देश के इतिहास में बेशक यह पहली बार हुआ हो…या फिर अंतिम भी हो…किंतु जिन सामान्य जनों का वास्ता अपने जीवन में कभी भी कोर्ट-कचहरी से पड़ा है वह भली-भांति जानते हैं कि जो कुछ कल सुप्रीम कोर्ट के चार विद्वान न्यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा, उसमें नया कुछ नहीं था।
नया था तो केवल इतना कि सर्वोच्च न्यायालय के चार सीनियर मोस्ट न्यायाधीश उन बातों को कहने ”सड़क पर” यानि ”प्रेस के सामने” आ गए जो बातें सामान्यत: दबी-ढकी रहती हैं और जिन्हें सब जानते-समझते हुए भी सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं कर पाते।
न्यायाधीशों ने जिन बातों को अपना ”दर्द” बताकर प्रेस के सामने पेश किया, वह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो समूची न्यायपालिका में नीचे से लेकर ऊपर तक व्याप्त है और जिसे हर वो व्यक्ति प्रतिदिन भोगता है जिसके अंदर कहीं ”ईमानदारी” की लौ लगी हुई है। फिर चाहे वह कोई जज हो, न्याय विभाग का कोई कर्मचारी हो अथवा वकील ही क्यों न हो। रही बात वादी और प्रतिवादियों की, तो उसकी स्थिति ऐसे निरीह व्यक्ति की तरह होती है जो किसी कोने में जाकर सिसक तो सकता है किंतु उस सिसकी की आवाज़ किसी के कानों तक नहीं पहुंचा सकता क्योंकि सवाल देश की न्याय व्यवस्था का है। उस न्याय व्यवस्था का जो लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर शख्स की आखिरी उम्मीद होती है।
आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका अपनी बात कहने के लिए भले ही पहली बार ”चौराहे” पर आकर खड़ी हुई हो परंतु लोग तो न्याय की आस में कई दशकों से ”दोराहे” पर खड़े हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि वह त्वरित व उचित न्याय के लिए किस दरवाजे पर जाकर खड़े हों। विधायिका के, कार्यपालिका के या न्यायपालिका के।
विधायिका अर्थात् ”नेतानगरी” का हाल यहां बताने की जरूरत ही नहीं है और कार्यपालिका में व्याप्त ”भ्रष्टाचार” से त्वरित व उचित न्याय की उम्मीद पालना बेमानी है। बिना पैसे के अधिकांश सरकारी कर्मचारियों के पांव अंगद की तरह एक स्थान पर जमे रहते हैं। बिना चाय-पानी के उन्हें उठवाना तो दूर, हिला पाना भी संभव नहीं होता।
रही बात न्यापालिका की तो उसके बारे में बहुत पहले से कहावत प्रचलित है कि ”कचहरी” की ईंट-ईंट पैसा मांगती है। चार विद्वान न्यायाधीश हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सब-कुछ ठीक न चलने की शिकायत लेकर 70 साल बाद चौराहे पर आए हों किंतु यह शिकायत न तो मात्र सुप्रीम कोर्ट की है और न सिर्फ उनकी अपनी। ऐसी शिकायतें जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक में कदम-कदम पर बिखरी पड़ी हैं। इतना अवश्य है कि इन शिकायतों को न तो कोई एकत्र करता है और न उठाता है क्योंकि सवाल न्यायपालिका का जो है। वो न्यायपालिका जिसकी बात-बात में अवमानना हो जाती है। तब भी जबकि सवाल किसी न्यायाधीश के निजी आचरण से जुड़ा हो न कि न्याय व्यवस्था से, क्योंकि न्यायाधीश के आचरण को भी न्यायपालिका से जोड़कर देखा जाने लगा है।
शायद ही किसी अधिवक्ता ने कभी इस मुतल्लिक कोई याचिका दायर की हो कि न्यायपालिका की अवमानना को जनहित में परिभाषित किया जाए और स्पष्ट किया जाए कि किसी न्यायाधीश के निजी आचरण पर टिप्पणी करना न्यायपालिका की अवमानना कैसे हो सकती है।
आम आदमी जिसके लिए लोकतंत्र का यह स्तंभ न्याय पाने की आखिरी सीढ़ी होता है, वह इस सीढ़ी से निराश होने के बाद खुद को कितना ठगा महसूस करता है इसका इल्म उसे ही होता है किसी न्यायाधीश को नहीं।
तारीख पर तारीख…तारीख पर तारीख…किसी जुमले की तरह हिंदी फिल्म का हिस्सा तो बन गया लेकिन अदालतों से मिलने वाली तारीखों की कोई आखिरी तारीख अब तक मुकर्रर नहीं हो पाई, नतीजतन अनगिनत लोग हर साल न्याय की उम्मीद पाले लोकतंत्र के ”माई लॉर्ड” से परलोक के ”लॉर्ड” की अदालत में शिफ्ट कर जाते हैं और उसके बाद भी ”माई लॉर्ड” की अदालत से पीड़ित के किसी परिजन को हाजिर होने का फरमान जारी होना बंद नहीं होता।
जस्टिस जे चेलामेश्वरम, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ़ द्वारा लोकतंत्र को खतरे में बताकर उठाई गईं समस्याएं हालांकि पहली नजर में व्यक्तिगत अहम से उपजी समस्याएं दिखाई देती हैं और इसलिए बहुत से पूर्व विद्वान न्यायाधीश व अधिवक्तागण यह कह भी रहे हैं कि उन्हें अपने दायरे के अंदर रहकर समस्याओं के समाधान का रास्ता निकालना चाहिए था परंतु परिस्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सतही तौर पर दिखाई देती हैं।
जिला स्तरीय अदालतों में भी बहुत से जिला एवं सत्र न्यायाधीश अपनी और अपने नजदीकी जजों की ”सुविधा” के हिसाब से केस सुनवाई के लिए भेजते हैं। निचली अदालतों में भी ”पैसा और प्रभाव” अधिकांश जजों के सिर चढ़कर बोलता है। लोअर कोर्ट अपने जजों की कार्यप्रणाली के नियम व कानून विरुद्ध किस्से-कहानियों से भरे पड़े रहते हैं। किसी भी जिला अदालत में कार्यरत कुल न्यायाधीशों में से ईमानदार न्यायाधीशों का पता करने जाएं तो उंगलियों पर गिने जाने लायक न्यायाधीश ही उस श्रेणी में आते हैं।
लोअर कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक और हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सेटिंग-गेटिंग का खेल बड़े पैमाने पर चलता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बात अलग है कि खुलकर कहने की हिमाकत हर कोई नहीं कर सकता।
बहुत दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील और देश के पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि स्वतंत्र भारत में आजतक जितने भी लोग चीफ जस्टिस की कुर्सी पर काबिज रहे हैं, उनमें से अधिकांश ईमानदार नहीं कहे जा सकते। शांति भूषण के कथन पर न्यायपालिका को जैसे सांप सूंघ गया। एकबार तो ऐसी बातें उठीं कि शांति भूषण के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का केस चलाया जाएगा लेकिन हुआ कुछ नहीं। जाहिर है कि शांति भूषण का कथन अतिशयोक्ति नहीं था और इसीलिए उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने का साहस नहीं हुआ।
शांति भूषण, इन्हीं प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण के पिता हैं जिन्होंने कल जजों की प्रेस कांफ्रेंस के संदर्भ में कहा है कि समस्या का समाधान उसे दबाने से नहीं, सार्वजनिक करने के बाद ही निकलता है।
प्रशांत भूषण के अनुसार एकसाथ चार वरिष्ठ न्यायाधीशों को यदि प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी बात कहनी पड़ी तो समस्या की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है।
हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता प्रशांत भूषण कुछ निजी कारणोंवश प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायाधीशों को सही ठहरा रहे हों, हो सकता है कि चारों न्यायाधीश भी व्यक्तिगत कारणों से चीफ जस्टिस की कार्यप्रणाली पर उंगली उठा रहे हों लेकिन समस्याएं हैं और नीचे से ऊपर तक है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
बात चाहे कॉलेजियम सिस्टम की हो अथवा उन निर्णयों की जिन पर उंगली उठी हैं, न्यायाधीश के साथ-साथ न्यायप्रणाली पर भी आम आदमी के भरोसे को कमजोर करती हैं।
पिछले कुछ वर्षों के अंदर उच्च और उच्चतम न्यायालयों से तमाम ऐसे निर्णय हुए हैं जिन पर न सिर्फ उंगलियां उठी हैं बल्कि वो मीडिया तथा जनता के बीच चर्चा का विषय भी बने हैं। बहुत से निर्णय ऐसे आए हैं जिन पर खुद सर्वोच्च न्यायालय को पुनर्विचार करना पड़ा है और कुछ में तो निर्णय बदले भी गए हैं। हाल ही में ट्रांस जैंडर्स को लेकर आया फैसला उनमें से एक है।
लोअर कोर्ट के आदेश को हाई कोर्ट द्वारा पलट देना और हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरी तरह गलत ठहरा देना तो अब जैसे आम बात हो गई है। जन सामान्य को विद्वान न्यायाधीशों के ऐसे निर्णय यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि आखिर कौन से न्यायाधीश का निर्णय सही माना जाए?
आम आदमी के समझ से परे हैं यह बातें कि जिन सबूतों और गवाहों के आधार पर एक न्यायाधीश किसी को सजा सुनाता है या बरी कर देता है, वही सबूत और गवाह दूसरे न्यायाधीश के लिए बेमानी कैसे हो जाते हैं?
माना कि लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की व्यवस्था मुकम्मल न्याय देने के लिए ही की गई है परंतु जब अधिकांश मामलों में रद्दोबदल दिखाई देता है तो सवाल खड़े होना लाजिमी है।
राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद से लेकर आरुषी हत्याकांड तक और 2जी घोटाले से लेकर आदर्श सोसायटी घोटाले तक के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन सभी मामलों में आजतक न्याय की दरकार है।
कई-कई दशकों का इंतजार भी इस बात की गारंटी देने में असमर्थ है कि उसके बाद जो न्याय मिलेगा, वह निर्विवाद होगा।
यही कारण है कि आज न्यायपालिका और न्यायाधीश भी बहस का मुद्दा बन गए हैं और उनके प्रति अवमानना का भय समाप्त होता जा रहा है।
अब आखिर में यदि बात करें लोकतंत्र के उस चौथे स्तंभ की जिसके सामने सर्वोच्च न्यायालय के चार-चार न्यायाधीशों को अपनी बात कहने के लिए आना पड़ा, वह सिर्फ एक ऐसा झुनझुना है जिसे बजाया तो जा सकता है लेकिन नतीजा निकलवाने के काम नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की उपमा मात्र ”जुबानी” प्राप्त है। उसे ऐसा कोई संवैधानिक अधिकार हासिल नहीं है जैसा विधायिका, कार्यपालिका और न्याय पालिका को प्राप्त है।
लोकतंत्र का लोक इस ”दर्जाप्राप्त” चौथे स्तंभ से उम्मीद तो बहुत रखता है लेकिन उसकी उम्मीदें पहले तीन संवैधानिक स्तंभों की मंशा के बिना पूरी नहीं हो सकतीं।
संभवत: यही कारण है कि प्रेस से मीडिया के रूप में परिवर्तित होने वाला यह चौथा खंभा स्वतंत्रता के सात दशक पूरे हो जाने के बावजूद ”भोंपू” से अधिक कुछ बन नहीं पाया। एक ऐसा भोंपू जिसे कोई भी अपनी जरूरत और सुविधा के हिसाब से जब चाहे जब बजा कर तो चला जाता है परंतु उसे सशक्त व समर्थ करने की बात तक नहीं करता।
सुप्रीम कोर्ट के चार विद्वान न्यायाधीशों ने भी अपनी जरूरत के लिए इस भोंपू का इस्तेमाल जरूर किया है लेकिन ये न्यायाधीश भली-भांति जानते हैं कि भोंपू रहेगा आखिर भोंपू ही इसीलिए सॉलीसीटर जनरल का बयान गौर करने लायक है।
सॉलीसीटर जनरल के. के. वेणुगोपाल ने कल ही साफ कर दिया था कि बहुत जल्द इस समस्या का समाधान मिल-बैठकर कर लिया जाएगा। वेणुगोपाल के बयान का निहितार्थ यही निकलता है कि हाल-फिलहाल किसी स्तर पर व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन होने नहीं जा रहा। फिर किसी नए ऐसे ऐतिहासिक धमाके तक यथास्थिति कायम रहनी है। मीडिया का भोंपू भी मियादी बुखार की तरह ज्यादा से ज्यादा तीन दिन तक शोर मचाकर चुप हो ही जाएगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
नया था तो केवल इतना कि सर्वोच्च न्यायालय के चार सीनियर मोस्ट न्यायाधीश उन बातों को कहने ”सड़क पर” यानि ”प्रेस के सामने” आ गए जो बातें सामान्यत: दबी-ढकी रहती हैं और जिन्हें सब जानते-समझते हुए भी सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं कर पाते।
न्यायाधीशों ने जिन बातों को अपना ”दर्द” बताकर प्रेस के सामने पेश किया, वह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो समूची न्यायपालिका में नीचे से लेकर ऊपर तक व्याप्त है और जिसे हर वो व्यक्ति प्रतिदिन भोगता है जिसके अंदर कहीं ”ईमानदारी” की लौ लगी हुई है। फिर चाहे वह कोई जज हो, न्याय विभाग का कोई कर्मचारी हो अथवा वकील ही क्यों न हो। रही बात वादी और प्रतिवादियों की, तो उसकी स्थिति ऐसे निरीह व्यक्ति की तरह होती है जो किसी कोने में जाकर सिसक तो सकता है किंतु उस सिसकी की आवाज़ किसी के कानों तक नहीं पहुंचा सकता क्योंकि सवाल देश की न्याय व्यवस्था का है। उस न्याय व्यवस्था का जो लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हर शख्स की आखिरी उम्मीद होती है।
आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि स्वतंत्र भारत में न्यायपालिका अपनी बात कहने के लिए भले ही पहली बार ”चौराहे” पर आकर खड़ी हुई हो परंतु लोग तो न्याय की आस में कई दशकों से ”दोराहे” पर खड़े हैं। उन्हें समझ में नहीं आता कि वह त्वरित व उचित न्याय के लिए किस दरवाजे पर जाकर खड़े हों। विधायिका के, कार्यपालिका के या न्यायपालिका के।
विधायिका अर्थात् ”नेतानगरी” का हाल यहां बताने की जरूरत ही नहीं है और कार्यपालिका में व्याप्त ”भ्रष्टाचार” से त्वरित व उचित न्याय की उम्मीद पालना बेमानी है। बिना पैसे के अधिकांश सरकारी कर्मचारियों के पांव अंगद की तरह एक स्थान पर जमे रहते हैं। बिना चाय-पानी के उन्हें उठवाना तो दूर, हिला पाना भी संभव नहीं होता।
रही बात न्यापालिका की तो उसके बारे में बहुत पहले से कहावत प्रचलित है कि ”कचहरी” की ईंट-ईंट पैसा मांगती है। चार विद्वान न्यायाधीश हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सब-कुछ ठीक न चलने की शिकायत लेकर 70 साल बाद चौराहे पर आए हों किंतु यह शिकायत न तो मात्र सुप्रीम कोर्ट की है और न सिर्फ उनकी अपनी। ऐसी शिकायतें जिला अदालतों से लेकर उच्च न्यायालयों तक में कदम-कदम पर बिखरी पड़ी हैं। इतना अवश्य है कि इन शिकायतों को न तो कोई एकत्र करता है और न उठाता है क्योंकि सवाल न्यायपालिका का जो है। वो न्यायपालिका जिसकी बात-बात में अवमानना हो जाती है। तब भी जबकि सवाल किसी न्यायाधीश के निजी आचरण से जुड़ा हो न कि न्याय व्यवस्था से, क्योंकि न्यायाधीश के आचरण को भी न्यायपालिका से जोड़कर देखा जाने लगा है।
शायद ही किसी अधिवक्ता ने कभी इस मुतल्लिक कोई याचिका दायर की हो कि न्यायपालिका की अवमानना को जनहित में परिभाषित किया जाए और स्पष्ट किया जाए कि किसी न्यायाधीश के निजी आचरण पर टिप्पणी करना न्यायपालिका की अवमानना कैसे हो सकती है।
आम आदमी जिसके लिए लोकतंत्र का यह स्तंभ न्याय पाने की आखिरी सीढ़ी होता है, वह इस सीढ़ी से निराश होने के बाद खुद को कितना ठगा महसूस करता है इसका इल्म उसे ही होता है किसी न्यायाधीश को नहीं।
तारीख पर तारीख…तारीख पर तारीख…किसी जुमले की तरह हिंदी फिल्म का हिस्सा तो बन गया लेकिन अदालतों से मिलने वाली तारीखों की कोई आखिरी तारीख अब तक मुकर्रर नहीं हो पाई, नतीजतन अनगिनत लोग हर साल न्याय की उम्मीद पाले लोकतंत्र के ”माई लॉर्ड” से परलोक के ”लॉर्ड” की अदालत में शिफ्ट कर जाते हैं और उसके बाद भी ”माई लॉर्ड” की अदालत से पीड़ित के किसी परिजन को हाजिर होने का फरमान जारी होना बंद नहीं होता।
जस्टिस जे चेलामेश्वरम, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ़ द्वारा लोकतंत्र को खतरे में बताकर उठाई गईं समस्याएं हालांकि पहली नजर में व्यक्तिगत अहम से उपजी समस्याएं दिखाई देती हैं और इसलिए बहुत से पूर्व विद्वान न्यायाधीश व अधिवक्तागण यह कह भी रहे हैं कि उन्हें अपने दायरे के अंदर रहकर समस्याओं के समाधान का रास्ता निकालना चाहिए था परंतु परिस्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सतही तौर पर दिखाई देती हैं।
जिला स्तरीय अदालतों में भी बहुत से जिला एवं सत्र न्यायाधीश अपनी और अपने नजदीकी जजों की ”सुविधा” के हिसाब से केस सुनवाई के लिए भेजते हैं। निचली अदालतों में भी ”पैसा और प्रभाव” अधिकांश जजों के सिर चढ़कर बोलता है। लोअर कोर्ट अपने जजों की कार्यप्रणाली के नियम व कानून विरुद्ध किस्से-कहानियों से भरे पड़े रहते हैं। किसी भी जिला अदालत में कार्यरत कुल न्यायाधीशों में से ईमानदार न्यायाधीशों का पता करने जाएं तो उंगलियों पर गिने जाने लायक न्यायाधीश ही उस श्रेणी में आते हैं।
लोअर कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक और हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सेटिंग-गेटिंग का खेल बड़े पैमाने पर चलता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बात अलग है कि खुलकर कहने की हिमाकत हर कोई नहीं कर सकता।
बहुत दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील और देश के पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि स्वतंत्र भारत में आजतक जितने भी लोग चीफ जस्टिस की कुर्सी पर काबिज रहे हैं, उनमें से अधिकांश ईमानदार नहीं कहे जा सकते। शांति भूषण के कथन पर न्यायपालिका को जैसे सांप सूंघ गया। एकबार तो ऐसी बातें उठीं कि शांति भूषण के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का केस चलाया जाएगा लेकिन हुआ कुछ नहीं। जाहिर है कि शांति भूषण का कथन अतिशयोक्ति नहीं था और इसीलिए उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने का साहस नहीं हुआ।
शांति भूषण, इन्हीं प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण के पिता हैं जिन्होंने कल जजों की प्रेस कांफ्रेंस के संदर्भ में कहा है कि समस्या का समाधान उसे दबाने से नहीं, सार्वजनिक करने के बाद ही निकलता है।
प्रशांत भूषण के अनुसार एकसाथ चार वरिष्ठ न्यायाधीशों को यदि प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी बात कहनी पड़ी तो समस्या की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है।
हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्ता प्रशांत भूषण कुछ निजी कारणोंवश प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्यायाधीशों को सही ठहरा रहे हों, हो सकता है कि चारों न्यायाधीश भी व्यक्तिगत कारणों से चीफ जस्टिस की कार्यप्रणाली पर उंगली उठा रहे हों लेकिन समस्याएं हैं और नीचे से ऊपर तक है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
बात चाहे कॉलेजियम सिस्टम की हो अथवा उन निर्णयों की जिन पर उंगली उठी हैं, न्यायाधीश के साथ-साथ न्यायप्रणाली पर भी आम आदमी के भरोसे को कमजोर करती हैं।
पिछले कुछ वर्षों के अंदर उच्च और उच्चतम न्यायालयों से तमाम ऐसे निर्णय हुए हैं जिन पर न सिर्फ उंगलियां उठी हैं बल्कि वो मीडिया तथा जनता के बीच चर्चा का विषय भी बने हैं। बहुत से निर्णय ऐसे आए हैं जिन पर खुद सर्वोच्च न्यायालय को पुनर्विचार करना पड़ा है और कुछ में तो निर्णय बदले भी गए हैं। हाल ही में ट्रांस जैंडर्स को लेकर आया फैसला उनमें से एक है।
लोअर कोर्ट के आदेश को हाई कोर्ट द्वारा पलट देना और हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरी तरह गलत ठहरा देना तो अब जैसे आम बात हो गई है। जन सामान्य को विद्वान न्यायाधीशों के ऐसे निर्णय यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि आखिर कौन से न्यायाधीश का निर्णय सही माना जाए?
आम आदमी के समझ से परे हैं यह बातें कि जिन सबूतों और गवाहों के आधार पर एक न्यायाधीश किसी को सजा सुनाता है या बरी कर देता है, वही सबूत और गवाह दूसरे न्यायाधीश के लिए बेमानी कैसे हो जाते हैं?
माना कि लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की व्यवस्था मुकम्मल न्याय देने के लिए ही की गई है परंतु जब अधिकांश मामलों में रद्दोबदल दिखाई देता है तो सवाल खड़े होना लाजिमी है।
राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद से लेकर आरुषी हत्याकांड तक और 2जी घोटाले से लेकर आदर्श सोसायटी घोटाले तक के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन सभी मामलों में आजतक न्याय की दरकार है।
कई-कई दशकों का इंतजार भी इस बात की गारंटी देने में असमर्थ है कि उसके बाद जो न्याय मिलेगा, वह निर्विवाद होगा।
यही कारण है कि आज न्यायपालिका और न्यायाधीश भी बहस का मुद्दा बन गए हैं और उनके प्रति अवमानना का भय समाप्त होता जा रहा है।
अब आखिर में यदि बात करें लोकतंत्र के उस चौथे स्तंभ की जिसके सामने सर्वोच्च न्यायालय के चार-चार न्यायाधीशों को अपनी बात कहने के लिए आना पड़ा, वह सिर्फ एक ऐसा झुनझुना है जिसे बजाया तो जा सकता है लेकिन नतीजा निकलवाने के काम नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की उपमा मात्र ”जुबानी” प्राप्त है। उसे ऐसा कोई संवैधानिक अधिकार हासिल नहीं है जैसा विधायिका, कार्यपालिका और न्याय पालिका को प्राप्त है।
लोकतंत्र का लोक इस ”दर्जाप्राप्त” चौथे स्तंभ से उम्मीद तो बहुत रखता है लेकिन उसकी उम्मीदें पहले तीन संवैधानिक स्तंभों की मंशा के बिना पूरी नहीं हो सकतीं।
संभवत: यही कारण है कि प्रेस से मीडिया के रूप में परिवर्तित होने वाला यह चौथा खंभा स्वतंत्रता के सात दशक पूरे हो जाने के बावजूद ”भोंपू” से अधिक कुछ बन नहीं पाया। एक ऐसा भोंपू जिसे कोई भी अपनी जरूरत और सुविधा के हिसाब से जब चाहे जब बजा कर तो चला जाता है परंतु उसे सशक्त व समर्थ करने की बात तक नहीं करता।
सुप्रीम कोर्ट के चार विद्वान न्यायाधीशों ने भी अपनी जरूरत के लिए इस भोंपू का इस्तेमाल जरूर किया है लेकिन ये न्यायाधीश भली-भांति जानते हैं कि भोंपू रहेगा आखिर भोंपू ही इसीलिए सॉलीसीटर जनरल का बयान गौर करने लायक है।
सॉलीसीटर जनरल के. के. वेणुगोपाल ने कल ही साफ कर दिया था कि बहुत जल्द इस समस्या का समाधान मिल-बैठकर कर लिया जाएगा। वेणुगोपाल के बयान का निहितार्थ यही निकलता है कि हाल-फिलहाल किसी स्तर पर व्यवस्था में कोई भी परिवर्तन होने नहीं जा रहा। फिर किसी नए ऐसे ऐतिहासिक धमाके तक यथास्थिति कायम रहनी है। मीडिया का भोंपू भी मियादी बुखार की तरह ज्यादा से ज्यादा तीन दिन तक शोर मचाकर चुप हो ही जाएगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी