पूरे सिस्टम पर गहरा सवालिया निशान लगाती है कानपुर की घटना, पुलिस के लिए भी आत्मचिंतन का ‘मौका’
कानपुर की वीभत्स घटना एक ओर जहां पूरे सिस्टम पर गहरा सवालिया निशान लगाती है वहीं दूसरी ओर पुलिस के लिए भी आत्मचिंतन का ‘मौका’ दे रही है।
पुलिस के लिए इसे ‘मौका’ इसलिए कहा जा सकता है कि इतने बड़े दुस्साहस की ‘पटकथा’ लिखने वाले यदि छूट गए और कार्यवाही सिर्फ अपराधियों तक सीमित रह गई तो ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा।
कौन नहीं जानता कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी पुलिस, प्रशासन और राजनेताओं के गठजोड़ का ही नतीजा होते हैं। वो इसी तिकड़ी के संरक्षण में पलते और बढ़ते हैं।
विकास दुबे तक पुलिस की दबिश पहुंचने से पहले सूचना कैसे लीक हुई होगी और कैसे उसने पुलिस को घेरकर मारने का फुलप्रूफ प्लान तैयार किया होगा, यह जानना बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन कोई जानने चाहेगा तब जान पाएगा अन्यथा हमेशा की तरह सतही कानूनी कार्यवाही करने की लकीर पीट दी जाएगी।
कोई तो भेदिया होगा जिसने विकास दुबे को पुलिस पर हमलावर होने का इतना अवसर दिलाया ताकि वो रास्ते में आड़ी जेसीबी खड़ी करके मोर्चेबंदी कर सके।
मथुरा का जवाहरबाग कांड
मथुरा का जवाहरबाग कांड याद हो तो उसमें एक एसपी सिटी और एक एसओ को लगभग इसी तरह पूरी योजना के साथ घेरकर मार डाला गया।
कहने को सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है किंतु 2016 से अब तक न रामवृक्ष का पता लगा न जांच आगे बढ़ी।
इन दो पुलिस अधिकारियों को बेरहमी से मार डालने वाला रामवृक्ष यादव नामक अपराधी पूरे ढाई साल तक कलेक्ट्रेट में ही सारे पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों की नाक के नीचे एक सरकारी बाग की ढाई सौ एकड़ से अधिक जमीन पर अपने गुर्गों के साथ काबिज रहा लेकिन सब के सब तमाशबीन बने रहे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यदि पुलिस प्रशासन को मजबूर न किया होता तो रामवृक्ष की विषबेल कितनी और फल-फूल चुकी होती, इसका अंदाज लगाया जा सकता है।
डॉ. निर्विकल्प अपहरण कांड
बहुत दिन नहीं बीते जब मथुरा में ही डॉक्टर निर्विकल्प को अगवा कर बदमाशों ने चंद मिनटों के अंदर 52 लाख रुपए की फिरौती वसूल ली। बात खुली तो पता लगा कि उसमें से 40 लाख रुपए की रकम पुलिस हड़प गई थी। एफआर दर्ज हुई, एक इंस्पेक्टर को निलंबित भी किया गया किंतु उसके बाद नतीजा ढाक के तीन पात है।
जिन उच्च पुलिस अधिकारियों की इस अपहरण कांड में संलिप्तता का शक था, उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। एक आरोपी और एक सह आरोपी महिला को गिरफ्तार कर पुलिस ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
पुलिस चौकी से करोड़ों की शराब बेच देने का मामला
मथुरा में ही नेशनल हाईवे के थाना कोसी की कोटवन बॉर्डर पुलिस चौकी से लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा दो करोड़ रुपए से ऊपर की शराब बेच दी गई लेकिन खानापूरी के अलावा उच्च अधिकारियों ने कुछ नहीं किया।
आश्चर्य की बात यह है कि ये वो शराब थी जो खुद पुलिस ने ही समय-समय पर शराब तस्करों से जब्त कर कई लोगों को जेल भेजा था। अब सारा खेल खतम और पैसा हजम। तस्कर भी खुश और पुलिस भी। रहा सवाल जांच का तो वह जैसे अब चल रही है, वैसे दस साल बाद भी चलती रहेगी।
छत्ता बाजार का दोहरा हत्याकांड
हाल ही में मथुरा के अत्यधिक भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र छत्ता बाजार की गली सेठ भीकचंद के अंदर सुबह-सुबह मोटरसाइकिल सवार बदमाश अंधाधुंध फायरिंग करके दो लोगों की जान ले लेते हैं और तीन लोगों को घायल करके भाग जाते हैं किंतु पुलिस कुछ नहीं कर पाती।
करती है तो केवल इतना कि एक युवक जो क्रॉस केस बनाने के चक्कर में जिला अस्पताल जा पहुंचा था, उसे गिरफ्तार दिखा देती है और घटना स्थल पर पड़ी मिली एक रिवॉल्वर को उससे बरामद बताकर उसका चालान कर देती है।
इस दुस्साहसिक वारदात को अंजाम देने वाले नामजद और अज्ञात बदमाश आज तक पुलिस की पकड़ से दूर हैं जबकि उसमें मारे गए लोगों की तीन दिन बाद तेरहवीं होने वाली है।
दरअसल पूरे प्रदेश में कहीं भी पुलिस मजामत की घटना हो अथवा कोई ऐसी दुस्साहसिक वारदात, ऐसा संभव ही नहीं है कि पुलिस उससे कतई अनजान हो या उसे भनक तक न लगे।
पुलिस ही सूत्रधार
इसे यूं भी कह सकते हैं कि पुलिस ही ऐसी वारदातों की सूत्रधार होती है, कभी पैसे के लालच में तो कभी आपसी द्वेषभाव के कारण।
इसके अलावा एक तीसरा कारण होता है राजनीतिक संरक्षण बने रहने की वो चाहत जिसके बल पर ”चार्ज” चलता रहता है।
किसी के लिए जिले का ”चार्ज” अहमियत रखता है तो किसी के लिए ”सर्किल” का, किसी को थाने के चार्ज की चाहत होती है तो कोई खास चौकी थाना छोड़ना नहीं चाहता। कोई पैसे के लिए अपनों से गद्दारी करने को तत्पर रहता है तो कोई हुकुम बजाने के लिए।
जो भी हो, लेकिन एक बात तय है कि बिना भेदिया के इतनी बड़ी तो क्या छोटी से छोटी पुलिस पार्टी पर हमला करने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता।
विकास दुबे का ‘इतना विकास’ संभव ही इसलिए हो पाया कि उसे पुलिस-प्रशासन और राजनेताओं की तिकड़ी का भरपूर सहयोग प्राप्त होता रहा।
जरा विचार कीजिए कि यही हिस्ट्रीशीटर गुंडा विकास दुबे थाने के अंदर एक दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री ही हत्या कर देता है और इसके खिलाफ अदालत में कोई गवाही तक देने को तैयार नहीं होता, तो इसके मायने क्या हैं।
आज चूंकि आठ पुलिसजनों की शहादत हुई है और आधा दर्जन से अधिक गंभीर घायल हैं इसलिए सहानुभूति होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या ये सहानुभति इस बात की गारंटी हो सकती है कि भविष्य में ऐसी किसी दुस्साहसिक घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
क्या कोई पुलिस अधिकारी अथवा कर्मचारी दावे के साथ कह सकता है कि जो कुछ हुआ और जिन परिस्थितियों में हुआ, उसके लिए पुलिस कतई जिम्मेदार नहीं है।
और यदि पुलिस जिम्मेदार है तो निश्चित ही यह घटना उसे आत्मचिंतन का मौका दे रही है ताकि हर पुलिस वाला सोच सके कि कब तक और क्यूं।
इसलिए तो नहीं कि ड्यूटी की खातिर खाक में मिलने की प्रेरणा देने वाली खाकी पर ही अब इतनी गर्द जम चुकी है कि उसे कुछ दिखाई नहीं देता, कुछ सुनाई नहीं देता।
दिखता है तो वही जो देखना चाहते हैं, और सुनना भी है वही जो सुनना चाहते हैं।
विकास दुबे जैसों का खेल हमेशा के लिए यदि खत्म करना है तो एकबार फिर जहां खाकी का इकबाल बुलंद करना होगा वहीं उसकी मान-मर्यादा को भी और तार-तार होने से बचाना होगा अन्यथा आज जो दुस्साहस विकास तथा उसके गुर्गों ने किया है, कल कोई और करेगा।
हो सकता है कि तब ये संख्या इससे भी अधिक हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
कानपुर की वीभत्स घटना एक ओर जहां पूरे सिस्टम पर गहरा सवालिया निशान लगाती है वहीं दूसरी ओर पुलिस के लिए भी आत्मचिंतन का ‘मौका’ दे रही है।
पुलिस के लिए इसे ‘मौका’ इसलिए कहा जा सकता है कि इतने बड़े दुस्साहस की ‘पटकथा’ लिखने वाले यदि छूट गए और कार्यवाही सिर्फ अपराधियों तक सीमित रह गई तो ये सिलसिला आगे भी चलता रहेगा।
कौन नहीं जानता कि विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी पुलिस, प्रशासन और राजनेताओं के गठजोड़ का ही नतीजा होते हैं। वो इसी तिकड़ी के संरक्षण में पलते और बढ़ते हैं।
विकास दुबे तक पुलिस की दबिश पहुंचने से पहले सूचना कैसे लीक हुई होगी और कैसे उसने पुलिस को घेरकर मारने का फुलप्रूफ प्लान तैयार किया होगा, यह जानना बहुत बड़ी बात नहीं है। लेकिन कोई जानने चाहेगा तब जान पाएगा अन्यथा हमेशा की तरह सतही कानूनी कार्यवाही करने की लकीर पीट दी जाएगी।
कोई तो भेदिया होगा जिसने विकास दुबे को पुलिस पर हमलावर होने का इतना अवसर दिलाया ताकि वो रास्ते में आड़ी जेसीबी खड़ी करके मोर्चेबंदी कर सके।
मथुरा का जवाहरबाग कांड
मथुरा का जवाहरबाग कांड याद हो तो उसमें एक एसपी सिटी और एक एसओ को लगभग इसी तरह पूरी योजना के साथ घेरकर मार डाला गया।
कहने को सीबीआई इस मामले की जांच कर रही है किंतु 2016 से अब तक न रामवृक्ष का पता लगा न जांच आगे बढ़ी।
इन दो पुलिस अधिकारियों को बेरहमी से मार डालने वाला रामवृक्ष यादव नामक अपराधी पूरे ढाई साल तक कलेक्ट्रेट में ही सारे पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारियों की नाक के नीचे एक सरकारी बाग की ढाई सौ एकड़ से अधिक जमीन पर अपने गुर्गों के साथ काबिज रहा लेकिन सब के सब तमाशबीन बने रहे।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यदि पुलिस प्रशासन को मजबूर न किया होता तो रामवृक्ष की विषबेल कितनी और फल-फूल चुकी होती, इसका अंदाज लगाया जा सकता है।
डॉ. निर्विकल्प अपहरण कांड
बहुत दिन नहीं बीते जब मथुरा में ही डॉक्टर निर्विकल्प को अगवा कर बदमाशों ने चंद मिनटों के अंदर 52 लाख रुपए की फिरौती वसूल ली। बात खुली तो पता लगा कि उसमें से 40 लाख रुपए की रकम पुलिस हड़प गई थी। एफआर दर्ज हुई, एक इंस्पेक्टर को निलंबित भी किया गया किंतु उसके बाद नतीजा ढाक के तीन पात है।
जिन उच्च पुलिस अधिकारियों की इस अपहरण कांड में संलिप्तता का शक था, उनके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। एक आरोपी और एक सह आरोपी महिला को गिरफ्तार कर पुलिस ने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली।
पुलिस चौकी से करोड़ों की शराब बेच देने का मामला
मथुरा में ही नेशनल हाईवे के थाना कोसी की कोटवन बॉर्डर पुलिस चौकी से लॉकडाउन के दौरान पुलिस द्वारा दो करोड़ रुपए से ऊपर की शराब बेच दी गई लेकिन खानापूरी के अलावा उच्च अधिकारियों ने कुछ नहीं किया।
आश्चर्य की बात यह है कि ये वो शराब थी जो खुद पुलिस ने ही समय-समय पर शराब तस्करों से जब्त कर कई लोगों को जेल भेजा था। अब सारा खेल खतम और पैसा हजम। तस्कर भी खुश और पुलिस भी। रहा सवाल जांच का तो वह जैसे अब चल रही है, वैसे दस साल बाद भी चलती रहेगी।
छत्ता बाजार का दोहरा हत्याकांड
हाल ही में मथुरा के अत्यधिक भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र छत्ता बाजार की गली सेठ भीकचंद के अंदर सुबह-सुबह मोटरसाइकिल सवार बदमाश अंधाधुंध फायरिंग करके दो लोगों की जान ले लेते हैं और तीन लोगों को घायल करके भाग जाते हैं किंतु पुलिस कुछ नहीं कर पाती।
करती है तो केवल इतना कि एक युवक जो क्रॉस केस बनाने के चक्कर में जिला अस्पताल जा पहुंचा था, उसे गिरफ्तार दिखा देती है और घटना स्थल पर पड़ी मिली एक रिवॉल्वर को उससे बरामद बताकर उसका चालान कर देती है।
इस दुस्साहसिक वारदात को अंजाम देने वाले नामजद और अज्ञात बदमाश आज तक पुलिस की पकड़ से दूर हैं जबकि उसमें मारे गए लोगों की तीन दिन बाद तेरहवीं होने वाली है।
दरअसल पूरे प्रदेश में कहीं भी पुलिस मजामत की घटना हो अथवा कोई ऐसी दुस्साहसिक वारदात, ऐसा संभव ही नहीं है कि पुलिस उससे कतई अनजान हो या उसे भनक तक न लगे।
पुलिस ही सूत्रधार
इसे यूं भी कह सकते हैं कि पुलिस ही ऐसी वारदातों की सूत्रधार होती है, कभी पैसे के लालच में तो कभी आपसी द्वेषभाव के कारण।
इसके अलावा एक तीसरा कारण होता है राजनीतिक संरक्षण बने रहने की वो चाहत जिसके बल पर ”चार्ज” चलता रहता है।
किसी के लिए जिले का ”चार्ज” अहमियत रखता है तो किसी के लिए ”सर्किल” का, किसी को थाने के चार्ज की चाहत होती है तो कोई खास चौकी थाना छोड़ना नहीं चाहता। कोई पैसे के लिए अपनों से गद्दारी करने को तत्पर रहता है तो कोई हुकुम बजाने के लिए।
जो भी हो, लेकिन एक बात तय है कि बिना भेदिया के इतनी बड़ी तो क्या छोटी से छोटी पुलिस पार्टी पर हमला करने की हिमाकत कोई नहीं कर सकता।
विकास दुबे का ‘इतना विकास’ संभव ही इसलिए हो पाया कि उसे पुलिस-प्रशासन और राजनेताओं की तिकड़ी का भरपूर सहयोग प्राप्त होता रहा।
जरा विचार कीजिए कि यही हिस्ट्रीशीटर गुंडा विकास दुबे थाने के अंदर एक दर्जाप्राप्त राज्यमंत्री ही हत्या कर देता है और इसके खिलाफ अदालत में कोई गवाही तक देने को तैयार नहीं होता, तो इसके मायने क्या हैं।
आज चूंकि आठ पुलिसजनों की शहादत हुई है और आधा दर्जन से अधिक गंभीर घायल हैं इसलिए सहानुभूति होना स्वाभाविक है, लेकिन क्या ये सहानुभति इस बात की गारंटी हो सकती है कि भविष्य में ऐसी किसी दुस्साहसिक घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी।
क्या कोई पुलिस अधिकारी अथवा कर्मचारी दावे के साथ कह सकता है कि जो कुछ हुआ और जिन परिस्थितियों में हुआ, उसके लिए पुलिस कतई जिम्मेदार नहीं है।
और यदि पुलिस जिम्मेदार है तो निश्चित ही यह घटना उसे आत्मचिंतन का मौका दे रही है ताकि हर पुलिस वाला सोच सके कि कब तक और क्यूं।
इसलिए तो नहीं कि ड्यूटी की खातिर खाक में मिलने की प्रेरणा देने वाली खाकी पर ही अब इतनी गर्द जम चुकी है कि उसे कुछ दिखाई नहीं देता, कुछ सुनाई नहीं देता।
दिखता है तो वही जो देखना चाहते हैं, और सुनना भी है वही जो सुनना चाहते हैं।
विकास दुबे जैसों का खेल हमेशा के लिए यदि खत्म करना है तो एकबार फिर जहां खाकी का इकबाल बुलंद करना होगा वहीं उसकी मान-मर्यादा को भी और तार-तार होने से बचाना होगा अन्यथा आज जो दुस्साहस विकास तथा उसके गुर्गों ने किया है, कल कोई और करेगा।
हो सकता है कि तब ये संख्या इससे भी अधिक हो।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी