बुधवार, 30 मई 2018

पत्रकारिता दिवस पर विशेष: गाली बन चुके गलीज़ धंधे का सच!

आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इस वर्ष के पत्रकारिता दिवस का महत्‍व इसलिए और बढ़ जाता है क्‍योंकि इन दिनों राजनीति के साथ-साथ पत्रकारिता भी विभिन्‍न कारणों से विमर्श के केंद्र में है। हाल ही में ”कोबरा पोस्‍ट” द्वारा किए गए एक स्‍टिंग ऑपरेशन ने इस विमर्श को ज्‍वलंत बना दिया है।
कोबरा पोस्‍ट के स्‍टिंग में कितना दम है, यह तो फिलहाल जांच का विषय है किंतु इतना तय है कि सबके ऊपर उंगली उठाने वाले मीडिया की अपनी तीन उंगलियां खुद उसके ऊपर उठी हुई हैं।
यहां बात केवल मीडिया के बिकाऊ होने की नहीं है, बात लोकतंत्र के उस अस्‍तित्‍व की है जिसका एक मजबूत पिलर मीडिया खुद को मानता है। अब इस मजबूत पिलर की बुनियाद हर स्‍तर पर खोखली होती दिखाई दे रही है।
खबरों के नाम पर सारे-सारे दिन बासी व उबाऊ कंटेन्‍ट परोसना और बेतुके विषयों पर बेहूदों लोगों को बैठाकर सातों दिन डिस्‍कशन कराने के अतिरिक्‍त मीडिया के पास जैसे कुछ रह ही नहीं गया।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि डिस्‍कशन का विषय चाहे कुछ भी हो, पैनल में चंद रटे-रटाये चेहरे प्रत्‍येक टीवी चैनल पर देखे जा सकते हैं। बहस का विषय भले ही बदलता रहता हो किंतु चेहरे नहीं बदलते।
क्‍या सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में मात्र कुछ दर्जन लोगों को ही वो ज्ञान प्राप्‍त है जिसके बूते वह खेत से लेकर खलिहान तक और आकाश से लेकर पाताल तक के विषय पर चर्चा कर लेते हैं।
राजनीति, कूटनीति, रणनीति, विदेशनीति व अर्थनीति ही नहीं…धर्म, जाति और संप्रदाय जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भी बहस के बीच वही चंद चेहरे बैठे मिलते हैं।
तथाकथित सभ्‍य समाज से ताल्‍लुक रखने वाले ये लोग जब बहस का हिस्‍सा बनते हैं तो यह पता लगते देर नहीं लगती कि कहीं न कहीं उनके डीएनए में खोट जरूर है।
पिछले कुछ समय से टीवी चैनल्‍स पर आने वाली डिबेट्स का स्‍तर देखकर कोई भी अंदाज लगा सकता है कि इन सो-कॉल्‍ड विशेषज्ञों की असलियत क्‍या होगी।
जाहिर है कि बहस कराने वाले एंकर्स इनसे अलग नहीं रह पाते और वह अब एंपायर या रैफरी की जगह अतिरिक्‍त खिलाड़ी बन जाते हैं। ऐसे में एंकर्स के ऊपर आरोप लगाना पैनल के विशेषज्ञों की आदत का हिस्‍सा बन चुका है। तथाकथित विशेषज्ञ उन्‍हें भी अपने साथ हमाम में नंगा देखना चाहते हैं।
रही बात प्रिंट मीडिया की, तो व्‍यावसायिक प्रतिस्‍पर्धा की अंधी दौड़ में वह भी पतन के रास्‍ते पर चल पड़ा है। विज्ञापन के लिए अख़बार न सिर्फ समाचारों से समझौता करने को तत्‍पर रहते हैं बल्‍कि किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं।
बाकी कोई कसर रह जाती है तो उसे सोशल मीडिया पूरी कर देता है। पत्रकारिता की आड़ में सोशल मीडिया पर आवारा साड़ों का ऐसा झुण्‍ड चौबीसों घंटे विचरण करता है जिसकी नाक में नकेल डालना फिलहाल तो किसी के बस में दिखाई नहीं देता।
तिल का ताड़ और रस्‍सी का सांप बनाने में माहिर ये झुण्‍ड इस कदर बेलगाम है कि टीवी चैनल्‍स ने इनका ”वायरल टेस्‍ट” करने की दुकानें अलग से खोल ली हैं। अब लगभग हर टीवी चैनल पर ऐसी खबरों के ”वायरल टेस्‍ट” की भी खबरें आती हैं।
इन हालातों में सिर्फ पत्रकारिता दिवस मनाने और उसके आयोजन में नेताओं को बुलाकर उनके गले पड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है। सही मायनों में पत्रकारिता दिवस मनाना है तो उस सोच को बदलना होगा जिसने पत्रकारों के साथ-साथ पत्रकारिता को भी तेजी से कलंकित किया है और जिसके कारण आज पत्रकारिता तथा नेतागीरी एकसाथ आ खड़े हुए हैं। जिसके कारण समाज का आम आदमी पत्रकारों को भी उतनी ही हेय दृष्‍टि से देखने लगा है जितनी हेय दृष्‍टि से वह नेताओं को देखता है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 5 मई 2018

टीआरपी के लिए हमारा इतना नीचे गिरना तो बनता है

यदि आपने कभी कतई सड़क छाप लोगों को आपस में लड़ते-भिड़ते और गाली-गलौज करते नहीं देखा-सुना तो यह खबर आपके लिए नहीं है।
यदि आपने कभी किसी को नमक से नमक खाते हुए नहीं देखा, तो भी यह खबर आपके मतलब की नहीं है।
और अगर कभी आपने किसी आदतन अपराधी को कोर्ट में यह दलील देते हुए नहीं पाया कि तमाम लोग अपराध करते हैं इसलिए मैं भी अपराध करता हूं, तो फिर यह खबर आपके किसी काम की नहीं क्‍योंकि यह खबर ऐसे ही लोगों के बारे में है।
उन लोगों के बारे में जो टीवी पर बैठकर सड़क छाप लोगों से भी गई-गुजरी भाषा का इस्‍तेमाल करते हैं। उन्‍हीं लोगों की तरह हर वक्‍त अशिष्‍टता करने पर आमादा रहते हैं।
जो नमक से नमक खाने की कोशिश को जायज ठहराने के साथ-साथ ऐसा करने की लगातार कोशिश भी करते हैं।
जो हर सवाल का हमेशा एक ही जवाब देते हैं कि दूसरों ने ऐसा किया इसलिए हम भी कर रहे हैं, अथवा हमने जो किया वही दूसरे भी कर रहे हैं तो फिर गलत क्‍या किया।
दरअसल, इन दिनों ऐसे तत्‍वों को विभिन्‍न टीवी चैनल पैनल डिस्‍कशन के नाम पर अपना मंच प्रदान करा रहे हैं। जिन्‍ना की तस्‍वीर टांगने जैसा कोई घटिया सा मुद्दा हो या फिर संवैधानिक संस्‍थाओं पर उंगली उठाने जैसा गंभीर मामला ही क्‍यों न हो। घटिया से घटिया और गंभीर से गंभीर मुद्दे पर बहस के लिए टीवी चैनल्‍स के पास कुछ रटे-रटाए चेहरे हैं। यही चेहरे आप हर रोज चीखते-चिल्‍लाते और अपनी असलियत बताते देख सकते हैं। बहस का विषय बेशक हर दिन बदलता हो परंतु बहस में शामिल होने वाले चेहरे कभी नहीं बदलते।
टीवी चैनल्‍स पर कराई जाने वाली बहसों का स्‍तर ऐसा हो गया है कि बहुत से लोग तो टीवी से नफरत करने लगे हैं। जहां तक इनकी पत्रकारिता का सवाल है, तो शायद ही अब कोई ऐसा व्‍यक्‍ति मिले जो इन्‍हें देखते ही समूची पत्रकार बिरादरी को कोसने न लगता हो।
सोशल साइट्स गवाह हैं इस सच्‍चाई की कि लिपे-पुते चेहरे वाले मेल व फीमेल टीवी एंकर्स जो पत्रकार होने का मुगालता भी पाले रहते हैं, उनकी आम छवि कैसी बन चुकी है।
आश्‍चर्य तो यह है कि इनमें से कुछ टीवी एंकर्स खुद को सेलेब्रिटी समझने लगे हैं। उनकी मानें तो लोग उन्‍हें इसलिए ट्रोल करते हैं, पीछा करते हैं, फोटो खींचते हैं और गरियाते भी हैं क्‍योंकि वह बहुत प्रसिद्ध हैं।
इन टीवी एंकर्स की नजर में कुख्‍यात और प्रख्‍यात शायद एक ही शब्‍द है, न कि विरोधाभाषी।
बहरहाल, आप किसी भी मुद्दे पर किसी भी टीवी चैनल की बहस का स्‍तर देख लीजिए। आपको आत्‍मसंतुष्‍टि होगी कि जिस प्रकार नेताओं की कोई जाति नहीं होती या यूं कह लीजिए कि हर नेता की एक ही जाति होती है, उसी प्रकार हर टीवी चैनल की बहस का स्‍तर भी समान होता है।
बहस की बदबू दूर-दूर तक मारक हो इसलिए अब तमाम टीवी चैनल अपने कथित पैनल डिस्‍कशन में पाकिस्‍तानियों तथा कश्‍मीर के अलगाववादियों को भी शामिल करने लगे हैं।
भारतीय टीवी चैनल्‍स की कृपा से पाकिस्‍तानी और उनके सरपरस्‍त चंद कश्‍मीरी सफेदपोश न सिर्फ अपना एजेंडा पूरे विश्‍व को बता जाते हैं बल्‍कि यह भी देख लेते हैं कि हमारे नेता भाषा के स्‍तर पर किस कदर कुत्‍तों के भोंकने से भी नीचे जा पहुंचे हैं।
टीवी चैनल्‍स की मानें तो वह पाकिस्‍तानियों एवं सफेदपोश आतंकवादियों को बहस का हिस्‍सा इसलिए बनाते हैं ताकि देश व देशवासियों को उनकी सोच का पता लग सके और अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता पर भी आंच न आए।
हो सकता है कि बहुत जल्‍द टीवी चैनल्‍स अपने इसी एजेंडे को आगे ले जाने के लिए उन सभी कुख्‍यात आतंकवादियों को भी बहस का हिस्‍सा बनाने लगें जो एक लंबे अरसे से भारत को तोड़ने की कोशिश में लगे हैं क्‍योंकि टीवी चैनल्‍स की नीति के अनुसार उनको भी अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का उतना ही हक है जितना कि सैनिकों पर पत्‍थर बरसाने वाले कश्‍मीरियों का।
आगे आने वाले समय में अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वछंदता के पक्षधर टीवी चैनल्‍स बलात्‍कारियों को भी बहस का हिस्‍सा बनाने लगें तो कोई आश्‍चर्य नहीं क्‍योंकि बलात्‍कारी भी तो दिखता इंसानों की तरह ही है। वह अंदर से भेड़िया हो तो हो।
किसी भी टीवी चैनल की बहस में शामिल पैनल को देख लीजिए। एक पार्टी का नेता कहेगा कि हमारे शासनकाल में इतने बलात्‍कार नहीं होते थे। आंकड़े गवाह हैं कि हमारे पिछले दस साल के कार्यकाल में बलात्‍कारों की संख्‍या इस शासनकाल में हो रहे बलात्‍कारों से काफी कम थी। इनके चार साला कार्यकाल में हुए बलात्‍कारों की संख्‍या से हमारे साठ साल के शासनकाल में हुए बलात्‍कारों की संख्‍या से तुलना करके देख लीजिए कि इनके बलात्‍कार कितने ऊपर जाएंगे और हमारे बलात्‍कार कितने नीचे थे। मुद्दा कोई भी हो, तुलनात्‍मक अध्‍ययन शुरू हो जाता है और फिर बहस, बहस न होकर तू-तू-मैं-मैं से होती हुई तू कुत्‍ता और तेरा बाप कुत्‍ता तक जा पहुंच जाती है।
कुल मिलाकर टीवी चैनल्‍स के सहयोग से सभी पार्टियां और उनके नेता देश की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। टीवी चैनल्‍स से हटते ही ये कभी किसी रेस्‍तरां में तो कभी संसद अथवा विधानसभाओं के गलियारों में एक-दूसरे की पीठ खुजाते देखे जा सकते हैं। इसके लिए बहुत प्रयास नहीं करने पड़ते।
कोई टीवी चैनल हर दिन ताल ठोक रहा है तो कोई दंगल करा रहा है। कोई चक्रव्‍यूह में फंसा रहा है तो कोई मास्‍टर स्‍ट्रोक लगा रहा है। सबके अपने धंधे हैं और सबके अपने फंदे। देश तथा देशवासी जाएं भाड़ में। हम तो अपने धंधे और फंदे के लिए पाकिस्‍तानियों को भी मंच देंगे और उन कश्‍मीरियों को भी जो खाते यहां की हैं लेकिन बजाते पाकिस्‍तानियों की हैं।
हजारों बलात्‍कारियों में से सजा किसी एक आसाराम और एक राम रहीम को ही तो होती है, बाकी तो अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का मजा लूट रहे हैं। टीआरपी के खेल में देश के साथ बलात्‍कार होता हो तो हो, हम तो सबको मंच देंगे क्‍योंकि हम मीडिया हैं। अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता पर पहला हक हमारा है।
हम जानते हैं कि बलात्‍कार सिर्फ एक शरीर पर ही नहीं होता, आत्‍मा पर भी होता है। बलात किया गया हर कार्य बलात्‍कार की परिभाषा का हिस्‍सा है लेकिन यह ज्ञान दूसरों को बांटने के लिए है, खुद के लिए नहीं।
तीतर-बटेर लड़ाना हमारा पेशा है। ठीक उसी तरह जिस तरह वैश्‍यावृत्ति या देह व्‍यापार। शब्‍दों का फेर हो सकता है परंतु मूल में तो धंधा ही निहित है इसलिए कोई कुछ कहे, हम अपना धंधा जारी रखेंगे।
प्रेस से मीडिया और मीडिया से मीडिएटर का सफर ऐसे ही पूरा नहीं किया। उसके लिए बड़े पापड़ बेले हैं।
अब यदि हमारे प्‍लेटफार्म का उपयोग कोई लड़ने-भिड़ने, गाली-गलौज करने, अपने-अपने कुकर्मों का तुलनात्‍मक अध्‍ययन करने और नमक से नमक खाकर दिखाने की कलाकारी के लिए करता है तो हमें क्‍या।
तीतर-बटेर लड़ाकर, कुत्ते-बिल्‍लियों को भिड़ाकर और गुण्‍डे-मवालियों को बरगलाकर यदि अपना काम चलता है तो बुरा क्‍या है। आत्‍मा सुखी तो परमात्‍मा सुखी। चैनल की टीआरपी के लिए हमारा भी इतना नीचे गिरना तो बनता है।
-Legend News
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