गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

गे केस: खुली कोर्ट में सुनवाई को SC तैयार

उच्चतम न्यायालय समलैंगिकता को आपराधिक कृत्य करार देने वाले अपने फैसले के खिलाफ समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से दायर सुधारात्मक याचिकाओं पर खुली अदालत में सुनवाई के लिए राजी हो गया है। प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वे दस्तावेजों का निरीक्षण करेंगे और याचिका पर गौर करेंगे। इस पीठ के समक्ष यह मामला विभिन्न पक्षों की ओर से वरिष्ठ वकीलों ने उठाया था।
सुधारात्मक याचिका अदालत में किसी मामले से जुड़ी चिंताओं पर दोबारा विचार का अंतिम न्यायिक रास्ता है और सामान्यत: इस पर न्यायाधीश बिना किसी पक्ष को बहस की अनुमति दिए अपने कक्ष में सुनवाई करते हैं। याचिकाकर्ताओं में नाज़ फाउंडेशन नामक गैर सरकारी संगठन भी शामिल है, जो लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर (एलजीबीटी) समुदाय की ओर से कानूनी लड़ाई लड़ रहा है।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि पिछले साल 11 दिसंबर को दिए गए फैसले में गलती है और वह पुराने कानून पर आधारित है। वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक देसाई ने पीठ को बताया, ‘‘फैसले को 27 मार्च 2012 को सुरक्षित रख लिया गया था लेकिन फैसला लगभग 21 महीने बाद सुनाया गया।
इस दौरान कानून में संशोधन समेत बहुत से बदलाव हुए और फैसला देते समय पीठ ने इनपर ध्यान नहीं दिया।’’ हरीश साल्वे, मुकुल रोहतगी, आनंद ग्रोवर जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं के साथ अन्य वकीलों ने भी देसाई का समर्थन किया और एक खुली अदालत में सुनवाई की अपील की।
-एजेंसी

ये क्‍या...आठ सीटों पर भाजपा के दो-दो प्रत्‍याशी!


यूं तो राजनेता किसी संभावित प्रश्‍न का जवाब देना उचित नहीं समझते लेकिन संभावनाएं उनसे उत्‍तर की दरकार रखती हैं लिहाजा यदि वो संतुष्‍ट नहीं करते तो खुद-ब-खुद उत्‍तर तलाश लेती हैं।
राजनीति के इस संक्रमण काल में चूंकि राजनीतिक दलों की बाजीगरी के लिए असीमित संभावनाएं भरी पड़ी हैं और संविधान उनकी इन संभावित बाजीगरी के आगे लगभग नतमस्‍तक है लिहाजा आमजन इस बाजीगरी का आंकलन अपने स्‍तर से करने लगता है।
16 वीं लोकसभा के लिए 10 अप्रैल से शुरू हो रहे चुनावों में किसके सिर जीत का सेहरा बंधने वाला है और किसके हाथों की लकीरें उसे सत्‍ता के शीर्ष पर काबिज कराती हैं, यह तो 16 मई के बाद ही पता लग पायेगा अलबत्‍ता एक बात जो पता लग चुकी है, वह यह है कि सत्‍ता की चाहत के इस खेल में यदि जादुई अंकों की जरूरत पड़ी तो राष्‍ट्रीय लोकदल जैसे छोटे दलों की लॉटरी निकल पड़ेगी।
कहने को राष्‍ट्रीय लोकदल आज की तारीख तक यूपीए का हिस्‍सा है और कांग्रेस के सहयोग से उसके युवराज जयंत चौधरी कृष्‍ण की नगरी में दोबारा चुनाव लड़ रहे हैं परंतु नतीजे आने पर वह यूपीए का भाग रहेंगे या नहीं, इसकी गारंटी वह स्‍वयं नहीं दे सकते।
सब जानते हैं कि जिस तरह आज वह कांग्रेस की वैसाखी के सहारे चुनाव मैदान में हैं, उसी तरह पिछला चुनाव उन्‍होंने भाजपा के कांधों का सहारा लेकर लड़ा था। रालोद के युवराज तो अपना पहला लोकसभा चुनाव जीत गए परंतु भाजपा के नेतृत्‍व वाला एनडीए संख्‍याबल से हार गया।
जाहिर है कि एनडीए की सत्‍ता बनती न देख रालोद ने तुरंत कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले यूपीए में घुसपैठ की जुगत भिड़ानी शुरू कर दी किंतु उस समय यूपीए ने सत्‍ता पर काबिज होने लायक सीटों की जुगाड़ कर ली थी।
समय के साथ केन्‍द्र के कांग्रेस नेतृत्‍व पर भ्रष्‍टाचार तथा महंगाई न रोक पाने के आरोप जब लगने लगे और यूपीए के घटक दल कांग्रेस को आंखें दिखाने लगे तो कांग्रेस ने खतरे को भांपकर समय रहते अपना गणित फिट करना जरूरी समझा। कांग्रेस के इस गणित को फिट करने में रालोद से बेहतर और कौन हो सकता था नतीजतन उसके मुखिया चौधरी अजीत सिंह को केन्‍द्र में मंत्रीपद से नवाज़ कर दोनों ने अपनी-अपनी जरूरतें पूरी कर लीं।
अब मथुरा की जनता के जेहन में यह सवाल पैदा होना लाजिमी है कि इस बार अगर जयंत चौधरी फिर जीत जाते हैं लेकिन केन्‍द्र में यूपीए की सरकार बनने के आसार दिखाई नहीं देते तो भी क्‍या रालोद यूपीए का हिस्‍सा बना रहेगा?
यही वो संभावित प्रश्‍न है जिसका उत्‍तर देने को कोई तैयार नहीं, लेकिन उत्‍तर तो चाहिए क्‍योंकि उत्‍तर न मिलने पर तमाम प्रतिप्रश्‍न खड़े हो जाते हैं।
ज़रा सोचिए कि यदि केन्‍द्र में यूपीए की सरकार बनने की संभावना नहीं रहती और भाजपा के नेतृत्‍व वाली एनडीए को भी स्‍पष्‍ट बहुमत नहीं मिलता (जिसकी कि संभावनाएं काफी हैं) तो भी क्‍या रालोद, यूपीए का हिस्‍सा बना रहेगा?
रालोद के मुखिया चौधरी अजीत सिंह का ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो साफ पता लगता है कि वह ऐसी स्‍थिति में एनडीए का हिस्‍सा बनते कतई देर नहीं लगायेंगे। इसके लिए सौदेबाजी में नफा-नुकसान का बेहतर आंकलन करना उन्‍हें आता है और निश्‍चित ही वह अपने लिए फायदे का सौदा करेंगे।
तो क्‍या यह मान लिया जाए कि मथुरा ही क्‍यों, पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश की जिन आठ सीटों पर रालोद, कांग्रेस के सहयोग से चुनाव लड़ रही है... वहां परोक्ष तौर पर भाजपा के ही दो-दो प्रत्‍याशी चुनाव मैदान में हैं।  एक उसके अपने सिंबल पर और दूसरा रालोद के रूप में। क्‍योंकि फिर चाहे भाजपा का प्रत्‍याशी जीते या रालोद का, अंतत: जरूरत पड़ने पर वह गिरेगा तो भाजपा की ही झोली में।
रालोद के लिए ऐसा करना इसलिए और आसान हो जाता है क्‍योंकि उसका दायरा बहुत छोटा है तथा जब चाहे व जहां चाहे पलटी मारने में उसके सामने कोई समस्‍या खड़ी नहीं होती।
अगर ऐसी परिस्‍थितयां बनती हैं तो बेशक भाजपा भी इसके लिए कम जिम्‍मेदार नहीं होगी परंतु उसकी चिंता करता कौन है। सत्‍ता पर काबिज होने को लालयित जो भाजपा आज सब कुछ ग्राह्य बना चुकी है, उसे जरूरत के समय रालोद से परहेज क्‍यों होने लगा। फिर पिछले ही चुनावों में रालोद उसका साथी भी रहा है। दोनों दल एक-दूसरे की फितरतों से भली प्रकार वाकिफ हैं।
रहा सवाल उस जनता का जो आज एक को रालोद-कांग्रेस का संयुक्‍त उम्‍मीदवार मानकर मतदान करेगी और उन पार्टी कार्यकर्ताओं का जो अपने आलाकमान के आदेश-निर्देशों का सिर झुकाकर पालन करेंगे, तो उनकी फ़िक्र है किसे।
यहां तो फ़िक्र सिर्फ कुर्सी की है, वह चाहे जिन हथकंडों से मिलती हो।
तो दोस्‍तो! तैयार रहिए नतीजों के बाद राजनीतिक दलों की असली और बड़ी बाजीगरी देखने के लिए। आप मतदान चाहे जिसके पक्ष में करें लेकिन आपका जनप्रतिनिधि उसी दल का होगा, जिसकी सरकार बनेगी।
मथुरा सहित रालोद के हिस्‍से वाली  पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश की आठ सीटों के बावत आप यूं भी समझ सकते हैं कि यहां हर सीट पर भाजपा के दो-दो प्रत्‍याशी चुनाव मैदान में हैं।
तय समझिए कि सरकार बनने के बाद आपके पास दोहराने को केवल यही रह जायेगा कि 'कोऊ नृप होए, हमें का हानि'।
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