बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं



Gandhi's fear finally proved to be true, now Gandhi is also afraid and is scared


कहते हैं मोहन दास करमचंद गांधी यानी महात्‍मा गांधी के मन में एक डर बहुत अंदर तक समाया हुआ था। उन्‍हें डर था कि लोग उन्‍हें ईश्‍वर न बना दें, उनकी मूर्तियां स्‍थापित न कर दें।
गांधी ने एक-एक चिट्ठी के जवाब में लिखा भी था कि ”मैं कोई चमत्कार नहीं करता। मेरे अंदर उसी प्रकार ईश्वर का एक अंश है, जिस प्रकार जीवमात्र में होता है। मुझमें कोई ईश्वरत्व नहीं है। मुझे ईश्‍वर मत बनाइए”।
उन्होंने लिखा कि अगर कोई कौवा बरगद के पेड़ पर बैठ जाए और पेड़ गिर पड़े तो वो कौवे के वजन से नहीं गिरता। हां, कौवे को ये मुगालता हो सकता है कि उसके वजन से पेड़ गिरा है लेकिन मुझे ऐसा कोई मुगालता नहीं है। मुझे अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं है।
अब बात अपनी, अपने दौर की
मैं स्‍वतंत्र भारत के उस दौर की पैदाइश हूं जिसने गांधी को नहीं देखा, सिर्फ ऐसे ही किस्‍से-कहानियों में सुना है, कुछ किताबों में पढ़ा है और उन्‍हीं से जाना है। आंखों देखी और कानों सुनी में बहुत फर्क होता है, यह बात सर्वमान्‍य है।
इस तरह मैं कह सकता हूं कि मैं गांधी को नहीं जानता, लेकिन मैं यह भी कह सकता हूं कि गांधीवादी न मुझे जानते हैं और न गांधी को।
मुझे न जानने से आशय, उन करोड़ों आम लोगों से है जो गांधी के दौर में पैदा नहीं हुए और जिनके लिए गांधी सिर्फ उनसे जुड़े तमाम किस्‍से-कहानियों तक ही सीमित हैं।
गांधी को जानते होते तो उनकी मूर्तियां स्‍थापित करके उन्‍हें ईश्‍वर न बनाते। गांधी-जयंती पर इन मूर्तियों को फूल-मालाएं न चढ़ाते। आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं।
डर इसलिए रहे हैं क्‍योंकि मूर्तियां कम होने की बजाय बढ़ रही हैं, और डरा इसलिए रहे हैं कि इन मूर्तियों का इस्‍तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है।
लोग गांधी की कथनी को गांधीवादियों की करनी में देखना चाहते हैं, मात्र किस्‍से-कहानियों में सुनना या मूर्तियों के रूप में देखना नहीं चाहते लेकिन हो यही रहा है क्‍योंकि गांधीवाद आज पहले से कहीं अधिक बिकाऊ है।
गांधी से जुड़े किस्‍से-कहानियों पर लौटें तो उन्‍हें सत्‍य व अहिंसा का पुजारी, यहां तक कि इनका प्रतीक माना जाता रहा किंतु उनके सामने ही सत्‍य और अहिंसा दोनों का जनाज़ा उठ गया।
जिस स्‍वतंत्रता का सपना देखते-देखते अनगिनत लोगों ने अपने जीवन की आहुति दे डाली और कितने लोग सलाखों के पीछे रहे, उसी स्‍वतंत्रता का सपना तब पूरा हुआ जब निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए सत्‍य को खूंटी पर टांगकर देश का जबरन विभाजन करा दिया। अहिंसा को ताक पर रखकर हिंसा का ऐसा नंगा नाच किया गया, जिसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांधी की आंखों के सामने उनके सत्‍य और अहिंसा ने दम तोड़ दिया। गांधी खुद तो हिंसा का शिकार उसके बाद हुए किंतु गांधीवाद उनके सामने ही मर चुका था।
गांधी को यह डर तो था कि लोग उनकी मूर्तियां स्‍थापित करके उन्‍हें ईश्‍वर न बना दें किंतु उन्‍होंने यह कभी नहीं सोचा था कि लोग गांधीवाद को हथियार बनाकर हर रोज उनकी हत्‍या करेंगे। सत्‍य के पुजारी की मूर्तियां भी झूठे गांधीवाद को न सिर्फ देखने के लिए अभिशप्‍त होंगी बल्‍कि उनके हाथों फूल-मालाएं भी ग्रहण करने पर मजबूर होंगी।
गांधी से जुड़े अनेक किस्‍से-कहानियों के बीच उन्‍हें जोड़कर कही जाने वाली यह कहावत भी संभवत: इसीलिए बहुत प्रचलित है कि ”मजबूरी का नाम महात्‍मा गांधी” ।
यह कहावत कब, क्‍यूं और कैसे वजूद में आई इसके बारे में तो कोई ठोस जानकारी उपलब्‍ध नहीं है परंतु वो सबकुछ उपलब्‍ध है जो गांधी को उनके डर से हर दिन रूबरू करा रहा है।
मुंह में राम, और बगल में छुरी रखकर ”वैष्‍णव जन तो तेने कहिए…का राग अलापते हुए पल-पल अहसास कराया जा रहा है कि गांधी केवल किस्‍से कहानियों में अच्‍छे लगते हैं, मूर्तियों में जंचते हैं लेकिन अमल में नहीं लाए जा सकते।
अमल में लाए जा सकते तो न देश का विभाजन होता और न गांधी की हत्‍या होती।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंदी के इस दौर में भी खूब फल-फूल रहा है यूपी का तबादला उद्योग

UP's transfer industry is flourishing even in this phase of recessionविश्‍वव्‍यापी आर्थिक मंदी के इस दौर में जब देश के बड़े-बड़े उद्योग धंधों की दम निकली पड़ी है और उन्‍हें खड़ा रखने के लिए केंद्र सरकार को लगातार प्राणवायु मुहैया करानी पड़ रही है, तब भी यूपी का तबादला उद्योग न सिर्फ पूरे दम-खम के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है बल्‍कि अच्‍छा-खासा फल-फूल भी रहा है।
वैसे तो तबादलों को उद्योग का दर्जा दिलाने में काफी पहले ही हमारे राजनेता सफल हो गए थे लिहाजा सरकारें बेशक बदलती रहीं किंतु तबादला उद्योग कभी बंद नहीं हुआ। वर्ष 2017 में यूपी पर योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली सरकार काबिज होने के बाद लोगों को कुछ ऐसी उम्‍मीद बंधी कि शायद अब भ्रष्‍टाचार की बुनियाद माना जाने वाला तबादला उद्योग जरूर प्रभावित होगा।
योगी सरकार ने अपने शुरूआती कुछ महीनों तक इसके संकेत भी दिए कि वह अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फेंटने की बजाय यथास्‍थिति बनाए रखेंगे और जो जहां है, उससे वहीं बेहतर काम लेंगे क्‍योंकि ब्‍यूरोक्रेसी हवा के रुख को पहचान कर नतीजे देती है।
किंतु जल्‍दी ही पहले तुरुप के इक्‍कों में फेर-बदल किया गया, और फिर बादशाह-बेगम व गुलामों की हैसियत वाले भी इधर से उधर किये जाने लगे।
आज जबकि योगी आदित्‍यनाथ की सरकार को यूपी की कमान संभाले हुए ढाई वर्ष अर्थात आधा कार्यकाल बीत चुका है तब पता लग रहा है कि योगीराज में भी तबादलों का खेल उसी प्रकार खेला जा रहा है, जिस प्रकार सूबे की पूर्ववर्ती सरकारें खेलती रही थीं।
योगी सरकार में शीघ्र ही तबादला उद्योग ढर्रे पर आ जाने के पीछे भी वही कारण बताए जा रहे हैं जो अखिलेश या मायाराज में बताए जाते थे। यानी…
कलयुग नहीं ये करयुग है, यहाँ दिन को दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नकद है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।
अब स्‍थिति यह है कि शायद ही किसी जिले में कोई अधिकारी टिक पाता हो। तबादला उद्योग के गतिमान रहने से अधिकारियों के स्‍थायित्‍व की समयाविधि ”महीनों में” सिमट कर रह गई है।
ये आदान-प्रदान किस स्‍तर पर हो रहा है और कौन कर रहा है, इसे जानना भी कोई रॉकेट साइंस नहीं है परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि सबके सब ‘अनभिज्ञ’ बने रहते हैं।
सरकार से ही जुड़े सूत्रों का स्‍पष्‍ट कहना है कि भ्रष्‍टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात करने वाले योगी आदित्‍यनाथ की सरकार में आज प्रदेश, मंडल व जिलों में तैनाती का रेट फिक्‍स है।
हो सकता है ट्रांसफर-पोस्‍टिंग के लिए निर्धारित दामों की लिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ की नजरों के सामने न आ पायी हो परंतु भ्रष्‍ट और भ्रष्‍टतम अधिकारियों की अच्‍छे-अच्‍छे पदों पर तैनाती यह समझने के लिए काफी है कि तबादला उद्योग पूरी रफ्तार से चल रहा है।
यदि इतने से भी किसी कारणवश बात समझ में नहीं आ रही हो तो बहुत जल्‍दी-जल्‍दी तबादले स्‍पष्‍ट बता देते हैं कि दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी की पूरी दाल काली है।
दरअसल, तबादला उद्योग एक ऐसा उद्योग है जो ऊपर से चलता है तो बहुत जल्‍दी नीचे तक अपनी जड़ें जमा लेता है।
बात चाहे पुलिस की हो अथवा प्रशासन की, आला अधिकारी अपनी भरपाई करने के लिए वही रास्‍ता अपने मातहतों के लिए खोल देते हैं जिस रास्‍ते पर चलकर वह वहां तक पहुंचते हैं।
यदि किसी जिले में डीएम और एसएसपी अथवा एसपी कुछ महीनों के मेहमान होते हैं तो उस जिले में उनके अधीनस्‍थ भी महीनों के हिसाब से ‘चार्ज’ पाते हैं।
चूंकि जिले के प्रभार का रेट वहां मौजूद आमदनी के अतिरिक्‍त स्‍त्रोतों और उसकी भोगौलिक एवं आर्थिक स्‍थिति के अनुरूप निर्धारित रहता है इसलिए हर जिले में सर्किल, थाने-कोतवाली सहित प्रशासनिक हलकों के दाम भी उसी के हिसाब से तय होते हैं।
कहने के लिए पिछले दिनों बुलंदशहर के SSP एन कोलांची को थानेदारों की तैनाती में अनियमितता बररतने पर निलंबित कर दिया गया।
फिर प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को निलंबित कर दिया।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्थी के अनुसार बुलंदशहर में दो थाने ऐसे थे जहां एसएसपी एन. कोलांची ने सात दिन से भी कम समय के लिए उपनिरीक्षकों को चार्ज दिया। एक थाना ऐसा था जहां का चार्ज मात्र 33 दिन में छीन लिया गया।
इतना ही नहीं, कोलांची ने दो ऐसे उप निरीक्षकों को चार्ज दे दिया जिन्‍हें पूर्व में Condemned entry (परनिंदा प्रविष्टि) दी जा चुकी थी।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्‍थी की बात सच मानी जाए तो फिर प्रदेश के तमाम उन अन्‍य जिलों का क्‍या, जहां अयोग्‍य उपनिरीक्षकों-निरीक्षकों तथा उपाधीक्षकों को लगातार चार्ज पर रखा जा रहा है।
इसी प्रकार प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह ने अपनी रिपोर्ट में बाकायदा ‘निकम्‍मा’ अधिकारी घोषित किया है।
ऐसे में यह सवाल स्‍वाभाविक है कि एक निकम्‍मा अधिकारी प्रयागराज जैसे बड़े व महत्‍वपूर्ण जिले का चार्ज कैसे पा गया ?
आगरा के एसएसपी बनाए गए जोगेन्‍द्र सिंह को बमुश्‍किल कुछ हफ्ते में हटा दिया गया, फिलहाल वह आगरा में ही जीआरपी के एसपी हैं।
जल्‍द ही अगर उन्‍हें फिर किसी महत्‍वपूर्ण जिले का चार्ज दे दिया जाए तो कोई आश्‍चर्य नहीं।
मतलब तबादला उद्योग के चलते उच्‍च अधिकारियों से लेकर जिलों में बांटे जाने वाले ‘चार्ज’ की योग्‍यता कुछ महीनों, कुछ दिनों और यहां तक कि कुछ घंटों में तय की जा सकती है। बशर्ते कि मनमाफिक चार्ज चाहने वाला मनमुताबिक रकम अदा करने को तैयार हो।
यही कारण है कि एक ओर जहां हर स्‍तर पर ऐसे अकर्मण्‍य और निकम्‍मे लोग चार्ज पर मिल जाएंगे जिनकी आम शौहरत जगजाहिर है, वहीं दूसरी ओर काबिल-जिम्‍मेदार व कर्तव्‍यनिष्‍ठ लोग सम्‍मानजनक पोस्‍टिंग के लिए दर-दर भटकते मिलेंगे।
कहीं-कहीं तो नौबत यहां तक आ जाती है कि मजबूरन कोई अनुशासन को ताक पर रखकर शिकवा-शिकायत करने लगता है तो कोई न्‍यायपालिका की शरण में जा पहुंचता है क्‍योंकि निजी स्‍वार्थों की पूर्ति में लिप्‍त अधिकारी उनके भविष्‍य को अंधकारमय बनाने से भी परहेज नहीं करते।
फिलहाल पूरे प्रदेश में ऐसे एक-दो नहीं, अनेक उदाहरण सामने हैं जहां नाकाबिल लोग तबादला उद्योग से लाभान्‍वित होकर मलाईदार पदों पर जमे हुए हैं जबकि अच्‍छी कार्यशैली वाले अधिकारी एवं कर्मचारियों को कोई मौका नहीं दिया जा रहा।
यदि प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ खुद इस तबादला उद्योग की बारीक समीक्षा करें और जिलों के अंदर आए दिन की जाने वाली उठा-पटक का पता लगाएं तो चौंकाने वाली सच्‍चाई सामने आ सकती है।
आश्‍चर्य तो इस बात पर है कि बुलंदशहर के एसएसपी रहे कोलांची और प्रयागराज के एसएसपी रहे अतुल शर्मा का उदाहरण सामने होने के बावजूद सीएम योगी समूची हांडी के पकने का इंतजार क्‍यों कर रहे हैं।
योगी जी को यह भी समझना होगा कि हर बार चुनाव परिणाम मोदी मैजिक से नहीं मिलने वाले। 2022 में जब यूपी विधानसभा के चुनाव होंगे तब बाकी उपलब्‍धियों के साथ-साथ तबादला उद्योग और उससे प्रभावित हो रही कानून-व्‍यवस्‍था का भी आंकलन जरूर होगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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