सोमवार, 18 मार्च 2019

मथुरा से RLD (गठबंधन) का उम्‍मीदवार फाइनल, सिर्फ घोषणा होना बाकी, प्रमुख दावेदारों में आक्रोश

मथुरा। राष्‍ट्रीय लोकदल RLD के अत्‍यंत भरोसेमंद और अंदरूनी सूत्रों की मानें तो पार्टी ने गठबंधन में मिली मथुरा सीट पर अपना उम्‍मीदवार फाइनल कर दिया है।
गौरतलब है कि राष्‍ट्रीय लोकदल RLD को पिछले दिनों ही सपा-बसपा ने अपने साथ गठबंधन का हिस्‍सा घोषित करते हुए उत्तर प्रदेश में 3 सीटें दी थीं। ये सीटें थीं- मुजफ्फरनगर, मथुरा और बागपत।
उल्‍लेखनीय है कि इस बार मुजफ्फरनगर से RLD के मुखिया चौधरी अजीत सिंह खुद मैदान में उतरने जा रहे हैं जबकि युवराज जयंत चौधरी का बागपत से लड़ना तय है।
जयंत चौधरी ने 2009 में अपना पहला लोकसभा चुनाव मथुरा से लड़ा था और भारी मतों से जीत दर्ज की थी। किंतु इस जीत का श्रेय भाजपा को भी मिला क्‍योंकि जाटलेंड होने के बावजूद समर्थन के बगैर पूर्व में चौधरी चरण सिंह की पत्‍नी गायत्री देवी और पुत्री डॉ. ज्ञानवती भी मथुरा से चुनाव नहीं जीत सकी थीं।
2014 के लोकसभा चुनाव में एकबार फिर इस बात की पुष्‍टि तब हो गई जब जयंत चौधरी दूसरी बार मथुरा से लोकसभा का चुनाव लड़ने उतरे किंतु भाजपा की हेमा मालिनी से बुरी तरह हारे क्‍योंकि 2014 में उन्‍हें किसी का समर्थन प्राप्‍त नहीं था।
इस बार हालांकि सपा-बसपा ने अपने गठबंधन का हिस्‍सा घोषित करते हुए राष्‍ट्रीय लोकदल को मथुरा सहित तीन सीटें छोड़ दीं किंतु मथुरा में न तो सपा आज तक अपना कोई ऐसा जनाधार खड़ी कर सकी जिसके बूते निर्णायक भूमिका अदा कर सके और न बसपा लोकसभा के किसी चुनाव में अपना परचम लहरा पायी।
RLD के मुखिया चौधरी अजीत सिंह तथा युवराज जयंत चौधरी ने इस गणित को बखूबी समझते हुए ही इस बार जयंत का चुनाव क्षेत्र बदलकर बागपत कर दिया और मथुरा से परिवार के इतर किसी अन्‍य को लड़ाने का निर्णय लिया है ताकि पूरे परिवार की प्रतिष्‍ठा दांव पर न लग जाए।
दरअसल, माना यह जा रहा था कि मथुरा से चौधरी अजीत सिंह अपनी पुत्रवधू और जयंत की पत्‍नी चारु सिंह को मथुरा से चुनाव मैदान में उतार सकते हैं किंतु उन्‍होंने ऐसा न करके इस बार एक ऐसे व्‍यक्‍ति को लड़ाने का निर्णय लिया है जिसका नाम चंद रोज पहले तब सामने आया था जब जयंत चौधरी उसके एक कार्यक्रम में दिखाई दिए थे।
खुद को योद्धा पत्रकार बताने वाले यह व्‍यक्‍ति हैं विनीत नारायण। वृंदावन को अपना स्‍थाई निवास बना चुके विनीत नारायण ब्रज फाउंडेशन नामक एक एनजीओ भी चलाते हैं।
विनीत नारायण और उनका एनजीओ यूं तो पिछले कई वर्षों से ब्रज के कुंड एवं सरोवरों का जीर्णोद्धार करने के काम में लगा था लेकिन गत वर्ष जब उस पर उंगलियां उठने लगीं तो जांच भी बैठी और आरोप-प्रत्‍यारोप का दौर भी चला। फिलहाल मामला एनजीटी में लंबित है।
वैसे विनीत नारायण मथुरा जनपद के ही मूल निवासी हैं और राया कस्‍बे के वैश्‍य समुदाय से ताल्‍लुक रखते हैं लिहाजा जाट बाहुल्‍य मथुरा लोकसभा क्षेत्र से राष्‍ट्रीय लोकदल द्वारा उनकी उम्‍मीदवारी पर मुहर लगाना किसी के गले नहीं उतर रहा।
बताया जाता है कि राष्‍ट्रीय लोकदल के स्‍थानीय दिग्‍गज नेता भी विनीत नारायण की उम्‍मीदवारी पर मुहर लगने से हतप्रभ हैं और उन्‍हें समझ में नहीं आ रहा कि पार्टी ने आखिर विनीत नारायण का नाम क्‍या सोचकर फाइनल किया है।
पार्टी सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार बीते कल RLD मुखिया ने सभी प्रमुख दावेदारों को दिल्‍ली स्‍थित अपने आवास पर बुलाया था जहां कुंवर नरेन्‍द्र सिंह, ठाकुर तेजपाल सिंह, योगेश नौहवार, अनूप चौधरी, डॉ. अशोक अग्रवाल, रामवीर भरंगर, राजेन्‍द्र सिकरवार तथा विनीत नारायण आदि के नाम पर चर्चा हुई।
सूत्रों की मानें तो बतौर ठाकुर उम्‍मीदवार मथुरा के लिए चौधरी अजीत सिंह की पहली पसंद ठाकुर तेजपाल थे किंतु उनके और कुंवर नरेन्‍द्र सिंह के बीच में सामंजस्‍य न बैठ पाने के कारण ठाकुर तेजपाल के नाम पर मुहर नहीं लग सकी।
दूसरी ओर ये दोनों ही नेता पार्टी की ओर से रखी गई उस शर्त को भी पूरा करने को तैयार नहीं थे जो हर ‘क्षेत्रीय पार्टी’ अपनी गुप्‍त बैठकों में टिकट के दावेदारों के सामने रखती है। 
इनके अतिरिक्‍त प्रमुख जाट दावेदारों में जो नाम शुमार थे उनमें जाट समुदाय से योगेश नौहवार, अनूप चौधरी, रामवीर भरंगर, राजेन्‍द्र सिकरवार, चेतन मलिक आदि सबसे ऊपर थे तो वैश्‍य समुदाय से सबसे ऊपर नाम मशहूर बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. अशोक अग्रवाल का चल रहा था।
पार्टी के सूत्रों ने बताया कि विनीत नारायण के नाम पर वीटो का इस्‍तेमाल जयंत चौधरी ने किया क्‍योंकि विनीत नारायण ”जयंत चौधरी” की ”अपेक्षा” पर पूरी तरह खरे उतर रहे थे। हालांकि उनके नाम पर मुहर लगती देख दूसरे प्रमुख दावेदारों ने यह भी कहा कि यदि किसी वैश्‍य को ही चुनाव लड़वाना है तो डॉ. अशोक अग्रवाल को क्‍यों नहीं लड़वाया जा सकता किंतु इस बात को भी अनसुना कर दिया गया।
पता लगा है कि वर्षों से पार्टी के लिए दिन-रात एक करने एवं तन, मन, धन से साथ देने वाले दावेदारों में अपने नेताओं के इस निर्णय को लेकर भारी आक्रोश है और वो अपनी नाराजगी सार्वजनिक करने का मन बना रहे हैं।
अब देखना यह है पार्टी अपने इन हर तरह से सक्षम दावेदारों की नाराजगी कैसे दूर करती है और कैसे अचानक सामने लाए गए विनीत नारायण के पक्ष में वोट मांगने के लिए उन्‍हें तैयार करती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

लोकसभा चुनाव 2019: पिछले 19 वर्ष में BJP क्‍या मथुरा से एक नेता पैदा नहीं कर सकी?

हो सकता है कि BJP के कुछ लोगों को सांसद हेमा मालिनी का यह दावा सुकून देता हो कि यह लोकसभा चुनाव भी वह मथुरा से ही लड़ेंगी किंतु पार्टी में ऐसे लोगों की संख्‍या अधिक है जो हेमा मालिनी के एकबार फिर यहां से चुनाव मैदान में उतरने को अपने राजनीतिक भविष्‍य से जोड़कर देखते हैं।
ऐसे लोगों में युवा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग शामिल है। इन लोगों की चिंता न तो नाजायज है और न निरर्थक।
जरा विचार कीजिए कि कोई भी युवा जब किसी राजनीतिक दल से अधिकृत तौर पर जुड़ता है तो किसलिए जुड़ता है ?
इसीलिए न कि उसके भी मन में कुछ अरमान होते हैं, कुछ पाने का सपना होता है। वह भी किसी मुकाम पर पहुंचकर कथित रूप से ही सही, लेकिन समाज की सेवा करना चाहता है। वह चाहता है कि लोग उसे भी पहचानें, उसके गले में मालाएं डालें और उसकी जय-जयकार करें।
शायद ही कोई युवा यह सोचकर किसी राजनीतिक दल को ज्‍वाइन करता हो कि वह अपनी पूरी जवानी अपने नेताओं की आवभगत में गुजार देगा और उनके समर्थकों के लिए फर्श बिछाता रहेगा। जयकारे लगाता रहेगा या माला पहनाता रहेगा।
सोच के धरातल पर यह बात बेमानी होने के बावजूद सही साबित इसलिए हो रही है क्‍योंकि राजनीति के सिरमौर कहलाने वाले श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली में आज कोई ऐसा BJP नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा जो लोकसभा चुनाव लड़ने की बात तो दूर, टिकट पाने का भी प्रबल दावेदार हो।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर ऐसा है क्‍यों, और क्‍या मथुरा जैसे विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल में BJP को एक अदद काबिल नेता देने की क्षमता नहीं है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि BJP ही मथुरा में अपने लिए कोई नई पौध तैयार करना नहीं चाहती?
मथुरा के राजनीतिक इतिहास में झांककर देखें तो पता लगेगा कि स्‍वतंत्रता के बाद यहां से पहली बार BJP को 1991 में तब सफलता मिली जब डॉ. सच्‍चिदानंद हरि साक्षी लोकसभा सदस्‍य निर्वाचित हुए।
आश्‍चर्य की बात यह है कि 1991 का लोकसभा चुनाव लड़ने वाले महामंडलेश्‍वर डॉ. सच्‍चिदानंद साक्षी ने इससे मात्र एक साल पहले यानि 1990 में ही अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत की थी।
एक साल के राजनीतिक करियर में भाजपा से लोकसभा का टिकट पाने वाले साक्षी महाराज मथुरा के निवासी नहीं थे। लोध समुदाय से ताल्‍लुक रखने वाले साक्षी जी मूल रूप से कासगंज के निवासी हैं लेकिन भाजपा ने उन्‍हें मथुरा से चुनाव लड़वाया।
भाजपा ने मथुरा से पहली और आखिरी बार स्‍थानीय निवासी चौधरी तेजवीर सिंह को 1996 में टिकट दिया। तेजवीर सिंह ने न सिर्फ यह चुनाव जीता बल्‍कि इसके बाद भी भाजपा की टिकट पर ही 12वीं तथा 13वीं लोकसभा के सदस्‍य बने।
2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने रालोद के युवराज जयंत चौधरी को समर्थन दे दिया और उसके बाद फिर 2014 में हेमा मालिनी को उतार दिया। हेमा मालिनी आज भले ही यहां से भाजपा की ही सांसद हैं किंतु वह स्‍थानीय नहीं हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो निष्‍कर्ष यह निकलता है कि मथुरा जनपद में भाजपा को अब तक मात्र चौधरी तेजवीर सिंह ही एक योग्‍य प्रत्‍याशी नजर आए। उसके बाद कोई स्‍थानीय नेता इस लायक नहीं समझा गया कि उसे चुनाव लड़वाया जा सके।
हेमा मालिनी द्वारा दोबारा ताल ठोक देने से साफ जाहिर है कि कृष्‍ण की यह भूमि भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व की नजर में अब भी बंजर ही है। भाजपा नेतृत्व का नजरिया कुछ भी हो किंतु ऐसा है नहीं।
सच तो यह है कि भाजपा में एक दो नहीं, कई नए चेहरे ऐसे हैं जो यहां से सीट निकालने का माद्दा रखते हैं और पार्टी द्वारा बाहरी प्रत्‍याशियों को थोप देने से आहत भी हैं, लेकिन पार्टी उन्‍हें नजरंदाज करती रही है।
पिछले दिनों पड़ोसी जनपद हाथरस में आयोजित हुए आरएसएस के एक बड़े चिंतन शिविर में यह मुद्दा उठा भी था। वहां कहा गया कि यदि इसी प्रकार मथुरा में कभी किसी को समर्थन देकर तो कभी बाहरी प्रत्‍याशी खड़ा करके चुनाव लड़वाए जाते रहे तो मथुरा के युवा कार्यकर्ताओं का भविष्‍य चौपट होना तय है।
पार्टी से जुड़े प्रतिभावान कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस समय राष्‍ट्रवाद अपने चरम पर है, जनता को भाजपा व उसके नेतृत्‍व पर भरोसा है, इसलिए यदि मथुरा से मथुरा के ही किसी युवा और नए चेहरे को लोकसभा चुनाव लड़वाया जाए तो एक ओर जहां पार्टी को दूसरी पीढ़ी के लिए नेता प्राप्‍त हो सकता है वहीं दूसरी ओर पार्टी के लिए जान खपा देने वालों में भी अपने भविष्‍य के प्रति उम्‍मीद बंधती है।
आज भारतीय जनता पार्टी स्‍वतंत्र भारत के अपने राजनीतिक सफर में शीर्ष स्‍थान हासिल किए हुए है। यही वह समय है जब वह अपने लिए दूसरी पीढ़ी के नेता और तीसरी पीढ़ी की पौध तैयार कर सकती है।
मथुरा जनपद यूं तो हमेशा से राजनीति का एक बड़ा अखाड़ा रहा है किंतु भाजपा ने इस अखाड़े के लिए अब तक बाहरी प्रत्‍याशियों पर ही अधिक भरोसा किया है जो स्‍थानीय भाजपाइयों के राजनीतिक भविष्‍य पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगाता है।
1991 से ही यदि आंकलन किया जाए जब भाजपा का राष्‍ट्रीय राजनीति में उदय हुआ तो 1996 में मथुरा के मूल निवासी चौधरी तेजवीर सिंह पर ही भाजपा ने भरोसा जताया लेकिन उसके बाद तेजवीर सिंह द्वारा लगातार तीन बार जीत हासिल करने के बावजूद पार्टी ने फिर किसी स्‍थानीय नेता को अहमियत नहीं दी।
2004 का चुनाव तेजवीर सिंह क्‍या हारे, भाजपा का मथुरा भाजपा पर से विश्‍वास ही उठ गया। 2009 में तो भाजपा ने अपना प्रत्‍याशी तक चुनाव में उतारना जरूरी नहीं समझा और रालोद को समर्थन दे दिया।
उसके बाद 2014 के चुनाव में पार्टी हेमा मालिनी को ले आई और अब 2019 में भी मथुरा के मूल निवासी किसी नेता के नाम का जिक्र तक नहीं हो रहा। हेमा मालिनी के बाद जिनके नाम की थोड़ी-बहुत चर्चा है भी, तो उनकी जो स्‍थापित नेता हैं और महत्‍वपूर्ण पदों को सुशोभित कर रहे हैं। किसी नए चेहरे पर पार्टी फोकस करती दिखाई नहीं दे रही।
निश्‍चित ही यह स्‍थिति मथुरा भाजपा के लिए अफसोसनाक एवं चिंताजनक है। इस तरह तो मथुरा से शायद ही कभी कोई नेता खड़ा हो सके।
मथुरा की इस स्‍थिति और पार्टी नेतृत्‍व से स्‍थानीय नेताओं की उपेक्षा पर अंदरखाने युवकों में आक्रोश भी पनप रहा है किंतु फिलहाल कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं।
वह दबी जुबान से इतना अवश्‍य कहते हैं कि 27 सालों में मात्र एक स्‍थानीय भाजपा नेता तेजवीर का संसद में पहुंचना यह साबित करने के लिए काफी है कि राजनीतिक रूप से मथुरा भाजपा कितनी कंगाल है और पार्टी का नेतृत्‍व उस पर कतई विश्‍वास नहीं करता।
युवाओं के मन में अंदर कहीं न कहीं यह डर भी है कि यदि यही हाल रहा तो कृष्‍ण की नगरी से शायद ही कभी किसी बड़े नेता का उदय हो और मथुरा की जनता उसे लेकर गौरव महसूस कर सके।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

धर्मक्षेत्रे-पापक्षेत्रे: मथुरा के कुछ निजी अस्‍पताल भी लिप्‍त हैं मानव अंगों की खरीद-फरोख्‍त में!

कहते हैं किसी भी पापकर्म को करने के लिए धर्म से बड़ी कोई आड़ नहीं हो सकती क्‍योंकि पाप को छिपाने में हमेशा से धर्म बड़ी भूमिका निभाता चला आ रहा है।
यह बात सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होती है और इसीलिए ईसाई मिशनरी से लेकर इस्‍लाम तक तथा हिंदू धर्म से लेकर सिख, जैन एवं बुद्धिस्‍ट तक में पापाचारियों की संख्‍या कम नहीं है।
किसी धार्मिक स्‍थल पर धर्म की आड़ लेना और भी आसान हो जाता है क्‍योंकि भूमि का प्रताप उसमें ‘सोने पर सुहागा’ जैसी कहावत को चरितार्थ करता है।
योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली होने की वजह से मथुरा चूंकि देश ही नहीं संपूर्ण विश्‍व में अपनी एक विशिष्‍ट धार्मिक पहचान रखता है इसलिए यहां राक्षसी प्रवृत्ति के लोग भी हमेशा सक्रिय रहे हैं।
इस दौर की बात करें तो भगवान का दर्जा प्राप्‍त इंसानों में शुमार चिकित्‍सकीय कारोबार से जुड़े कई लोग यहां न केवल लोगों की जेब काट रहे हैं बल्‍कि उनके अंगों का भी अवैध धंधा करने में लिप्‍त हैं।
इस बात का खुलासा हाल ही में तब हुआ जब कानपुर के बर्रा क्षेत्र से पकड़े गए कुछ लोगों ने पूछताछ के दौरान पीएसआरआई हॉस्पिटल की कोऑर्डिनेटर सुनीता वर्मा और मिथुन सहित फोर्टिस की कोऑर्डिनेटर सोनिका के नाम उजागर करते हुए बताया कि वो इनके साथ मिलकर मरीजों के परिजनों से किडनी एवं लिवर की सौदेबाजी करते थे।
आरोपियों से यह चौंकाने वाली जानकारी मिलने के बाद मानव अंगों (किडनी-लिवर) की खरीद-फरोख्त में पुलिस ने दिल्ली के पीएसआरआई (पुष्पावति सिंहानिया रिसर्च इंस्टीट्यूट), फोर्टिस एवं गंगाराम हॉस्‍पिटल के साथ-साथ इंद्रप्रस्थ अपोलो अस्पताल को भी नोटिस भेजा है।
एसआईटी अब इन अस्पतालों के प्रशासनिक अधिकारियों, डॉक्टर्स और कर्मचारियों से पूछताछ करेगी। इसके लिए एसआईटी की टीम दिल्ली पहुंच चुकी है। हालांकि अपोलो अस्‍पताल के प्रबंधतंत्र ने इस बाबत सफाई देते हुए कहा है कि वह ऐसे किसी धंधे में संलिप्‍त नहीं है।
अपोलो अस्‍पताल का प्रबंधतंत्र कुछ भी कहे किंतु हकीकत यह है कि 2016 के किडनी कांड में अपोलो अस्पताल और वहां के एक नामचीन डॉक्टर मानव अंगों की खरीद-फरोख्‍त के आरोपी बनाए गए थे।
डॉक्टर के दो निजी सचिव शैलेश सक्सेना व आदित्य भी उनके साथ सहआरोपी थे। शैलेश इस मामले में जेल भी भेजा गया था इसलिए एसआईटी ने फिर से अपोलो अस्‍पताल के प्रबंधतंत्र को नोटिस भेजा है।
एसपी साउथ रवीना त्यागी के मुताबिक अब फिर से अस्पताल स्टाफ सहित उन लोगों को भी पूछताछ में शामिल किया जाएगा जिनके नाम पहले सामने आ चुके हैं।
फिलहाल मानव अंगों की खरीद-फरोख्‍त के आरोप में कानुपर से पकड़े गए लोगों ने जिस तरह की जानकारी पुलिस को दी है, उससे यह माना जा रहा है कि इन अस्पतालों के अलावा भी कई अस्पताल इस गलीज़ धंधे को लंबे समय से कर रहे हैं।
अगर बात करें धर्मक्षेत्र मथुरा की तो यहां पिछले कुछ वर्षों के अंदर जिस तरह कुछ नामचीन लोगों ने चिकित्‍सा के क्षेत्र में पैसे का निवेश किया, उससे साफ जाहिर था कि उनका मकसद यहां की जनता को स्‍वास्‍थ्‍य सेवाएं देने से कहीं बहुत अधिक निजी आर्थिक लाभ अर्जित करना था।
अब उनके इस मकसद की पुष्‍टि आए दिन मिलने वाले उन समाचारों से भी होती है जिनमें अधिकांश मरीज एवं तीमारदार वहां जाकर खुद को लुटा हुआ महसूस करते हैं।
मथुरा के एक मशहूर हॉस्‍पिटल का आलम तो यह है कि शायद ही कोई व्‍यक्‍ति वहां से संतुष्‍ट होकर बाहर आता हो।
कोई कहता है कि मरीज को नाजायज तरीकों से इसलिए लगभग बंधक बनाकर रखा गया ताकि लाखों रुपए का बिल बनाया जा सके तो कोई बताता है कि जबरन चीर-फाड़ करके लाखों रुपए वसूलने के बाद भी डेड बॉडी थमा दी गई।
बताया जाता है कि मामूली सी मामूली तकलीफ लेकर भी यदि कोई व्‍यक्‍ति इस हॉस्‍पिटल की चारदीवारी के अंदर घुस गया तो तय मानिए कि या तो उसकी अच्‍छी तरह जेब कटेगी या वो खुद कटेगा। पूर्व में लोगों ने ऐसी शिकायतें सार्वजनिक तौर पर की हैं कि वो इलाज कराने गए थे किसी बीमारी का लेकिन किडनी अथवा लिवर संबंधी बीमारी बताकर खेल कर दिया।
लोगों की ऐसी शिकायत में दम इसलिए नजर आता है क्‍योंकि संपूर्ण आधुनिक चिकित्‍सा सुविधाएं उपलब्‍ध होने का दावा करने वाले इस हॉस्‍पिटल में मरीजों की मृत्‍युदर आश्‍चर्यजनक रूप से काफी अधिक है।
इस अत्‍यधिक मृत्‍यु दर को लेकर हॉस्‍पीटल का प्रबंधतंत्र समय-समय पर इस आशय की सफाई देता रहा है कि उनके यहां लोग गंभीर स्‍थिति में ही लाए जाते हैं किंतु उनके इस जवाब से शायद ही कोई संतुष्‍ट हुआ हो।
संभवत: इसीलिए इस हॉस्‍पीटल में आए दिन बखेड़ा खड़ा होना आम बात है। इन बखेड़ों की खबरें प्रकाशित या प्रसारित न हों, इसके लिए हॉस्‍पिटल का प्रबंधतंत्र मीडिया को मैनेज करने में लगा रहता है।
जो मीडिया पर्सन मैनेज नहीं होते, उन्‍हें रास्‍ते पर लाने के लिए दूसरे हथकंडे अपनाए जाते हैं। इन दूसरे उपायों में डराने-धमकाने से लेकर प्रभाव का इस्‍तेमाल करने जैसे सभी क्रिया-कलाप शामिल हैं।
हॉस्‍पिटल के सूत्र बताते हैं कि यदि कानूनी प्रक्रिया के तहत ही इस हॉस्‍पिटल की कार्यप्रणाली एवं यहां होने वाली मौतों के पीछे छिपे कारणों की गहन जांच करा ली जाए तो सबकुछ सामने आ जाएगा।
यह पता लगते देर नहीं लगेगी कि यदि कोई जवान व्‍यक्‍ति फिसल कर गिरने की वजह से हॉस्‍पिटल में एडमिट हुआ हो, तो उसकी मौत लिवर फेल होने से कैसे हो गई। इलाज के दौरान उसके घबराए हुए परिजनों से उन्‍हें अवसर दिए बिना पेपर्स पर दस्‍तखत क्‍यों करा लिए गए।
इसके अलावा जो मामले किसी तरह पुलिस तक पहुंचे, उनमें समझौता क्‍यों कर लिया गया।
कई मामले तो इस हॉस्‍पिटल के ऐसे भी सामने आए हैं जिनमें मरीज खुद चलकर हॉस्‍पिटल तक पहुंचे हैं लेकिन लौट नहीं पाए। लौटे तो डेड बॉडी बनकर, वो भी लाखों रुपए का बिल वसूले जाने के बाद।
किसी नामचीन हॉस्‍पिटल में ऐसी अप्रत्‍याशित मौतें और इन मौतों का आंकड़ा यह शंका पैदा कराने के लिए काफी है कि हर मौत ऊपर वाले की मर्जी से नहीं होती, कुछ मौतें ऐसी भी होती हैं जिनका निर्धारण ‘नियति’ नहीं, हॉस्‍पिटल की ‘नीयत’ से भी होता है।
यही मौतें यह भी संकेत देती हैं कि हो न हो मानव अंगों का अवैध कारोबार करने वाले दिल्‍ली एनसीआर तक सीमित न होकर मथुरा जैसे धार्मिक स्‍थलों पर भी सक्रिय हों क्‍यों कि यहां की भौगोलिक ही नहीं, सामाजिक स्‍थिति भी उनके अनुकूल है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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