कहते हैं मोहन दास करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी के मन में एक डर बहुत अंदर तक समाया हुआ था। उन्हें डर था कि लोग उन्हें ईश्वर न बना दें, उनकी मूर्तियां स्थापित न कर दें।
गांधी ने एक-एक चिट्ठी के जवाब में लिखा भी था कि ”मैं कोई चमत्कार नहीं करता। मेरे अंदर उसी प्रकार ईश्वर का एक अंश है, जिस प्रकार जीवमात्र में होता है। मुझमें कोई ईश्वरत्व नहीं है। मुझे ईश्वर मत बनाइए”।
उन्होंने लिखा कि अगर कोई कौवा बरगद के पेड़ पर बैठ जाए और पेड़ गिर पड़े तो वो कौवे के वजन से नहीं गिरता। हां, कौवे को ये मुगालता हो सकता है कि उसके वजन से पेड़ गिरा है लेकिन मुझे ऐसा कोई मुगालता नहीं है। मुझे अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं है।
अब बात अपनी, अपने दौर की
मैं स्वतंत्र भारत के उस दौर की पैदाइश हूं जिसने गांधी को नहीं देखा, सिर्फ ऐसे ही किस्से-कहानियों में सुना है, कुछ किताबों में पढ़ा है और उन्हीं से जाना है। आंखों देखी और कानों सुनी में बहुत फर्क होता है, यह बात सर्वमान्य है।
इस तरह मैं कह सकता हूं कि मैं गांधी को नहीं जानता, लेकिन मैं यह भी कह सकता हूं कि गांधीवादी न मुझे जानते हैं और न गांधी को।
मुझे न जानने से आशय, उन करोड़ों आम लोगों से है जो गांधी के दौर में पैदा नहीं हुए और जिनके लिए गांधी सिर्फ उनसे जुड़े तमाम किस्से-कहानियों तक ही सीमित हैं।
गांधी को जानते होते तो उनकी मूर्तियां स्थापित करके उन्हें ईश्वर न बनाते। गांधी-जयंती पर इन मूर्तियों को फूल-मालाएं न चढ़ाते। आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं।
डर इसलिए रहे हैं क्योंकि मूर्तियां कम होने की बजाय बढ़ रही हैं, और डरा इसलिए रहे हैं कि इन मूर्तियों का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है।
लोग गांधी की कथनी को गांधीवादियों की करनी में देखना चाहते हैं, मात्र किस्से-कहानियों में सुनना या मूर्तियों के रूप में देखना नहीं चाहते लेकिन हो यही रहा है क्योंकि गांधीवाद आज पहले से कहीं अधिक बिकाऊ है।
गांधी से जुड़े किस्से-कहानियों पर लौटें तो उन्हें सत्य व अहिंसा का पुजारी, यहां तक कि इनका प्रतीक माना जाता रहा किंतु उनके सामने ही सत्य और अहिंसा दोनों का जनाज़ा उठ गया।
जिस स्वतंत्रता का सपना देखते-देखते अनगिनत लोगों ने अपने जीवन की आहुति दे डाली और कितने लोग सलाखों के पीछे रहे, उसी स्वतंत्रता का सपना तब पूरा हुआ जब निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए सत्य को खूंटी पर टांगकर देश का जबरन विभाजन करा दिया। अहिंसा को ताक पर रखकर हिंसा का ऐसा नंगा नाच किया गया, जिसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांधी की आंखों के सामने उनके सत्य और अहिंसा ने दम तोड़ दिया। गांधी खुद तो हिंसा का शिकार उसके बाद हुए किंतु गांधीवाद उनके सामने ही मर चुका था।
गांधी को यह डर तो था कि लोग उनकी मूर्तियां स्थापित करके उन्हें ईश्वर न बना दें किंतु उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि लोग गांधीवाद को हथियार बनाकर हर रोज उनकी हत्या करेंगे। सत्य के पुजारी की मूर्तियां भी झूठे गांधीवाद को न सिर्फ देखने के लिए अभिशप्त होंगी बल्कि उनके हाथों फूल-मालाएं भी ग्रहण करने पर मजबूर होंगी।
गांधी से जुड़े अनेक किस्से-कहानियों के बीच उन्हें जोड़कर कही जाने वाली यह कहावत भी संभवत: इसीलिए बहुत प्रचलित है कि ”मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” ।
यह कहावत कब, क्यूं और कैसे वजूद में आई इसके बारे में तो कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु वो सबकुछ उपलब्ध है जो गांधी को उनके डर से हर दिन रूबरू करा रहा है।
मुंह में राम, और बगल में छुरी रखकर ”वैष्णव जन तो तेने कहिए…का राग अलापते हुए पल-पल अहसास कराया जा रहा है कि गांधी केवल किस्से कहानियों में अच्छे लगते हैं, मूर्तियों में जंचते हैं लेकिन अमल में नहीं लाए जा सकते।
अमल में लाए जा सकते तो न देश का विभाजन होता और न गांधी की हत्या होती।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
गांधी ने एक-एक चिट्ठी के जवाब में लिखा भी था कि ”मैं कोई चमत्कार नहीं करता। मेरे अंदर उसी प्रकार ईश्वर का एक अंश है, जिस प्रकार जीवमात्र में होता है। मुझमें कोई ईश्वरत्व नहीं है। मुझे ईश्वर मत बनाइए”।
उन्होंने लिखा कि अगर कोई कौवा बरगद के पेड़ पर बैठ जाए और पेड़ गिर पड़े तो वो कौवे के वजन से नहीं गिरता। हां, कौवे को ये मुगालता हो सकता है कि उसके वजन से पेड़ गिरा है लेकिन मुझे ऐसा कोई मुगालता नहीं है। मुझे अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं है।
अब बात अपनी, अपने दौर की
मैं स्वतंत्र भारत के उस दौर की पैदाइश हूं जिसने गांधी को नहीं देखा, सिर्फ ऐसे ही किस्से-कहानियों में सुना है, कुछ किताबों में पढ़ा है और उन्हीं से जाना है। आंखों देखी और कानों सुनी में बहुत फर्क होता है, यह बात सर्वमान्य है।
इस तरह मैं कह सकता हूं कि मैं गांधी को नहीं जानता, लेकिन मैं यह भी कह सकता हूं कि गांधीवादी न मुझे जानते हैं और न गांधी को।
मुझे न जानने से आशय, उन करोड़ों आम लोगों से है जो गांधी के दौर में पैदा नहीं हुए और जिनके लिए गांधी सिर्फ उनसे जुड़े तमाम किस्से-कहानियों तक ही सीमित हैं।
गांधी को जानते होते तो उनकी मूर्तियां स्थापित करके उन्हें ईश्वर न बनाते। गांधी-जयंती पर इन मूर्तियों को फूल-मालाएं न चढ़ाते। आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं।
डर इसलिए रहे हैं क्योंकि मूर्तियां कम होने की बजाय बढ़ रही हैं, और डरा इसलिए रहे हैं कि इन मूर्तियों का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है।
लोग गांधी की कथनी को गांधीवादियों की करनी में देखना चाहते हैं, मात्र किस्से-कहानियों में सुनना या मूर्तियों के रूप में देखना नहीं चाहते लेकिन हो यही रहा है क्योंकि गांधीवाद आज पहले से कहीं अधिक बिकाऊ है।
गांधी से जुड़े किस्से-कहानियों पर लौटें तो उन्हें सत्य व अहिंसा का पुजारी, यहां तक कि इनका प्रतीक माना जाता रहा किंतु उनके सामने ही सत्य और अहिंसा दोनों का जनाज़ा उठ गया।
जिस स्वतंत्रता का सपना देखते-देखते अनगिनत लोगों ने अपने जीवन की आहुति दे डाली और कितने लोग सलाखों के पीछे रहे, उसी स्वतंत्रता का सपना तब पूरा हुआ जब निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए सत्य को खूंटी पर टांगकर देश का जबरन विभाजन करा दिया। अहिंसा को ताक पर रखकर हिंसा का ऐसा नंगा नाच किया गया, जिसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांधी की आंखों के सामने उनके सत्य और अहिंसा ने दम तोड़ दिया। गांधी खुद तो हिंसा का शिकार उसके बाद हुए किंतु गांधीवाद उनके सामने ही मर चुका था।
गांधी को यह डर तो था कि लोग उनकी मूर्तियां स्थापित करके उन्हें ईश्वर न बना दें किंतु उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि लोग गांधीवाद को हथियार बनाकर हर रोज उनकी हत्या करेंगे। सत्य के पुजारी की मूर्तियां भी झूठे गांधीवाद को न सिर्फ देखने के लिए अभिशप्त होंगी बल्कि उनके हाथों फूल-मालाएं भी ग्रहण करने पर मजबूर होंगी।
गांधी से जुड़े अनेक किस्से-कहानियों के बीच उन्हें जोड़कर कही जाने वाली यह कहावत भी संभवत: इसीलिए बहुत प्रचलित है कि ”मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” ।
यह कहावत कब, क्यूं और कैसे वजूद में आई इसके बारे में तो कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है परंतु वो सबकुछ उपलब्ध है जो गांधी को उनके डर से हर दिन रूबरू करा रहा है।
मुंह में राम, और बगल में छुरी रखकर ”वैष्णव जन तो तेने कहिए…का राग अलापते हुए पल-पल अहसास कराया जा रहा है कि गांधी केवल किस्से कहानियों में अच्छे लगते हैं, मूर्तियों में जंचते हैं लेकिन अमल में नहीं लाए जा सकते।
अमल में लाए जा सकते तो न देश का विभाजन होता और न गांधी की हत्या होती।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी