2/3 जुलाई की रात कानपुर में हुआ शूटआउट दरअसल ”खाकी” के ऊपर से नीचे तक बिक जाने की एक ऐसी सनसनीखेज कहानी है जिसके कारण उत्तर प्रदेश के लगभग हर जिले में कोई न कोई ‘विकास दुबे’ फल-फूल रहा है।
इस शूटआउट में दर्जनभर से अधिक वर्दीधारियों का खून बह जाने की वजह से आज भले ही पुलिस एक विकास दुबे के लिए खाक छान रही हो परंतु फाइलें गवाह हैं कि प्रदेश के प्रत्येक जिले में ऐसे अपराधियों की सूचियां धूल फांकती रहती हैं और सूचीबद्ध बदमाश निश्चिंत होकर अपना ‘विकास’ करते रहते हैं।
सूबे का शायद ही कोई ऐसा जिला होगा जहां इनामी बदमाशों की सूची न बनती हो परंतु इन बदमाशों के खिलाफ कार्यवाही होना तो दूर, इनाम की राशि भी नहीं बढ़ाई जाती नतीजतन वह पुलिस के ‘रडार’ पर भी नहीं आ पाते।
ऐसा इसलिए कि पुलिस में इस तरह का कोई नियम ही नहीं है कि यदि कोई बदमाश एक दशक या उससे भी अधिक समय से फरार है तो उसकी गतिविधियों की समीक्षा कर उसके ऊपर घोषित इनाम की राशि बढ़ाई जा सके।
ये बात अलग है कि विकास दुबे इस मामले में भी अपवाद बना रहा। वह न तो फरार था और न निष्क्रिय, बावजूद इसके पुलिस ने उसके ऊपर इनाम की राशि तक बढ़ाना जरूरी नहीं समझा।
ऊपर से नीचे तक बिकती हैं ट्रांसफर-पोस्टिंग
पुलिस विभाग में कई दशकों से हर ट्रांसफर-पोस्टिंग किसी न किसी स्तर से बिकती है, ये कोई छिपी हुई बात नहीं है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर चाहे योगी आदित्यनाथ जैसा साफ-सुथरी छवि वाला गेरुआ वस्त्रधारी मुख्यमंत्री काबिज हो या पूर्ववर्ती सरकारों के मुखिया, पुलिस विभाग में ये खेल हमेशा जारी रहा है।
योगी आदित्यनाथ की बेदाग छवि के बावजूद प्रदेश के तमाम जिलों में दागदार अधिकारियों की तैनाती इस बात की पुष्टि करती है कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में पैसे का खेल किसी न किसी स्तर से बदस्तूर चल रहा है।
ऊपर से शुरू होने वाली खरीद-फरोख्त की यह चेन कोतवाली, थाने व चौकियों तक बनी हुई है लिहाजा अकर्मण्य तथा अयोग्य लोग चार्ज पाते रहते हैं और योग्य एवं ईमानदार अधिकारी फ्रस्टेशन के शिकार होकर तनाव में वर्दी का भार ढोने को बाध्य होते हैं। किसी तरह यदि कभी कोई ईमानदार और योग्य अधिकारी चार्ज पा भी जाता है तो उसका सारा समय विभाग के ही लोगों से निपटने में बीतता है क्योंकि वो उसके काम में कदम-कदम पर न केवल रोड़ा अटकाते हैं बल्कि शिकायतों का अंबार खड़ा कर देते हैं जिससे उसकी ऊर्जा का बड़ा हिस्सा उसी में खप जाता है। ऐसे अधिकारियों को एक जगह टिक कर काम नहीं करने दिया जाता और एक जिले से दूसरे जिले के बीच फुटबॉल बनाकर रखा जाता है।
चार्ज खरीदने वाले पुलिस अधिकारियों की प्राथमिकता
कौन नहीं जानता कि खरीदकर जोन, रेंज और जिले का चार्ज संभालने वाले आईपीएस अधिकारी हों अथवा सर्किल, कोतवाली, थाना या चौकी का चार्ज हासिल करने वाले पुलिसकर्मी, इन सबकी प्राथमिकता होती है अपने जेब से निकले पैसे को चक्रवर्ती ब्याज सहित वसूलने की, न कि कानून-व्यवस्था बनाने और उसके लिए ईमानदारी पूर्वक ड्यूटी निभाने की। फिर इसके लिए चाहे किसी भी स्तर तक गिरना पड़े और किसी भी व्यक्ति से हाथ मिलाना पड़े।
उच्च अधिकारियों की संदिग्ध सत्यनिष्ठा
कानुपर शूटआउट से धीरे-धीरे साफ हो रहा है कि पूरे घटनाक्रम का जिम्मेदार सिर्फ चौबेपुर थाना ही नहीं है, पुलिस के वो आला अधिकारी भी हैं जिन्होंने अपने ही अधीनस्थ अधिकारियों की शिकवा-शिकायतों के बावजूद थाना प्रभारी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया और उसे इतना अवसर उपलब्ध कराया कि वह महीनों तक कानून को ताक पर रखकर विकास दुबे का हिमायती बना रहा।
परोक्ष रूप से देखें तो इस तरह विकास दुबे या उसके जैसे दूसरे अपराधियों सहित अन्य अपराधियों को भी उच्च पुलिस अधिकारियों का ही संरक्षण प्राप्त था अन्यथा ये कैसे संभव है कि एक पांच दर्जन आपराधिक मामलों के आरोपी की गिरफ्तारी के लिए अधिकांश पुलिस बल को आधीरात में बिना हथियारों के भेज दिया गया।
क्या इसके लिए एसएसपी कानपुर से ये सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने बिना तैयारी के पुलिस बल को दबिश पर जाने की इजाजत कैसे दे दी।
कार्यवाही मात्र चौबेपुर थाने तक ही सीमित क्यों?
इस अक्षम्य अपराध में अब तक जो भी और जैसी भी कार्यवाही हुई है, वह सिर्फ चौबेपुर थाने की पुलिस तक सीमित है जबकि स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि एसएसपी से लेकर दूसरे उच्च पुलिस अधिकारी भी दूध के धुले नहीं रहे होंगे।
विकास दुबे अपने जरायम पेशे में लगातार सक्रिय था, फिर क्यों वह उच्च पुलिस अधिकारियों की नजरों में नहीं आया या फिर अधिकारी ही उससे नजरें फेरते रहे।
आज उस पर 25 से 50 हजार और फिर एक लाख से ढाई लाख रुपए का इनाम घोषित करने वाले तब कहां थे जब वह खुलेआम एक ओर जहां समूचे इलाके को बंधक बनाए हुए था वहीं वर्दी की इज्जत को भी बार-बार तार-तार कर रहा था।
जांच की आड़ में खेला जाने वाला खेल
पूरे प्रदेश की पुलिस व्यवस्था पर गहरा सवालिया निशान लगाकर भाग निकलने वाला विकास दुबे घटना से पहले किस-किस पुलिसकर्मी के संपर्क में था, इस बात तक के लिए पुलिस को आज पांच दिन बाद भी जांच पूरी होने का इंतजार है। वो भी तब जबकि इस दौर में यह पता करना घंटों का भी नहीं चंद मिनटों का काम रह गया है।
इसी प्रकार शहीद सीओ देवेन्द्र मिश्रा के उस पत्र की सत्यता को भी जांच की दरकार है जिसे उन्होंने कई महीने पहले चौबेपुर थाने के प्रभारी विनय तिवारी की सत्यनिष्ठा पर प्रश्न उठाते हुए एसएसपी को लिखा था।
आखिर तत्कालीन एसएसपी से इस बात की पुष्टि करने के लिए भी कितना समय चाहिए, या फिर पहले शहीद सीओ के पत्र की फॉरेंसिक जांच कराने के बाद उनसे पूछा जाएगा कि ये पत्र आपको लिखा गया था अथवा नहीं।
अपने ही विभाग के शहीदों और उनके परिजनों से किया जा रहा यह क्रूर मजाक प्रमाण है इस बात का कि ‘खाकी’ वर्दी में लिपटे अधिकांश लोगों की आत्मा किस कदर मर चुकी है और जो चेहरे उसके साथ दिखाई देते हैं वह मात्र मुखौटे हैं।
एक ऐसा खोल बनकर रह गई है खाकी वर्दी जिससे आत्ममंथन की उम्मीद करना संभवत: बेमानी है। वह जिस तरह घर के अंदर किसी खूंटी पर टंगी रहती है, उसी तरह घर के बाहर एक अदद शरीर पर। ऐसा न होता तो ये कैसे संभव था कि जिस घटना ने आमजन को भी हिलाकर रख दिया, उस घटना के पांच दिन बाद भी हजारों बड़े-छोटे वर्दीधारी बस लकीर पीट रहे हैं।
राजनीतिक दखल की बात
बेशक ये एक कड़वा सच है कि पुलिस में राजनीति और राजनेताओं का दखल जरूरत से ज्यादा है परंतु इसके लिए भी काफी हद तक पुलिस का लालच ही जिम्मेदार है। पुलिस यदि ड्यूटी को प्राथमिकता दे और अतिरिक्त आमदनी के लिए मलाईदार तैनाती का लालच छोड़ दे तो तय है कि राजनेताओं की उसे उंगलियों पर नचाने की मंशा जरूर प्रभावित हो सकती है।
फिर राजनीतिक गलियारों से विकास दुबे जैसों को दिया जा रहा संरक्षण भी बेमानी हो जाता है और खाकी की इज्जत तथा उसका इकबाल पूर्ववत कायम कराया जा सकता है।
बस आवश्यकता है तो इस बात की कि पुलिस अपनी वर्तमान स्थिति पर गंभीरता पूर्वक चिंतन करे और वर्दी की इस ‘दशा’ के लिए जिम्मेदार हर उस व्यक्ति को बेनकाब करने की ठान ले जिसके कारण विकास दुबे जैसा आदतन अपराधी भी उसके ऊपर सुनियोजित तरीके से कहर ढाने में कामयाब रहा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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