शनिवार, 2 नवंबर 2013

...तो आओ इस दीवाली नए सिरे से प्रार्थना करें


( लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
दो खण्‍डों वाले 'कृष्‍ण यजुर्वेद' से संबंधित 'उपनिषद' में भगवान सूर्य की उपासना करते हुए महर्षि सांकृति कहते हैं-
असतो मा सद्गमय, 
तमसो मा ज्योतिर्गमय, 
मृत्योर्मा अमृतं गमय
हे सूर्यदेव! हमें असत्‍य से सत्‍य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।
इसका उत्‍तर देते हुए भगवान सूर्य ने कहा था- योगकर्म को समझते हुए सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।'
योग की ओर प्रवृत्त होने पर, अन्त:करण दिन-प्रतिदिन समस्त भौतिक इच्छाओं से दूर हो जाता है। साधक लोक-हित के कार्य करते हुए सदैव हर्ष का अनुभव करता है। वह सदैव पुण्यकर्मों के संकलन में ही लगा रहता है। दया, उदारता और सौम्यता का भाव सदैव उसके कार्यों का आधार होता है।
प्रश्‍नोत्‍तर के रूप में महर्षि सांकृति एवं भगवान आदित्‍य के बीच हुए इस संवाद का उद्देश्‍य तब जो भी रहा हो लेकिन आज जब हम वर्ष 2013 की दीपावली मना रहे हैं तो इसकी बहुत जरूरत महसूस हो रही है।
अगले साल लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं और उससे पूर्व राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली सहित कुछ राज्‍यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।
चुनावों का यह एक ऐसा दौर है जब आम आदमी राजनीति का वीभत्‍स रूप देखने को अभिशप्‍त है। वह उन्‍हीं लोगों, उन्‍हीं पार्टियों में से किसी का चुनाव करने को मजबूर है जिन्‍होंने राजनीति को भयावह बना दिया है।
महंगाई, भ्रष्‍टाचार, अनाचार और दुराचार अपने चरम पर हैं लेकिन राजनेता इस स्‍थिति के लिए एक-दूसरे को जिम्‍मेदार ठहराकर अपना उल्‍लू सीधा करने में लगे हैं।
जनसामान्‍य की किसी स्‍तर पर सुनवाई नहीं हो रही क्‍योंकि विशिष्‍टजनों ने जैसे पूरे देश और इसकी तथाकथित लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को बंधक बना लिया है। वह लोकतंत्र की, संविधान की, अपने अधिकार और कतर्व्‍यों की, संवैधानिक संस्‍थाओं के दायित्‍वों की तथा आम आदमी की गरीबी एवं अमीरी की परिभाषा अपनी सुविधानुसार गढ़ रहे हैं।
आम आदमी के लिए जीवन बोझ बन गया है। उसका सारा सामर्थ्‍य और सारी योग्‍यता अपने व परिवार के लिए जरूरी संसाधनों का इंतजाम करने में जाया हो रही है। निजी हितों को पूरा करने के फेर में वह देशहित को पूरी तरह तिलांजलि दे चुका है।
वह इस लायक भी नहीं रहा कि अपने लिए ''असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय'' की भगवान से प्रार्थना कर सके।
खोखली तरक्‍की और खोखले दंभ ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा.....और उसकी इसी दयनीय दशा का लाभ मुठ्ठीभर नेता उठा रहे हैं।
66 साल बीत गये देश को स्‍वतंत्र हुए लेकिन आम आदमी अब तक सही मायनों में स्‍वतंत्रता का स्‍वाद चखने को तरस रहा है।
संविधान प्रदत्‍त अधिकारों का झुनझुना थामे यदि वह लोकतंत्र के फटे हुए ढोल को पीटकर राजनेताओं के कानों तक अपनी आवाज पहुंचाने का प्रयत्‍न करता है तो उसे लठिया दिया जाता है। उस पर मुकद्दमे लाद दिए जाते हैं। अदालतों के चक्‍कर काटने को उसकी एक जिंदगी कम पड़ जाती है।
नेताओं को उनके कर्तव्‍यों का भान कराने की कोशिश करता है तो दलगत राजनीति का शिकार बना दिया जाता है। समूची राजनीति को सांप्रदायिक बना डालने वाले ही धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता का खेल अपने बनाये नियमों के तहत खेल रहे हैं।
खुद को देश का भाग्‍य विधाता मानने वालों ने इस देश की उत्‍सवप्रेमी जनता को न रोने लायक छोड़ा है, न हंसने लायक। दीवाली अब उसका दिवाला निकालने आती है तथा होली खून के आंसू रुलाती है।
वक्‍त आ गया है कि असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय... की प्रार्थना और भगवान सूर्य द्वारा उसके संदर्भ में दिए गये उत्‍तर का गूढ़ार्थ समझा जाए तथा आज के परिपेक्ष्‍य में उस पर अमल किया जाए।
जब तक ऐसा नहीं किया जायेगा तब तक हर साल दीवाली और अंधियारी, और काली तथा और भयावह होती जायेगी।
हम दीवाली और होली मनाने की औपचारिकता तो निभायेंगे लेकिन इलेक्‍ट्रॉनिक दीपकों का झूठा उजाला हमारी आंखों की रोशनी छीनता रहेगा।
.......जब असत्‍य से सत्‍य के मार्ग पर चलने का शक्‍ति नहीं होगी....जब अंधकार से प्रकाश की ओर जाने में आंखें चुंधियाएंगी........तो किस तरह मृत्‍यु से अमरता की ओर ले जाने का वरदान मांगोगे। क्‍या करोगे जीकर। जीवन जीने का उल्‍लास तभी तक है जब तक उत्‍साह है। जब तक उत्‍साह है, तब तक हर दिन त्‍यौहार है। हर पल दीवाली और हर दिन होली है।
...तो आओ...नए सिरे से प्रार्थना करें कि हे ईश्‍वर... हमें आज के इस कठिन दौर से बाहर निकलने, राजनेताओं के षड्यंत्रों से मुक्‍ति पाने तथा देश को उनसे बचाये रखने की युक्‍ति दे।
हमें सामर्थ्‍य दे कि हम ''सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु  निरामया:.....को सार्थक कर एक ऐसी उपनिषद को रच सकें जो हमें हर दिन होली और हर रात दीवाली का अहसास करा पाए।
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