सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्। नासत्यं च प्रियं ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥
अर्थात् सत्य और प्रिय बोलना चाहिए; पर अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए, और प्रिय असत्य भी नहीं बोलना, यही सनातन धर्म है ।
अब ज़़रा दूसरे पहलू पर गौर करें। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एकबार कहा था कि यदि सारे लोग सत्य बोलने लगें अर्थात् कोई झूठ न बोले तो ये दुनिया एक दिन भी नहीं चल सकती।
बराक ओबामा ने अपने कथन के पक्ष में तर्क दिए थे कि यदि कोई भी राष्ट्राध्यक्ष अपने देश की नीतियों का पूरा सच सामने ला दे, तो क्या होगा।
उदाहरण के लिए यदि पाकिस्तान सरकार का मुखिया आतंकवाद को लेकर अपने देश की रीति और नीति का खुलासा कर दे तो परिणाम का अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है।
इसी प्रकार रूस, चीन, इजरायल, ईरान या अन्य दूसरे देशों की सत्ता पर काबिज़़ लोग सबकुछ सच-सच सामने ला दें तो विश्वयुद्ध छिड़ने में एक घंटा नहीं लगेगा।
संभवत: इसीलिए ”सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्… का उपदेश देने वाले हमारे धर्मग्रंथों ने भी ”अपवाद स्वरूप” विषम परिस्थितयों में झूठ बोलने का मार्ग छोड़ रखा था।
इसी मार्ग का अनुसरण कर धर्मयुद्ध कहलाने वाले ”महाभारत” में विषम परिस्थितियों को देखते हुए कई बार असत्य या अर्धसत्य का सहारा लिया गया।
इन सबके अलावा एक कथन यह भी है कि वक्त और परिस्थितयों के अनुसार सत्य एवं असत्य के मायने बदल जाते हैं।
किसी अवसर पर बोला गया सत्य भी साबित करना पड़ता है और कभी किसी मौके पर झूठ भी ग्राह्य होता है।
सत्य स्वयं सिद्ध होता है, यह बात किसी दौर में सार्थक रही होगी लेकिन आज सत्य को सिद्ध करने के लिए ही सर्वाधिक प्रयास करना पड़ता है।
बहरहाल, सांतवें चरण की वोटिंग के साथ कल शाम 2019 के लोकसभा चुनावों का समापन हो जाएगा और 23 मई की सुबह से पता चलने लगेगा कि लोकतंत्र के बाजार में किसका कितना ”सत्य” बिक सका या किसका कितना ”झूठ” कारगर हुआ।
ऐसा माना जाता है कि सत्य के साथ झूठ का मिश्रण उसी अनुपात में स्वीकार है, जिस अनुपात में भोजन के साथ नमक, किंतु इन लोकसभा चुनावों में तो झूठ का बाजार अधिक गर्म रहा और सत्य बार-बार सफाई देता दिखाई दिया।
अगर बात करें, उस जनता की जिसे जनार्दन (ईश्वर) की संज्ञा प्राप्त है तो सत्य और असत्य को परिभाषित करने का उसका अपना तरीका है क्योंकि एक व्यक्ति का सत्य आवश्यक नहीं कि दूसरे व्यक्ति के लिए भी सत्य हो।
ठीक इसी प्रकार किसी व्यक्ति का झूठ, किसी अन्य व्यक्ति के लिए सत्य भी हो सकता है।
सत्य और झूठ के बीच का यह भ्रम भी नया नहीं है। हर युग में यह भ्रम बना रहा और आज भी बना हुआ है क्योंकि सवाल दृष्टिकोण का है, न कि दृष्टि का। दृष्टि समान हो सकती है परंतु दृष्टिकोण समान हो, यह जरूरी नहीं। जिसका जैसा दृष्टिकोण होता है, उसकी वैसी ही दृष्टि हो जाती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वो वैसी ही दृष्टि बना लेता है। उसके लिए चीजों को देखने और दिखाने का ढंग बदल जाता है।
लिखा-पढ़ी में सवा अरब की आबादी वाला यह देश आज हकीकत में करीब डेढ़ अरब की जनसंख्या का बोझ भले ही ढो रहा हो परंतु सत्य और असत्य को जांचने व परखने वालों की संख्या कितनी होगी, कभी इस पर विचार करके देखिए…बहुत मजा आएगा।
ऐसा लगता है एक भीड़ है जो मुठ्ठीभर लोगों से संचालित होती है। ये मुठ्ठीभर लोग हैं नेता और नौकरशाह। लोकतंत्र की परिभाषा में कहें तो विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में उच्च पदों पर बैठे हुए लोग।
सुना है भीड़ के दिमाग नहीं होता। यदि ये कहावत सही है तो फिर कैसा लोकतंत्र और कैसे चुनाव। एक भीड़ है जो मुठ्ठीभर लोगों के इशारे पर संचालित है और इस भ्रम में जी रही है कि वही भाग्य विधाता है। यदि वही भाग्य विधाता है तो चुनावों के बाद उसका अपना भाग्य ”लोकतंत्र के तीन पायों” से बंधा क्यों नजर आता है।
यही वो असलियत है जो सत्य और असत्य अथवा झूठ और सत्य की पोल खोलती है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्… का ज्ञान देने वाला सनातन धर्म यहां आकर बराक ओबामा के इस कथन से हारने क्यों लगता है कि कि यदि सारे लोग सत्य बोलने लगें तो ये दुनिया एक दिन भी नहीं चल सकती।
19 मई और 23 मई के बीच सिर्फ 3 दिन रह जाएंगे, यह जानने के लिए कि देश और देशवासियों का भाग्य किस ओर करवट लेगा।
फिर एक शपथ ग्रहण समारोह होगा और फिर अगले कुछ सालों के लिए जनता ”जनार्दन” न होकर ”रिआया” बन जाएगी। यानी प्रजा, आम जनता। व्यंगात्मक भाषा में कहें तो मेंगो पीपुल।
अगले लोकसभा चुनावों में सत्य और असत्य के बीच झूलने को अभिशप्त अथवा सनातन धर्म और परिस्थितिजन्य धर्म के बीच पिसने को बाध्य।
जो भी हो, लेकिन अंतिम सत्य यही है कि राजा और प्रजा का यह रिश्ता ऐसे ही कायम रहेगा। सूरतें बदल सकती हैं लेकिन सीरतें जस की तस रहेंगी। कोई अपने सत्य को साबित करने की कवायद में जुटता दिखाई देगा तो कोई अपने असत्य को परवान चढ़ाने में ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा देगा क्योंकि सत्य का वजूद असत्य पर टिका है और असत्य का सत्य पर। इसलिए अस्तित्व में दोनों सदा से रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
बस देखना यह है कि 23 मई के नतीजे आटे में नमक को तरजीह देते दिखाई देते हैं या बदलते वक्त में नमक भी आटे के साथ मिलाकर खिलाने की कला नेता जान चुके हैं। दोनों ही परिस्थितियों में जनता को अगले चुनावों तक इंतजार करना होगा, उससे अगले चुनावों तक ”अपनी सरकार” बनाने के धोखे में।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी