ऐसे लोगों में युवा कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग शामिल है। इन लोगों की चिंता न तो नाजायज है और न निरर्थक।
जरा विचार कीजिए कि कोई भी युवा जब किसी राजनीतिक दल से अधिकृत तौर पर जुड़ता है तो किसलिए जुड़ता है ?
इसीलिए न कि उसके भी मन में कुछ अरमान होते हैं, कुछ पाने का सपना होता है। वह भी किसी मुकाम पर पहुंचकर कथित रूप से ही सही, लेकिन समाज की सेवा करना चाहता है। वह चाहता है कि लोग उसे भी पहचानें, उसके गले में मालाएं डालें और उसकी जय-जयकार करें।
शायद ही कोई युवा यह सोचकर किसी राजनीतिक दल को ज्वाइन करता हो कि वह अपनी पूरी जवानी अपने नेताओं की आवभगत में गुजार देगा और उनके समर्थकों के लिए फर्श बिछाता रहेगा। जयकारे लगाता रहेगा या माला पहनाता रहेगा।
सोच के धरातल पर यह बात बेमानी होने के बावजूद सही साबित इसलिए हो रही है क्योंकि राजनीति के सिरमौर कहलाने वाले श्रीकृष्ण की जन्मस्थली में आज कोई ऐसा BJP नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा जो लोकसभा चुनाव लड़ने की बात तो दूर, टिकट पाने का भी प्रबल दावेदार हो।
अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर ऐसा है क्यों, और क्या मथुरा जैसे विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल में BJP को एक अदद काबिल नेता देने की क्षमता नहीं है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि BJP ही मथुरा में अपने लिए कोई नई पौध तैयार करना नहीं चाहती?
मथुरा के राजनीतिक इतिहास में झांककर देखें तो पता लगेगा कि स्वतंत्रता के बाद यहां से पहली बार BJP को 1991 में तब सफलता मिली जब डॉ. सच्चिदानंद हरि साक्षी लोकसभा सदस्य निर्वाचित हुए।
आश्चर्य की बात यह है कि 1991 का लोकसभा चुनाव लड़ने वाले महामंडलेश्वर डॉ. सच्चिदानंद साक्षी ने इससे मात्र एक साल पहले यानि 1990 में ही अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत की थी।
एक साल के राजनीतिक करियर में भाजपा से लोकसभा का टिकट पाने वाले साक्षी महाराज मथुरा के निवासी नहीं थे। लोध समुदाय से ताल्लुक रखने वाले साक्षी जी मूल रूप से कासगंज के निवासी हैं लेकिन भाजपा ने उन्हें मथुरा से चुनाव लड़वाया।
भाजपा ने मथुरा से पहली और आखिरी बार स्थानीय निवासी चौधरी तेजवीर सिंह को 1996 में टिकट दिया। तेजवीर सिंह ने न सिर्फ यह चुनाव जीता बल्कि इसके बाद भी भाजपा की टिकट पर ही 12वीं तथा 13वीं लोकसभा के सदस्य बने।
2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने रालोद के युवराज जयंत चौधरी को समर्थन दे दिया और उसके बाद फिर 2014 में हेमा मालिनी को उतार दिया। हेमा मालिनी आज भले ही यहां से भाजपा की ही सांसद हैं किंतु वह स्थानीय नहीं हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि मथुरा जनपद में भाजपा को अब तक मात्र चौधरी तेजवीर सिंह ही एक योग्य प्रत्याशी नजर आए। उसके बाद कोई स्थानीय नेता इस लायक नहीं समझा गया कि उसे चुनाव लड़वाया जा सके।
हेमा मालिनी द्वारा दोबारा ताल ठोक देने से साफ जाहिर है कि कृष्ण की यह भूमि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की नजर में अब भी बंजर ही है। भाजपा नेतृत्व का नजरिया कुछ भी हो किंतु ऐसा है नहीं।
सच तो यह है कि भाजपा में एक दो नहीं, कई नए चेहरे ऐसे हैं जो यहां से सीट निकालने का माद्दा रखते हैं और पार्टी द्वारा बाहरी प्रत्याशियों को थोप देने से आहत भी हैं, लेकिन पार्टी उन्हें नजरंदाज करती रही है।
पिछले दिनों पड़ोसी जनपद हाथरस में आयोजित हुए आरएसएस के एक बड़े चिंतन शिविर में यह मुद्दा उठा भी था। वहां कहा गया कि यदि इसी प्रकार मथुरा में कभी किसी को समर्थन देकर तो कभी बाहरी प्रत्याशी खड़ा करके चुनाव लड़वाए जाते रहे तो मथुरा के युवा कार्यकर्ताओं का भविष्य चौपट होना तय है।
पार्टी से जुड़े प्रतिभावान कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस समय राष्ट्रवाद अपने चरम पर है, जनता को भाजपा व उसके नेतृत्व पर भरोसा है, इसलिए यदि मथुरा से मथुरा के ही किसी युवा और नए चेहरे को लोकसभा चुनाव लड़वाया जाए तो एक ओर जहां पार्टी को दूसरी पीढ़ी के लिए नेता प्राप्त हो सकता है वहीं दूसरी ओर पार्टी के लिए जान खपा देने वालों में भी अपने भविष्य के प्रति उम्मीद बंधती है।
आज भारतीय जनता पार्टी स्वतंत्र भारत के अपने राजनीतिक सफर में शीर्ष स्थान हासिल किए हुए है। यही वह समय है जब वह अपने लिए दूसरी पीढ़ी के नेता और तीसरी पीढ़ी की पौध तैयार कर सकती है।
मथुरा जनपद यूं तो हमेशा से राजनीति का एक बड़ा अखाड़ा रहा है किंतु भाजपा ने इस अखाड़े के लिए अब तक बाहरी प्रत्याशियों पर ही अधिक भरोसा किया है जो स्थानीय भाजपाइयों के राजनीतिक भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
1991 से ही यदि आंकलन किया जाए जब भाजपा का राष्ट्रीय राजनीति में उदय हुआ तो 1996 में मथुरा के मूल निवासी चौधरी तेजवीर सिंह पर ही भाजपा ने भरोसा जताया लेकिन उसके बाद तेजवीर सिंह द्वारा लगातार तीन बार जीत हासिल करने के बावजूद पार्टी ने फिर किसी स्थानीय नेता को अहमियत नहीं दी।
2004 का चुनाव तेजवीर सिंह क्या हारे, भाजपा का मथुरा भाजपा पर से विश्वास ही उठ गया। 2009 में तो भाजपा ने अपना प्रत्याशी तक चुनाव में उतारना जरूरी नहीं समझा और रालोद को समर्थन दे दिया।
उसके बाद 2014 के चुनाव में पार्टी हेमा मालिनी को ले आई और अब 2019 में भी मथुरा के मूल निवासी किसी नेता के नाम का जिक्र तक नहीं हो रहा। हेमा मालिनी के बाद जिनके नाम की थोड़ी-बहुत चर्चा है भी, तो उनकी जो स्थापित नेता हैं और महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित कर रहे हैं। किसी नए चेहरे पर पार्टी फोकस करती दिखाई नहीं दे रही।
निश्चित ही यह स्थिति मथुरा भाजपा के लिए अफसोसनाक एवं चिंताजनक है। इस तरह तो मथुरा से शायद ही कभी कोई नेता खड़ा हो सके।
मथुरा की इस स्थिति और पार्टी नेतृत्व से स्थानीय नेताओं की उपेक्षा पर अंदरखाने युवकों में आक्रोश भी पनप रहा है किंतु फिलहाल कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं।
वह दबी जुबान से इतना अवश्य कहते हैं कि 27 सालों में मात्र एक स्थानीय भाजपा नेता तेजवीर का संसद में पहुंचना यह साबित करने के लिए काफी है कि राजनीतिक रूप से मथुरा भाजपा कितनी कंगाल है और पार्टी का नेतृत्व उस पर कतई विश्वास नहीं करता।
युवाओं के मन में अंदर कहीं न कहीं यह डर भी है कि यदि यही हाल रहा तो कृष्ण की नगरी से शायद ही कभी किसी बड़े नेता का उदय हो और मथुरा की जनता उसे लेकर गौरव महसूस कर सके।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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