शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

MY Lord, जनसामान्‍य के लिए भी बनवा दीजिए कोई ‘लेन’, उसकी भी सुन लीजिए हुजूर

बीते बुधवार को मद्रास हाई कोर्ट ने NHAI (नेशनल हाइवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया) को सख्‍त आदेश देते हुए कहा कि वह अपने सभी टोल प्लाजा पर वीआईपी और मौजूदा जजों के लिए एक अलग से एक्सक्लूसिव लेन बनाए या Contempt of court की कार्यवाही के लिए तैयार रहे।
जस्टिस हुलुवाडी जी रमेश और जस्टिस एमवी मुरलीधरन की डिवीजन बेंच ने कहा, ये वीआईपी और जजों के लिए बहुत शर्म की बात है कि वे टोल प्लाजा पर इंतजार करें और अपने आइडेंटिटी कार्ड दिखाएं। बेंच ने केंद्र सरकार और एनएचएआई से कहा कि वे इस मामले में प्रत्‍येक टोल प्‍लाजा के लिए सर्कुलर जारी करें।
कोर्ट ने यह भी कहा: टोल कलेक्टर की जिम्मेदारी होगी कि वह उस लेन से वीआईपी और जज के अलावा किसी और को गुजरने न दे, और जो भी इस नियम का उल्लंघन करे, टोल कलेक्टर उसके खिलाफ सख्त कार्यवाही करे।
कोर्ट ने कहा, ‘अलग लेन न होने से हर टोल प्लाजा पर सिटिंग जज और वीआईपी लोगों को ‘अनावश्यक शर्मिंदगी’ का सामना करना पड़ता है। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। टोल प्लाजा पर सिटिंग जज को 10 से 15 मिनट तक इंतजार करना पड़ता है।
MY Lord, आपका आदेश तो सिर माथे, लेकिन उन लोगों का क्‍या जो पूरा पैसा देकर भी हर टोल पर इंतजार करने को मजबूर हैं। हुजूर, क्‍या उनका समय कोई मायने नहीं रखता।
लगे हाथ उनके लिए भी कोई आदेश-निर्देश NHAI को दे दिया होता। वो तो कई बार घंटों-घंटों फंसे रहते हैं।
वहां से जैसे-तैसे निकल भी आएं तो आपकी अदालतें रहम नहीं करतीं क्‍योंकि आम आदमी के लिए वहां भी कोई लेन नहीं है।
कोई वादी अथवा प्रतिवादी, और यहां तक कि वकील साहिब भी यदि टोल प्‍लाजा पर अटक जाने के कारण अदालत में समय से उपस्‍थित नहीं होते तो उन्‍हें ‘अदम मौजूदगी’ या ‘अदम पैरवी’ का कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ जाता है, इसे कौन नहीं जानता जबकि आपकी देरी पर कहां कौन सवाल खड़ा कर सकता है।
आप अदालत में बैठें या न बैठें, मालिक का मालिक कौन।
Your Honor, आपने अपने इस आदेश में अपने साथ-साथ ‘वीआईपी’ का जिक्र क्‍यों किया यह तो आप जानें, अलबत्ता आम आदमी यह जरूर जानता है कि वीआईपी किसी टोल पर कहां रुकते हैं। वो तो यूं भी लाल-नीली बत्तियों वाली गाड़ियों के बीच बिना टोल दिए ‘हूटर’ बजाते तेजी के साथ निकल लेते हैं। उनके काफिले को किसी टोल पर कोई रोकने या टोकने की हिमाकत कर बैठे तो वहीं के वहीं फैसला करके जाते हैं वो। न तहरीर, न तारीख…सीधे फैसला।
क्‍या आप इस कड़वे सच से वाकई परिचित नहीं हैं MY Lord, अथवा आपने सहारे के लिए वीआईपी को जोड़ दिया अपने आदेश में।
एक विधायिका है MY Lord जो अपने वेतन-भत्ते खुद तय कर लेती है और उसमें कहीं कोई पक्ष-विपक्ष आड़े नहीं आता क्‍योंकि तब सवाल समूची नेता बिरादरी के ‘लाभ’ का होता है। दूसरी न्‍यायपालिका है जो आज तक तो अपनी नियुक्‍ति ही खुद करती रही है लेकिन अब वह अपने लिए ‘टोल नाकों’ पर अलग से लेन बनाने का आदेश भी दे रही है।
लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्‍तंभों में से शेष रह जाती है कार्यपालिका, तो उसे टोल नाकों पर किसी के आदेश-निर्देशों की दरकार नहीं है। टोल वालों का उनसे और उनका टोल वालों से रोज वास्‍ता पड़ता है। वो उनकी अहमियत बिना आदेश-निर्देश के समझते हैं इसलिए दूर से ही उनके लिए बैरियर खड़ा कर देते हैं। एक सिपाही भी टोल कर्मियों के लिए कितना विशिष्‍ट है, इसे किसी भी टोल पर देखा जा सकता है।
वैसे लोकतंत्र का एक ‘तथाकथित’ चौथा स्‍तंभ भी है जिसे इस दौर में ‘मीडिया’ कहा जाने लगा है, लेकिन उसकी यहां चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं क्‍योंकि उसकी अब कोई अहमियत नहीं रह गई।
टोल प्‍लाजा पर तो मीडियाकर्मियों को कोई दो कौड़ी का नहीं पूछता क्‍योंकि उसे अपने लिए आदेश-निर्देश देने का हक प्राप्‍त नहीं है।
और हां हुजूर, वीआईपी से याद आया कि वीआईपी तो हर जगह वीआईपी ही होते हैं। उनके लिए देश की सर्वोच्‍च अदालत भी आधी रात को खुल जाती है और सुबह होते-होते फैसला सुना देती है किंतु आम आदमी अपनी जिंदगी का आधा हिस्‍सा जाया करके भी फैसला सुनने को तरसता रहता है।
जब यमराज सामने खड़े होते हैं तब उसे याद आता है कि उसने अपने हिस्‍से की काफी उम्र तरह-तरह के टोल नाकों पर लाइन में लगकर गुजार दी।
अब देखिए हुजूर, दो दिन पहले की ही बात है। भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में देश के तथाकथित पांच बुद्धिजीवियों को पुलिस ने क्‍या पकड़ा, कोहराम मच गया। सड़क से लेकर संसद तक और मानवाधिकार आयोग से लेकर अदालत तक सब खड़े हो गए।
अगली सुबह तो आदेश हो गया कि जिन्‍हें पकड़ा है, उन्‍हें उनके घर पर नजरबंद रखें। पुलिस कस्‍टडी में उन्‍हें नहीं रखा जा सकता, तकलीफ होती है। बाकी 06 सितंबर को देखेंगे कि करना क्‍या है।
MY Lord, आम आदमी की मंशा आपके आदेश-निर्देश पर सवालिया निशान लगाने की नहीं है। वह तो सिर्फ इतना जानना चाहता है कि जनसामान्‍य के लिए अदालतें इसी प्रकार सक्रिय क्‍यों नहीं होतीं। क्‍यों उनके प्रति कोई संवेदनशील नहीं होता। मानवाधिकार आयोग उनकी गिरफ्तारी पर संज्ञान क्‍यों नहीं लेता। कोई बुद्धिजीवी गैंग उसकी खातिर सड़क पर उतरकर क्‍यों हंगामा नहीं काटता।
वो पुलिस के डंडे खाता है, अधिकारियों के यहां दुत्‍कारा जाता है, न्‍यायालयों में फटकारा जाता है लेकिन तब कोई नहीं कहता कि लोकतंत्र खतरे में है, या यह कैसा लोकतंत्र है।
हां, अगर एक आतंकवादी पूरी प्रक्रिया के बाद फांसी पर चढ़ाया जाता है अथवा किसी राज्‍य सरकार के गठन में गतिरोध उत्‍पन्‍न होता है और यहां तक कि सवा सौ करोड़ की आबादी में से पांच खास लोग गिरफ्तार कर लिए जाते हैं तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। आपातकाल से भी बदतर हालात बताए जाते हैं।
तब तमाम लिस्‍टेड मुकद्दमों को दरकिनार कर उनकी गिरफ्तारी पर सुनवाई होती है और उसी दिन राहत भी दे दी जाती है, ऐसा क्‍यों है हुजूर।
दूसरी ओर जनसामान्‍य के लिए टोल प्‍लाजा का बैरियर और Court का Hammer दोनों बराबर हैं। दोनों उसका रास्‍ता तय करते हैं। दोनों के उठे बिना, उसका निकल पाना मुश्‍किल ही नहीं, नामुमकिन है। लेकिन फिर भी वह लगा है ‘कॉमन लेन’ में, भीड़ के बीच इस उम्‍मीद के साथ कि कभी तो वह भी निकल पाएगा।
हुजूर, नहीं पता कि मॉब लिंचिंग गायों के कारण हो रही है या सांप्रदायिकता के कारण। असहिष्‍णुता इसके पीछे की वजह है अथवा राजनीतिक विद्वेष। लेकिन एक बात पता है, और वह यह कि मॉब लिंचिंग करने वालों में किसी न किसी स्‍तर पर अपने अंदर विशिष्‍टता का भाव अवश्‍य भरा होता है। वह कानून हाथ में लेने की हिमाकत ही तब कर पाते हैं जब वह यह समझने लगते हैं कि पुलिस भी वहीं हैं और अदालत भी वही।
इसलिए हुजूर ये विशिष्‍टता का भाव बहुत खतरनाक है। इसी भाव ने स्‍वतंत्रता के सात दशक बीत जाने के बाद भी ‘लोक’ से ‘तंत्र’ को काट रखा है। अगर यह ‘तंत्र’ ही ‘लोक’ के लिए नहीं है तो कैसा लोकतंत्र। यह तो राजतंत्र हुआ न हुजूर। वही राजे-रजवाड़ों वाला या शासक और शोषित वाला।
बा-अदब…बा-मुलाहिजा…होशियार! महाराज की सवारी पधार रही है।
आखिर में हुजूर याद दिलाना चाहूंगा सर्वोच्‍च न्‍यायालय की ताजा टिप्‍पणी जिसमें कहा गया है कि असहमति जताना लोकतंत्र के लिए ‘सेफ़्टी वॉल्व’ है। अगर आप इस सेफ़्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे तो प्रेशर कुकर फट जाएग।.’
यकीन मानिए MY Lord, आम आदमी भी विशिष्‍ट लोगों द्वारा विशिष्‍ट लोगों के लिए दिए जाने वाले आदेश-निर्देशों से पूरी तरह असहमत है। उसका सेफ़्टी वॉल्व काफी हद तक चोक हो चुका है। यदि वह फट गया तो सच में लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। लोकतंत्र को बचा लीजिए हुजूर। ये विशिष्‍टता का भाव त्‍याग दीजिए। आम बने रहिए ताकि जनता आपको खास समझती रहे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

1984 बनाम 2002: तेरा दंगा मेरे दंगे से सफेद कैसे

आज बीबीसी की वेब साइट पर ‘वरिष्‍ठ पत्रकार’ उर्मिलेश जी का लेख पढ़ा। इस लेख के तहत उन्‍होंने बड़ी सफाई से इंदिरा गांधी की हत्‍या के बाद 1984 में हुए सिखों के कत्‍लेआम की तुलना उसी प्रकार 2002 के गुजरात दंगों से की है जिस प्रकार कांग्रेस के प्रवक्‍ता टीवी चैनल्‍स की डिबेट में करते रहे हैं।
‘नज़रिया’ नाम से प्रकाशित बीबीसी के इस कॉलम में उर्मिलेश जी ने कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी के कथन पर भारतीय न्‍यूज़ चैनल्‍स के रवैये को सरकारी चमचागीरी बताया है और विदेशी मीडिया की इस बात के लिए तारीफ की है कि उसने राहुल की बातों में वैचारिक ताज़गी देखी।
उर्मिलेश जी ने आगे लिखा है-
शुक्रवार की रात लंदन में वहां के सांसदों और अन्य गणमान्य लोगों की एक संगोष्ठी में राहुल गांधी ने जिस तरह सन् 1984 के सिख विरोधी “दंगे या कत्लेआम” पर टिप्पणी की, उससे उन पर गंभीर सवाल भी उठे हैं. राहुल ने माना कि सन् 1984 एक भीषण त्रासदी थी. अनेक निर्दोष लोगों की जानें गईं. इसके बावजूद उन्होंने अपनी पार्टी का जमकर बचाव किया.
उर्मिलेश जी ने इसी के साथ यह सवाल भी उछाला है-
इस बात पर कौन यक़ीन करेगा कि सन् 84 के दंगे में कांग्रेस या उसके स्थानीय नेताओं की कोई संलिप्तता नहीं थी ?
सवाल के जवाब में भी उर्मिलेश जी ने एक और सवाल किया है- 
ये तो कुछ वैसा ही है जैसे कोई भाजपाई कहे कि गुजरात के दंगे में भाजपाइयों का कोई हाथ ही नहीं था. ऐसे दावों और दलीलों को लोग गंभीरता से नहीं लेते. आख़िर ये दंगे क्या हवा, पानी, पेड़-पौधे या बादलों ने कराए थे?
उर्मिलेश जी अपने ही दोनों सवालों के जवाब में लिखते हैं- हां, ये बात सच है कि उस सिख-विरोधी दंगे में सिर्फ़ कांग्रेसी ही नहीं, स्थानीय स्तर के कथित हिंदुत्ववादी और तरह-तरह के असामाजिक तत्व भी शामिल हो गए थे.
ग़रीब तबके के लंपट युवाओं को दंगे में लूट-पाट के लिए गोलबंद किया गया. मुझे लगता है इसके लिए किसी को ज़्यादा कोशिश भी नहीं करनी पड़ी होगी. संकेत मिलते ही बहुत सारे लंपट तत्व लूटमार के लिए तैयार हो गए.
राहुल गांधी के ‘कथन या कथानक’ पर भारतीय मीडिया के रवैये को ‘सरकारी’ घोषित करने वाले उर्मिलेश जी कत्‍लेआम कराने वाले उन कांग्रेसियों और कथित हिंदुत्‍ववादियों का नाम अपने लेख में लिखना भूल गए जबकि खुद उनके शब्‍दों में-
“सन् 1984 के उस भयानक दौर में मैं दिल्ली में रहता था. हमने अपनी आंखों से न केवल सब-कुछ देखा बल्कि उस पर लिखा भी. उस वक्त मैं किसी अख़बार से जुड़ा नहीं था. लेकिन पत्रकारिता शुरू कर चुका था.
उस वक्त मैं दिल्ली के विकासपुरी मोहल्ले के ए-ब्लाक में किराए के वन-रूम सेट में रहता था.
ये बात तो साफ़ है कि वह भीड़ यूं ही नहीं आ गई थी. उसके पीछे किसी न किसी की योजना ज़रूर रही होगी. वह भीड़ ‘ख़ून का बदला ख़ून से लेंगे’ के नारे लगा रही थी. ये नारे कहां से आए? इस बीच जो भी तांडव होता रहा, उसे रोकने के लिए पुलिस या अर्धसैनिक बल के जवान भी नहीं दिखे.
मेरे कमरे में बैठी सरदार जी की पत्नी की आंखों से टप-टप आंसू गिरते रहे. हम कुछ नहीं कर सकते थे. ठीक वैसे ही जैसे गुजरात के कुख्यात दंगों में असंख्य परिजन या पड़ोस के लोग अपने जाने-पहचाने लोगों का मारा जाना या उनकी संपत्तियों का विध्वंस होता देखते रह गए.
उर्मिलेश ने लिखा है, राहुल गांधी ने जब लंदन में कहा कि सन 84 के दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी तो मुझे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के वे बयान याद आने लगे जिनमें वह अक्सर कहा करते थे कि दंगों में उनकी सरकार या पार्टी की कोई भूमिका नहीं है.
मैं यहां उर्मिलेश जी से यह पूछना चाहूंगा कि किन्‍हीं भी परिस्‍थितियों में किसी एक दंगे (1984) की तुलना किसी दूसरे ऐसे दंगे (2002) से कैसे की जा सकती है, जो उस समय हुआ ही नहीं था। सिखों के कत्‍लेआम और गुजरात दंगों के बीच पूरे 18 साल का फासला रहा है। इन 18 सालों में कांंग्रेस ने क्‍या किया। क्‍या 18 साल कांग्रेस ने किसी मौके की ताक में गुजार दिए।
यदि एकबार को यह मान भी लिया जाए कि 84 के कत्‍लेआम और 2002 के दंगों की पृष्‍ठभूमि में कोई आंशिक समानता रही भी तो उर्मिलेश जी यह लिखने का साहस क्‍यों नहीं कर पाये कि कांग्रेस को बचाने के लिए अब राहुल गांधी 2002 के गुजरात दंगों का सहारा ले रहे हैं।
उर्मिलेश जी, क्‍या यह बता पायेंगे कि दुनिया की किसी भी अदालत में कोई अपराधी यह कहकर बच सकता है कि बहुत सारे लोगों ने उसके जैसा अपराध किया है इसलिए उसने कर दिया तो क्‍या गलत कर दिया।
राहुल के कथन पर भारतीय मीडिया के नज़रिए को सरकारी खुशामद बताने वाले उर्मिलेश क्‍या यह स्‍पष्‍ट करेंगे कि वह बड़ी चालाकी के साथ राहुल गांधी और कांग्रेस के साथ खड़े होने की कोशिश क्‍यों कर रहे हैं।
राहुल गांधी यदि कांग्रेस की विरासत के हकदार हैं तो वह अतीत में किए गए कांग्रेस के पापों से किनारा कैसे कर सकते हैं। कांग्रेस किसी व्‍यक्‍ति विशेष का नाम नहीं है, कांग्रेस एक राजनीतिक संगठन है और उसी राजनीतिक संगठन के लोगों ने अपनी नेता इंदिरा गांधी की हत्‍या के प्रतिशोध में खुलेआम सिखों का कत्‍लेआम किया और करवाया। आज उसी कांग्रेस का उत्तराधिकार राहुल गांधी के पास है। फिर कांग्रेस और राहुल गांधी भी निर्दोष कैसे हुए।
रही बात 84 के सिख दंगों के लिए मनमोहन सिंह द्वारा माफी मांगे जाने की अथवा गुजरात दंगों के लिए मोदी द्वारा माफी न मांगे जाने की, तो हजारों निर्दोष लोगों के कत्‍ल का अपराध किसी माफीनामे के खेल से खत्‍म नहीं हो जाता।
गुजरात दंगों के लिए जिम्‍मेदार गोधरा के नरसंहार में भी और उसके बाद हुए दंगों पर भी कोर्ट ने फैसला सुनाया है लेकिन सिख समुदाय आज भी न्‍याय के लिए दर-दर भटक रहा है जबकि इस बीच माफी मांगने वाले सरदार मनमोहन सिंह पूरे दस साल देश के प्रधानमंत्री रहे।
84 और सन् 2002 के दंगों में अद्भुत साम्य देखने वाले उर्मिलेश अचानक राहुल गांधी के इस व्‍यवहार को बाबरी ध्‍वंस के बाद उपजे भाजपा नेताओं के व्‍यवहार से जोड़ने लगते हैं।
वो लिखते हैं- कहीं ऐसा तो नहीं कि राहुल गांधी, भाजपा नेताओं की तरह अपनी पार्टी की हर ग़लती और हर गुनाह पर पर्दा डालने की भौंडी शैली अख्तियार कर रहे हैं.
उर्मिलेश यह तो लिखते हैं कि दोनों पार्टियां दंगे के लिए दोषी ठहराए जाने पर अक्सर एक-दूसरे को कोसती हैं. गुजरात का मामला उठाए जाने पर भाजपा द्वारा सिख विरोधी दंगे का सवाल उठाकर कांग्रेस का मुंह बंद करने की कोशिश की जाती है.
लेकिन उर्मिलेश यह नहीं लिखते कि 1984 में हुए सिखों के कत्‍लेआम को उसके 18 साल बाद हुए गुजरात दंगों से कैसे तोला जा सकता है।
वह छद्म निरपेक्षता की आड़ लेकर दादरी के अख़लाक का और मॉब लिचिंग का जिक्र करना नहीं भूले परंतु केरल और पश्‍चिम बंगाल में हुई बेरहम हत्‍याओं का जिक्र करना जरूरी नहीं समझा।
दरअसल, कोई भी टीवी डिबेट देख लीजिए। हर डिबेट में बेशर्मों का ऐसा पैनल बैठा मिलेगा जो एक अपराध की तुलना दूसरे अपराध से करके अपनी पार्टी अथवा अपनी विचारधारा वाले नेताओं के कुकर्मों को जायज ठहरा रहा होगा।
रटे-रटाए चेहरों वाले पैनल में शामिल लोग मूल मुद्दे से ध्‍यान भटकाने के लिए बहस को किसी भी तरफ मोड़ने में उसी प्रकार माहिर होते हैं जिस प्रकार कोई पेशेवर शातिर अपराधी माहिर होता है।
उर्मिलेश जी, यहां सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी कितने ज्ञानी हैं या विदेशी मीडिया ने उनके विचारों की ताज़गी को समझा, सवाल सिर्फ इतना सा है कि क्‍या किसी अपराध या अपराधी का अनुसरण करके अपने अपराध को जायज ठहराया जा सकता है।
भारतीय मीडिया अगर खुशामद करने में लगा है तो आप क्‍या कर रहे हैं। आप भी तो वही कर रहे हैं। सरकार को न सही, किसी को खुश करने का प्रयास तो आपके द्वारा भी किया जा रहा है।
आपने खुद लिखा है कि 84 का कत्‍लेआम आपके सामने हुआ, और इसीलिए आप यह चिन्‍हित कर पाए कि सिखों का कत्‍लेआम करने वाले भेड़ियों में कांग्रेसियों के साथ-साथ कथित हिंदुत्‍ववादी तथा असामाजिक तत्‍व भी शामिल थे।
तो प्‍लीज, एक जिम्‍मेदार पत्रकार न सही किंतु एक जिम्‍मेदार नागरिक होने के नाते अदालत के सामने पेश होकर बताइए कि सिखों का कत्‍लेआम आपकी आंखों के सामने हुआ और आप विक्‍टिम न होते हुए न्‍याय के लिए उनका नाम बताना चाहते हैं।
आप बताइए कि कांग्रेसियों के साथ कौन-कौन हिंदुत्‍ववादी और असामाजिक तत्‍व सिखों का कत्‍लेआम करने में शामिल थे।
सिखों के कत्‍लेआम पर राजीव गांधी ने क्‍या कहा, गुजरात दंगों के बाद मोदी जी क्‍या बोले, अटल बिहारी वाजपेयी ने मोदी जी से क्‍या कहा और राहुल गांधी अब किसके नक्‍शे कदम पर चल रहे हैं, इन राजनीतिक पचड़ों में पड़ने की बजाय आप तो अपना धर्म निभा दीजिए। यकीन मानिए 34 वर्षों से न्‍याय की आस में टकटकी लगाकर देख रही आंखों के लिए आप किसी दीपक से कम साबित नहीं होंगे।
तुलना करने का काम भारतीय मीडिया और राजनीतिक प्रवक्‍ताओं पर छोड़ दीजिए और राहुल गांधी के ज्ञान को परिभाषित करने का जिम्‍मा विदेशी मीडिया पर जाने दीजिए। आप अपना काम ही कर लीजिए। यकीन मानिए, बहुत सुकून मिलेगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बिना विद्योत्तमा के कोई “कालिदास” कभी “महाकवि” बना है क्‍या, फिर आप कैसे ?

ऐसी तमाम औरतें मिल जाएंगी जिनकी तरक्‍की में किसी भी पुरुष का हाथ नहीं रहा, किंतु कोई पुरुष शायद ही ऐसा मिले जिसने औरत के सहयोग बिना तरक्‍की हासिल की हो। शायद इसीलिए कहा जाता है कि हर पुरुष की तरक्‍की में किसी न किसी महिला का अपरोक्ष या परोक्ष हाथ जरूर होता है।
दुनियाभर को छोड़कर यदि सिर्फ भारतीय महिलाओं की बात करें तो माया, ममता, जया (जयललिता) जैसी देवियां इसकी उदाहरण हैं। पुरुषों में अटल बिहारी वाजपेयी (अब स्‍वर्गीय) का नाम अपवाद स्‍वरूप लिया जा सकता है। हालांंकि उनके खुद के शब्‍दों में वो अविवाहित जरूर थे किंतु कुंवारे नहीं। इसका सीधा-सीधा अर्थ यही निकलता है कि उनकी जिंदगी में भी कोई न कोई औरत रही जरूर थी। मोदी जी ने अपने पिछले नामांकन पत्र से स्‍पष्‍ट कर ही दिया था कि वह विवाहित हैं।
कहने का तात्‍पर्य यह है कि आदिकाल से किसी महिला को कभी कालिदास की आवश्‍यकता महसूस नहीं हुई परंतु हर युग में कालिदासों को विद्योत्तमा की सख्‍त जरूरत रही है। एक भी उदाहरण ऐसा देखने या सुनने में नहीं मिलता कि कोई कालिदास किसी विद्योत्तमा के हड़काए बिना ‘महाकवि कालिदास’ बना हो।
यह अलग बात है कि कोई कालिदास विवाहित जीवन के प्रथम चरण में विद्योत्तमा से ज्ञान प्राप्‍त कर बुद्धिमानों की जमात का हिस्‍सा बन जाता है और किसी-किसी के ज्ञान चक्षु अंतिम चरण में जाकर खुलते हैं। जैसे हमारे मोदी जी ने प्रथम चरण में ज्ञान प्राप्‍त कर लिया लिहाजा आज कितनों के कलेजे पर मूंग दल रहे हैं।
खैर, मुझे तो चिंता हो रही है अपने राहुल ‘बाबा’ की। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि आधी सदी बीत गई जीवन की, लेकिन उनके नाम से चिपका हुआ ”बाबा” उनका पीछा नहीं छोड़ रहा।
अभी पिछले दिनों संसद में उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से स्‍वीकार किया कि लोग उन्‍हें प्‍यार से ”पप्‍पू” भी कहते हैं। अब ”पप्‍पू” का शाब्‍दिक अर्थ क्‍या है, इसकी जानकारी या तो कहने वालों को होगी या सुनने वालों को। राहुल बाबा भी इस नाम में छिपे रहस्‍य से अवश्‍य वाकिफ होंगे अन्‍यथा इतने गर्व के साथ एक्‍सेप्‍ट नहीं करते। इतने गर्व से तो वह खुद को हिंदू तक नहीं कहते, फिर पप्‍पू क्‍यों कहने लगे। जाहिर है कि वह हिंदू और पप्‍पू दोनों का गूढ़ार्थ समझते हैं। हिंदू होना भी वह यदा-कदा इसी तरह स्‍वीकार कर लेते हैं जैसे पप्‍पू होना।
कुल मिलाकर बात इतनी सी है कि हमारे राहुल बाबा की जिंदगी में अब तक कोई महिला नहीं आई है। दस्‍तावेज तो यही बताते हैं, वैसे राहुल बाबा अपने लिए किसी विद्योत्तमा की तलाश करने को कब के अधिकृत हो चुके हैं। राहुल बाबा की जिंदगी में किसी महिला की कमी अक्‍सर तब खटकती है जब वो सार्वजनिक भाषण देते हैं।
अब देखिए…जर्मनी के हैम्बर्ग में वह कह बैठे कि भारत में मॉब लिंचिंग होने की वजह नोटबंदी, GST तथा बेरोजगारी है, और अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर आईएसआईएस जैसे कुख्‍यात आतंकवादी गिरोह का उदय भी बेरोजगारी के कारण हुआ था।
लोगों का दावा है कि यदि राहुल बाबा के जीवन में लिखा-पढ़ी के तहत कोई विद्योत्तमा होती तो वो ऐसा कतई नहीं बोलते।
उन्‍होंने इस दौरान पुरुषों को भी यह कहकर अच्‍छा-खासा लैक्‍चर पिलाया कि भारतीय पुरुष महिलाओं को लेकर समानता व सम्‍मान का भाव नहीं रखते। पता नहीं राहुल बाबा को यह ज्ञान कहां से प्राप्‍त हुआ।
जहां तक उनकी परवरिश का सवाल है तो उनके यहां महिलाओं को बराबर से ऊपर का दर्जा भी मिला और सम्‍मान भी भरपूर प्राप्‍त हुआ। उनकी दादी इसका प्रमाण हैं। फिर मम्‍मी सोनिया जी सामने हैं। यह बात अलग है कि बहन प्रियंका को वो सम्‍मान अब तक नहीं मिला जिसकी वो हकदार बताई जाती हैं। पता नहीं राहुल बाबा, मम्‍मी जी से बहन प्रियंका के बारे में कब बात करेंगे।
देश के अधिकांश जिम्‍मेदार नागरिकों को ऐसा महसूस होता है कि राहुल बाबा को एक अदद विद्योत्तमा की अत्‍यंत आवश्‍यकता है और यह आवश्‍यकता उन्‍हें 2019 के चुनाव का बिगुल बजने से पहले पूरी कर लेनी चाहिए।
कालिदास के जीवन में जो कुछ घटा, वह बताता है कि बुद्धि की कमी उनमें कभी नहीं रही होगी। होती तो वह किसी भी सूरत में कालिदास से महाकवि कालिदास नहीं बन सकते थे। बुद्धि उनमें भरपूर थी परंतु उसका उदय तब हुआ जब विद्योत्तमा ने उनके जीवन में पदार्पण किया।
गुजरे जमाने में जगद्गुरू शंकराचार्य को भी ऐसी मुसीबत झेलनी पड़ी थी। गए थे मंडन मिश्र नामक विद्वान से शास्त्रार्थ करने, उन्‍हें आसानी से हरा भी दिया लेकिन उनकी पत्‍नी गले पड़ गईं। कहने लगीं कि मैं इनकी आर्धांगनी हूं इसलिए मुझे हराए बिना इनकी हार मुकम्‍मल नहीं मानी जा सकती। बेचारे शंकराचार्य थे अविवाहित। गृहस्‍थाश्रम के ज्ञान से शून्‍य। चुनौती मिली तो लौटना पड़ा उल्‍टे पांव। बाद में किसी जतन से गृहस्‍थाश्रम में प्रवेश किया और मंडन मिश्र की पत्‍नी के सवालों का जवाब खोज पाए। कहने का मतलब यह है कि शंकराचार्य जैसे धर्मधुरंधर को भी मंडन मिश्र की विद्योत्तमा ने दौड़ा लिया।
यूं भी देखा जाए तो किसी भी भाषण का स्‍क्रिप्‍ट राइटर घर का होने के कई फायदे हैं। बात दबी रहती है। पता नहीं चलता कि घर-घर में कालिदास बैठे हैं। हिंदुस्‍तान तो कालिदासों से भरा पड़ा है। बात घर की चारदीवारी से निकली नहीं कि पोल खुल जाती है। फिर जर्मनी तो बहुत दूर है। स्‍क्रिप्‍ट राइटर कहां-कहां साथ जा सकता है। सामने से कब कौन सवाल उछाल दे।
आपको पता होगा कि जर्मनी जैसे ही एक हिंदुस्‍तानी कार्यक्रम में राहुल बाबा पर किसी लड़की ने एनसीसी के बावत सवाल दे मारा। बेचारे बमुश्‍किल यह कहकर पीछा छुड़ा पाए कि मुझे एनसीसी का कोई ज्ञान नहीं है।
राहुल बाबा को समझना चाहिए कि हर जगह पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता क्‍योंकि हर जगह एनसीसी से जुड़े सवाल नहीं पूछे जाते।
भारत वापसी पर कोई यह भी पूछ सकता है कि अपने निष्‍कर्ष से आप देश में आईएसआईएस को न्‍योता दे रहे हैं या ये बता रहे हैं कि बेरोजगारी के चलते भारत में आईएसआईएस के लिए बहुत स्‍कोप है।
जो भी हो राहुल बाबा, 2019 का चुनाव सामने हैं। आपके पास तो वैसे ही मणिशंकर जैसी मणि, दिग्‍विजय जैसे दिग्‍गज और संजय निरुपम जैसे निराले व्‍यक्‍तित्‍वों की भरमार है। बेहतर होगा कि आप उनसे खुद को अलग बनाए रखें।
ऐसा न हो सके तो एक अदद विद्योत्तमा समय रहते तलाश लें वरना लेने के देने पड़ जाएंगे। चुनाव बेशक कुंभ का मेला न सही, लेकिन चुनाव तो है। पांच साल बाद मौका मिलता है। और हां, बोल चाहे जहां लें। दुनिया के किसी कोने में भाषण दे आएं परंतु आपके लिए चुनाव भारत में होने हैं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

राजनीति के अजातशत्रु अटल बिहारी वाजपेयी का मथुरा से रहा हमेशा गहरा नाता

राजनीति में ‘अजातशत्रु’ कहे जाने वाले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का महाभारत नायक योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली मथुरा से भी गहरा नाता रहा है।
दरअसल, मथुरा जनपद में राष्‍ट्रीय राजमार्ग नंबर दो पर स्‍थित फरह क्षेत्र का गांव नगला चंद्रभान पंडित दीनदयाल उपाध्याय की मातृभूमि है।
चूंकि अटल बिहारी वाजपेयी ने एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सानिध्य में ही ‘जनसंघ’ से अपनी राजनीति का सफर शुरू किया था इसलिए उनका पंडित दीनदयाल एवं उनकी मातृभूमि नगला चंद्रभान से हमेशा आत्‍मीय लगाव रहा।
अटल जी नगला चंद्रभान में बने दीनदयाल उपाध्याय धाम ट्रस्ट के अध्यक्ष रहे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अटल जी पंडित दीनदयाल उपाध्‍याय को नमन करने नगला चंद्रभान (मथुरा) आए।
मथुरा की कचौड़ी-जलेबी और ठंडाई के शौकीन अटल बिहारी वाजपेयी ने यहां अपना संबंध और प्रगाढ़ बनाने के लिए 1957 में मथुरा लोकसभा सीट से चुनाव भी लड़ा, किंतु हार गए। यहां उन्‍हें अपनी जमानत तक गंवानी पड़ी। इस चुनाव में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजा महेन्‍द्र प्रताप निर्दलीय प्रत्‍याशी की हैसियत से चुनाव जीते थे।
अटल जी ने तब एकसाथ तीन लोकसभा सीटों लखनऊ, मथुरा और बलरामपुर से चुनाव लड़ा था। लखनऊ में वो चुनाव हार गए, मथुरा में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई लेकिन बलरामपुर से चुनाव जीतकर वो दूसरी लोकसभा में पहुंचे। अगले पाँच दशकों के उनके संसदीय करियर की यह शुरुआत थी।
अटल बिहारी-बांके बिहारी-छैल बिहारी
राजनीति में मथुरा की हमेशा अपनी एक विशिष्ट पहचान रही। जनसंघ के जमाने में भी मथुरा की राजनीति हमेशा चर्चा का केन्‍द्र रहती थी, और इसका एक कारण शायद यह भी था कि अटल बिहारी वाजपेयी के दो अभिन्‍न मित्र मथुरा से ताल्‍लुक रखते थे।
अटल बिहारी, बांके बिहारी और छैलबिहारी के रूप में प्रसिद्ध मित्रों की इस तिकड़ी में अटल जी के अलावा स्‍वामीघाट के बांके बिहारी माहेश्‍वरी तथा राया (मथुरा) कस्‍बे के निवासी छैल बिहारी अग्रवाल शामिल थे।
बांके बिहारी माहेश्‍वरी हालांकि अपनी योग्‍यता के अनुरूप राजनीति में कोई बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर सके किंतु अटल जी से उनके रिश्‍तों की गरमाहट में कभी कोई कमी नहीं आई।
यही हाल राया निवासी छैलबिहारी का भी था। छैलबिहारी से अटल जी जब भी मिले, तब उतनी ही आत्‍मीयता से मिले जितने राजनीति के सफर की शुरूआत में मिला करते थे।
यही कारण है कि जनसंघ में यह कहा जाता था कि दिल्ली में अटल बिहारी, मथुरा में बांके बिहारी और राया में छैल बिहारी।
25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर (मध्‍यप्रदेश) में जन्‍मे अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव प्रचार करते हुए भी नमकीन में चाट-पकौड़ी और मूंग की दाल के मगोड़े तथा मिठाई में पेड़े व रबड़ी का स्‍वाद लिए बिना नहीं रहते थे।
बताया जाता है कि आपातकाल के चलते मीसा में बंद होने के बाद जब उन्‍हें पैरोल मिली तो वह सीधे मथुरा आए।
यह सारी घटनाएं बताती हैं कि चुनाव में हार मिलने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी न तो कभी मथुरा और मथुरा के अपने मित्रों को भूल पाए और न मथुरा कभी उन्‍हें विस्‍मृत कर सकी।
-Legend News

बूढ़ी होती स्‍वतंत्रता की जवान पीढ़ी का सच: सिर्फ अधिकारों की बात…कर्तव्‍यों का क्‍या ?

देश को स्‍वतंत्र हुए आज पूरे 71 साल हो गए। यानी जिस पीढ़ी ने आजाद भारत में आंखें खोलीं, वह आज बूढ़ों की जमात में शामिल हो चुकी है। इस पीढ़ी ने आजादी की लड़ाई को सिर्फ किस्‍से-कहानियों की तरह सुना है, या चलचित्रों में देखा है।
परतंत्र भारत की पीड़ा के साक्षी मुठ्ठीभर लोग ही बचे होंगे, और जो बचे होंगे उनमें बहुत से तो उस पीड़ा को बयां करने की स्‍थिति में नहीं होंगे।
गुलामी, परतंत्रता, अधीनता आदि कहने को तो मात्र शब्‍दभर हैं किंतु इनका दर्द वही समझ सकता है जिसने इन्‍हें भोगा है।

https://youtu.be/XK6566eXM4U


स्‍वतंत्र भारत ने 71 सालों के इस सफर में निश्‍चित ही एक मुकाम हासिल किया है और दुनिया को लोकतंत्र की ताकत समझाने में सफल भी रहा है परंतु टीस इस बात की है कि सत्तासुख भोगने वाले लोग जवान होती पीढ़ी को यह समझाने में असफल रहे कि देश ने स्‍वतंत्रता की कितनी बड़ी कीमत चुकाई है।
एक तरह से देखा जाए तो स्‍वतंत्रता की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देने वालों और उसके लिए जीवन लगा देने वालों के बलिदान को चंद लोगों ने भुनाया तो खूब, परंतु श्रेय देने से मुंह मोड़ते रहे।
यही कारण है कि आज की पीढ़ी उंगलियों पर गिने जाने लायक स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानियों से ही परिचित है।
स्‍वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस जैसे राष्‍ट्रीय पर्वों की भव्‍यता में नि:संदेह काफी इजाफा हुआ है किंतु भावनात्‍मक दृष्‍टि से ये वर्ष-दर-वर्ष फीके होते जा रहे हैं क्‍योंकि इस बीच राष्‍ट्रवाद को भी राजनीति का विषय बना दिया गया।
सत्ता मात्र सुख का साधन बन गई और उसकी प्राप्‍ति के एकमात्र ध्‍येय में लिप्‍त राजनेताओं के लिए स्‍वतंत्रता का मकसद पीछे छूटता चला गया।
स्‍वतंत्रता सेनानियों को भी निजी स्‍वार्थपूर्ति के लिए खांचों में बांट देने वाली दलगत राजनीति ने कभी यह सोचा ही नहीं कि नई पीढ़ी को बिना तोड़े-मरोड़े उस दौर के इतिहास से परिचित कराना बहुत जरूरी है। आज वीर सावरकर एक दल के लिए महान क्रांतिकारी हैं तो दूसरा दल उन्‍हें फिरंगियों का मोहरा साबित करने से नहीं चूकता।
भगत सिंह पर वामपंथी अपना ठप्‍पा लगाते हैं तो अंबेडकर को दूसरे दलों ने अपना प्रतीक चिन्‍ह घोषित कर दिया है।
कहते हैं कि आधा ज्ञान और आधी जानकारी हमेशा अंधे कुएं की तरह हैं। नई पीढ़ी इसी अंधे कुएं में भटकने को अभिशप्‍त है। उसके सामने है तो ऐसी ही आधी-अधूरी जानकारियों से भरा गूगल बाबा का वो पिटारा जो विदेशी सोच से संचालित होता है।
आज यदि सबसे ज्‍यादा जरूरत है तो इस बात की कि स्‍वतंत्र भारत के युवा को गूगल के ज्ञान से इतर ले जाया जाए। उसकी गूगल पर बढ़ती निर्भरता को कम करके धरातल पर मौजूद सच्‍चाई का साक्षात्‍कार कराया जाए। जंगे आजादी में भूमिका निभाने वाले बचे-खुचे सेनानियों को सामने लाया जाए। उन्‍हें मात्र पेंशन देकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर लेने की बजाय उनके संघर्ष की गाथाएं सुनाई जाएं।
सिर्फ अधिकारों की बात करने वाली नई पीढ़ी को देश के प्रति अपने कर्तव्‍य का भान कराना भी उतना ही जरूरी है जितना कि नई तकनीक से परिचित कराना। कर्तव्‍यों से विमुख नई पीढ़ी तकनीकी रूप से चाहे कितनी भी समृद्ध क्‍यों न हो जाए, वह न तो कभी देश के काम आ सकती है और न देशवासियों के।
नई पीढ़ी में कर्तव्‍यों के प्रति बोध पैदा करने के लिए बिना भेद-भाव स्‍वतंत्रता संग्राम का इतिहास सामने लाना अत्‍यंत आवश्‍यक है क्‍योंकि इतिहास से सबक़ न लेने वाले लोग नष्‍ट होने को अभिशप्त होते हैं।
क्‍यों न इस स्‍वतंत्रता दिवस पर ऐसा कोई संकल्‍प लिया जाए जिससे नई पीढ़ी अपने राष्‍ट्रीय पर्वों को मात्र छुट्टी का एक दिन न समझकर देश के प्रति कर्तव्‍य का अहसास करे तथा उससे लेने ही लेने की बजाय, उसे कुछ देने अथवा उसके लिए कुछ करने का जज्‍बा भी पाल सके।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

2019 चुनाव: यमुना मैया की ”लाश” के सहारे एकबार फिर लोकसभा पहुंचने की तैयारियां शुरू

बेशर्म नेता, भ्रष्‍ट प्रशासन और तमाशबीन जनता के कारण वेंटिलेटर पर है मां यमुना 
2019 के लोकसभा चुनाव की फील्‍ड सजने लगी है। नेताओं के दौरे शुरू हो चुके हैं। बैठकों का सिलसिला जारी है।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का वचन देकर 2009 के चुनाव में भाजपा के सहयोग से लोकसभा की अपनी पारी शुरू करने वाले राष्‍ट्रीय लोकदल के युवराज जयंत चौधरी 2019 में महागठबंधन के सहारे एकबार फिर अपनी नैया पार लगती देख रहे हैं।
सिटिंग एमपी और अभिनेत्री हेमा मालिनी भी दोबारा चुनाव लड़ने के लिए अपनी ओर से ताल ठोक चुकी हैं। पार्टी ने चाहा तो वह यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का संकल्‍प लेने के लिए एकबार फिर चुनावी मैदान में होंगी।
इत्तेफाक देखिए कि जयंत चौधरी तथा हेमा मालिनी दोनों ने कृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली से ही चुनावी राजनीति में कदम रखा और ‘कालिंदी’ के कलुष को धोने का संकल्‍प लिया परंतु नतीजा सबके सामने है।
जयंत और हेमा ही क्‍यों, यमुना तो पिछले 20 साल से अपना कलुष धुलने के इंतजार में है। इस बीच कितने नेताओं ने यमुना का जल हाथ में लेकर वचन दिया कि वह पतित पावनी को प्रदूषण मुक्‍त करायेंगे किंतु यमुना से ज्‍यादा प्रदूषित वो खुद हो गए।
जिस तरह अब उन्‍हें यमुना का प्रदूषण दिखाई नहीं देता, उसी तरह अपने चेहरे पर लगी कालिख भी नजर नहीं आती।
10 जुलाई 1998 के दिन एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यमुना को प्रदूषण मुक्‍त रखने के लिए शासन-प्रशासन को तमाम दिशा-निर्देश दिए। इन दिशा-निर्देशों में कृष्‍ण जन्‍मभूमि (मथुरा) से चंद कदम दूरी पर किए जाने वाले पशुवध को नई पशुवधशाला का निर्माण होने तक पूरी तरह बंद कराने, यमुना के जल में सीधे गिरने वाले मथुरा-वृंदावन के दर्जनों नाले-नालियों को टैप करने तथा जनपद भर में मांस की बिक्री बंद करने जैसे आदेश शामिल थे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के इन आदेश-निर्देशों की किस तरह धज्‍जियां उड़ाई जा रही हैं, यह समझने के लिए कल का वाकया काफी है।
श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी पर सुरक्षा-व्‍यवस्‍था और दूसरे इंतजामों के लिए कल कलक्‍ट्रेट सभागार में जिला प्रशासन ने एक मीटिंग रखी थी। इस मीटिंग में संबंधित विभागों के अधिकारियों सहित कृष्‍ण जन्‍मस्‍थान की ओर से गोपेश्‍वर नाथ चतुर्वेदी तथा द्वारिकाधीश मंदिर की ओर से श्रीधर चतुर्वेदी भी शामिल हुए। गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी ही 20 साल पहले यमुना प्रदूषण के मुद्दे को इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय लेकर गए थे।
इस मीटिंग के दौरान गोपेश्‍वर नाथ चतुर्वेदी ने जब जिलाधिकारी सर्वज्ञराम मिश्रा तथा एसएसपी बबलू कुमार को बताया कि इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने 1998 में जिस कट्टीघर को बंद कराने के आदेश दिए थे उसमें आज भी पशुओं का लगातार कटान हो रहा है, तो उन्‍होंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया।
डीएम और एसएसपी ने ये आश्‍चर्य पशुओं का कटान जारी रहने पर व्‍यक्‍त किया अथवा इस बात पर कि वह खुद इस जानकारी से कैसे अनभिज्ञ थे, यह तो वही जानें अलबत्ता मथुरा की जनता इस बात पर आश्‍चर्यचकित जरूर है कि ”योगीराज” में भी वही सारे कृत्‍य बदस्‍तूर हो रहे हैं जिन्‍हें सरकार बनते ही बंद कराने का वायदा भाजपा ने किया था।
योगी आदित्‍यनाथ ने मुख्‍यमंत्री पद की शपथ लेने के तत्‍काल बाद जो कदम उठाए, उनमें एक आदेश प्रदेशभर के अवैध कट्टीघरों को बंद कराने का भी था।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि यदि हाईकोर्ट के आदेश से बंद हुआ मथुरा का कट्टीघर भी आजतक संचालित है, तो प्रदेश के दूसरे कट्टीघर क्‍या वाकई बंद हो पाए हैं ?
कुछ ऐसा ही हाल यमुना में गिरने वाले उन दर्जनों नालों का है जिन्‍हें टैप करने के आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दिए थे। ये नाले तो कभी टैप नहीं हो पाए, हां इन्‍हें टैप करने के नाम पर करोड़ों का घोटाला जरूर कर लिया गया। भाजपा की चेयरपर्सन मनीषा गुप्‍ता के कार्यकाल में हुए करीब 2 करोड़ रुपयों के एक ऐसे ही घोटाले का वाद न्‍यायालय में लंबित है।
वैसे इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश आने से लेकर अब तक 20 वर्षों के बीच सिर्फ एक टर्म कांग्रेस के श्‍यामसुंदर उपाध्‍याय बिट्टू नगरपालिका के चेयरमैन रहे अन्‍यथा हमेशा भाजपा ही मथुरा नगर पालिका पर काबिज रही, बावजूद इसके यहां अवैध रूप से पशुओं का कटान कभी बंद नहीं हुआ।
अब जबकि मथुरा नगर पालिका, नगर निगम में तब्‍दील हो चुकी है और भाजपा के ही डॉ. मुकेश आर्यबंधु मेयर हैं तब भी न तो अवैध पशुकटान बंद हुआ है और न यमुना में नाले गिरना बंद हो पाया है।
जाहिर है कि ऐसे में वर्तमान विपक्ष यह कहने से नहीं चूकता कि अब तो दिल्‍ली से लेकर लखनऊ तथा मथुरा तक भाजपा की सरकार है, फिर क्‍यों बंद नहीं हो पा रहा अवैध पशु कटान और क्‍यों यमुना में गिर रहा है नालों का पानी।
इस संबंध में बात करने पर याचिकाकर्ता गोपेश्‍वरनाथ चतुर्वेदी अत्‍यंत व्‍यथित हुए। उन्‍होंने कहा कि बेशर्म नेता, भ्रष्‍ट प्रशासन और तमाशबीन जनता के कारण यमुना का प्रदूषण घटने की बजाय बढ़ता जा रहा है। शासन-प्रशासन का कोई भी अंग यमुना की इस दयनीय दशा को लेकर चिंतित नहींं है। यही कारण है कि यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के जितने भी और जो भी प्रयास जिस स्‍तर से किए गए, वो सब निष्‍फल साबित हुए हैं। यमुना में उसका अपना जल तो दिखाई ही नहीं देता। बाढ़ का पानी पूरी तरह उतर जाने के बाद यमुना उसी स्‍थिति को प्राप्‍त हो जाएगी जिस स्‍थिति में बाढ़ का पानी आने से पहले थी। मानव ही नहीं, नभचर एवं जलचरों के जीवन को ऑक्‍सीजन देने का काम करने वाली यमुना आज अपने लिए ऑक्‍सीजन के इंतजार में है। वह मृतप्राय हो चुकी है। जिस तरह सरकारी कागजों में यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति के लिए दिए गए कोर्ट के समस्‍त आदेश-निर्देश काम कर रहे हैं, उसी तरह यमुना भी कागजों में बह रही है अन्‍यथा वह मृतप्राय है।
हर चुनाव में नेताओं की फौज आती है और यमुना के लिए घड़ियालू आंसू बहाकर अपना मकसद पूरा कर लेती है। कोई दिल्‍ली की गद्दी हथिया लेता है तो कोई यूपी की। स्‍थानीय स्‍तर पर भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो यमुना के प्रदूषण को राजनीति का हथियार बनाकर मलाई मारते रहे और एक-दो बार नहीं कई-कई बार लोकसभा तथा विधानसभा में जा बैठे, किंतु इन लोगों ने यमुना को धोखे के अलावा कुछ नहीं दिया।
2019 के लोकसभा चुनावों में निश्‍चित ही यमुना को धोखा देने की एक और पटकथा लिखी जानी है।
चूंकि इस बार भाजपा का मुकाबला संभावित महागठबंधन के प्रत्‍याशी से होना है और चुनाव 2014 के मुकाबले कहीं अधिक कठिन होने की उम्‍मीद है इसलिए भ्रमजाल भी उतना ही बड़ा फैलाया जाएगा।
उत्तराखंड हाईकोर्ट ने कुछ दिन पहले अपने एक आदेश में गंगा नदी को ”जीवित मानव” का दर्जा दिया था। उस नजरिए से देखें तो युगों से यमुना को दिया गया मां का दर्जा बेमतलब नहीं है।
और जब यह दर्जा बेमतलब नहीं है तो यह कथन भी बेमतलब नहीं है कि 2019 का चुनाव कम से कम मथुरा में तो यमुना की लाश पर ही राजनीति करके लड़ा जाना है। यमुना की लाश पर तैरकर ही जयंत चौधरी एकबार फिर चुनावी वैतरणी पार करके लोकसभा पहुंचना चाहते हैं और इसी लाश को ट्यूब की तरह इस्‍तेमाल करके हेमा मालिनी दोबारा जीत का परचम लहराना चाहती हैं। दोनों ने अपने-अपने तरीके से इसकी तैयारी भी शुरू कर दी है, हालांकि अभी न तो महागठबंधन मुकम्‍मल हुआ है और न किसी का टिकट, परंतु इरादे मुकम्‍मल दिखाई दे रहे हैं।
वजह साफ है, और वह वजह यह है कि यदि यमुना को मैया कहने वाले ब्रजवासियों में ही अपनी मैया को लेकर वो दर्द नहीं है जो उसकी दुर्दशा पर राजनीति करने वालों को कोई सबक सिखा सकें तो मात्र चुनाव लड़ने के लिए यमुना का सहारा लेने वालों को दर्द क्‍यों होने लगा।
नेताओं को जब इंसानी लाशों पर राजनीति करने से परहेज नहीं है तो एक नदी की लाश से परहेज कैसा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

नेताओं के कफ़न में जेब भी होती है जनाब, यकीन न हो तो उदाहरण सामने है

कहते हैं कि कफ़न में जेब नहीं होती, यदि कफ़न में भी जेब होती तो लोग अपने साथ क्‍या-क्‍या नहीं ले जाते।
पता नहीं यह फिलॉसफी किसकी थी और किन परिस्‍थितियों में गढ़ी गई लेकिन सच्‍चाई के धरातल पर देखा जाए तो इसमें संदेह ही संदेह नजर आते हैं।
तमिलनाडु के पूर्व मुख्‍यमंत्री और दिवंगत डीएमके नेता एम. करुणानिधि का ताजा-ताजा उदाहरण सामने है।
यूं तो इस देश में कोई भी नेता अपने लिए कभी खुद कुछ नहीं चाहता। वह जो कुछ चाहता है अपने समर्थकों, शुभचिंतकों, जनता जनार्दन और देश की भलाई के लिए चाहता है किंतु कौन नहीं जानता कि इस सबकी आड़ में वह अपनी चाहतें पूरी करता है। जो चाहत जीते-जी पूरी नहीं हो सकती, उसे भी मरने के बाद पूरी करने की व्‍यवस्‍था कर लेता है।
ऐसी ही दो चाहतें करुणानिधि की भी थीं। करुणानिधि चाहते थे कि उन्‍हें न सिर्फ मरीना बीच पर दफनाया जाए बल्‍कि उनकी समाधि भी वहीं अपने राजनीतिक गुरू सी एन अन्नादुरई के बगल में बनाई जाए। साम, दाम, दण्‍ड या भेद…जैसे भी हो…करनी तो मनमानी ही है इसलिए जब राज्‍य सरकार ने चाहत पूरी कराने में असमर्थता जाहिर की तो रात में ही मद्रास हाई कोर्ट खुलवा लिया गया। सुबह कोर्ट में सुनवाई हुई और कोर्ट ने दिवंगत करुणानिधि को अन्नादुरई के बगल में दफनाने की मांग स्‍वीकार करके उनकी समाधि बनाने का मार्ग भी प्रशस्‍त कर दिया। अब करुणानिधि समुद्र की लहरों के सामने मृत्‍यु के बाद भी उस जमीन के टुकड़े पर अनंतकाल तक काबिज़ रहेंगे जिस पर उनकी समाधि बनाई जाएगी।
दरसअल जे जयललिता, एम जी रामचंद्रन और अन्नादुरई…तीनों का अंतिम संस्कार मरीना बीच पर किया गया। करुणानिधि के समर्थक उनका समाधि स्थल यहीं बनाना चाहते थे।
इसके अलावा मरीना बीच चेन्नई शहर में बना समंदर का कुदरती किनारा है। ये उत्तर में फ़ोर्ट सेंट जॉर्ज से शुरू होता है और दक्षिण में फ़ोरशोर एस्टेट तक जाता है। ये क़रीब छह किलोमीटर में फैला है, जो इसे देश का सबसे लंबा कुदरती शहरी बीच बनाता है।
और ये जगह कई वजह से ऐतिहासिक है। साल 1884 में यहां प्रोमेनेड बना। साल 1909 में यहां देश का पहला एक्वेरियम बना।
आज़ादी के बाद यहां ट्रायंफ़ ऑफ़ लेबर और गांधी की ‘दांडी यात्रा’ वाली प्रतिमा लगाई गई।
साल 1968 में पहली वर्ल्ड तमिल कॉन्फ़्रेंस के समय तमिल साहित्य के कई दिग्गजों की प्रतिमाओं को यहां जगह दी गई।
साल 1970 में यहां अन्नादुरै का मेमोरियल बनाया गया और 1988 में एमजीआर का स्मारक बना।
इसके बाद कामराज और शिवाजी गणेशन का मेमोरियल बनाया गया और हाल में जयललिता का अंतिम संस्कार यहां किया गया था। कुछ समय में उनका स्मारक यहां बन सकता है। बन सकता है क्‍या, बन ही जाएगा।
चेन्नई में मरीना बीच पर्यटकों का पसंदीदा स्थल है। यहां लोग मेमोरियल और प्रतिमाएं, मॉर्निंग वॉक, जॉगर्स ट्रैक, लवर्स स्पॉट, एक्वेरियम देखने पहुंचते हैं। यहां दो स्वीमिंग पूल भी हैं, जिनमें से एक अन्ना स्वीमिंग पूल है।
जिस देश में कोई आम आदमी ताजिंदगी अपने सिर पर एक अदद छत का सपना पूरा करने में सफल नहीं हो पाता, उस देश में नेताओं की फौज एक ओर जहां अपनी सात-सात पीढ़ियों के लिए ऐशो-आराम का मुकम्‍मल बंदोबस्‍त कर जाती हैं वहीं दूसरी ओर अपनी मौत के बाद भी जमीन घेरने में सफल रहती हैं।
करुणानिधि तो एक उदाहरण हैं जिन्‍होंने लड़-मरकर कोर्ट के आदेश से अपनी समाधि का इंतजाम कर लिया अन्‍यथा देश का हर वो नेता जो कभी किसी अच्‍छे पद पर रहा है, मौत के बाद भी जमीन कब्‍जाए हुए है।
वह अपने जीतेजी जनमानस के दिलों पर कभी कब्‍जा कर पाया हो या न कर पाया हो लेकिन मरने के बाद जमीन पर कब्‍जा जरूर कर गया। यही कारण है कि जिन शहरों में लाखों लोग झुग्‍गी-झोंपड़ियों के अंदर पीढ़ी-दर-पीढ़ी नारकीय जीवन जीने को अभिशप्‍त हैं, उन्‍हीं शहरों की सबसे महंगी जमीनों पर दिवंगत नेता कब्‍जा किए हुए हैं।
कितने आश्‍चर्य की बात है कि आम आदमी के लिए आजतक न तो कभी कोई कोर्ट उसकी जरूरत के हिसाब से खुली और न किसी कोर्ट ने उसके सिर पर एक छत जरूरी होने का आदेश पारित किया किंतु नेताओं के लिए आधी रात में कोर्ट खुलती भी हैं और चंद घंटों के अंदर ऑर्डर-आर्डर-ऑर्डर बोलकर न्‍याय होने और न्‍याय दिखने की भी रस्‍म अदायगी करती हैं।
कोर्ट कभी उनके बारे में भी नहीं सोचतीं जो संज्ञेय अपराधों के तहत भी देश की विभिन्‍न जेलों में बंद हैं और उन जेलों में उनके मानवाधिकारों की खुलेआम धज्‍जियां उड़ाई जाती हैं। उन्‍हें जानवरों की तरह ठूंसकर इसलिए दड़बों सरीखी बैरकों में रखा जाता है क्‍योंकि जेलें ओवर क्राउडेड हैं। वो सिर्फ इसलिए उन बैरकों में ठुंसे हैं क्‍योंकि उनकी जमानत देने वाला कोई नहीं। उनकी अपनी हैसियत कोई नहीं। वह किसी नेता या किसी अधिकारी की औलाद नहीं।
एक ओर करोड़ों की तादाद में जिंदा लाशें और दूसरी ओर उंगलियों में गिने जाने लायक माननीय। मानव वो भी हैं और मानव ये भी हैं। वो जैसे तैसे रेंग रहे हैं और ये मरने के बाद भी जमीन कब्‍जा रहे हैं। इससे बड़ी विडंबना क्‍या कोई और हो सकती है।
सवाल ये नहीं है कि करुणानिधि को मरीना बीच पर दफनाने की अनुमति क्‍यों मिली, सवाल ये है कि कफन में जेब बनाने का सिलसिला कहां जाकर रुकेगा।
आज भी देश की बड़ी आबादी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी अपनी मूलभूत जरूरतें पूरी करने में पूरी जिंदगी खपा देती है। आज भी आम आदमी अपनी उम्र का एक बड़ा हिस्‍सा न्‍याय की उम्‍मीद में जाया कर देता है किंतु उसकी सुनवाई कहीं नहीं होती लेकिन यदि 94 साल का जीवन जीकर, तीन शादियां करने वाला एक शख्‍स भरा-पूरा परिवार तथा उसके लिए अच्‍छी-खासी दौलत छोड़कर मरता है तो उसके लिए सिर्फ इसलिए भी रातों-रात सुनवाई होती है क्‍योंकि उसके कफन में जेब है। क्‍योंकि वह नेता है।
सुना है कि संविधान ने सबको बराबर का हक दिया है, क्‍योंकि संविधान के रचयिता बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर उस वंचित व दलित तबके से आते थे जिन्‍होंने गरीबी भोगी थी। गरीबी को जिया था।
क्‍या यही है बराबरी, क्‍या यही है संविधान से प्राप्‍त बराबरी का हक।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

अमित शाह की विपक्ष को “चुनौती” पर “पनौती” न बन जाए “मथुरा” BJP की गुटबाजी

यूपी में कल मुगलसराय जंक्‍शन का नाम बदलने के बाद आयोजित जनसभा के दौरान BJP के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष अमित शाह ने विपक्ष को खुली चुनौती देते हुए कहा कि बुआ, बबुआ और बाबा के मिल जाने पर भी BJP ही जीतेगी।
अमित शाह ने दावा किया कि 2019 के लोकसभा चुनावों में BJP को यूपी से 2014 के मुकाबले 73 की जगह 74 सीटों पर तो जीत मिल सकती है, किंतु वह 72 नहीं हो सकतीं।
चूंकि 2019 के लोकसभा चुनावों में अब कुछ माह ही शेष हैं इसलिए BJP के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष का यूपी की धरती से किया गया यह दावा निश्‍चित ही बहुत अहमियत रखता है।
अमित शाह की संयुक्‍त विपक्ष को दी गई यह चुनौती सिर्फ विपक्ष के लिए ही नहीं, खुद BJP के लिए भी अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है क्‍योंकि एक ओर जहां BJP के सहयोगी संगठन अक्‍सर उसके सामने समस्‍याएं खड़ी करते रहते हैं वहीं दूसरी ओर पार्टी के अंदर की गुटबाजी भी रह-रहकर सिर उठाती रहती है।
BJP के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव 2014 के मुकाबले आसान नहीं होगा, इस बात से BJP के शीर्ष नेता भी न सिर्फ इत्तेफाक रखते हैं बल्‍कि मीडिया के सामने भी स्‍वीकारते हैं।
दरअसल, BJP का शीर्ष नेतृत्‍व भली-भांति समझ रहा है कि यदि BJP स्‍पष्‍ट बहुमत पाने में सफल नहीं हुई तो कर्नाटक वाली कहानी दोहराई जा सकती है। कर्नाटक में जिस तरह विपक्ष ने BJP को सत्ता से दूर करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था, उसने BJP को यह समझने में मदद की कि आने वाले समय में सीटों का मामूली अंतर भी उसके अरमानों पर पानी फेरने वाला होगा।
BJP में चाणक्‍य की उपाधि से विभूषित राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष अमित शाह की इन सारी स्‍थिति-परिस्‍थितियों पर पैनी नजर होगी इसमें कोई संदेह नहीं, किंतु अपनी पार्टी में व्‍याप्‍त गुटबाजी पर उनकी उतनी ही पैनी नजर है, इसे लेकर संशय पैदा होता है।
दो दिन पहले मथुरा में घटी एक घटना इसका उदाहरण है। मथुरा में 04 अगस्‍त को 2019 के लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए BJP ने समन्‍वय समिति की बैठक बुलाई। इस बैठक में मथुरा की सांसद और प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री दिखाई नहीं दीं जबकि उस दिन वह पहले से तय अपने कार्यक्रम के मुताबिक मथुरा में मौजूद थीं।
सांसद हेमा मालिनी का आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी के लिए बुलाई गई समन्‍वय समिति की बैठक में ही न पहुंचना बहुत से सवाल खड़े कर गया।
गौरतलब है कि इस बैठक में BJP के प्रदेश महामंत्री गोविंद शुक्‍ला, प्रदेश के ऊर्जा मंत्री और मथुरा-वृंदावन क्षेत्र के विधायक व प्रदेश सरकार के प्रवक्‍ता श्रीकांत शर्मा के अलावा पार्टी के बाकी तीनों विधायक, मेयर मुकेश आर्यबंधु सहित तमाम अन्‍य स्‍थानीय नेता तथा आगरा के विधायक और मथुरा के प्रभारी योगेन्‍द्र उपाध्‍याय भी मौजूद थे।
आश्‍चर्य तब हुआ जब इस सवाल का कोई एक संतोषजनक जवाब न देकर पार्टी स्‍तर से ऐसे जवाब दिए गए जो भ्रम फैलाने वाले थे। मसलन जिला मीडिया प्रभारी ने बताया कि सांसद हेमा मालिनी को बैठक की सूचना दी गई थी किंतु वह क्‍यों नहीं आईं, यह पता नहीं।
पार्टी सूत्रों की मानें तो हेमा मालिनी ने अपनी इस उपेक्षा को काफी गंभीरता से लेते हुए प्रदेश और दिल्‍ली स्‍तर पर भी शिकायत की, नतीजतन पार्टी के मथुरा प्रभारी को भविष्‍य में ऐसी गलती न होने का भरोसा दिलाना पड़ा।
उधर हेमा मालिनी ने स्‍पष्‍ट कहा है कि उन्‍हें बैठक में शामिल होने के लिए समन्‍वय समिति का कोई पत्र नहीं मिला। हेमा मालिनी ने हालांकि अपने पद व पार्टी की गरिमा का ध्‍यान रखते हुए यह भी जोड़ दिया कि शायद पार्टीजन मेरी मथुरा में मौजूदगी से अनभिज्ञ रहे होंगे।
इस सब के बावजूद मीडिया को दिए गए अपने बयान में हेमा मालिनी यह कहने से नहीं चूकीं कि कुछ लोग पार्टी में नए आए हैं इसलिए उन्‍हें पार्टी की रीति व नीति का ज्ञान नहीं है।
हेमा मालिनी का इशारा किस ओर था, इसे पार्टी और पार्टी के बाहर वाले लोग भी बखूबी समझ गए क्‍योंकि उन्‍होंने यह कहकर अपनी ताकत का अहसास करा दिया कि नए लोगों को साथ लेकर चलने की जिम्‍मेदारी भी उनकी है।
इसी दौरान हेमा मालिनी ने पार्टी में व्‍याप्‍त गुटबाजी पर जो कुछ कहा, वह चौंकाने वाला है। उन्‍होंने पहले तो मथुरा BJP में किसी तरह की गुटबाजी होने से इंकार किया किंतु फिर कहा कि यदि कोई गुटबाजी है भी तो वह समाप्‍त हो जाएगी।
उल्‍लेखनीय है कि मथुरा के जिलाध्‍यक्ष पद पर हाल ही में नगेन्‍द्र सिकरवार की नियुक्‍ति हुई है। नगेन्‍द्र सिकरवार को ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा का अत्‍यंत करीबी बताया जाता है। इससे पहले नगर निगम के लिए भी मुकेश आर्यबंधु का नाम तय कराने में श्रीकांत शर्मा की बड़ी भूमिका बताई जाती है।
श्रीकांत शर्मा यूं भी क्षेत्र में हेमा मालिनी से कहीं अधिक सक्रिय रहते हैं इसलिए ऐसे कयास भी लगाए जाने लगे हैं कि श्रीकांत शर्मा को पार्टी 2019 का लोकसभा चुनाव लड़वा सकती है। पार्टी के स्‍तर से भी इस बात के संकेत तब मिले जब यह बात निकल कर आई कि 2019 में कई महत्‍वपूर्ण हस्‍तियों का टिकट काटा जा सकता है।
यही कारण है कि चुनावों की तैयारी के लिए बुलाई गई समन्‍वय समिति की बैठक में सांसद हेमा मालिनी की अनुपस्‍थिति एक बड़ा मुद्दा बन गई और बैठक के दो दिन बाद तक उसे लेकर बयानों का सिलसिला जारी है।
जो भी हो, लेकिन समन्‍वय समिति की बैठक से उपजे हालात और उसके बाद आए बयान यह जाहिर कराने के लिए काफी हैं कि BJP में सब-कुछ ठीक तो नहीं चल रहा।
मथुरा की लोकसभा सीट हमेशा से BJP के लिए बहुत अहमियत रखती है और इसीलिए प्रत्‍येक चुनाव में मथुरा की उम्‍मीदवारी का चयन बहुत जद्दोजहद के बाद हो पाता है।
2009 के लोकसभा चुनाव में BJP ने अपना कोई उम्‍मीदवार न उतारकर रालोद को समर्थन दिया और 2014 के चुनाव में अभिनेत्री हेमा मालिनी को चुनाव लड़ाना पड़ा।
मथुरा जैसे महत्‍वपूर्ण संसदीय क्षेत्र से किसी बाहरी प्रत्‍याशी को चुनाव लड़ाने का पार्टी का निर्णय स्‍थानीय भाजपाइयों के लिए हमेशा असह्य रहा है क्‍योंकि उससे उनके अपने राजनीतिक भविष्‍य पर काले साए मंडराने लगते हैं लेकिन वह इस उम्‍मीद में कड़वा घूंट पी जाते हैं कि शायद अगली बार पार्टी उनके बारे में विचार करेगी।
मामूली उपकार पाकर अपने भविष्‍य से समझौता कर चुके कुछ भाजपाइयों की बात छोड़ दें तो ऐसे नेताओं की मथुरा में कोई कमी नहीं है जिन्‍हें लंबी रेस का घोड़ा कहा जा सकता है लेकिन पार्टी ने उनके प्रति उदासीन रवैया अपना रखा है।
लोकसभा चुनावों में 2009 से लगातार बाहरी प्रत्‍याशी और पिछले विधानसभा चुनावों में पांच में से दो बाहरी दलों से आए हुए प्रत्‍याशियों के चयन ने निष्‍ठावान भाजपाइयों को काफी आहत किया है। बसपा से आए लक्ष्‍मीनारायण चौधरी तो योगी सरकार में कबीना मंत्री भी हैं।
ऐसे में पार्टी के अंदर यदि 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले कोई खिचड़ी पक रही हो तो आश्‍चर्य कैसा। आश्‍चर्य तो तब होता है जब भविष्‍य की खातिर उठने वाली हर आवाज़ को खारिज करके यह संदेश दिया जाता है कि ऑल इज़ वैल।
इस ऑल इज़ वैल के संदेश पर संशय पैदा करा देते हैं क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में आने वाले पार्टीजनों के बयान और अपनी-अपनी हैसियत दर्शाने वाले जवाब।
BJP के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष की चुनौती को संयुक्‍त विपक्ष किस तरह लेता है, यह तो वही जाने लेकिन यह हर कोई जानता है कि यदि मथुरा भाजपा इसी प्रकार ढपली बजाती रही तो यही ढपली राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष की चुनौती के लिए पानौती जरूर बन सकती है।
देखना यह है कि अमित शाह समय रहते चुनौती के लिए पनौती बन सकने वाली इन ढपलियों के सुर व ताल मिला पाते हैं या नहीं, अन्‍यथा चिड़ियों द्वारा खेत चुग जाने के बाद पछताने का कोई फायदा होने वाला नहीं है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

राजनीति के खेल में शायद इसे ही कहते हैं सेल्‍फ गोल या हिट विकेट

सुना है कि जब समय खराब चल रहा हो तो ऊंट पर बैठे हुए इंसान को भी कुत्ता काट लेता है। इसी कहावत के दूसरे पहलू को रामचरित मानस की इस चौपाई से समझा जा सकता है कि- जाकौं प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेहीं।
कहने का मतलब यह है कि ”कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ करमन के भोग”।
कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी का संसद में प्रधानमंत्री मोदी से गले मिलने अथवा उनके गले पड़ने के बाद आंख मारने वाला प्रसंग अभी ठीक से समाप्‍त भी नहीं हुआ था कि अब कांग्रेस की ही संस्‍था यंग इंडिया द्वारा संचालित अंग्रेजी अखबार नेशनल हेराल्‍ड के दो समाचार सुर्खियां बन गए।
पहला समाचार रविवार 29 जुलाई के अंक में पहले पन्‍ने पर इस शीर्षक से प्रकाशित हुआ- “RAFALE: MODI’S BOFORS” । हिंदी में समझें तो ”राफेल: मोदी का बोफोर्स”।
इस समाचार को किसी ”भाषा सिंह” ने लिखा है। समाचार की ज्‍यादा गहराई में न जाकर भी इसकी हेडिंग से पता लगता है कि मोदी सरकार के ‘राफेल विमान’ सौदे की तुलना राजीव गांधी सरकार में हुए ‘बोफोर्स तोप’ सौदे से की गई है।
बोफोर्स तोप सौदे को पूरा देश बोफोर्स घोटाले के रूप में जानता है और उसका साया आज तक कांग्रेस का पीछा कर रहा है। हालांकि अदालतों में इसे घोटाला साबित नहीं किया जा सका।
नेशनल हेराल्‍ड की हेडिंग ने एकबार नए सिरे से बोफोर्स के उस जिन्‍न को बोतल से बाहर लाकर खड़ा कर दिया जिसे बंद करने के लिए कांग्रेस हर जतन करती रही है।
इस हेडिंग ने बोफोर्स को लेकर इतने प्रश्‍न एकसाथ खड़े कर दिए कि उनके सामने राफेल की बात बहुत पीछे छूट गई।
कांग्रेस का कोई नेता अब यह नहीं बता पा रहा कि क्‍या उनकी नजर में बोफोर्स एक घोटाला था ?
अगर कांग्रेस इसे घोटाला स्‍वीकार करती है तो ‘सेल्‍फ गोल’ करने जैसा होगा। अर्थात अदालत के बाहर जनअदालत में कन्‍फेस करना कि बोफोर्स की खरीद में घोटाला हुआ।
और यदि कांग्रेस इसे नकारती है तो फिर उसके लिए यह जवाब देना मुश्‍किल है कि उसकी ही संस्‍था द्वारा संचालित उस अखबार में जिसकी बुनियाद स्‍वयं जवाहर लाल नेहरू ने रखी थी, बोफोर्स तोप सौदे को घोटाला करार कैसे दे दिया ?
कांग्रेस के लिए जवाब देना इसलिए और भी मुश्‍किल है कि यदि बोफोर्स तोप सौदे में किसी प्रकार का कोई घोटाला नहीं हुआ तो उसकी राफेल डील से किस आधार पर तुलना की जा रही है?
इसी प्रकार दूसरे समाचार में नेशनल हेराल्ड की वेबसाइट ने मध्‍य प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर एक सर्वे रिपोर्ट छापी है। यह सर्वे स्पीक मीडिया नेटवर्क ने किया था। इस सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में इस बार भी बीजेपी की सरकार बनने जा रही है। सर्वे ये भी कहता है कि मध्यप्रदेश में सीएम शिवराज सिंह और पीएम मोदी की लोकप्रियता बरकरार है।
कांग्रेसी विचारधारा का समर्थन करने वाले अख़बार तथा उसकी वेबसाइट में छपी इन दोनों खबरों का महत्‍व इसलिए और बढ़ जाता है कि कांग्रेस इन दिनों तमाम मीडिया घरानों पर मोदी समर्थक होने का आरोप लगाती रही है।
एक तरफ तमाम मीडिया घरानों पर आरोप और दूसरी तरफ अपनी ही संस्‍था के अखबार एवं वेबसाइट पर कांग्रेस की फजीहत कुछ वैसे ही है जैसे राहुल गांधी का संसद में किया गया प्रदर्शन।
अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर बहस के दौरान राहुल गांधी ने संसद में जब प्रधानमंत्री को गले लगाया तो दलगत राजनीति से इतर सोच रखने वालों ने इसे तब तक उनकी सुहृयता समझा जब तक कि वह आंख मारते हुए नहीं पकड़े गए थे।
आंख मारकर उन्‍होंने अपना सारा खेल बिगाड़ लिया।
कांग्रेसियों ने उसके बाद भले ही उनके बचाव में यथासंभव दलीलें दीं और एक युवा नेता ने तो पत्रकारों से ही पूछ डाला कि क्‍या उन्‍होंने अपने जीवन में कभी आंख नहीं मारी, किंतु हकीकत यह है कि राहुल गांधी सेल्‍फ गोल कर बैठे।
उनके द्वारा संसद जैसे गरिमामय स्‍थान पर आंख मारना यह सिद्ध करने में सफल रहा कि कांग्रेस की अध्‍यक्षी मिल जाने के बावजूद वह मैच्‍योर नहीं हो पाए हैं।
राहुल गांधी के बचाव में पत्रकारों से सवाल करने वाले कांग्रेस के युवा नेता भी शायद यह भूल गए कि हर क्रिया-कलाप का महत्‍व मौके और दस्‍तूर के हिसाब से तय होता है।
सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी ने आंख क्‍यों मारी, सवाल यह है कि संसद के अंदर उन्‍होंने अविश्‍वास प्रस्‍ताव जैसे गंभीर मुद्दे पर बहस के दौरान तब आंख क्‍यों मारी जब वह कुछ क्षण पहले ही प्रधानमंत्री को गले लगाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि उनके मन में किसी के प्रति कोई घृणा का भाव नहीं है और वह घृणा करने वालों को प्‍यार से जीतना चाहते हैं।
गले मिलकर कुर्सी पर बैठते ही उनके आंख मारने का सीधा संदेश यह गया कि देखो मैंने पीएम और भाजपाइयों को कैसा मूर्ख बनाया।
राहुल गांधी और कांग्रेस यह सब-कुछ इरादतन करते हैं या स्‍वभावगत उनसे ऐसा हो जाता है, यह तो वही जानें लेकिन इतना तय है कि खास कांग्रेसियों के अलावा कांग्रेस का भी एक अच्‍छा-खासा वर्ग यह मानता है कि कहीं न कहीं कुछ लोचा जरूर है।
कांग्रेस के वयोवृद्ध लोग राहुल गांधी को युवा नेता कहते हैं और हो सकता है कि उनकी दृष्‍टि में वह युवा हों भी किंतु 50 की उम्र को छूने वाला व्‍यक्‍ति जनसामान्‍य के लिए ‘अधेड़’ हो जाता है, और किसी अधेड़ व्‍यक्‍ति से बचकानी हरकतों की उम्‍मीद कोई नहीं करता। तब तो कदापि नहीं जब पूरी पार्टी का अस्‍तित्‍व और खुद उसका राजनीतिक करियर दांव पर लगा हो।
गलतियां किसी से हो सकती हैं और कभी भी हो सकती हैं परंतु यदि कोई गलतियों से सीख न लेकर उन्‍हें दोहराने और सही ठहराने का आदी हो जाए तो उसकी मदद ऊपर वाला भी नहीं कर सकता।
संसद से लेकर सड़क तक और अपने अखबार से लेकर तमाम मीडिया के सामने किया जा रहा कांग्रेस का प्रदर्शन यह बताता है कि उसने गलतियों से सबक न सीखने की जिद पकड़ ली है। अब यह जिद मोदी के सामने झुकता हुआ न दिखने की है अथवा कांग्रेस को नीचा दिखाने की, यह बता पाना तो मुश्‍किल है लेकिन इतना बताया जा सकता है कि राजनीति के खेल में इसे ही सेल्‍फ गोल या हिट विकेट कहते हैं।
हो यह भी सकता है कि कांग्रेस तथा कांग्रेसियों का खराब समय ही उससे यह सब-कुछ करवा रहा हो और इसीलिए ऊंट पर बैठने के बाद भी कुत्‍ते द्वारा काट लिए जाने की कहावत सटीक बैठ रही हो लेकिन ऐसा मानने वालों की भी कोई कमी नहीं कि जाकौं प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेहीं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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