बुधवार, 22 जनवरी 2014

अफसोस..... मुलायम हैं कि मानते ही नहीं

डॉ. राममनोहर लोहिया के समाजवाद की परिभाषा को परिवारवाद में समाहित कर देने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मास्‍टर मुलायम सिंह यादव, अब उसे व्‍यक्‍तिवाद तक सीमित करने में लगे हैं। कभी साइकिल से सैफई की गलियों को नापने वाले मुलायम अब अपनी महत्‍वाकांक्षा पूरी करने पर इस कदर आमादा हैं कि उन्‍हें दिन-रात पीएम की कुर्सी के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा। वह जहां जाते हैं, वहीं कहने लगते हैं कि बेटे को तो सीएम बना दिया अब बाप को क्‍या बनाओगे। ऐसा लगता है जैसे मुलायम ने केवल मांगने की आदत डाल ली है और देना पूरी तरह भूल चुके हैं।
कांग्रेस को सहारा देते-देते कांग्रेसी कल्‍चर का रंग उनके ऊपर इस कदर चढ़ा है कि आज वह कांग्रेसियों की ही भाषा बोलते हैं। वही क्‍यों, उनके पुत्र और उत्‍तर प्रदेश जैसे विशाल सूबे के मुखिया अखिलेश भी अब कांग्रेसी जुबान बोलने से परहेज नहीं करते। वह कांग्रेसी रहनुमाओं की तरह प्रदेश की जनता को यह बताने लगे हैं कि उन्‍होंने दिया क्‍या-क्‍या है, यह नहीं गिनाते कि लिया कितना है।
बेशक, सीबीआई के भय से मुक्‍ति की चाहत ने मुलायम के समाजवाद को सांप्रदायिकता की आड़ में कांग्रेस की ढपली बजाने पर मजबूर किया हो परंतु जनता हर समझौते का हिसाब मांगती है।
यही कारण है कि आज कांग्रेस के साथ खड़े होकर पैदा किया गया सांप्रदायिकता के भय का भूत भी काम नहीं आ रहा। अल्‍पसंख्‍यक समुदाय को सारा खेल समझ में आ चुका है। उसे मुलायम के समाजवाद की परिभाषा भी समझ में आ गई है और उसकी सांप्रदायिकता का मतलब भी।
खुद को ठगा हुआ महसूस करने वाला अल्‍पसंख्‍यक समुदाय अब मौकापरस्‍ती के मायने समझाने को 2014 के चुनावों की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा है।
कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती लेकिन जो भरे सावन में अंधा हुआ हो, उसका इलाज भी किया जाए तो क्‍या। उसे तो चारों ओर वोटों की लहलहाती फसल ही दिखाई देगी।
उत्‍तर प्रदेश अपने अब तक के सर्वाधिक बुरे दौर से गुजर रहा है। कानून-व्‍यवस्‍था ही नहीं, सब-कुछ बदहाल है। लगता है जैसे सरकार नाम की कोई चीज है ही नहीं और समाजवादी पार्टी, कोई पार्टी न होकर एक ऐसे परिवार का नाम है जो यूपी को अपनी निजी जागीर तथा जनता को अपना गुलाम समझ बैठा है।
यह तो तय है कि 2014 का लोकसभा चुनाव राजनीति की कोई नई इबारत लिखेगा और राजनीतिज्ञों को नया सबक सिखायेगा लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई आमूल-चूल परिवर्तन होने जा रहा है।
भाजपा अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह ने सही कहा है कि जनता अब सत्‍ता नहीं, व्‍यवस्‍था परिवर्तन चाहती है। यदि राजनाथ सिंह या भाजपा ने इसे एक राजनीतिक जुमले की तरह नहीं उछाला है और वाकई उन्‍हें जनआकांक्षा व जनभावना समझ में आ चुकी है तब तो ठीक, अन्‍यथा भाजपा के हाथ सत्‍ता भले ही आ जाए लेकिन जनाधार हासिल नहीं होगा।
फिर वही होगा, जिसका डर आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सता रहा है। जिस तरह मनमोहन को डर है कि इतिहास उनके प्रति बेरहम न हो जाए, उसी तरह भाजपा के भी इतिहास बन जाने का ही भय पैदा हो जायेगा।
रही बात मुलायम की महत्‍वाकांक्षा और उनके सपनों में समा चुकी पीएम पद की कुर्सी की, तो उसका अहसास उन्‍हें तुरंत हो जायेगा बशर्ते वह परिवार से बाहर झांककर देख लें।
अपने समाजवाद को उन्‍होंने इतना ओछा कर दिया है कि यूपी में सत्‍ता का आधा कार्यकाल पूरा नहीं हुआ और वह बुरी तरह हांफने लगा है।
आश्‍चर्य की बात यह है कि कभी प्राइमरी के मास्‍टर रहे मुलायम सिंह, आज प्रदेश की प्राथमिकता को समझने के लिए तैयार नहीं हैं और देश की कमान संभालने को बेताब हैं। प्रधानमंत्री बनने की चाहत ने उन्‍हें कहीं का नहीं छोड़ा।
समय बीतता जा रहा है, दुंदुभि बजने को है परंतु सत्‍ता मद में चूर मुलायम सिंह समाजवाद को इतना सूक्ष्‍म कर चुके हैं जिसे देख पाने में संभवत: माइक्रोस्‍कोप भी मदद न कर पाए। समाजवाद का उनके द्वारा तैयार किया गया नया कलेवर और उनके द्वारा ही गढ़ी गई नई परिभाषा उनके सपनों को पूरा करने में सबसे बड़ी बाधा है। अफसोस...... इस सब के बाद भी मुलायम हैं कि मानते ही नहीं।   
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