शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

राजनीति के खेल में शायद इसे ही कहते हैं सेल्‍फ गोल या हिट विकेट

सुना है कि जब समय खराब चल रहा हो तो ऊंट पर बैठे हुए इंसान को भी कुत्ता काट लेता है। इसी कहावत के दूसरे पहलू को रामचरित मानस की इस चौपाई से समझा जा सकता है कि- जाकौं प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेहीं।
कहने का मतलब यह है कि ”कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ करमन के भोग”।
कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी का संसद में प्रधानमंत्री मोदी से गले मिलने अथवा उनके गले पड़ने के बाद आंख मारने वाला प्रसंग अभी ठीक से समाप्‍त भी नहीं हुआ था कि अब कांग्रेस की ही संस्‍था यंग इंडिया द्वारा संचालित अंग्रेजी अखबार नेशनल हेराल्‍ड के दो समाचार सुर्खियां बन गए।
पहला समाचार रविवार 29 जुलाई के अंक में पहले पन्‍ने पर इस शीर्षक से प्रकाशित हुआ- “RAFALE: MODI’S BOFORS” । हिंदी में समझें तो ”राफेल: मोदी का बोफोर्स”।
इस समाचार को किसी ”भाषा सिंह” ने लिखा है। समाचार की ज्‍यादा गहराई में न जाकर भी इसकी हेडिंग से पता लगता है कि मोदी सरकार के ‘राफेल विमान’ सौदे की तुलना राजीव गांधी सरकार में हुए ‘बोफोर्स तोप’ सौदे से की गई है।
बोफोर्स तोप सौदे को पूरा देश बोफोर्स घोटाले के रूप में जानता है और उसका साया आज तक कांग्रेस का पीछा कर रहा है। हालांकि अदालतों में इसे घोटाला साबित नहीं किया जा सका।
नेशनल हेराल्‍ड की हेडिंग ने एकबार नए सिरे से बोफोर्स के उस जिन्‍न को बोतल से बाहर लाकर खड़ा कर दिया जिसे बंद करने के लिए कांग्रेस हर जतन करती रही है।
इस हेडिंग ने बोफोर्स को लेकर इतने प्रश्‍न एकसाथ खड़े कर दिए कि उनके सामने राफेल की बात बहुत पीछे छूट गई।
कांग्रेस का कोई नेता अब यह नहीं बता पा रहा कि क्‍या उनकी नजर में बोफोर्स एक घोटाला था ?
अगर कांग्रेस इसे घोटाला स्‍वीकार करती है तो ‘सेल्‍फ गोल’ करने जैसा होगा। अर्थात अदालत के बाहर जनअदालत में कन्‍फेस करना कि बोफोर्स की खरीद में घोटाला हुआ।
और यदि कांग्रेस इसे नकारती है तो फिर उसके लिए यह जवाब देना मुश्‍किल है कि उसकी ही संस्‍था द्वारा संचालित उस अखबार में जिसकी बुनियाद स्‍वयं जवाहर लाल नेहरू ने रखी थी, बोफोर्स तोप सौदे को घोटाला करार कैसे दे दिया ?
कांग्रेस के लिए जवाब देना इसलिए और भी मुश्‍किल है कि यदि बोफोर्स तोप सौदे में किसी प्रकार का कोई घोटाला नहीं हुआ तो उसकी राफेल डील से किस आधार पर तुलना की जा रही है?
इसी प्रकार दूसरे समाचार में नेशनल हेराल्ड की वेबसाइट ने मध्‍य प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर एक सर्वे रिपोर्ट छापी है। यह सर्वे स्पीक मीडिया नेटवर्क ने किया था। इस सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश में इस बार भी बीजेपी की सरकार बनने जा रही है। सर्वे ये भी कहता है कि मध्यप्रदेश में सीएम शिवराज सिंह और पीएम मोदी की लोकप्रियता बरकरार है।
कांग्रेसी विचारधारा का समर्थन करने वाले अख़बार तथा उसकी वेबसाइट में छपी इन दोनों खबरों का महत्‍व इसलिए और बढ़ जाता है कि कांग्रेस इन दिनों तमाम मीडिया घरानों पर मोदी समर्थक होने का आरोप लगाती रही है।
एक तरफ तमाम मीडिया घरानों पर आरोप और दूसरी तरफ अपनी ही संस्‍था के अखबार एवं वेबसाइट पर कांग्रेस की फजीहत कुछ वैसे ही है जैसे राहुल गांधी का संसद में किया गया प्रदर्शन।
अविश्‍वास प्रस्‍ताव पर बहस के दौरान राहुल गांधी ने संसद में जब प्रधानमंत्री को गले लगाया तो दलगत राजनीति से इतर सोच रखने वालों ने इसे तब तक उनकी सुहृयता समझा जब तक कि वह आंख मारते हुए नहीं पकड़े गए थे।
आंख मारकर उन्‍होंने अपना सारा खेल बिगाड़ लिया।
कांग्रेसियों ने उसके बाद भले ही उनके बचाव में यथासंभव दलीलें दीं और एक युवा नेता ने तो पत्रकारों से ही पूछ डाला कि क्‍या उन्‍होंने अपने जीवन में कभी आंख नहीं मारी, किंतु हकीकत यह है कि राहुल गांधी सेल्‍फ गोल कर बैठे।
उनके द्वारा संसद जैसे गरिमामय स्‍थान पर आंख मारना यह सिद्ध करने में सफल रहा कि कांग्रेस की अध्‍यक्षी मिल जाने के बावजूद वह मैच्‍योर नहीं हो पाए हैं।
राहुल गांधी के बचाव में पत्रकारों से सवाल करने वाले कांग्रेस के युवा नेता भी शायद यह भूल गए कि हर क्रिया-कलाप का महत्‍व मौके और दस्‍तूर के हिसाब से तय होता है।
सवाल यह नहीं है कि राहुल गांधी ने आंख क्‍यों मारी, सवाल यह है कि संसद के अंदर उन्‍होंने अविश्‍वास प्रस्‍ताव जैसे गंभीर मुद्दे पर बहस के दौरान तब आंख क्‍यों मारी जब वह कुछ क्षण पहले ही प्रधानमंत्री को गले लगाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि उनके मन में किसी के प्रति कोई घृणा का भाव नहीं है और वह घृणा करने वालों को प्‍यार से जीतना चाहते हैं।
गले मिलकर कुर्सी पर बैठते ही उनके आंख मारने का सीधा संदेश यह गया कि देखो मैंने पीएम और भाजपाइयों को कैसा मूर्ख बनाया।
राहुल गांधी और कांग्रेस यह सब-कुछ इरादतन करते हैं या स्‍वभावगत उनसे ऐसा हो जाता है, यह तो वही जानें लेकिन इतना तय है कि खास कांग्रेसियों के अलावा कांग्रेस का भी एक अच्‍छा-खासा वर्ग यह मानता है कि कहीं न कहीं कुछ लोचा जरूर है।
कांग्रेस के वयोवृद्ध लोग राहुल गांधी को युवा नेता कहते हैं और हो सकता है कि उनकी दृष्‍टि में वह युवा हों भी किंतु 50 की उम्र को छूने वाला व्‍यक्‍ति जनसामान्‍य के लिए ‘अधेड़’ हो जाता है, और किसी अधेड़ व्‍यक्‍ति से बचकानी हरकतों की उम्‍मीद कोई नहीं करता। तब तो कदापि नहीं जब पूरी पार्टी का अस्‍तित्‍व और खुद उसका राजनीतिक करियर दांव पर लगा हो।
गलतियां किसी से हो सकती हैं और कभी भी हो सकती हैं परंतु यदि कोई गलतियों से सीख न लेकर उन्‍हें दोहराने और सही ठहराने का आदी हो जाए तो उसकी मदद ऊपर वाला भी नहीं कर सकता।
संसद से लेकर सड़क तक और अपने अखबार से लेकर तमाम मीडिया के सामने किया जा रहा कांग्रेस का प्रदर्शन यह बताता है कि उसने गलतियों से सबक न सीखने की जिद पकड़ ली है। अब यह जिद मोदी के सामने झुकता हुआ न दिखने की है अथवा कांग्रेस को नीचा दिखाने की, यह बता पाना तो मुश्‍किल है लेकिन इतना बताया जा सकता है कि राजनीति के खेल में इसे ही सेल्‍फ गोल या हिट विकेट कहते हैं।
हो यह भी सकता है कि कांग्रेस तथा कांग्रेसियों का खराब समय ही उससे यह सब-कुछ करवा रहा हो और इसीलिए ऊंट पर बैठने के बाद भी कुत्‍ते द्वारा काट लिए जाने की कहावत सटीक बैठ रही हो लेकिन ऐसा मानने वालों की भी कोई कमी नहीं कि जाकौं प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेहीं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

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