बुधवार, 30 जून 2021

UP चुनाव: खुद पैरों पर कुल्‍हाड़ी मार रहे हैं श्रीकांत शर्मा, या बिजली अधिकारियों ने ले ली है उन्‍हें हराने की ‘सुपारी



 

उत्तर प्रदेश के कद्दावर भाजपा नेताओं में शुमार और ऊर्जा जैसे महत्‍वपूर्ण विभाग के मंत्री तथा मथुरा की शहरी सीट के विधायक श्रीकांत शर्मा खुद अपने पैरों पर कुल्‍हाड़ी मार रहे हैं या फिर बिजली अधिकारियों ने उन्‍हें चुनाव हराने की ‘सुपारी’ ले रखी है?

अब जबकि UP के विधानसभा चुनाव होने में चंद महीने ही बचे हैं, तो ये सवाल इसलिए प्रासांगिक हो जाता है क्‍योंकि कुछ समय से न सिर्फ ऊर्जा मंत्री का समूचा गृह जनपद बल्‍कि उनका चुनाव क्षेत्र मथुरा-वृंदावन भी बिजली की भारी मार से त्रस्‍त है।
मथुरा को पूरी तरह विद्युत कटौती से मुक्‍त रखे जाने का दावा करने वाले ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा के विभागीय अधिकारियों का बचकाना बयान कहता है कि कोरोना के कारण लाइनें दुरुस्‍त करने का काम देरी से शुरू हुआ इसलिए ये समस्‍या आ रही है। वो ये भी कहते हैं कि शहरी क्षेत्र की विद्युत आपूर्ति में कोई समस्‍या नहीं है क्‍योंकि शहर के अधिकांश इलाकों को अंडरग्राउंड केबिल से जोड़ा जा चुका है। जो थोड़ी-बहुत परेशानी है, वो ग्रामीण क्षेत्रों में हो सकती है। यानी उन्‍हें मालूम ही नहीं है कि परेशानी है या नहीं।
अधीक्षण अभियंता प्रभाकर पांडे तो यहां तक बताते हैं कि अधिकांश लाइनें ठीक हैं, कुछ को ठीक करने का काम चल रहा है इसलिए जल्‍द समूची व्‍यवस्‍था में सुधार हो जाएगा।
अब जानिए ऊर्जा मंत्री के चुनाव क्षेत्र मथुरा-वृंदावन का हाल
पिछले करीब 15 दिनों में कल पांचवीं बार वृंदावन से आने वाली लाइन में फॉल्‍ट के कारण शहर का एक बड़ा हिस्‍सा बिजली से महरूम रहा। रात दस बजे बंद हुई लाइट आधी रात के बाद दो बजे सुचारू हो सकी। इससे पहले एक दिन 8 घंटे, एक दिन 6 घंटे तो दो दिन 5-5 घंटे के लिए लाइट बंद रही।
पूर्व में घंटों लाइट जाने का कारण जहां आंधी या बारिश बताया गया वहीं कल ऐसा बिना वजह तार टूट जाने से हुआ।
ग्राउंड पर काम करने वाले कर्मचारियों से पूछने पर पता लगता है कि राधापुरम, राधापुरम एस्‍टेट सहित छोटी-बड़ी एक दर्जन कॉलोनियों का लोड वृंदावन से आने वाली जिस लाइन पर डाल रखा है वह जर्जर अवस्‍था को प्राप्‍त है।
इस लाइन में जगह-जगह जोड़ हैं इसलिए मामूली सी हवा चलने अथवा आकाश से दो बूदें बरस जाने पर ही वो दिक्‍कत देने लगती है।
चूंकि विभागीय कर्मचारियों को यही पता नहीं होता कि वृंदावन से मथुरा तक दसियों किलोमीटर के बीच फॉल्‍ट कहां आया है इसलिए वो पहले तो घंटों पेट्रोलिंग करके फॉल्‍ट का पता लगाते हैं। उसके बाद कहीं जाकर काम किया जाता है, लेकिन तब तक सब स्‍टेशन पर बैठे लोगों की जान सूखती रहती है।
दरअसल, पेट्रोलिंग करने वाले कर्मचारी फॉल्‍ट न मिल जाने तक कुछ बताने की स्‍थिति में नहीं होते इसलिए वो संबंधित सब स्‍टेशन को ऐसी कोई जानकारी देने में असमर्थ होते हैं कि आपूर्ति सुनिश्‍चित होने में कितना वक्‍त लगेगा।
उधर सब स्‍टेशन पर बैठे एसएसओ से हर उपभोक्‍ता यह जानना चाहता है कि लाइट कब तक आएगी। ऐसे में वह अपने बुद्धि विवेक से जो बता सकता है वो बता तो देता है, किंतु सच्‍चाई नहीं बता पाता इसलिए समय के साथ उपभोक्‍ताओं का आक्रोश बढ़ना स्‍वभाविक है।
भीषण गर्मी के इस दौर में सब स्‍टेशन से ये तक जानकारी न मिल पाना कि बिजली क्‍यों गई है और कब तब आ पाएगी, आग में घी डालने की कहावत को कब सही साबित कर दे कहना मुश्‍किल है। लेकिन आला अधिकारियों का शायद इससे कोई वास्‍ता नहीं है। उन्‍हें वास्‍ता है तो अपनी ऐशो-आराम की नौकरी से, जिसे कैसे बजाना है वो भली प्रकार जानते हैं।
अगर कभी इन कारणों से झगड़ा होता भी है तो वो छोटे कर्मचारियों और उपभोक्‍ताओं को मोहरा बनाकर साफ बच निकलने की कला में माहिर हैं इसलिए उनका कभी कुछ बिगड़ने से रहा।
इसका एक उदाहरण गत 24 जून को तब मिला जब घंटों परेशान होने के बाद एक उपभोक्‍ता ने अधीक्षण अभियंता शहरी के सरकारी मोबाइल नंबर पर कॉल करके बिजली की स्‍थिति के बारे में जानकारी चाही। जाहिर है कि फोन उठा नहीं। फिर उपभोक्‍ता ने उन्‍हें वाट्सएप पर मैसेज भेजा, एसई महोदय ने मैसेज पढ़ भी लिया किंतु जवाब देना जरूरी नहीं समझा।


कड़वा सच यही है कि संबंधित जेई से लेकर एसई तक कोई किसी उपभोक्‍ता के फोन अथवा मैसेज का जवाब नहीं देता क्‍योंकि वो उनके लिए अहमियत रखते ही नहीं।
जिन दर्जनभर पॉश कॉलोनियों को वृंदावन से बिजली की आपूर्ति की जा रही है उन्‍हें विभाग ग्रामीण क्षेत्र मानता है या शहरी, इसका भी पता नहीं जबकि ये सर्वाधिक और समय से रेवेन्‍यू देने वाली कॉलोनियां हैं और यहां शत-प्रतिशत घरों में स्‍मार्ट मीटर लगाए जा चुके हैं इसलिए इन मीटरों की कमांड भी इलाके के एसडीओ संभालते हैं।
किसकी लाइट कब और कितना बिल बकाया होने पर गोल करनी है, ये वही तय करते हैं। इसके लिए अब विभाग के किसी कर्मचारी को उपभोक्‍ता के दरवाजे पर जाने या उसकी केबिल उतारने की जरूरत नहीं रह गई।
अधिकारियों द्वारा उपभोक्‍ताओं को कोई अहमियत न देने और सब स्‍टेशन पर बैठे कर्मचारियों को उनसे जूझने के लिए छोड़ देने का संभवत: एक बड़ा कारण ये भी हो सकता है, हालांकि ये एकमात्र कारण नहीं है।
स्‍थानीय जनप्रतिनिधि के तौर पर ऊर्जा मंत्री कितने जिम्‍मेदार
अगर बात करें स्‍थानीय जनप्रतिनिधि या ऊर्जा मंत्री के तौर पर श्रीकांत शर्मा द्वारा जिम्‍मेदारी निभाने की तो वो अपने किसी मतदाता अथवा आम उपभोक्‍ता के लिए कभी उपलब्‍ध नहीं होते। उनकी जगह ये जिम्‍मेदारी उनके बड़े भाई सूर्यकांत शर्मा पहले दिन से निभा रहे हैं।
अब उनकी बात अधिकारी कितनी सुनते हैं और कितनी मानते हैं, इसका अंदाज लगाने को बिजली की वह व्‍यवस्‍था ही काफी है जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। बताया जाता है सूर्यकांत शर्मा ने व्‍यवस्‍था सुधारने के अपने स्‍तर से भरसक प्रयत्‍न किए परंतु फिलहाल नतीजा कुछ नहीं निकला।
अलबत्ता बताते हैं कि ऊर्जा मंत्री अपने कुछ खास लोगों से बंद कमरों में समय-समय पर जरूर मिलते हैं लेकिन उनसे क्‍या गुफ्तगू होती है, वो भी बाहर नहीं आ पाती।
भाजपा में भी ऊर्जा मंत्री के कार्य और व्‍यवहार की चर्चा
शायद यही कारण है कि जैसे-जैसे चुनावों की चर्चा शुरू हो रही है वैसे-वैसे आम लोगों के साथ-साथ भाजपा से जुड़े लोगों में भी श्रीकांत शर्मा के कार्य तथा व्‍यवहार की चर्चा होने लगी है।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली सरकार सत्ता पर दोबारा काबिज होने का ही नहीं, 350 सीटें जीतने का भी लक्ष्‍य लेकर चल रही है।
चार दिन पहले 25 जून को बांके बिहारी मंदिर के दर्शनार्थ वृंदावन आए प्रदेश के कबीना मंत्री सतीश महाना ने कहा था कि जिन मुद्दों पर हम चुनाव में जनता के बीच दोबारा जाएंगे उनमें चौबीसों घंटे बिजली की आपूर्ति भी अहम मुद्दा है। सतीश महाना शायद नहीं जानते कि यहां तो दीया तले अंधेरा है।
ऊर्जा मंत्री का गृह जनपद ही नहीं, उनका चुनाव क्षेत्र भी जब आए दिन चार-चार से लेकर आठ-आठ घंटों तक बिजली के लिए तरसने को अभिशप्‍त है तो फिर प्रदेश में बेहतर बिजली व्‍यवस्‍था के नाम पर चुनाव में उतरना क्‍या गुल खिलाएगा, इसका अंदाज लगाना बहुत मुश्‍किल काम नहीं होगा।
प्रदेश की बात छोड़ भी दें तो प्रश्‍न यह है कि अपना पहला विधानसभा चुनाव बड़े अंतर से जीतने वाले श्रीकांत शर्मा इन हालातों में क्‍या इस बार जीत दर्ज करा सकेंगे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि स्‍थानीय बिजली अधिकारियों के खोखले दावों पर भरोसा करके वो खुद अपने पैरों पर कुल्‍हाड़ी चला रहे हैं या फिर अधिकारियों ने ही उन्‍हें गुमराह करके चुनाव हराने की ‘सुपारी’ ले रखी है?
अभी भी वक्‍त है कि श्रीकांत शर्मा और उनके शुभचिंतक यह तय कर लें कि उन्‍हें बिजली की अव्‍यवस्‍था से त्रस्‍त जनता के कथन पर भरोसा करना है अथवा उन अधिकारियों के झूठे दावों पर जो उन्‍हें चुनाव हराने का मुकम्‍मल बंदोबस्‍त कर चुके हैं क्‍योंकि अभी तो गर्मी भी शेष हैं और बारिश भी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बुधवार, 23 जून 2021

सेतु निगम का कारनामा: 50 साल की मियाद वाला ‘ओवरब्रिज’ 5 साल बाद ही जर्जर अवस्‍था को प्राप्‍त


 इसे उत्तर प्रदेश राज्य सेतु निगम का कारनामा कहें या इस विभाग में व्‍याप्‍त भारी भ्रष्‍टाचार का उदाहरण कि एक विश्‍व विख्‍यात धार्मिक स्‍थल को जोड़ने वाला ओवरब्रिज मात्र 5 वर्षों बाद ही आज जर्जर अवस्‍था को प्राप्‍त हो चुका है, जबकि इसकी मियाद 50 साल घोषित की गई थी।

गौरतलब है दिल्‍ली-मथुरा के बीच मथुरा स्‍थित कृष्‍ण जन्‍मस्‍थान की ओर जाने वाले मार्ग पर रेलवे क्रॉसिंग के ऊपर वर्ष 2015 में जब ओवरब्रिज बनकर तैयार हुआ तो लग रहा था कि अब न केवल लोगों की जान का जोखिम खत्‍म हो जाएगा बल्‍कि आवागमन भी सुगम होगा किंतु सेतु निगम के कारनामे की वजह से यह ओवरब्रिज पहले दिन से लेकर अब तक किसी बड़े हादसे को न्‍योता दे रहा है।
दरअसल, गोविंदनगर रेलवे मार्ग पर बनाए गए इस ओवरब्रिज में उद्घाटन से पहले ही दरारें दिखाई देने लगी थीं।
चूंकि मार्च 2015 में प्रदेश के तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव को इस ओवरब्रिज का उद्घाटन करना था लिहाजा ओवरब्रिज में दरारें देख सेतु निगम के अधिकारी परेशान हो गए और उन्‍होंने आनन-फानन में दरारें भरना शुरू कर दिया ताकि खामियों को ढककर उद्घाटन कराया जा सके।
बहरहाल, सेतु निगम के अधिकारियों का भाग्‍य अच्‍छा रहा कि अखिलेश यादव मथुरा तो आये किंतु वह दूसरे कार्यक्रमों में व्‍यस्‍तता के चलते इस ओवरब्रिज का लोकार्पण नहीं कर सके लिहाजा इसे अनौपचारिक तौर पर आवागमन के लिए खोल दिया गया।
नेशनल हाईवे नंबर- 2 को कृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली से जोड़ने वाले इस मार्ग पर प्रतिदिन हजारों की संख्‍या में देशी-विदेशी लोग यात्री बसों से अथवा निजी वाहनों से आते हैं अत: इस ओवरब्रिज के खुलते ही इस पर वाहनों का आवागमन शुरू हो गया।
ओवरब्रिज पर बेफिक्र होकर दौड़ रहे वाहन चालकों को इस बात का इल्‍म तक नहीं हुआ कि भ्रष्‍टाचार के गारे से बने करीब 50 वर्ष की लाइफ वाले इस ओवरब्रिज ने तो लोकार्पण से पहले ही सेतु निगम की असलियत बता कर रख दी थी।
करोड़ों की लागत से बने करीब 900 मीटर लंबे इस ओवरब्रिज की खामियां तथा अपना भ्रष्‍टाचार छिपाने के लिए सेतु निगम के स्‍थानीय अधिकारियों ने जैसे-तैसे मरम्‍मत कराकर तब तो राहत की सांस ले ली परंतु अब वही भ्रष्‍टाचार एकबार फिर सामने आ खड़ा हुआ है।
तीन-चार दिन पहले ओवरब्रिज का एक बड़ा सा टुकड़ा भरभरा कर गिर पड़ा, जिसके बाद सेतु निगम ने तत्‍काल काम कराने की बजाय ब्रिज के ऊपर और नीचे दोनों ओर ‘सावधान…कार्य प्रगति पर है’ का बोर्ड लगाकर ब्रिज में आरपार बने ‘होल’ को चारों ओर से कवर कर दिया है।
इस दौरान यदि कोई अच्‍छी बात है तो वह यह कि कोरोना के कारण यूपी में लगा लॉकडाउन 21 जून से ही समाप्‍त हुआ है इसलिए कृष्‍ण जन्‍मस्‍थान पर आने वाले देशी-विदेशी श्रद्धालुओं की संख्‍या अभी हजारों में न होकर सैकड़ों में है, बावजूद इसके कोई हादसा होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
आश्‍चर्य की बात यह भी है कि तीन-चार दिन पहले ही ओवरब्रिज का एक हिस्‍सा गिर जाने पर सेतु निगम के अधिकारियों ने अब तक उसकी मरम्‍मत कराना जरूरी नहीं समझा। उन्‍हें शायद बोर्ड लगाकर काम चलाना उचित लगा क्‍योंकि वो जानते हैं कि उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। सरकार चाहे अखिलेश की हो, या योगी आदित्‍यनाथ की। ब्‍यूरोक्रेसी वही थी, और वही रहेगी।
ऐसा न होता तो जिस ओवरब्रिज की ‘मियाद’ वर्ष 2065 में खत्‍म होनी थी, वो न तो यूं लोकार्पण से पहले ही चटकता और न 2021 तक जर्जर अवस्‍था को प्राप्‍त होता।
मथुरा में यमुना पर बने पुल का भी यही हाल
यहां यह बताना भी जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आ जाने के बाद सेतु निगम ने ही मथुरा में यमुना नदी पर दूसरे नए पुल का निर्माण किया है क्‍योंकि उससे पहले बना पुल अपनी मियाद पूरी कर चुका था।
मार्च 2018 में आम जनता के लिए खोले गए इस पुल की भी दुर्दशा यह बताने के लिए काफी है कि सेतु निगम ने यहां अपना ‘खेल’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि इसके एप्रोच रोड का निर्माण लोक निर्माण विभाग के उस निर्माण खंड ने कराया था जो भ्रष्‍टाचार के मामले में सेतु निगम से भी चार कदम आगे है।
वर्तमान में सेतु निगम उत्तर प्रदेश लोक निर्माण विभाग की एक इकाई है। इन दोनों विभागों के मंत्री उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य हैं।
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्‍व वाली बीजेपी सरकार बनने के बाद 1 अप्रैल 2017 से फरवरी 2021 तक राज्य सेतु निगम नदियों पर सैकड़ों पुल, रेलवे ओवरब्रिज तथा फ्लाईओवर बना चुका है।
ऐसे में यह सवाल उठना स्‍वाभाविक है कि मथुरा जैसे विश्‍वविख्‍यात धार्मिक स्‍थल पर कृष्‍ण जन्‍मभूमि को जोड़ने वाले ओवरब्रिज का जब यह हाल है तो बाकी सैकड़ों का क्‍या होगा?
सवाल तो बहुत हैं लेकिन दुख का विषय यह है कि जवाब देने वाला कोई नहीं। तब भी नहीं जब योगीराज में भ्रष्‍टाचार को लेकर ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाने का दावा सत्ता ग्रहण करने के पहले दिन से लगातार किया जा रहा है।
अब जबकि प्रदेश में चुनाव सिर पर हैं तो हो सकता है कि विभागीय मंत्री और उप मुख्‍यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य सेतु निगम व लोकनिर्माण विभाग के भ्रष्‍टाचार पर संज्ञान लेकर कोई ठोस कार्यवाही करते नजर आएं।
इस पर लोग कहते हैं कि उम्‍मीद ही की जा सकती है, भरोसा जताना मुश्‍किल है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 17 जून 2021

एक नजर देखिए: केंद्र और राज्‍य के “अभियान” की किस तरह हवा निकाल रहा है “विकास प्राधिकरण”


लकड़ी से थनों को छूकर अपने क्षेत्र की दुधारू गाएं दुहने में माहिर उत्तर प्रदेश के विकास प्राधिकरण शासन के आदेश-निर्देशों और अभियानों की हवा निकालने में भी कितने दक्ष हैं, इसका एक ताजा उदाहरण तब देखने को मिला जब मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की ओर से आज एक पेंपलेट अखबारों में रखकर लोगों के घर पहुंचाया गया।

बिना किसी प्रोजेक्‍ट के निठल्‍ला चिंतन करने में व्‍यस्‍त इस धार्मिक जनपद के विकास प्राधिकरण की यूं तो अनगिनित कारगुजारियां चर्चा में हैं लेकिन फिलहाल बात केवल ‘वर्षा जल संचयन’ की।


देखिए ये पेंपलेट: 







दर

असल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विश्व जल दिवस के अवसर पर 22 मार्च 2021 को नई दिल्ली में वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से ‘जल शक्ति अभियान: वर्षा जल संचयन (Catch the Rain)’ अभियान की शुरूआत की थी। इस अभियान का उद्देश्‍य भारत के विकास में सामने आ रही जल संकट की चुनौती से निपटना है।
प्रधानमंत्री ने मानसून तक जल संरक्षण के प्रयासों को आगे बढ़ाने का आह्वान किया और सरपंचों से लेकर जिलाधिकारियों तथा उपायुक्तों से जोर देते हुए कहा कि जल शपथ’ जो पूरे देश में आयोजित की जा रही है, हर किसी की प्रतिज्ञा के साथ-साथ अब स्‍वभाव बननी चाहिए। उन्होंने कहा कि जब पानी को लेकर हमारा स्वभाव बदलेगा, तो प्रकृति भी हमारा साथ देगी।
30 नवंबर 2021 तक प्री-मानसून और मानसून अवधि के दौरान देशभर में चलने वाले इस जल संरक्षण अभियान को जमीनी स्तर पर लाने के लिए प्रधानमंत्री ने इसे बाकायदा एक आंदोलन के रूप में लॉन्‍च करने की बात कही है।
प्रधानमंत्री के आह्वान पर उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यानाथ ने भी वर्षा जल संचयन के लिए विशेष अभियान चलाने का फैसला किया।
इसके लिए उन्‍होंने 10 एकड़ से अधिक क्षेत्रफल वाली टाउनशिप के एक फीसदी क्षेत्र में जलाशय का निर्माण कराना अनिवार्य कर दिया।
इस संदर्भ में प्रमुख सचिव आवास दीपक कुमार ने एक शासनादेश जारी करते हुए कहा कि 10 एकड़ से अधिक क्षेत्रफल की योजनाओं के ले-आउट प्लान्स में पार्क और खुले क्षेत्र के लिए प्रस्तावित भूमि के अंतर्गत जलाशय या जलाशयों का निर्माण अनिवार्य रूप से किया जाएगा।
जलाशय निर्माण से पूर्व संबंधित योजना के अंतर्गत वर्षा जल के प्राकृतिक कैचमेंट एरिया को चिह्नित करते हुए पानी के ठहराव की व्यवस्था की जाएगी।
पार्क व खुले क्षेत्र के अंतर्गत निर्धारित मानकों के अनुसार एक कोने में रिचार्ज पिट, रिचार्ज शैफ्ट बनाए जाएंगे। ऐसे में रिचार्ज पिट, रिचार्ज शैफ्ट और जलाशय का निर्माण मानक के अनुसार किया जाएगा।
पार्कों में पक्का निर्माण पांच प्रतिशत से अधिक नहीं किया जाएगा। फुटपाथ व ट्रैक्स यथासंभव परमीएबिल या सेमी परिमीएबिल ब्लॉक्स के प्रयोग से ही बनाए जाएंगे। वर्षा जल के अधिकतम भूमिगत रिसाव को पार्क एवं खुले क्षेत्रों में प्रोत्साहित किया जाएगा। सड़कों, पार्कों और खुले स्थान में ऐसे पेड़-पौधों का वृक्षारोपण किया जाएगा, जिनको जल की न्यूनतम जरूरत होगी। शासकीय भवनों, निजी सोसायटियों, सहकारी आवास समितियों द्वारा प्रस्तावित नई योजनाओं के ले-आउट प्लान में दुर्बल व अल्प आय वर्ग को छोड़कर अवस्थापना सुविधाओं जैसे जलापूर्ति, ड्रेनेज व सीवरेज के नेटवर्क के साथ-साथ रूफ टॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग के माध्यम से भू-जल सामूहिक रिचार्जिंग के लिए अन्य नेटवर्क का प्रावधान किया जाएगा।
इसके अलावा 300 वर्ग मीटर या उससे अधिक क्षेत्रफल के भूखंडों में यदि सामूहिक रिचार्ज नेटवर्क नहीं है तो भवन स्वामी को स्वयं ही वर्षा जल संचयन के लिए व्यवस्था करनी होगी।
विकास प्राधिकरण वर्षा जल संचयन के संबंध में की गई कार्यवाही की रिपोर्ट हर माह की 15 तारीख को आवास बंधु के निदेशक को उपलब्ध कराएंगे।
अब देखिए मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण की उपलब्‍धि
एक ऐसे गंभीर संकट पर जिसे लेकर केंद्र ही नहीं राज्‍य सरकार भी चिंता जता रही है और तमाम आदेश-निर्देश जारी कर चुकी है, उसके लिए मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के जिम्मेदार अधिकारियों ने आज अखबारों में पेंपलेट डलवाने से पहले शायद ही कुछ किया हो।
इसके उलट हो ये रहा है कि प्राधिकरण से अप्रूव्‍ड पचासों एकड़ में फैली उन पॉश कॉलोनियों के अंदर भी मकान मालिक बिना किसी अनुमति के बेखौफ होकर अनावश्‍यक रूप से सबमर्सिबल लगवा रहे हैं, जबकि इन कॉलोनियों में नियमित सुबह-शाम कई-कई घंटे पेयजल की सप्‍लाई की जाती है।
ये सब हो इसलिए रहा है कि नक्‍शा पास करने की औपचारिकता पूरी करने के बाद विकास प्राधिकरण का कोई जिम्‍मेदार अधिकारी कभी पलटकर इन कॉलोनियों की ओर झांकने भी नहीं जाता।
बात बिजली-पानी या सड़क की हो अथवा पार्कों के रख-रखाव एवं अवैध निर्माण की, विकास प्राधिकरण के अधिकारियों को किसी बात से कोई मतलब नहीं जबकि ये सब देखना उनकी जिम्‍मेदारी है।
जाहिर है कि इस मानसिकता के चलते वो न तो किसी कॉलोनी में रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटी यानी RWA के सहयोग से जल संचयन का कोई कार्य करवा सकेंगे और ना ही 300 वर्गमीटर से अधिक क्षेत्रफल वाले भूखंडों में रूफटॉप रेनवाटर हार्वेस्‍टिंग का प्रावधान सुनिश्‍चित करवा पाएंगे।
विकास प्राधिकरण के अधिकारियों की ऐसी मानसिकता किसी एक जिले तक सीमित नहीं है। सच तो यह है कि समूचे प्रदेश में अधिकांश अधिकारियों का यही हाल है इसलिए ज्‍यादातर विकास प्राधिकरण एक ढर्रे पर चलते दिखाई देते हैं।
हो सकता है कि ‘जल शक्ति अभियान: वर्षा जल संचयन (कैच द रेन)’ जैसा अभियान भी इन अधिकारियों के लिए ‘आपदा में अवसर’ साबित हो और समस्‍त सरकारी आदेश-निर्देश इसी तरह पेंपलेट बांटकर निपटा लिए जाएं क्‍योंकि उत्तर प्रदेश नगर योजना एवं विकास अधिनियम-1973 इन्‍हें किसी के भी खिलाफ ‘सुसंगत’ धाराओं में कार्यवाही करने का अधिकार जो देता है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंगलवार, 1 जून 2021

मथुरा रिफाइनरी के तेल का खेल: कभी किसी वजीर के गिरेबां तक हाथ डालने की हिमाकत नहीं कर पायी पुलिस


 मथुरा रिफाइनरी से हो रहे तेल के खेल में जिन हमराहों पर हाथ डालकर मथुरा पुलिस उन्‍हें वजीर साबित करने की कोशिश कर रही है, वह दरअसल इस खेल का वजीर तो क्‍या, प्‍यादे तक नहीं हैं।

वजीर तो वाकई वजीर हैं, और उनके गिरेबां तक हाथ डालने की हिमाकत आगरा तथा मथुरा पुलिस का कोई अफसर नहीं कर पाया। ये वजीर हर सत्ता में अपना रसूख कायम रखते हैं, फिर चाहे वो सत्ता सपा की हो अथवा बसपा की, और किसी गठबंधन की हो या भाजपा की ही क्‍यों न हो।
इन दिनों मथुरा पुलिस थोड़ी-बहुत उछल-कूद करके अपनी जो सक्रियता दिखा रही है, उसका एकमात्र कारण है तेल के खेल में अपनी संलिप्‍तता से बचने का प्रयास करना वर्ना क्‍या ऐसा संभव है कि बार-बार पाइप लाइन में सूराख करके करोड़ों का माल पार कर लिया जाए और पुलिस लकीर पीटती रहे।
ऐसा नहीं है कि मथुरा को अब तक कोई ईमानदार पुलिस अफसर मिला ही न हो, पहले कई जांबाज पुलिस अफसरों ने मथुरा रिफाइनरी से होने वाले तेल के खेल में दखल देने की कोशिश की है लेकिन आज तक न तो कोई पुलिस अफसर किसी वजीर तक पहुंच पाया और न किसी वजीर के प्‍यादे को अपना मोहरा बना पाया। हां, थोड़े-बहुत हाथ-पैर मारने के बाद वह खुद उन वजीरों का मोहरा जरूर बन गया और अंतत: उनके तथा उनके हलूकरों के इशारों पर नाचते देखा गया।
इसी क्रम में नाम कमाने की चाह रखने वाले कुछ पुलिस अफसर दाम भले ही कमा गए परंतु बदनाम होने से नहीं बच सके। जो ये नहीं कर पाए उन्‍हें तत्‍काल प्रभाव से स्‍थानांतरित कर दिया गया।
आज उनमें से कोई डीआईजी बना बैठा है तो कोई आईजी और एडीजी। एक-दो पुलिस अफसर तो डीजी बनकर सेवामुक्‍त भी हो लिए और आज टीवी चैनल्‍स पर होने वाली डिबेट्स में खाकी पहनने वालों को नैतिकता व ईमानदारी का पाठ पढ़ाते देखे व सुने जा सकते हैं।
कड़वा सच यह है कि मथुरा में रिफाइनरी स्‍थापित होने के बाद से शुरू हुआ तेल का खेल कभी बंद हुआ ही नहीं। एक-दो मौकों पर इसमें शिथिलता अवश्‍य दिखाई दी किंतु वह भी चंद दिनों के लिए।
यही कारण है कि मथुरा तथा आगरा में इस खेल के चलते एक-दो नहीं दर्जनों मनोज गोयल पैदा हुए और दर्जनों मनोज अग्रवाल व सुजीत प्रधान। तेल के खेल की जन्‍मकुंडली खंगाली जाए तो पता लग जाएगा कि आज उनमें से कोई नामचीन बिल्‍डर बन चुका है तो कोई मशहूर व्‍यवसाई। किसी के नाम से उद्योगपति का टैग चस्‍पा किया जा चुका है तो कोई जनप्रतिनिधि बनकर जनता की सेवा करने का दम भर रहा है।
इतना सब होने के बावजूद हजारों करोड़ रुपए सलाना कमाई वाले तेल के इस खेल का वजीर हमेशा सत्ता के सोपान से चिपके रहने वाला ही कोई बन पाया, और वहां तक पहुंचने के माद्दा मथुरा-आगरा के इन चिरकुटों में था नहीं। ये लोग सत्‍ता के गलियारों में भटकते रह गए और उन्‍हीं झरोखों से झांककर खुदमुख्‍त्‍यारी का दम भरते रहे।
मथुरा रिफाइनरी से होने वाले तेल के खेल में संलिप्‍त हमराह, हलूकर, मोहरे तथा प्‍यादे तक नहीं जानते कि उनकी गर्दन में बंधी डोर का छोर आखिर है किसके हाथ में। वो तो सिर्फ इतना जानते हैं कि उस डोर के इशारे पर ही उन्‍हें नाचना है और उसी के इशारे पर अपने अधीनस्‍थों को नचाना है।
पाइप लाइन में सेंध लगाकर पेट्रोलियम पदार्थों की चोरी करने और पाइप लाइन तक पहुंचने के लिए सुरंग बनाने का मथुरा में यह कोई पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी कई मर्तबा ऐसे कारनामे लोग करते रहे हैं लेकिन कभी ऐसी प्रभावी कार्यवाही किसी स्‍तर से नहीं हुई जिसके बाद यह मान लिया जाए कि आगे वैसा हो पाना संभव नहीं होगा। हर बार सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने का तमाशा किया गया जिसके परिणाम स्‍वरूप कोई उल्‍लेखनीय उपलब्‍धि हासिल नहीं हुई।
तेल शोधक कारखाना कहीं का भी हो, उसकी सुरक्षा एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण जिम्‍मेदारी होती है। इस जिम्‍मेदारी को यूं तो केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) निभाती है किंतु कई दूसरे विभागों सहित सिविल पुलिस की भी इसमें अहम भूमिका होती है।
ऐसे में रिफाइनरी के अंदर और बाहर होने वाली किसी भी गैरकानूनी गतिविधि का इतने लंबे समय तक पता न लग सके कि कोई सुरंग बनाकर पाइप लाइन से तेल निकालने में सफल हो जाए, यह हो नहीं सकता। ये तभी संभव है कि अंदर से लेकर बाहर तक और ऊपर से लेकर नीचे तक के लोगों की इसमें संलिप्‍तता हो और वो लोग किसी भी हद तक गिरने के लिए तत्‍पर हों।
रिफाइनरी से ही जुड़े सूत्रों की मानें तो तेल के इस खेल में सबसे बड़ी भूमिका मार्केटिंग डिवीजन से ताल्‍लुक रखने वाले उन कर्मचारियों की रहती है जो सप्‍लाई का काम देखते हैं और जिन्‍हें रिफाइनरी की ओर आने व जाने वाली एक-एक पाइप लाइन की जानकारी है।
बताया जाता है कि इन रिफाइनरी कर्मियों के पास पाइप लाइन के पूरे जाल का नक्‍शा रहता है और वही बता सकते हैं कि कहां-कहां वॉल्‍व लगे हैं तथा कहां-कहां सुरक्षा में सेंध लगाना संभव है।
सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार यही वो लोग हैं जिनका प्रत्‍यक्ष में तो तेल के खेल से कोई सरोकार नहीं रहता लेकिन इनकी कमाई लाखों नहीं करोड़ों में होती है।
बताया जाता है कि ड्यूटी पर मौजूद रिफाइनरी कर्मियों के अलावा ऐसे रिफाइनरी कर्मियों की कोई कमी नहीं है जो अवकाश प्राप्‍त करने के बावजूद सिर्फ पाइप लाइन के नक्‍शों की बिना पर घर बैठे लाखों रुपए हासिल कर रहे हैं अन्‍यथा कितने आश्‍चर्य की बात है कि जिस पाइप लाइन की सुरक्षा पर बेहिसाब पैसा खर्च होता हो और जिसके अंदर चलने वाले प्रेशर तक से उसके लीकेज का पता लगाया जा सकता हो, उसमें छेद करके करोड़ों रुपए मूल्‍य का पेट्रोलियम पदार्थ चुरा लिया जाए फिर भी रिफाइनरी प्रशासन को तब भनक लगे जब कोई जनसामान्‍य अपनी जान हथेली पर रखकर अफसरों को बताने पहुंचे कि पाइप लाइन में सेंध लग चुकी है।
रिफाइनरी प्रशासन के दावों पर भरोसा करें तो समूची पाइप लाइन की एक ओर जहां नियमित चैकिंग होती है वहीं दूसरी ओर उसके ऊपर ऐसी प्‍लास्‍टिक कोटिंग भी की जाती है जिसे काटकर वॉल्‍व तक पहुंचना या पाइप लाइन में छेद कर पाना आसान नहीं होता। ऐसा करने की कोशिश के दौरान ही रिफाइनरी के अंदर बैठे अधिकारी व कर्मचारियों को आधुनिक उपकरणों के सहारे पता लग जाता है लेकिन यहां तो जैसे पूरे कुएं में ही भांग घुली हुई है लिहाजा आज तक मौके पर कभी कोई पकड़ा नहीं जा सका।
बहुत समय नहीं बीता जब रिफाइनरी के अंदर से सैकड़ों करोड़ रुपए मूल्‍य वाले पेट्रोलियम पदार्थों से भरे कंटेनर चोरी हो गए थे। तब भी इसी प्रकार शोर-शराबा हुआ और दावा किया गया कि इतनी बड़ी घटना को अंजाम देने वाला कोई अपराधी बच नहीं पाएगा, चाहे वह रिफाइनरी के अंदर बैठा हो अथवा बाहर। समय के साथ यह मामला पहले ढीला पड़ा और अब ठंडे बस्‍ते के हवाले किया जा चुका है।
जिस समय कृष्‍ण की इस पावन जन्‍मभूमि पर रिफाइनरी की शक्‍ल में एक आधुनिक मंदिर की नींव रखी जा रही थी तब कहा गया था कि मथुरा तथा मथुरा वासियों के लिए यह मंदिर बड़ा वरदान साबित होगा किंतु आज स्‍थिति इसके ठीक उलट है।
मथुरा रिफाइनरी आज की तारीख में तेल का अवैध कारोबार करने वालों, भ्रष्‍ट अफसरों, सफेदपोश नेताओं तथा पुलिस-प्रशासन के लिए भले ही वरदान बनी हुई हो किंतु मथुरा-आगरा के लिए किसी अभिशाप से कम नहीं है।
रिफाइनरी के कारण वायु और जल प्रदूषण तो बढ़ा ही है, साथ ही खतरा भी बहुत बढ़ गया है। आतंकवादियों के लिए यह एक बड़ा टारगेट है और दुश्‍मन देशों की भी इस पर हमेशा पैनी नजर रहती है।
कहने को मथुरा रिफाइनरी अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्‍सा शहर के विकास और उसके बेहतर रख-रखाव के लिए निकालती है लेकिन यह हिस्‍सा कहां जाता है, इसका कभी पता नहीं लगा।
रिफाइनरी स्‍थापित हुए साढ़े तीन दशक होने को आए लेकिन कृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली आज तक अपनी गरिमा के अनुरूप विकास को तरस रही है। सड़क, बिजली, पानी, जलभराव जैसे सामान्‍य समस्‍याओं तक के समाधान में मथुरा रिफाइनरी ने कोई उल्‍लेखनीय भूमिका कभी अदा की हो, ऐसा याद नहीं आता। हां, इसके कारण जनसामान्‍य की जिंदगी हर वक्‍त खतरे में जरूर पड़ी रहती है क्‍योंकि पता नहीं कब कौन तेल को चोरी करके पैसे बनाने की जगह उसका दूसरा गलत इस्‍तेमाल करने की ठान ले।
मथुरा का हर जागरूक नागरिक जानता है कि रिफाइनरी की सीमा में पड़ने वाले ”बाद रेलवे स्‍टेशन” से लेकर तेल के भण्‍डारण तक में सेंध लगाकर चोरी करने का सिलसिला कभी थमा नहीं है। रेलवे स्‍टेशन पर जहां वैगनों से बाकयदा पाइप डालकर तेल खींच लिया जाता है वहीं गोदामों से कंटेनर के कंटेनर गायब कर दिए जाते हैं किंतु सब तमाशबीन बने रहते हैं। यही हाल रिफाइनरी के लिए बिछी पाइप लाइनों को क्षतिग्रस्‍त करने के मामले में है। कितनी बार पाइप लाइनों में सूराख करके करोड़ों रुपए की चपत लगाई गई है लेकिन सरकारी माल पर हाथ साफ करना अपना जन्‍मसिद्ध अधिकार मानने वाले अधिकारी और कर्मचारी, अपराधियों को संरक्षण देने से नहीं चूकते। उनके लिए वह दुधारु गाय बने हुए हैं।
मथुरा की ओर आने वाली कोई सड़क हो अथवा यहां से दूसरे जनपदों एवं राज्‍यों को जोड़ने वाली कोई सड़क क्‍यों न हो, हरेक पर अवैध तेल के गोदामों का जाल बिछा मिल जाएगा लेकिन क्‍या मजाल कि कोई इनकी ओर आंख उठाकर देख ले।
देखेगा भी कैसे, आखिर तेल की धार से निकलने वाले पैसों की चमक किसी की भी आंखें चुंधियाने को काफी हैं। तभी तो कहावत है कि तेल देख और तेल की धार देख।
कहते हैं कि मथुरा तीन लोक से न्‍यारी है। कुछ समय के अंदर गधों को घोड़ों की तरह सरपट दौड़ते और फर्श से अर्श तक का सफर काफी कम समय में पूरा करते देखकर तो लगता है कि वाकई मथुरा तीन लोक से न्‍यारी है।
यहां हमराह पकड़े जाते हैं, हलूकर भी पकड़े जा सकते हैं लेकिन वजीरों का बाल भी बांका नहीं होता। सत्ता की खातिर उनकी निष्‍ठाएं बेशक लचीली हो जाती हों लेकिन उनके गोरखधंधों में लचीलापन कभी नहीं आता।
इसलिए तेल का खेल जारी था, जारी है और बदस्‍तूर जारी रहेगा। फॉलोअर पहले भी पकड़े जाते रहे हैं और हमेशा पकड़े जाते रहेंगे जिससे पुलिस इसी तरह अपनी पीठ खुद थपथपाती रहे किंतु वजीरों की वजारत कायम रहेगी। चुनाव का सीजन बीतने दें और फिर तेल भी देखना और तेल व तेलियाओं की धार भी।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

कहीं ऐसा न हो कि जैसे-तैसे बनाए जा रहे कोविड अस्‍पतालों को फिर पागलखानों में तब्‍दील करना पड़ जाए


 चीन के वुहान में उपजा कोरोना नामक वायरस जब से ग्‍लोबल हुआ है, तब से तमाम दूसरे वायरस भी दुनियाभर में सक्रिय हो चुके हैं। कोरोना की हर लहर के साथ इनकी संख्‍या बढ़ती जा रही है लिहाजा समझ में नहीं आ रहा इनसे बचाव कैसे किया जाए?

दो गज की दूरी और मास्‍क जरूरी, सोशल डिस्टेंसिंग, सैनिटाइजेशन, आइसोलेशन, वर्क फ्रॉम होम आदि को अपनाकर शायद कोविड-19 से तो बचा जा सकता है किंतु वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों के रूप में सोशल मीडिया, वेब मीडिया, इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के जरिए फैल चुके वायरसों से बचने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा।
दुनिया अभी जहां बमुश्‍किल कोरोना की वैक्‍सीन ही ईजाद कर सकी है वहीं ये वैज्ञानिक और विशेषज्ञ दिन-रात नए-नए नतीजे निकाल कर और कोरोना के भूत, वर्तमान तथा भविष्‍य का बखान करके लोगों को भयभीत करने का काम कर रहे हैं।
लोगों के दिलो-दिमाग में भय का भूत व्‍याप्‍त करने वाले ये तत्‍व इस कदर वायरल हो चुके हैं कि आदमी “मीडिया” से दूर भागने लगा है। हालांकि ये फिर भी पीछा नहीं छोड़ रहे।
आश्‍चर्य की बात यह है कि ऐसे तत्‍वों में विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO सहित कई विकसित देशों के वो विशेषज्ञ और वैज्ञानिक भी शामिल हैं जिन्‍होंने अब तक अपनी ऐसी ही कथित योग्यता के बल पर न केवल मान-सम्‍मान बल्‍कि धन-दौलत और तमाम पुरस्‍कार भी हासिल किए हैं।
ख्‍याति प्राप्‍त ये संस्‍थाएं और व्‍यक्‍ति आज न तो कोरोना के किसी एक इलाज पर एकमत हैं और न उसके लक्षण एवं दुष्‍प्रभावों पर। सब अपनी-अपनी ढपली बजा रहे हैं जिससे आम आदमी अधिक भ्रमित हो रहा है।
इनकी मानें तो अब पृथ्‍वी से सारे रोग दूर हो चुके हैं। जो कुछ है, वो कोरोना है। समूचे विश्‍व में जितने भी लोग मर रहे हैं, वो सिर्फ और सिर्फ कोरोना से मर रहे हैं। भविष्‍य में भी हर रोग कोरोना की देन होगा क्‍योंकि इनके अनुसार उसके आफ्टर इफेक्‍ट्स ही इतने हैं कि उनमें सब-कुछ समाहित हो जाएगा।
कुल मिलाकर मौत के लिए आत्‍मा का शरीर छोड़ देना भले ही जरूरी हो किंतु तब भी कोरोना पीछा छोड़ दे, यह जरूरी नहीं है।
ऐसे में हिंदू धर्मावलंबियों को तो एक सवाल और परेशान कर रहा है कि क्‍या शरीर के खाक हो जाने पर भी कोरोना उसमें शेष रहता होगा।
क्‍या कोरोना उस फ़ीनिक्स नामक पक्षी की तरह है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसकी राख से ही उसका पुनर्जन्‍म होता है।
यदि ऐसा है तो फिर उन धर्मों के मृत शरीरों का क्‍या जिनमें दफनाने, लटकाने अथवा दूसरे जीवों का भोजन बना देने के लिए उन्‍हें छोड़ देने का रिवाज है। वो तो बहुत खतरनाक साबित हो सकते हैं।
इस तरह कोरोना सर्वव्‍यापी हो जाएगा और उससे कभी पीछा छूटेगा ही नहीं। वो हवा में तो होगा ही, कब्र में लेटी लाश में भी होगा और जल, जंगल तथा पहाड़ों पर भी चारों ओर फैला होगा।
सिरदर्द, बदन दर्द, बुखार, खांसी, जुकाम, त्‍वचा विकार, उल्‍टियां, दस्‍त, एसिडिटी, सांस फूलना, आंखों में जलन, सुगंध एवं दुर्गन्‍ध का अहसास न होने, सीने में दर्द और यहां तक कि कम सुनाई देने तथा मुंह का स्‍वाद चले जाने जैसे अनगिनत लक्षणों के प्रचार-प्रसार से कोरोना हमारे दिमाग में तो पूरी तरह घुस ही गया है… अब इससे पहले कि वह हमें पागल कर दे, सरकार को कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे मानसिक रोगियों की तादाद परेशान न करने लगे।
कहीं ऐसा न हो कि जैसे-तैसे बनाए जा रहे कोविड अस्‍पतालों को फिर पागलखानों में तब्‍दील करना पड़ जाए क्‍योंकि किसी भी बीमारी का खौफ उसके वास्‍तविक खतरे से कहीं अधिक भारी होता है।
कहते हैं कि दुनिया में सांपों की जितनी भी प्रजातियां पाई जाती हैं, उनमें से बहुत कम ही ऐसी होती हैं जिनमें आदमी को मारने लायक जहर होता हो। इसीलिए सांप के काटने पर मरने वालों में ऐसे लोगों की संख्‍या ज्‍यादा होती है जिनका दहशत में हार्टफेल हो जाता है।
बेशक कोरोना इस दौर में उपजा एक खतरनाक वायरस है और इसे गंभीरता से लेना चाहिए किंतु इसका यह मतलब नहीं कि जागरूकता के नाम पर भय का ऐसा वातावरण बना दिया जाए कि वह लोगों के अंदर घर कर बैठे। बिना किसी ठोस आधार के और रिसर्च किए बगैर उसके इतने आफ्टर इफेक्‍ट्स प्रचारित कर दिए जाएं कि कोरोना से मुक्‍ति मिलने पर भी लोग उससे मुक्‍त न हो सकें तथा मानसिक विकृति के शिकार हो जाएं।
उचित तो ये होगा कि ऐसे ज्ञानियों, विज्ञानियों तथा विशेषज्ञों के निजी निष्‍कर्षों पर सरकारें सख्‍ती के साथ लगाम लगाने की व्‍यवस्‍था करें अन्‍यथा इसके दूरगामी परिणाम भुगतने होंगे, और वो किसी भी वायरस से अधिक घातक हो सकते हैं।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

जेल के अंदर गैंगवार पर आश्‍चर्य नहीं, आश्‍चर्य है मथुरा व बागपत के बाद चित्रकूट में भी 9 MM पिस्‍टल के यूज... पर?


 उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में कल जेल के अंदर हुई गैंगवार न तो कोई नई बात है और न बहुत आश्‍चर्य जताने वाली क्‍योंकि पूर्व में भी जेल के अंदर ऐसी गैंगवार होती रही हैं।

सोचने की बात यदि कोई है तो वो ये कि मथुरा जिला कारागार में हुई गैंगवार के बाद बागपत जेल में हुई गैंगवार और अब चित्रकूट जेल की गैंगवार में आश्‍चर्यजनक रूप से 9 एमएम पिस्‍टल का ही इस्‍तेमाल हुआ है।
बागपत जिला जेल में 09 जुलाई 2018 को कुख्‍यात माफिया डॉन मुन्‍ना बजरंगी को गोलियों से भून डाला गया।
इससे पहले 17 जनवरी 2015 की दोपहर मथुरा जिला जेल में हुई गोलीबारी के दौरान एक गैंग से अक्षय सोलंकी को मौत के घाट उतार दिया गया। दूसरे गैंग से राजकुमार शर्मा, दीपक वर्मा और राजेश ऊर्फ टोंटा घायल हुए।
दूसरे ही दिन 18 जनवरी को टोंटा को तब गोलियों से भून डाला गया जब उसे इलाज के लिए एंबुलेंस में भारी पुलिस फोर्स के साथ मथुरा की तत्‍कालीन एसएसपी मंजिल सैनी आगरा ले जा रही थीं।
मथुरा के फरह थाना क्षेत्र में नेशनल हाईवे नंबर 2 पर मथुरा-आगरा के बीच पचासों पुलिसकर्मियों के रहते एंबुलेंस के अंदर राजेश टोंटा को गोलियों से छलनी कर दिया गया और पुलिस न तो एक भी बदमाश को मौके से पकड़ सकी और न टोंटा के साथ एंबुलेंस में मौजूद कोई पुलिसकर्मी घायल हुआ।
मिली जानकारी के अनुसार मुन्‍ना बजरंगी की हत्‍या में सिर्फ एक असलाह का इस्‍तेमाल हुआ किंतु मथुरा जिला जेल में हुई गैंगवार के दौरान दोनों पक्षों ने आधुनिक हथियार चलाए। पुलिस की कहानी के अनुसार इस गैंगवार में इस्‍तेमाल किए गए 9 एमएम हथियार बंदी रक्षक कैलाश गुप्‍ता ने पहुंचाए थे। इस गैंगवार के बाद मथुरा जिला जेल से बरामद दोनों हथियार 9 एमएम (प्रतिबंधित बोर) के थे।
इत्‍तेफाक देखिए कि मुन्‍ना बजरंगी की हत्‍या में भी इसी बोर के हथियार को इस्‍तेमाल किए जाने की बात सामने आई।
अब चित्रकूट जिला जेल की गैंगवार में भी 9 एमएम पिस्‍टल इस्‍तेमाल किए जाने की बात कही गई है।
कुल मिलाकर यदि ये कहा जाए कि उत्तर प्रदेश की जेलें हर दौर में कुख्‍यात अपराधियों के लिए सजा का ठिकाना न होकर संरक्षण के केंद्र रही हैं तो कुछ गलत नहीं होगा। राज चाहे आज योगी का हो अथवा इससे पहले अखिलेश, मुलायम या मायावती का।
भाजपा के सहयोग से सरकार चला रही मायावती के शासनकाल के दौरान 1995  में मथुरा जिला कारागार के अंदर वाले गेट पर भाड़े के बदमाशों ने किशन पुटरो की हत्‍या कर दी थी। इस हत्‍याकांड में तब किशन पुटरो के अलावा जेल का एक सफाईकर्मी भी मारा गया।
कहने का आशय यह है कि उत्तर प्रदेश की जेलों में एक लंबे समय से कुख्‍यात अपराधी मनमानी करते रहे हैं। यह बात अलग है कि जिस तरह आज योगी आदित्‍यनाथ पहले से बेहतर कानून-व्‍यवस्‍था होने का दावा करते हैं, उसी तरह मायावती और अखिलेश भी अपने-अपने समय में कानून का राज होने का दावा करते थे किंतु सच्‍चाई यही है जो आज चित्रकूट जेल से सामने आई है या इससे पहले मुन्‍ना बजरंगी की हत्‍या के रूप में बागपत जेल से और अक्षय सोलंकी की हत्‍या के रूप में मथुरा जिला कारागार से सामने आई थी।
मथुरा और बागपत के बाद अब चित्रकूट की गैंगवार में भी 9 एमएम पिस्‍टल का इस्‍तेमाल किया जाना यह साबित करता है कि किसी न किसी स्‍तर पर जितनी आवश्‍यकता प्रदेश के जेल तंत्र को परखने की है, उससे ज्‍यादा यह जानने की है कि आखिर एक ही किस्‍म का हथियार जेलों के अंदर क्‍यों और कैसे पहुंच रहा है। कहीं इसके पीछे भी समूचे प्रदेश में जेल तंत्र तथा अपराधियों का विशेष गठजोड़ तो काम नहीं कर रहा।
मायावती और अखिलेश राज के बाद अब योगीराज में भी जेल के अंदर की ये गैंगवार साबित करती है कि यहां सरकारें भले ही बदलती हों लेकिन बाकी कुछ नहीं बदलता। निश्‍चित ही इसके लिए वो व्‍यवस्‍था दोषी है जिसके चलते पूरे तंत्र का बुरी तरह राजनीतिकरण हो चुका है। ऐसे में जाहिर है कि जब तक इस राजनीतिकरण को खत्‍म नहीं किया जाता तब तक न सड़क पर अपराध कम होंगे और न जेल के अंदर।
-Legend News
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