समय के बारे में एक पुरानी कहावत ब्रज क्षेत्र में मशहूर है। कहावत यह है कि ”घड़ी-घड़ी घड़ियाल बजावै, ना जाने घड़ी कैसी आवै”।
इत्तफाकन फिलहाल यह कहावत समाजवादी कुनबे पर पूरी तरह सटीक बैठती है। लगता है समाजवादी कुनबे को भी इस बात का अहसास हो चुका है कि उनका खराब समय अब शुरू हो चुका है, और संभवत: इसीलिए ऊपर दिए गए चित्र में कुनबे के दो वरिष्ठजन अपनी-अपनी घड़ियों पर एकसाथ नजर गढ़ाए बैठे हैं।
अमर सिंह ने कल मीडिया से बात करते हुए सच ही कहा था कि ”माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोय, इक दिन ऐसा आएगा मैं रूधूंगी तोय”।
मुलायम सिंह को ज़मीन से जुड़ा नेता कहा जाता है। समय का खेल देखिए कि जमीन से जुड़े इस नेता की सारी साख अब जमीन में मिलती जा रही है। मिट्टी के जिन अखाड़ों से कुश्ती के दांव-पेंच सीखकर मुलायम सिंह ने राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधरों को मिट्टी सुंघा दी, वही मुलायम सिंह अब अपने बेटे के हाथों चित्त होते जा रहे हैं।
अमर सिंह ने कल एक और बात कही थी। उन्होंने कहा था कि राजनीति बड़ी निर्मम होती है। पता नहीं अमर सिंह को इसका अहसास कब हुआ, लेकिन जब भी हुआ…बहुत सही हुआ।
कुछ लोग समाजवादी कुनबे में चल रहे इस कलह को एक ऐसा नाटक बता रहे हैं जो अखिलेश को पूर्ण उत्तराधिकार सौंपने की खातिर मुलायम व अखिलेश द्वारा मिलकर खेला जा रहा है।
अगर यह सच है, और हर रोज अपने निम्नतम स्तर तक पहुंचने वाला समाजवादी पार्टी का कलह वाकई किसी नाटक की स्क्रिप्ट का हिस्सा है तो निश्चित ही इसका स्क्रिप्ट राइटर बेहद घटिया होगा। उसकी सोच ”औरंगजेब” से प्रभावित रही होगी।
माना कि मुलायम सिंह का राजनीतिक इतिहास तमाम छल-प्रपंच, धोखाधड़ी और मौकापरस्ती से भरा पड़ा है किंतु इसमें भी कोई दो राय नहीं कि देश को अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक कुनबा देने में उनकी भूमिका अद्वितीय रही है।
मुलायम ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राजनीति की जिस वंशावली को वह वटवृक्ष मानकर चल रहे थे, वह उनके सामने ही न सिर्फ विषबेल में तब्दील हो जाएगी बल्कि उन्हें भी विषपान करने पर मजबूर कर देगी।
अमर सिंह की मानें तो शिवपाल ने ही चार साल की उम्र से अखिलेश की परवरिश की क्योंकि मुलायम तब राजनीति में बहुत व्यस्त हो चुके थे। तो क्या शिवपाल की परवरिश में ही खोट निकली, या फिर मौका मिलते ही अखिलेश ”नमक हराम” हो गए।
कहते हैं खून का रंग बहुत गाढ़ा होता है। वह आसानी से नहीं धुलता लेकिन यहां तो ऐसा लग रहा है जैसे समाजवादी कुनबे का खून पानी हो चुका है। मुलायम का ”अमर प्रेम” उनके अपने खून को नागवार गुजर रहा है और चाचा शिवपाल पर अखिलेश की परवरिश भारी पड़ रही है।
जो भी हो, लेकिन चुनावों के मुहाने पर खड़े होकर राजनीति की विरासत के लिए मची इस कलह का नतीजा समाजवादी पार्टी को चुनाव परिणामों में जरूर दिखाई देगा, हालांकि अखिलेश यादव को अब भी अपनी जीत का भरोसा है।
हो सकता है कि सीएम की ऊंची कुर्सी पर बैठे अखिलेश को जमीनी हकीकत दिखाई न दे रही हो और इसीलिए वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हों किंतु मुलायम व शिवपाल काफी हद तक अपनी हकीकत समझ चुके हैं। वो सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करें या न करें लेकिन उन्हें इस बात का अहसास हो चुका है कि घड़ी की सुइयां अब उनके मन माफिक नहीं चल रहीं।
जिस समाजवाद के रथ पर सवार होकर मुलायम एंड पार्टी ने लंबे समय तक देश के सबसे बड़े सूबे की राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचाया, वही समाजवाद का रथ अब उनके अपने खून की वजह से कीचड़ में धंसता दिखाई दे रहा है।
इसे अखिलेश की महत्वाकांक्षा कहें या मुलायम का पुत्र मोह कि समाजवादी पार्टी का ”समाजवाद” पूरी तरह बिखर चुका है। मुलायम सिंह द्वारा ”परिवारवाद” में तब्दील की गई ”समाजवाद” की परिभाषा अब नए सिरे से लिखी जा रही है। इस परिभाषा में बेशक पितृदोष नजर आता हो परंतु आज का सत्य यही है।
सत्य यह भी है कि सत्ता की खातिर उपजे संघर्ष में रिश्तों की बलि हमेशा चढ़ाई जाती रही है। वह युग चाहे राजा-महाराजाओं और बादशाहों का हो अथवा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों का। सत्ता संघर्ष में इतिहास हर युग के अंदर खुद को दोहराता रहा है।
नि: संदेह जीवन के लगभग 80 वसंत देख चुके मुलायम ने अपने खिलाफ करवट बदल रहे समय की नब्ज पहचान कर ही बेटे से सुलह की कोशिशों को अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास किया होगा लेकिन तय है कि समय अब मुलायम का साथ छोड़ चुका है। कल को हो सकता है कि शिवपाल भी अपना कोई अलग रास्ता चुन लें क्योंकि बूढ़े दरख़्त के गिरने का खतरा ज्यादा होता है, उससे आसरे की उम्मीद काफी कम।
मुलायम और शिवपाल अपनी-अपनी कलाइयों पर बंधी घड़ी भले ही एक ही टाइम पर देख रहे हों किंतु दोनों के घड़ी देखने का मकसद अलग-अलग भी हो सकता है।
दरअसल, घड़ियां समय जरूर बताती हैं लेकिन यह खुद को ही तय करना होता है कि समय शुरू हो रहा है अथवा समय पूरा हो रहा है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
इत्तफाकन फिलहाल यह कहावत समाजवादी कुनबे पर पूरी तरह सटीक बैठती है। लगता है समाजवादी कुनबे को भी इस बात का अहसास हो चुका है कि उनका खराब समय अब शुरू हो चुका है, और संभवत: इसीलिए ऊपर दिए गए चित्र में कुनबे के दो वरिष्ठजन अपनी-अपनी घड़ियों पर एकसाथ नजर गढ़ाए बैठे हैं।
अमर सिंह ने कल मीडिया से बात करते हुए सच ही कहा था कि ”माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोय, इक दिन ऐसा आएगा मैं रूधूंगी तोय”।
मुलायम सिंह को ज़मीन से जुड़ा नेता कहा जाता है। समय का खेल देखिए कि जमीन से जुड़े इस नेता की सारी साख अब जमीन में मिलती जा रही है। मिट्टी के जिन अखाड़ों से कुश्ती के दांव-पेंच सीखकर मुलायम सिंह ने राजनीति के बड़े-बड़े धुरंधरों को मिट्टी सुंघा दी, वही मुलायम सिंह अब अपने बेटे के हाथों चित्त होते जा रहे हैं।
अमर सिंह ने कल एक और बात कही थी। उन्होंने कहा था कि राजनीति बड़ी निर्मम होती है। पता नहीं अमर सिंह को इसका अहसास कब हुआ, लेकिन जब भी हुआ…बहुत सही हुआ।
कुछ लोग समाजवादी कुनबे में चल रहे इस कलह को एक ऐसा नाटक बता रहे हैं जो अखिलेश को पूर्ण उत्तराधिकार सौंपने की खातिर मुलायम व अखिलेश द्वारा मिलकर खेला जा रहा है।
अगर यह सच है, और हर रोज अपने निम्नतम स्तर तक पहुंचने वाला समाजवादी पार्टी का कलह वाकई किसी नाटक की स्क्रिप्ट का हिस्सा है तो निश्चित ही इसका स्क्रिप्ट राइटर बेहद घटिया होगा। उसकी सोच ”औरंगजेब” से प्रभावित रही होगी।
माना कि मुलायम सिंह का राजनीतिक इतिहास तमाम छल-प्रपंच, धोखाधड़ी और मौकापरस्ती से भरा पड़ा है किंतु इसमें भी कोई दो राय नहीं कि देश को अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक कुनबा देने में उनकी भूमिका अद्वितीय रही है।
मुलायम ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राजनीति की जिस वंशावली को वह वटवृक्ष मानकर चल रहे थे, वह उनके सामने ही न सिर्फ विषबेल में तब्दील हो जाएगी बल्कि उन्हें भी विषपान करने पर मजबूर कर देगी।
अमर सिंह की मानें तो शिवपाल ने ही चार साल की उम्र से अखिलेश की परवरिश की क्योंकि मुलायम तब राजनीति में बहुत व्यस्त हो चुके थे। तो क्या शिवपाल की परवरिश में ही खोट निकली, या फिर मौका मिलते ही अखिलेश ”नमक हराम” हो गए।
कहते हैं खून का रंग बहुत गाढ़ा होता है। वह आसानी से नहीं धुलता लेकिन यहां तो ऐसा लग रहा है जैसे समाजवादी कुनबे का खून पानी हो चुका है। मुलायम का ”अमर प्रेम” उनके अपने खून को नागवार गुजर रहा है और चाचा शिवपाल पर अखिलेश की परवरिश भारी पड़ रही है।
जो भी हो, लेकिन चुनावों के मुहाने पर खड़े होकर राजनीति की विरासत के लिए मची इस कलह का नतीजा समाजवादी पार्टी को चुनाव परिणामों में जरूर दिखाई देगा, हालांकि अखिलेश यादव को अब भी अपनी जीत का भरोसा है।
हो सकता है कि सीएम की ऊंची कुर्सी पर बैठे अखिलेश को जमीनी हकीकत दिखाई न दे रही हो और इसीलिए वह अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हों किंतु मुलायम व शिवपाल काफी हद तक अपनी हकीकत समझ चुके हैं। वो सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करें या न करें लेकिन उन्हें इस बात का अहसास हो चुका है कि घड़ी की सुइयां अब उनके मन माफिक नहीं चल रहीं।
जिस समाजवाद के रथ पर सवार होकर मुलायम एंड पार्टी ने लंबे समय तक देश के सबसे बड़े सूबे की राजनीति को अपनी उंगलियों पर नचाया, वही समाजवाद का रथ अब उनके अपने खून की वजह से कीचड़ में धंसता दिखाई दे रहा है।
इसे अखिलेश की महत्वाकांक्षा कहें या मुलायम का पुत्र मोह कि समाजवादी पार्टी का ”समाजवाद” पूरी तरह बिखर चुका है। मुलायम सिंह द्वारा ”परिवारवाद” में तब्दील की गई ”समाजवाद” की परिभाषा अब नए सिरे से लिखी जा रही है। इस परिभाषा में बेशक पितृदोष नजर आता हो परंतु आज का सत्य यही है।
सत्य यह भी है कि सत्ता की खातिर उपजे संघर्ष में रिश्तों की बलि हमेशा चढ़ाई जाती रही है। वह युग चाहे राजा-महाराजाओं और बादशाहों का हो अथवा लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों का। सत्ता संघर्ष में इतिहास हर युग के अंदर खुद को दोहराता रहा है।
नि: संदेह जीवन के लगभग 80 वसंत देख चुके मुलायम ने अपने खिलाफ करवट बदल रहे समय की नब्ज पहचान कर ही बेटे से सुलह की कोशिशों को अंजाम तक पहुंचाने का प्रयास किया होगा लेकिन तय है कि समय अब मुलायम का साथ छोड़ चुका है। कल को हो सकता है कि शिवपाल भी अपना कोई अलग रास्ता चुन लें क्योंकि बूढ़े दरख़्त के गिरने का खतरा ज्यादा होता है, उससे आसरे की उम्मीद काफी कम।
मुलायम और शिवपाल अपनी-अपनी कलाइयों पर बंधी घड़ी भले ही एक ही टाइम पर देख रहे हों किंतु दोनों के घड़ी देखने का मकसद अलग-अलग भी हो सकता है।
दरअसल, घड़ियां समय जरूर बताती हैं लेकिन यह खुद को ही तय करना होता है कि समय शुरू हो रहा है अथवा समय पूरा हो रहा है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी