यों मगर हमें नहीं आती


पिछले दिनों मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन ने कतर की नागरिकता स्‍वीकार कर ली। उनके द्वारा एक लम्‍बे समय से लगातार हिन्‍दू देवी-देवताओं के आपत्‍तिजनक (नग्‍न) चित्र बनाये जाने के कारण उपजे विवाद ने उन्‍हें देश छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया था। हिन्‍दू देवी-देवताओं के प्रति उनकी घृणित सोच बराबर सामने आने की वजह से देशभर की विभिन्‍न अदालतों में उनके खिलाफ कई केस भी दर्ज हुए। हुसैन अपने खिलाफ दर्ज हुए इन मामलों का सामना करने की बजाय यह कहते हुए देश से भाग खडे़ हुए कि उनसे उनकी अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता छीनी जा रही है।
अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता को लेकर उनकी संकीर्ण सोच पर यहां कुछ सवाल खडे़ होते हैं। जैसे-
क्‍या निरंकुशता ही अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता है ? क्‍या किसी सभ्‍य समाज में वर्ग विशेष की धार्मिक भावनाओं को इरादतन ठेस पहुंचाना अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता माना जा सकता है ? क्‍या कोई भी कला तब कला रह जाती है जब उसके कारण समाज में विघटन की स्‍िथति उत्‍पन्‍न होती हो, वह लोगों के इष्‍ट देवी-देवताओं के अपमान का कारण बन रही हो, उससे घृणा के बीज बोए जा रहे हों ?
कला या कलाकार तो लोगों की भावनाओं को सार्थक रूप में उकेरने का काम करते हैं, उनमें ऐसे रंग भरते हैं जिनसे समूचा माहौल खुशनुमा बन जाता है। न कि दंगे-फसाद की स्‍िथति पैदा होती है।
अगर हुसैन यह मानते हैं कि धार्मिक प्रतीकों को बार-बार और लगातार नग्‍न दर्शाना अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता का हिस्‍सा है तो वह कम से कम ऐसा एक प्रयोग उस ध्‍ार्म पर करके देखें जिससे उनका स्‍वयं का ताल्‍लुक है। उन्‍होंने अब तक जितने भी धार्मिक चित्र उकेरे हैं उनमें हिन्‍दू देवी-देवताओं के अतिरिक्‍त किसी अन्‍य धर्म के प्रतीकों की मर्यादा से छेड़छाड़ करने का साहस नहीं दिखाया जिससे साफ जाहिर है कि हुसैन केवल एक धर्म विशेष को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। संभवत: हुसैन भी इस बात से परिचित हैं और इसीलिए उन्‍होंने अदालती कार्यवाही का सामना करने के बजाय उससे भागना ज्‍यादा मुनासिब समझा। सच तो यह है कि हुसैन भले ही अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता को अपने बचाव का हथियार बनाना चाह रहे थे लेकिन उनका कृत्‍य इसका हकदार नहीं है।
कब्र के मुंहाने पर बैठे हुसैन ने अब जिस देश की नागिरकता ली है, वह ऐसी कोई हरकत वहां करके देखें तो उन्‍हें सब पता लग जायेगा। हुसैन जानते हैं कि सिवाय हिंदू धर्म के किसी भी दूसरे धर्म के प्रतीकों से इतनी बेहूदी हरकत करना सीधे मौत को दावत देना है। मौहम्‍मद साहब के कार्टून बनाने पर विश्‍वभर में जिस कदर हंगामा हुआ, उससे क्‍या कोई अनभिज्ञ है। सलमान रश्‍दी को अपनी एक किताब का शीर्षक ''शैतान की आयतें'' रखने पर कितनी बड़ी कीमत चुकानी पडी, यह भी सबको मालूम है। रश्‍दी अपनी जिंदगी बचाये रखने को कहां-कहां नहीं छिपे। और तो और बांग्‍लादेश की लेखिका तस्‍लीमा नसरीन आज तक मुस्‍िलमों (न कि इस्‍लाम) के खिलाफ जाने की सजा दर-दर भटक कर चुका रही हैं। समूचे विश्‍व में केवल भारत ही ऐसा देश है जहां हुसैन जैसी गंदी मानसिकता के लोग न केवल दौलत, शौहरत व इज्‍जत पाते हैं बल्‍िक जब चाहें तब अभिव्‍यक्‍ित की स्‍वतंत्रता के नाम पर धर्म विशेष के आराध्‍यों को नंगा कर सकते हैं।
दरअसल हुसैन जैसी रूग्‍ण मानसिकता के लोग केवल भारत में इसलिए फलते-फूलते हैं कि क्‍यों कि यहां अल्‍पसंख्‍यकों (कथित) को भरपूर राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त है। यहां के नेता वोट की राजनीति के लिए किसी भी अल्‍पसंख्‍यक व्‍यक्‍ित और वस्‍तु का राजनीतिकरण कर सकते हैं। उनके अपने स्‍वार्थ यदि पूरे होते हों तो राष्‍ट्र व राष्‍ट्रीयता उसमें कहीं आडे़ नहीं आती। यदि सवाल राष्‍ट्रीयता का होता तो हुसैन को कानून से भागकर दूसरे मुल्‍क की नागरिकता पाने का मौका इतनी आसानी से नहीं मिल पाता।
आश्‍चर्य तो इस बात पर होता है कि फिल्‍मों के पोस्‍टर बनाने वाला मामूली सा व्‍यक्‍ित दौलत, शौहरत व इज्‍जत की हिंदुस्‍तान से इकठ्ठी की गई अकूत कमाई को लेकर अरब में जा बसता है और यहां के नेता उसके खिलाफ एक शब्‍द नहीं बोलते। वह समूचे देश पर तोहमत लगाकर अपना भारतीय पासपोर्ट लौटा देता है लेकिन कोई उस पर लानत नहीं भेजता। यहां तक कि मीडिया भी उसकी इस हरकत के लिए एक शब्‍द नहीं लिख्‍ाता। आखिर यह कैसी धर्मनिरपेक्ष्‍ाता है कि जहां एक व्‍यक्‍ित दौलत व शौहरत की अपनी हवस पूरी करने के लिए ताजिंदगी एक धर्म के आराध्‍यों को निर्वस्‍त्र करता रहा और पूरा देश केवल इसलिए उसकी हिमायत में खड़ा रहा क्‍योंकि उसका ताल्‍लुक ऐसे दूसरे धर्म से है जो राजनेताओं को उनकी लिप्‍सा पूरी कराने में अहम् भूमिका निभाता है। यदि एम. एफ. हुसैन को लेकर हम इतने पजेसिव हैं तो तस्‍लीमा नसरीन को लेकर क्‍यों नहीं। मुस्‍लिम तो वह भी हैं, पर हम उन्‍हें इसिलए संरक्षण नहीं दे रहे क्‍योंकि वह हमारी वोट की राजनीति का मोहरा बनकर काम नहीं आ सकतीं जबकि उन्‍होंने तो बांग्‍लादेशी मुस्‍िलमों के काले कारनामे 'लज्‍जा' नामक अपनी किताब के माध्‍यम से विश्‍व समुदाय के सामने उजागर किये थे। अयोध्‍या का विवादास्‍पद ढांचा ध्‍वस्‍त किये जाने के बाद उन्‍होंने जो कुछ लिखा वह सभी धर्मों को आजतक आइना दिखा रहा है।
ईमानदारी से कहा जाए तो देश में रहकर की गईं हुसैन की हरकतें और अब देश से बाहर जा बसने के बाद के उनके कारनामे हमारे लिए शर्मनाक हैं परन्‍तु हम बेशर्मी की सारी हदें पार कर चुके हैं। हमारे लिए अब न राष्‍ट्र अहमियत रखता है, न राष्‍ट्रवाद। हमारे लिए अहमियत रखते हैं तो केवल ऐसे निजी स्‍वार्थ जिनके सहारे हम सत्‍ता के सोपानों पर चढ़ते रहें और वहां बैठकर देश की अस्‍िमता को तार-तार होते देखते रहें। -सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

पतन की राह पर ''मीडिया''

मथुरा (लीजेण् न्यूज)। आखिर प्रेस काउंसिल ऑफ इण्िडया के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे. एन. रे को भी ''पेड न्यूज'' के रूप में सामने आये प्रिंट मीडिया के भ्रष्टाचार पर शीघ्र श्वेत पत्र जारी करने की बात कहनी पड़ी। उन्होंने पैसे लेकर खबरें छापने की बढ़ती प्रवृत्ित को गंभीर समस्या बताते हुए कहा कि हम इस बात से बहुत चिंतित हैं। उन्होंने बताया कि इस मामले में श्वेत पत्र जारी करेंगे। इसके लिए समाज के अलग-अलग तबकों से चर्चा कर सूचनाएं जुटाई जा रही हैं।
भारतीय प्रेस परिषद् के अध्‍यक्ष द्वारा इसी संदर्भ में की गई यह टिप्‍पणी रेखांकित करने लायक है कि ''सच का केवल एक पहलू होता है''।
यूं तो पेड न्‍यूज का चलन कई वर्ष पहले अस्‍ितत्‍व में आ चुका था लेकिन इसका वीभत्‍स रूप गत लोकसभा चुनावों में देखने को मिला और तभी से इसके खिलाफ आवाजें उठनी शुरू हुईं। सबसे ज्‍यादा चौंकाने वाली बात यह थी कि मीडिया और विशेषकर प्रिंट मीडिया के खिलाफ आवाज उठाने वालों में एक ओर जहां खुद मीडियाकर्मी आगे आये वहीं दूसरी ओर वो राजनेता तथा राजनीतिक पार्टियां शामिल हुईं जिनका अपना दामन बेदाग नहीं होता। यह स्‍िथति निश्‍िचत ही शर्मनाक है पर सवाल यह पैदा होता है कि क्‍या गंदगी से गंदगी साफ की जा सकती है और मीडिया को पेड न्‍यूज के माध्‍यम से भ्रष्‍टाचार के दलदल में उतारने का जिम्‍मेदार है कौन?
पिछले वर्ष हुए लोकसभा चुनावों के बाद नोएडा से प्रकाशित एक पाक्षिक पत्रिका ने तो अपना 16 जुलाई 2009 का पुरा अंक ''बिकाऊ मीडिया, खरीदार नेता'' जैसे शीर्षक से निकाला। इस अंक में स्‍वर्गीय प्रभाष जोशी से लेकर सौरभ राय, अजय कुमार श्रीवास्‍तव, राजीव यादव, रूप चौधरी, सुशील राघव, सुरेन्‍द्र किशोर जैसे मीडिया से जुड़े दर्जनों लोगों ने आर्टिकल दिये तो पूर्व केन्‍द्रीय मंत्री हरमोहन धवन, देवरिया से समाजवादी पार्टी के प्रत्‍याशी मोहन सिंह, भारतीय कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के राष्‍ट्रीय सचिव अतुल अंजान और भाजपा नेता लालजी टण्‍डन जैसे नेताओं ने बड़े-बड़े मीडिया घरानों को बेनकाब किया।
किसी ने लिखा कि इस चुनाव में पाठकों के विश्‍वास की हत्‍या हो गई तो किसी ने लिखा कि '' जिस तरह शादी-विवाह के मौके पर घोड़े वाला, बैण्‍ड-बाजे वाले आदि धन कमाते हैं, ठीक उसी प्रकार समाचार पत्र चुनाव में छद्म विज्ञापन को धन कमाने का जरिया बना रहे हैं। एक पत्रकार ने लिखा कि पैकेज पत्रकारिता मीडिया की साख को नष्‍ट कर देगी और यदि साख नष्‍ट हो गई तो कौन सा सत्‍ताधारी नेता, भ्रष्‍ट अफसर या फिर बेईमान व्‍यापारी मीडिया की परवाह करेगा?
इस पत्रिका के दिल्‍ली ब्‍यूरो ने तो यहां तक लिख डाला कि इस बार के चुनावों में मीडिया का चरित्र सरेबाजार नीलाम हुआ क्‍योंकि मीडिया हाउस ने चुनाव कवरेज को बाकायदा बिजनेस मान लिया। अखबारों ने विज्ञापन रूपी खबरों के लिए प्रति सेंटीमीटर के हिसाब से अपने पन्‍ने बेचकर विज्ञापन और खबर के बीच की दूरी पूरी तरह समाप्‍त कर दी। चुनाव के परवान चढ़ते ही पैसा लेकर खबरें छापने का अभियान इस कदर तेज हो गया कि अखबारों के बीच बड़े से बड़ा विज्ञापन पैकेज बेचने की होड़ लग गई।
दरअसल गत लोकसभा चुनावों में मीडिया ने उसी प्रकार लोकतंत्र का जमकर मजाक उड़ाया जिस प्रकार अब तक भ्रष्‍ट शासक और प्रशासक उड़ाते रहे हैं। पैसे की खातिर आम आदमी के विश्‍वास की खिल्‍ली उड़ाई गई। अखबारों की ओर से स्‍पष्‍ट कह दिया गया कि जो प्रत्‍याशी पैकेज नहीं लेगा उसकी विज्ञिप्‍ित भी नहीं छपेगी। चुनावों बाद यह साफ हो गया कि पैसे हड़पने के इस खेल में अखबारों ने उन उम्‍मीदवारों की भारी बहुमत से जीत बताई थी जिन्‍हें कुल पांच हजार वोट नहीं मिले और जो जीते उन्‍हें मुकाबले से बाहर बताया गया था। जिन्‍हें पत्रकार, कलमकार, स्‍टाफ रिपोर्टर या ब्‍यूरो चीफ कहा जाता है वह अखबार मालिकों तथा पार्टी प्रत्‍याशियों व पार्टी प्रमुखों के बीच मीडिएटर की भूमिका निभा रहे थे। वह मोलभाव करा रहे थे और इस मोलभाव से निकली खुरचन चाटकर स्‍वयं को तृप्‍त कर रहे थे।
संभवत: इसी के बाद कुछ समाचार पत्रों ने मीडिया से जुड़ी खबरों के लिए अलग से स्‍थान देना शुरू कर दिया ताकि किसी स्‍तर से कहीं हलचल होती दिखाई दे और पेड न्‍यूज के घिनौने खेल में जो समाचार पत्र शामिल नहीं हुए उन्‍हें कुछ संबल मिले। सरकार भी धन लेकर खबर छापने या फिर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उसे दिखाने पर रोक के लिए शीघ्र कानून बनाने हेतु गंभीरता पूर्वक विचार कर रही है। फिलहाल उसे इस तरह के मामले में मिली शिकायतों की पड़ताल के लिए बनाई उप समिति की रिपोर्ट का इंतजार है।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि आज मीडिया घराने और मीडियाकर्मी पतन के जिस रास्‍ते पर चल पडे हैं, वह अत्‍यन्‍त खतरनाक है। उन्‍हें इस रास्‍ते पर और आगे बढ़ने से यदि अतिशीघ्र नहीं रोका गया तो समूचा देश इसके दुष्‍परिणाम भोगेगा। जाहिर है कि मीडिया में भी पेड न्‍यूज के भ्रष्‍टाचार की गंगा ऊपर से बहनी शुरू हुई है औरे ऊपर वालों को इस देश में नियंत्रित करना असंभव नहीं तो टेढ़ी खीर जरूर है।
कौन नहीं जानता कि स्‍िट्रन्‍गर, कस्‍बाई व ग्रामीण संवाद्दाता और यहां तक कि जिला मुख्‍यालयों के ब्‍यूरो दफ्तरों में बैठने वाले अधिकतर पत्रकारों की जीविका दलाली तथा ब्‍लैकमेलिंग पर आधारित है।
कौन है इसके लिए जिम्‍मेदार? क्‍या वो मीडिया घराने नहीं जो सब-क़छ जानते व समझते हुए आंखों पर पट्टी बांधे रहते हैं और इन्‍हीं लोगों को चुनावों के दौरान तथा अन्‍य विशेष अवसरों पर विज्ञापन झटकने का माध्‍यम बनाते हैं।
यही कारण है कि लोकतंत्र में चौथे खम्‍भे की उपमा प्राप्‍त अनेक पत्रकार दिनरात अपनी कलम और ईमान बेचते देखे जा सकते हैं। वह दफ्तर की जिस बीट पर बैठते हैं उससे जुड़े सरकारी अफसरों के तलवे पैसे की खातिर चाटते हैं। जनता के भरोसे का खून करके अफसरों के साथ खबरों की सौदेबाजी करते हैं। यहां तक कि विज्ञप्‍ितयों व दर्ज मुकद्दमों तक को बेच खाते हैं।
ऐसा नहीं है कि इन ब्‍लैकमेलर, दलाल और खबर बेचने वाले पत्रकारों की शिकायत उनके अखबार मालिकों एवं संपादकों तक न पहुंचती हो। उन तक भी ये शिकायतें खूब पहुंचती हैं परन्‍तु वो उन शिकायतों पर गौर नहीं करते। वो जानते हैं कि जो काम उनके मातहत छोटे पैमाने पर कर रहे हैं, वही काम वो खुद बडे़ पैमाने पर करते हैं। कुछ नामचीन समाचार पत्रों के स्‍थानीय संपादक व उनका प्रबंधत्रंत तो इस हद तक गिर चुका है कि अपने अधीनस्‍थों से ही शराब व सबाब की मांग करने में गुरेज नहीं करता। यही लोग उनके घरों की होली-दीवाली मनवाते हैं और यही उनके बच्‍चों के बर्थडे पर किसी मंहगे होटल में केक कटवाने का बंदोबस्‍त करते हैं। शादी की सालगिरह पर ब्‍यूरो दफ्तर से कॉकटेल पार्टी का इंतजाम स्‍टारर होटल में किया जाता है। मीडिया में अब यह एक ऐसी परंपरा का रूप धारण कर चुका है जो हर स्‍तर पर ऊपर से नीचे लागू है। ब्‍यूरोचीफ भी यही सब अपने सब-ऑर्डीनेट से कराते हैं।
इन हालातों में प्रेस काउंसिल और सरकार के लिए मीडिया के भ्रष्‍टाचार को नियंत्रित करना आसान नहीं होगा। यह तभी संभव है जब प्रबल इच्‍छाशक्‍ित के साथ-साथ कठोर कदम भी उठाये जाएं और मीडिया से जुड़े उन लोगों का साथ दिया जाए जो अब तक जल के अंदर रहकर मगरों से बैर लिये बैठे हैं। -सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

एक नदी की मौत!


मथुरा। (लीजेण्‍ड न्‍यूज़), क्या यमुना मर रही है? क्या यमुना मर चुकी है? कौन हैं यमुना की मौत या उसे मौत के मुहाने तक ले जाने के जिम्मेदार? क्या एक नदी की बेरहम हत्या करने वालों को कहीं से कोई सजा मिलेगी या देश की अदालतें, सरकार तथा जनमानस सब तमाशबीन बने रहेंगे और यमुना मात्र एक अतीत, इतिहास अथवा किंवदंती बनकर रह जायेगी?
ये कुछ प्रश्न हैं जो यमुना की वतर्मान दुर्दशा के कारण उठ रहे हैं लेकिन अफसोस कि इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने वाला आज कोई नहीं।
यूं तो अपने उदगम स्थल से लेकर मथुरा तक यमुना तमाम कारणों से दम तोड़ रही है परन्‍तु दिल्‍ली तथा उसके आगे तक यमुना का अस्‍ितत्‍व उस दिन खतरे में पड़ चुका था जिस दिन पहले दिल्‍ली में ओखला बांध की नींव पड़ी और फिर मथुरा में गोकुल बैराज की आधारशिला रखी गई। रही-सही कसर इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय द्वारा बनाई गई 5 सदस्‍यीय मॉनीटरिंग कमेटी के अध्‍यक्ष ए. डी. गिरी की करीब पांच साल पूर्व हुई मृत्‍यु ने पूरी कर दी। गिरी की मृत्‍यु के बाद तो इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने भी यमुना की सुधि लेना लगभग बंद कर दिया। उच्‍च न्‍यायालय की इस मामले में उदासीनता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ए. डी. गिरी की मृत्‍यु से रिक्‍त हुए मॉनीटरिंग कमेटी के अध्‍यक्ष का पद अब तक नहीं भरा गया जबकि इस बावत प्रार्थना पत्र वर्ष 2007 से न्‍यायालय में लंबित है।
गिरी के पद पर पुनर्नियुक्‍ित के लिए न्‍यायालय में 25 जनवरी 2007 को प्रार्थना पत्र देने वाले और यमुना को प्रदूषण से मुक्‍ित दिलाने हेतु याचिका दायर करने वाले गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी का कहना है कि दिल्‍ली में ओखला पर बांध बनाकर यमुना की सांसें थामने का जो कार्य सरकार ने शुरू किया था उसे मथुरा में एक अरब रूपये की लागत से गोकुल बैराज बनाकर पूरा कर दिया। गोकुल बैराज बन जाने के बाद से यमुना शनै:-शनै: एक गंदे नाले में तब्‍दील होती जा रही है। यमुना एक्‍शन प्‍लान के पहले चरण में करोडों रूपया खर्च हो जाने के बावजूद यमुना का प्रदूषण घटने की बजाय बढ़ रहा है। आज इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर यमुना में ओखला से 100 क्‍यूसिक तथा हरनौल एस्‍केप से 150 क्‍यूसिक छोड़े जा रहे पानी की बात न करें तो दिल्‍ली से आगे यमुना केवल गंदा नाला अथवा सीवर टैंक बनकर रह गई है।
घोर दु:ख की बात यह है कि अब भी यमुना को बचाने की कोशिश करने के बजाय इससे जुड़े नेता व अधिकारी यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण को इसलिए चौपट करने का षड्यंत्र रच चुके हैं ताकि अपनी जेबें भरी जा सकें।
पैसे के भूखे इन अफसरों तथा नेताओं ने यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण को दरकिनार कर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने का कार्य मथुरा-वृंदावन में प्रदेश की मुख्‍यमंत्री के ड्रीम प्रोजक्‍ट का हिस्‍सा बना दिया है।
गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के आदेश पर यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत मथुरा-वृंदावन में यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए 450 करोड़ रूपये की धनराशि देना तय हुआ। इसमें से 104 करोड़ की धनराशि वृंदावन के लिए तथा शेष मथुरा के लिए थी।
इस धनराशि के उपयोग हेतु कुछ ऐसा खाका तैयार किया गया था जिस पर चलकर 25 से 40 वर्षों तक मथुरा-वृंदावन में यमुना के अंदर कहीं से भी एक बूंद गंदा पानी न जा सके लेकिन निजी स्‍वार्थ में लिप्‍त सरकारी मशीनरी व नेताओं ने अपना अलग खाका तैयार करा लिया। इस नये खाके में वृंदावन नगर पालिका का केवल वर्तमान एरिया और मथुरा में बंगाली घाट व उसके सामने यमुना पार का थोड़ा सा हिस्‍सा ही लिया गया है जबकि समूचे मथुरा-वृंदावन को शामिल किये बगैर यहां यमुना सफाई का कार्य हो ही नहीं सकता।
जब तक मथुरा के 19 नाले तथा वृंदावन के सभी 18 नालों का गंदा पानी और मथुरा में बड़े पैमाने पर चल रहे अवैध कट्टीघर का खून यमुना में गिरना बंद नहीं हो जाता तब तक यमुना के प्रदूषण मुक्‍त होने की बात सोचना सिवाय धोखे के कुछ नहीं।
ऐसा नहीं है कि इस स्‍िथति से इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय अनभिज्ञ हो लेकिन वह पता नहीं क्‍यों उदासीन रवैया अपनाये हुए है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्‍कालीन चीफ जस्‍िटस गिरधर मालवीय व दूसरे न्‍यायाधीश के. डी. शाही की दो सदस्‍यीय पीठ ने यमुना एक्‍शन प्‍लान की मॉनिटरिंग के लिए रिटायर्ड सॉलीसीटर जनरल ए. डी. गिरी की अध्‍यक्ष्‍ाता वाली पांच सदस्‍यीय कमेटी का गठन किया।
इस कमेटी का सचिव इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के ही सीनियर एडवोकेट दिलीप गुप्‍ता को बनाया गया। कमेटी के पदेन सदस्‍यों में यमुना एक्‍शन प्‍लान के प्रोजेक्‍ट मैनेजर और मथुरा के डीएम व एसएसपी को रखा गया। यह कमेटी हर महीने याचिकाकर्ता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी व नोडल अधिकारी एडीएम प्रशासन मथुरा को साथ लेकर यहां विजिट करके अपनी रिपोर्ट उच्‍च न्‍यायालय को सौंपती थी लेकिन वर्ष 2005 में कमेटी के अध्‍यक्ष ए. डी. गिरी की मृत्‍यु हो गई और तब से यमुना एक्‍शन प्‍लान लावारिस हो गया। आश्‍चर्यजनक रूप से उच्‍च न्‍यायालय ने ए. डी. गिरी के पद पर अब तक किसी की नियुक्‍ित नहीं की जिस कारण पूरी कमेटी निष्‍िक्रय पड़ी है। न्‍यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा इस बावत वर्ष 2007 में दिये गये प्रार्थना पत्र पर भी संज्ञान नहीं लिया है।
जे नर्म के नाम से मशहूर जवाहर लाल नेहरू नेशनल अरबन रिन्‍यूअल मिशन के तहत इस मद में मथुरा के लिए केवल 80 करोड़ रूपये स्‍वीकृत हुए हैं और वृंदावन इसमें शामिल है नहीं जबकि यमुना एक्‍शन प्‍लान में यह हिस्‍सा मथुरा-वृंदावन के लिए 450 करोड़ का था। ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि जिस कार्य के लिए यमुना एक्‍शन प्‍लान के दूसरे चरण में 450 करोड़ रूपये की भारी-भरकम धनराशि मुकर्रर की गई थी वह मथुरा में जे नर्म के 80 करोड़ तथा वृंदावन में मुख्‍यमंत्री ड्रीम प्रोजेक्‍ट के 34 करोड़ रूपयों में कैसे पूरा हो जायेगा। इस कार्य के लिए जरूरी बाकी 336 करोड़ रूपये कहां से आयेंगे।
यदि यमुना की प्रदूषण मुक्‍ित को लेकर यही रवैया रहा और शासन व प्रशासन के मौहरे शह तथा मात का खेल इसी प्रकार खेलते रहे तो यमुना केवल और केवल सीवर का टैंक बनकर रह जायेगी।
यदि यमुना की मौत होती है तो गंगा को भी बचा पाना संभव नहीं होगा। प्रसिध्‍द पर्यावरणविद् और गंगा तथा यमुना प्रदूषण के मुद्दे को कोर्ट तक ले जाने वाले एम. सी. मेहता ने कहा है कि जब तब गंगा की 14 सहायक नदियां शुध्‍द नहीं होतीं तब तक गंगा को शुध्‍द नहीं किया जा सकता।
एम. सी. मेहता की चेतावनी पर समय रहते गौर नहीं किया गया और यमुना जैसी जीवन दायिनी नदी की पल-पल हो रही मौत पर सब नहीं चेते तो इसके गंभीर परिणाम समूचे देश को भुगतने होंगे।
यमुना की कल-कल में समाई उसकी धड़कन को लौटाने का जिम्‍मा केन्‍द्र के साथ-साथ प्रदेश की सरकारों, न्‍यायपालिका, धर्माचार्यों, मीडियाकर्मियों का तो है ही, व्‍यापारी, उद्योगपति एवं जनसामान्‍य का भी है क्‍योंकि यमुना को मौत के मुहाने तक ले जाने में कहीं न कहीं हम सब की हिस्‍सेदारी रही है। हम मानें या ना मानें पर कड़वा सच यही है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

शीला दीक्षित जी की शर्मिंदगी/प्रॉब्‍लम


सज्जनता की हद तो देखिये कि बेचारी शीला दीक्षित इस बात पर शर्मिंदा हैं कि उन्हें चाहिए मात्र दो कमरे और रहना पड़ रहा है दो एकड़ के बंगले में। वह इस बात से भी शर्मिंदा हैं कि दिल्ली में तमाम लोग या तो मलिन बस्ितयों यानि झुग्गी-झौंपड़ियों में रहते हैं या फिर फुटपाथ पर सोते हैं और वो दो एकड़ के बंगले में हाथ-पैर फैलाकर सो रही हैं। शर्मिंदगी के साथ-साथ कुछ बातों से माननीय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को प्रॉब्लम भी है। प्रॉब्लम ये है कि उनकी दिल्ली में हर रोज देशभर से हजारों लोग आते हैं। प्रॉब्लम इस बात से है कि ये लोग फिर दिल्ली के ही होकर रह जाते हैं। वाकई बड़े जाहिल और गंवार लोग हैं वो जो जाते तो हैं दिल्ली रोजी-रोटी की खातिर लेकिन बना लेते हैं वहां अपना आशियाना। खरीद नहीं पाते तो किराये पर ले लेते हैं और किराये पर लेने की भी अगर हैसियत नहीं रखते तो फुटपाथ घेर लेते हैं। रहते हैं तो नम्बर दो से लेकर लघुशंका तक और थूकने से लेकर स्नानादि तक सब वहीं करते हैं जिस कारण दिल्ली गंदी होती है। जाहिल और गंवार जो ठहरे। ये नहीं कि शीला जी की तरह जहां रहें वहां गंदगी करें। हालांकि मुझे नहीं मालूम कि शीला जी नित् क्रियाओं से निवृत होने दिल्ली में ही जाती हैं या उन्होंने इसके लिए दिल्ली से बाहर कोई ठिकाना बना रखा है। और वो ठिकाना क्या देश से भी बाहर है। यदि मुझे सच्चाई का पता लग जाए तो मैं सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत यह भी जरूर जानना चाहूंगा कि उनके इस कार्य पर आने वाले खर्च को कौन वहन करता है। जाहिर है कि दिल्ली की सीमा से बाहर शीला जी पैदल तो नहीं जाती होंगी, उसके लिए कोई कोई साधन जरूर होगा। खैर, इसका ब्यौरा पूरी जानकारी मिलने पर मांगा जायेगा। बहरहाल, फॉर योर काइण् इन्फॉरमेशन, शीला जी दिल्ली के मूल निवासियों को छोड़कर सभी को गंदा समझती हैं। सुन रही हैं सोनिया जी, समझ रहे हैं राहुल भाई ? मैं माननीय मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी की शर्मिंदगी और प्रॉब्लम दोनों से सहमत तो हूं लेकिन यह नहीं समझ पा रहा कि वह शर्मिंदा अधिक हैं या उन्हें प्रॉब्लम ज्यादा है। वह आखिर किस समस्या का निदान पहले करना चाहती हैं। अपनी शर्मिंदगी का या अपनी प्रॉब्लम का। देखिये शीला जी, इसका फैसला तो आप ही को करना होगा। यह निर्णय हम नहीं ले सकते। हां मशविरा जरूर दे सकते हैं क्योंकि फोकट का मशविरा देने पर देश के किसी हिस्से में पाबंदी नहीं है।अपने कथित लोकतांत्रिक अधिकारों के तहत मैं आपको यह मशविरा देता हूं कि पहले आप दिल्ली के ही किसी मनोचिकित्सक के पास जाकर यह तय करें कि आपकी कौन सी बीमारी बड़ी है। शर्मिंदगी वाली या दूसरी वाली। यदि शर्मिंदगी वाली बड़ी है तो उसका निदान पूरी तरह आपके कर कमलों में है। छोड़ दीजिये दो एकड़ के बंगले को और दो कमरों वाले फ्लैट में हो जाइये शिफ्ट, आपको कौन रोक सकता है। फिर सोइये चैन की नींद। आप राजा हैं और राजा के फैसलों को चुनौती देने का अधिकार किसी को नहीं होता। माना कि अब देश में फिरंगियों का शासन नहीं है और देश को स्वतंत्र हुए पूरे 62 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन माननीय आखिर माननीय ही हैं। बाकी सब तो रियाया कहलाते हैं। हां यदि दूसरी बीमारी बड़ी मालूम पड़ती है तो वाकई समस्या गंभीर है। वैसे मुझे भी यही लगता कि दूसरी बीमारी गंभीर है क्योंकि शीला जी पहले भी उसका जिक्र कई बार मौके-बेमौके कर चुकी हैं जबकि शर्मिंदगी वाली समस्या का खुलासा पहली बार किया है।अब सवाल यह पैदा होता है कि इस दूसरी बीमारी का इलाज शीला जी के अपने कर-कमलों में नहीं है। होता तो कब का दिल्ली को बाहरी लोगों से खाली करा चुकी होतीं। सोनिया जी से कहतीं कि आप राजीव जी से शादी करके भारत आईं थीं और राजीव जी मौलिक रूप से कश्मीरी पण्िडत जवाहरलाल नेहरू जी की पुत्री इंदिरा जी के पुत्र थे। नेहरू जी इलाहाबाद आकर बस गये लिहाजा या तो आप कश्मीर जाकर बसिये या फिर इलाहाबाद रहिये। यह क्या कि बाल-बच्चों सहित दिल्ली पर कब्जा जमाये बैठी हैं।मुझसे किसी ने बहुत दिन पहले कान में एक बात कही थी। बात कहने वाले का आशय कुल जमा ये था कि अपनी शीला जी, राज ठाकरे से अत्यंत प्रभावित हैं। कहने वाले ने तो यह भी कहा था कि राज जी, समय-समय पर शीला जी को फीड देते रहते हैं। यही कारण है कि शीला जी के बयानों से उनके बयानों की बू आती है।मुझे उसकी बात में दम नजर रहा है क्यों कि राजनीति में सब-कुछ संभव है। यह मेरा नहीं, खुद राजनेताओं का कथन है। किसी भी तरह राज करने की नीति जो ठहरी।जो भी हो, शीला जी लेकिन आपकी बीमारियां गंभीर हैं और उनका समय रहते इलाज बहुत जरूरी है। कहीं ऐसा हो कि मौका हाथ से निकल जाए और आप इन बीमारियों को ढोते-ढोते मनोचिकित्सक से इलाज कराने लायक भी रहें। ईश्वर आपकी मदद करे। -यायावर
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