बहुराष्ट्रीय कंपनी नेस्ले के मैगी नूडल्स में घातक पदार्थों की मौजूदगी
का मुद्दा यूं तो राष्ट्रव्यापी हो चुका है और उसकी बिक्री पर बैन से
लेकर ब्राण्ड एंबेसेडर्स तक के खिलाफ एफआईआर के आदेश दिये जा चुके हैं
किंतु इस सबके बावजूद एक सवाल है जिसका उत्तर देने को कोई तैयार नहीं जबकि
सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना महत्वपूर्ण है मैगी मुद्दा।
सवाल यह है कि जब दो साल पहले मैगी का विज्ञापन छोड़ चुके अमिताभ बच्चन पर और 12 साल पहले मैगी का विज्ञापन करने वाली प्रीति जिंटा पर आज मुकद्दमा कायम हो सकता है तो उन मीडिया हाउसेस पर क्यों नहीं हो सकता जो अब तक मैगी का विज्ञापन बराबर कर रहे हैं।
अमिताभ और प्रीति जिंटा ने जब यह विज्ञापन किया था, तब तो मैगी में घातक पदार्थों की मौजूदगी का मुद्दा था ही नहीं और माधुरी दीक्षित ने भी जब विज्ञापन लिया होगा तब उस पर कोई विवाद नहीं था किंतु मीडिया तो अब जबकि सब-कुछ सामने आ चुका है, तब भी मैगी के विज्ञापनों को प्रकाशित व प्रसारित कर रहा है।
हम यहां अमिताभ, प्रीति या माधुरी अथवा उनके जैसे तमाम सेलिब्रिटीज द्वारा भ्रामक विज्ञापनों का पक्ष नहीं ले रहे और न उन्हें क्लीनचिट दे रहे हैं, हम तो यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि एक ही देश में किसी आपराधिक कृत्य पर दोहरा दृष्टकोण या दोहरी नीति क्यों?
बात प्रिंट मीडिया की हो या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया अथवा नये उभरते वेब मीडिया की ही क्यों न हो, इन सभी में ऐसे आपत्तिजनक विज्ञापनों की भरमार देखी जा सकती है जो स्वास्थ्य व समाज के लिए तो घातक हैं ही, बढ़ते अपराध के लिए भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं लेकिन उनका प्रकाशन व प्रसारण करने वाले मीडिया हाउसेस के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती।
देशभर के लगभग सभी नामचीन अखबार लिंग वर्धक यंत्र बिकवा रहे हैं, तंत्र-मंत्र और वशीकरण करने वालों का प्रचार कर रहे हैं, चमत्कारिक नगीने व पैंडेट सहित देवी-देवताओं की मूर्तियां बेच रहे हैं…और यहां तक कि युवितयों व घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने का दावा करने वाले विज्ञापन छाप रहे हैं। लगभग सभी चैनल्स जिनमें न्यूज़ चैनल्स भी शामिल हैं, ज्योतिषियों से हर समस्या का समाधान करा रहे हैं, उन लोगों को भी भरपूर प्रोत्साहन दे रहे हैं जो अंधश्रद्धा बढ़ाने में सहायक हैं, किंतु किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही।
अखबार तो अपने बचाव में विज्ञापनों के साथ बहुत छोटी सी वैधानिक चेतावनी इस आशय की प्रकाशित करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि ”पाठकों को सलाह दी जाती है कि किसी उत्पाद या सेवा के बारे में पूरी जांच-पड़ताल कर लें, यह समाचार पत्र उत्पाद या सेवा की गुणवत्ता तथा विज्ञापनदाता द्वारा किये गये दावे की पुष्टि नहीं करता। समाचार पत्र उपरोक्त विज्ञापनों के बारे में उत्तरदायी नहीं होगा।”
विज्ञापनों के अंत में या किसी एक कोने में छोटी सी इस आशय की चेतावनी लिख देने भर से क्या समाचार पत्र की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है, क्या उन्हें इसकी आड़ में वैश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाले, आपराधिक कृत्यों के लिए प्रोत्साहित करने वाले और अंधभक्ति व अंधश्रद्धा की ओर उन्मुख करने वाले विज्ञापन छापने का अधिकार मिल जाता है ?
आश्चर्य इस बात पर भी है कि अपना चेहरा चमकाने के लिए विभिन्न समाचार चैनल्स पर पैनल डिस्कशन का हिस्सा बनने वाले तथाकथित समाज सुधारक और हर मामले के विशेषज्ञ भी इस मामले में कुछ बोलते दिखाई नहीं देते। वो किसी एंकर से नहीं पूछते कि उनके अपने चैनल्स पर भ्रामक विज्ञापन क्यों प्रसारित किये जा रहे हैं।
समौसे और चटनी, रसगुल्ले तथा खीर खिलाकर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान करने वाले बाबा का विज्ञापन भी बदस्तूर जारी है जबकि कुछ समय पहले उसके खिलाफ भी आवाज़ उठी थी और पैनल डिस्कशन तक हुए थे।
हाल ही में सभी तथाकिथत बड़े अखबारों ने रीयल एस्टेट से जुड़ा एक ऐसा भ्रामक जैकेट पेज विज्ञापन छापा था जिसमें 2 लाख 40 हजार का प्लॉट खरीदने पर 2 लाख 56 हजार रुपए का बोनस देने की बात कही गई थी। 15 लाख का एक फ्लैट बुक कराने पर 9 लाख रुपए की गाड़ी देने का झांसा दिया गया था।
इस तरह के विज्ञापन जो किसी बड़े ”फ्रॉड” का स्पष्ट रूप से अहसास कराते हैं और जिनकी वजह से फ्रॉड लोग अपने मकसद में कामयाब होते हैं, क्या उनके प्रकाशक पर कार्यवाही नहीं होनी चाहिए।
किसी खास डीओ की महक से राह चलती लड़कियों को बेकाबू कर देने का विज्ञापन क्या महिलाओं के मान-सम्मान को बढ़ाता है किंतु ऐसे विज्ञापन प्रसारित करने वाले मीडिया हाउसेस लगातार मलाई मार रहे हैं। उनके खिलाफ कोई कुछ नहीं कहता। वो महिलाएं भी नहीं, जो देश में महिला सुरक्षा को लेकर हर सरकार और यहां तक कि हर मर्द को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकतीं। जैसे मर्द होना कोई गुनाह हो और हर मर्द एक वहशी दरिंदा हो।
किसी भी दिन का कोई नामचीन अखबार उठाकर देख लीजिए। उनमें जापानी तेल व जापानी कैप्सूल से लेकर लिंग वर्धक यंत्र सहित मनचाहे प्यार को वशीकरण के जरिये आपकी झोली में डाल देने तथा घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने जैसे विज्ञापनों की भरमार होगी। विज्ञापनों के साथ इनकी भाषा तक भड़काऊ और अश्लील होती है किंतु उनके लिए शायद कोई कानून नहीं बना।
मैगी हो या कोई भी दूसरा खाद्य पदार्थ, रोजमर्रा में उपयोग आने वाली सामग्री हो या प्रसाधन सामग्री, यदि वह गलत दावे के साथ बेची जा रही है तो उसके खिलाफ कार्यवाही जरूर की जानी चाहिए क्योंकि लूट का लाइसेंस देना अथवा लोगों के स्वास्थ्य या जीवन से खिलवाड़ करने का मौका देना किसी के हित में नहीं होगा परंतु उस लूट तथा धोखे के प्रत्यक्ष हिस्सेदारों पर भी कार्यवाही अवश्य की जानी चाहिए। फिर चाहे वह अमिताभ बच्चन जैसा कोई महानायक हो, करोड़ों दिलों को धड़काने वाली माधुरी दीक्षित हो, प्रीति जिंटा जैसी अभिनेत्री हो या फिर लोकतंत्र का तथाकथित चौथा पाया ”मीडिया” ही क्यों न हो। कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए और न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए ताकि आम जनता को महसूस हो कि मीडिया के पास सिर्फ सवाल करने का हक ही नहीं है, जवाब देने की जिम्मेदारी भी है।
उसका काम केवल दूसरों को कठघरे में खड़ा करने का न होकर खुद को कठघरे से रुबरू कराना भी है। विज्ञापन लेना मीडिया की व्यावसायिक मजबूरी बन चुका है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भक्ष और अभक्ष का भेद भुलाकर अपने लिए सबकुछ ग्राह्य बना लिया जाए तथा मैगी या किसी अन्य उत्पाद पर पैनल डिस्कशन कराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाए।
-लीजेण्ड न्यूज़ विशेष
सवाल यह है कि जब दो साल पहले मैगी का विज्ञापन छोड़ चुके अमिताभ बच्चन पर और 12 साल पहले मैगी का विज्ञापन करने वाली प्रीति जिंटा पर आज मुकद्दमा कायम हो सकता है तो उन मीडिया हाउसेस पर क्यों नहीं हो सकता जो अब तक मैगी का विज्ञापन बराबर कर रहे हैं।
अमिताभ और प्रीति जिंटा ने जब यह विज्ञापन किया था, तब तो मैगी में घातक पदार्थों की मौजूदगी का मुद्दा था ही नहीं और माधुरी दीक्षित ने भी जब विज्ञापन लिया होगा तब उस पर कोई विवाद नहीं था किंतु मीडिया तो अब जबकि सब-कुछ सामने आ चुका है, तब भी मैगी के विज्ञापनों को प्रकाशित व प्रसारित कर रहा है।
हम यहां अमिताभ, प्रीति या माधुरी अथवा उनके जैसे तमाम सेलिब्रिटीज द्वारा भ्रामक विज्ञापनों का पक्ष नहीं ले रहे और न उन्हें क्लीनचिट दे रहे हैं, हम तो यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि एक ही देश में किसी आपराधिक कृत्य पर दोहरा दृष्टकोण या दोहरी नीति क्यों?
बात प्रिंट मीडिया की हो या इलैक्ट्रॉनिक मीडिया अथवा नये उभरते वेब मीडिया की ही क्यों न हो, इन सभी में ऐसे आपत्तिजनक विज्ञापनों की भरमार देखी जा सकती है जो स्वास्थ्य व समाज के लिए तो घातक हैं ही, बढ़ते अपराध के लिए भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं लेकिन उनका प्रकाशन व प्रसारण करने वाले मीडिया हाउसेस के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती।
देशभर के लगभग सभी नामचीन अखबार लिंग वर्धक यंत्र बिकवा रहे हैं, तंत्र-मंत्र और वशीकरण करने वालों का प्रचार कर रहे हैं, चमत्कारिक नगीने व पैंडेट सहित देवी-देवताओं की मूर्तियां बेच रहे हैं…और यहां तक कि युवितयों व घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने का दावा करने वाले विज्ञापन छाप रहे हैं। लगभग सभी चैनल्स जिनमें न्यूज़ चैनल्स भी शामिल हैं, ज्योतिषियों से हर समस्या का समाधान करा रहे हैं, उन लोगों को भी भरपूर प्रोत्साहन दे रहे हैं जो अंधश्रद्धा बढ़ाने में सहायक हैं, किंतु किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही।
अखबार तो अपने बचाव में विज्ञापनों के साथ बहुत छोटी सी वैधानिक चेतावनी इस आशय की प्रकाशित करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं कि ”पाठकों को सलाह दी जाती है कि किसी उत्पाद या सेवा के बारे में पूरी जांच-पड़ताल कर लें, यह समाचार पत्र उत्पाद या सेवा की गुणवत्ता तथा विज्ञापनदाता द्वारा किये गये दावे की पुष्टि नहीं करता। समाचार पत्र उपरोक्त विज्ञापनों के बारे में उत्तरदायी नहीं होगा।”
विज्ञापनों के अंत में या किसी एक कोने में छोटी सी इस आशय की चेतावनी लिख देने भर से क्या समाचार पत्र की जिम्मेदारी पूरी हो जाती है, क्या उन्हें इसकी आड़ में वैश्यावृत्ति को बढ़ावा देने वाले, आपराधिक कृत्यों के लिए प्रोत्साहित करने वाले और अंधभक्ति व अंधश्रद्धा की ओर उन्मुख करने वाले विज्ञापन छापने का अधिकार मिल जाता है ?
आश्चर्य इस बात पर भी है कि अपना चेहरा चमकाने के लिए विभिन्न समाचार चैनल्स पर पैनल डिस्कशन का हिस्सा बनने वाले तथाकथित समाज सुधारक और हर मामले के विशेषज्ञ भी इस मामले में कुछ बोलते दिखाई नहीं देते। वो किसी एंकर से नहीं पूछते कि उनके अपने चैनल्स पर भ्रामक विज्ञापन क्यों प्रसारित किये जा रहे हैं।
समौसे और चटनी, रसगुल्ले तथा खीर खिलाकर बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान करने वाले बाबा का विज्ञापन भी बदस्तूर जारी है जबकि कुछ समय पहले उसके खिलाफ भी आवाज़ उठी थी और पैनल डिस्कशन तक हुए थे।
हाल ही में सभी तथाकिथत बड़े अखबारों ने रीयल एस्टेट से जुड़ा एक ऐसा भ्रामक जैकेट पेज विज्ञापन छापा था जिसमें 2 लाख 40 हजार का प्लॉट खरीदने पर 2 लाख 56 हजार रुपए का बोनस देने की बात कही गई थी। 15 लाख का एक फ्लैट बुक कराने पर 9 लाख रुपए की गाड़ी देने का झांसा दिया गया था।
इस तरह के विज्ञापन जो किसी बड़े ”फ्रॉड” का स्पष्ट रूप से अहसास कराते हैं और जिनकी वजह से फ्रॉड लोग अपने मकसद में कामयाब होते हैं, क्या उनके प्रकाशक पर कार्यवाही नहीं होनी चाहिए।
किसी खास डीओ की महक से राह चलती लड़कियों को बेकाबू कर देने का विज्ञापन क्या महिलाओं के मान-सम्मान को बढ़ाता है किंतु ऐसे विज्ञापन प्रसारित करने वाले मीडिया हाउसेस लगातार मलाई मार रहे हैं। उनके खिलाफ कोई कुछ नहीं कहता। वो महिलाएं भी नहीं, जो देश में महिला सुरक्षा को लेकर हर सरकार और यहां तक कि हर मर्द को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकतीं। जैसे मर्द होना कोई गुनाह हो और हर मर्द एक वहशी दरिंदा हो।
किसी भी दिन का कोई नामचीन अखबार उठाकर देख लीजिए। उनमें जापानी तेल व जापानी कैप्सूल से लेकर लिंग वर्धक यंत्र सहित मनचाहे प्यार को वशीकरण के जरिये आपकी झोली में डाल देने तथा घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने जैसे विज्ञापनों की भरमार होगी। विज्ञापनों के साथ इनकी भाषा तक भड़काऊ और अश्लील होती है किंतु उनके लिए शायद कोई कानून नहीं बना।
मैगी हो या कोई भी दूसरा खाद्य पदार्थ, रोजमर्रा में उपयोग आने वाली सामग्री हो या प्रसाधन सामग्री, यदि वह गलत दावे के साथ बेची जा रही है तो उसके खिलाफ कार्यवाही जरूर की जानी चाहिए क्योंकि लूट का लाइसेंस देना अथवा लोगों के स्वास्थ्य या जीवन से खिलवाड़ करने का मौका देना किसी के हित में नहीं होगा परंतु उस लूट तथा धोखे के प्रत्यक्ष हिस्सेदारों पर भी कार्यवाही अवश्य की जानी चाहिए। फिर चाहे वह अमिताभ बच्चन जैसा कोई महानायक हो, करोड़ों दिलों को धड़काने वाली माधुरी दीक्षित हो, प्रीति जिंटा जैसी अभिनेत्री हो या फिर लोकतंत्र का तथाकथित चौथा पाया ”मीडिया” ही क्यों न हो। कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए और न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए ताकि आम जनता को महसूस हो कि मीडिया के पास सिर्फ सवाल करने का हक ही नहीं है, जवाब देने की जिम्मेदारी भी है।
उसका काम केवल दूसरों को कठघरे में खड़ा करने का न होकर खुद को कठघरे से रुबरू कराना भी है। विज्ञापन लेना मीडिया की व्यावसायिक मजबूरी बन चुका है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भक्ष और अभक्ष का भेद भुलाकर अपने लिए सबकुछ ग्राह्य बना लिया जाए तथा मैगी या किसी अन्य उत्पाद पर पैनल डिस्कशन कराकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाए।
-लीजेण्ड न्यूज़ विशेष