जिस तरह भोजन के लिए भूख… सोने के लिए नींद और रोने के लिए भावनाएं या संवेदनाएं होना जरूरी है, उसी तरह आजादी के लिए गुलाम होना भी जरूरी है।
जो गुलाम नहीं है, और फिर भी आजादी की मांग करता है तो निश्चित जानिए कि उसका मानसिक संतुलन दुरुस्त नहीं है।
अब जरा विचार कीजिए कि भूख होने के बावजूद कोई भोजन नहीं कर पा रहा, नींद आने पर भी सो नहीं पा रहा और भरपूर भावनाओं के बाद भी रो नहीं रहा तो इसका क्या मतलब हो सकता है।
इसका सीधा सा मतलब केवल एक है कि वह शारीरिक अथवा मानसिक रूप से बीमार है।
दुनिया की हर पैथी का डॉक्टर उसे देखे बिना भी यह बता सकता है कि ये लक्षण किसी न किसी गंभीर बीमारी के हैं। अब बीमारी है तो उसका उपचार आवश्यक है।
चूंकि उपचार की पद्धति और प्रक्रियाएं अलग-अलग होती हैं लिहाजा उनका एक्शन तथा रिएक्शन भी अलग-अलग तरीकों से सामने आता है।
जैसे कि कुछ लोग धरना-प्रदर्शन करके रिएक्शन दे रहे हैं तो कुछ लोग लोकतंत्र को खतरे में बताकर दे रहे हैं। कोई हिटलरशाही बता रहा है तो कोई मोदी-शाही कह रहा है।
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यह वैज्ञानिक तथ्य है। इसलिए उनकी क्रिया पर प्रतिक्रियाएं भी आ रही हैं।
बहरहाल, इस सबके बीच सवाल फिर वहीं खड़ा होता है कि आजादी मांगने या छीनने के लिए पहली शर्त है गुलामी।
जिस देश में सीएम से लेकर पीएम तक को और लोअर कोर्ट एवं हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट को भी गरियाने की पूरी छूट प्राप्त हो। जहां सजायाफ्ता आतंकियों के पक्ष में न सिर्फ खड़े होने बल्कि आधी रात को भी सर्वोच्च न्यायालय खुलवाने का अधिकार हो। चुनी हुई सरकार को कठघरे में खड़ा करने का अवसर हो और संसद के दोनों सदनों से पारित कानूनों के खिलाफ सड़क पर उतरने से कोई रोक न हो, उस देश में छीन के आजादी लेने का नारा मर्ज को न सही किंतु मरीज को तो पहचान ही रहा है।
माना कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार संविधान प्रदत्त है, किंतु हर अधिकार में कुछ कर्तव्य भी निहित होते हैं।
भारतीय संविधान के भाग 4(क) अनुच्छेद 51(क) के तहत नागरिकों के मौलिक कर्तव्य कुछ इस प्रकार हैं:
1. प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज व राष्ट्र गान का आदर करे।
2. स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
3. भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे।
4. देश की रक्षा करे।
5. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे।
6. हमारी सामाजिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका निर्माण करे।
7. प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन करे।
8. वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करे।
9. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे।
10. व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे।
11. अभिवावक/ संरक्षक 6 से 14 वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करे।
यहां यह गौर करना जरूरी है कि संविधान प्रदत्त अधिकारों का दुरुपयोग करने और छीनकर आजादी लेने की धमकी देने वाले क्या अपने इन 11 संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं। यदि कर रहे हैं तो कितने कर्तव्यों का कर रहे हैं।
रही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अथवा आजादी की, तो उसकी भी सीमा होती है। सीमा रेखा क्रॉस करते ही स्वतंत्रता भी अपराध की श्रेणी में शामिल हो जाती है।
उदाहरण के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी को गाली तो नहीं दी जा सकती। पहनने की आजादी के अधिकार से कोई निर्वस्त्र नहीं घूम सकता क्योंकि यह आजादी लोगों को मनमुताबिक लिबास पहनने के लिए है, न कि ‘न पहनने’ के लिए।
बहुत से लोगों को तो थूकने की, मूतने की और हगने की भी आजादी चाहिए। मतलब वो जहां चाहें थूक सकें, जिस स्थान पर चाहें लघुशंका निवारण करें और कहीं भी दीर्घशंका से निवृत हो सकें।
इनकी अपनी दलीलें हैं। सड़क पर चलते हुए या किसी वाहन में बैठे-बैठे थूकने वाले की मानें तो वह अपने मुंह से अपने देश की सड़क पर थूक रहा है, इससे आपत्ति कैसी।
यदि उसका थूक किसी दूसरे के ऊपर गिर भी रहा है तो यह उसकी अपनी समस्या है, उसे अपना मुंह बचाकर खुद चलना चाहिए।
सरेआम लघुशंका करने वालों को टोकिए तो वह कहेंगे कि सरकार ने हर चार कदम पर मूत्रालय क्यों नहीं बनवाए, अब नहीं बनवाए तो हम इसके लिए जिम्मेदार थोड़े ही हैं।
खुली हवा में नाली-नाले और नदी-तलाब के किनारे या खेत-खलिहान में ‘निपटने’ वालों को घोर आपत्ति है कि सरकार ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के तहत घर-घर व गांव-गांव शौचालय क्यों बनवा रही है।
उनका घर, उनका गांव, उनके खेत और उन्हीं के खलिहान… लेकिन उन्हीं की स्वतंत्रता का हनन। उन्हें भी मन मुताबिक मल-मूत्र विसर्जन की आजादी चाहिए। सरकार कौन होती है, उन्हें दायरे में बांधने वाली।
दिल्ली का शाहीन बाग और लखनऊ का घंटाघर हो या जामिया तथा जेएनयू व एएमयू। यहां प्रदर्शन करने वालों में और खुलेआम थूकने, मूतने एवं हगने की आजादी मांगने वालों में कोई अंतर नहीं है।
अंतर इसलिए नहीं है कि ये सब के सब किसी न किसी स्तर पर मानसिक रोगी हैं। इन्हें अपने संविधान प्रदत्त अधिकारों का तो ज्ञान है परंतु कर्तव्यों का नहीं। अधूरा ज्ञान हमेशा नाश की निशानी होता है। या यूं कहें कि पतन के रास्ते पर ले जाता है।
सवा सौ करोड़ से अधिक की आबादी वाले विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में मुठ्ठीभर लोगों का मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाना कोई आश्चर्य नहीं, परंतु आश्चर्य तब होता है जब कुछ ऐसे लोग अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए इन्हें लगातार बरगलाते रहते हैं, जिन्हें आज तक बुद्धिजीवी माना जाता रहा है। जिन्हें बड़े-बड़े पुरस्कारों से नवाजा गया है।
शायद इसीलिए भारत विश्व में अकेला ऐसा देश होगा जहां के नागरिक उस कानून का विरोध कर रहे हैं जो उन्हीं के हित में बनाया गया है।
यही नहीं, यह दुनिया का एकमात्र देश होगा जहां के कुछ नागरिक 70 साल से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी उस बहुमूल्य आजादी का अपमान कर रहे हैं जिसे पाने के लिए अनगिनत लोग बलिदान हुए।
ऐसा न होता तो नक्सलवाद, उग्रवाद, आतंकवाद भी नहीं होते और न ऐसे युवा होते जो गुलामी का स्वाद चखे बिना छीन के आजादी लेने का नारा देकर भी कहते हैं कि देश का लोकतंत्र एवं संविधान खतरे में है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी