सावधान…होशियार…ये मीडिया जगत के गोरे लोगों का काला धंधा है। इसके नियम भी ये खुद बनाते हैं और शर्तें भी खुद तय करते हैं। इनके सामने जितना असहाय हर आम और खास आदमी है, उतनी ही असहाय वह न्याय व्यवस्था भी है जो बड़े-बड़ों को कठघरे में खड़ा कर लेती है।
बानगी देखिए:
छोटा लिंग, निराश क्यों ? जापानी लिंगवर्धक यंत्र फ्री। सेक्स धमाका…लिंग को 7-8 इंच लंबा, मोटा, सुडौल तथा ताकतवर बनाएं। लाभ नहीं तो पैसा वापस।
क्या आपके पति की आपमें रुचि कम हो रही है? आपमें सेक्स इच्छा की कमी है…जापानी-M कैप्सूल पुरुषों के लिए और जापानी-F कैप्सूल महिलाओं के लिए। शौकीन लोग भी इस्तेमाल करके असर देखें।
यह मजमून उन विज्ञापनों का है जो हर रोज देश के तथाकथित बड़े अखबारों में छपते हैं।
यह और ऐसे अनेक विज्ञापन जिनमें डेटिंग, मीटिंग, चेटिंग, फ्रेंडशिप कराने से लेकर हर उम्र की महिला से संपर्क कराने का दावा किया जाता है, प्रमुख अखबारों की कमाई का बड़ा जरिया हैं।
इन विज्ञापनों को प्रकाशित करने वाले अखबार अपने बचाव में एक छोटी सी सूचना अथवा परामर्श भी सबसे नीचे कहीं प्रकाशित करते हैं।
यहां सवाल यह है कि समाज के हर वर्ग को दिन-रात नीति और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले तथा किसी के भी चरित्र का हनन करने को तत्पर अखबारों के मालिकान अपने बचाव में मात्र एक चेतावनी जारी करके कुछ भी छापने के लिए अधिकृत हैं या ये भी कानून से बच निकलने के हथकंडे अपनाकर नीति व नैतिकता को ताक पर रख चुके हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई सामाजिक या राजनीतिक संगठन इनके विरोध में आवाज नहीं उठाता जबकि अखबारों के ऐसे विज्ञापन यौन अपराधों की ओर प्रेरित करने का खुला आह्वान कर रहे हैं।
हालांकि इस मामले में न इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पीछे हैं और न वेब मीडिया। वह जैसे प्रिंट मीडिया से प्रतिस्पर्धा को उतावला है, किंतु प्रिंट मीडिया व बाकी मीडिया में एक फर्क है। फर्क यह है कि छपे हुए शब्द इंसान को जितना अधिक प्रभावित करते हैं, उतना दूसरे माध्यम नहीं करते। इसके अलावा अखबार समाचारों का सबसे पुराना माध्यम हैं लिहाजा अखबारों की जिम्मेदारी भी औरों से अधिक बनती है लेकिन पैसे की खातिर अखबारों ने जिम्मेदारी को लाचारी में तब्दील कर लिया है।
अखबार मालिकानों का पैसे के लिए यह नैतिक पतन यदि इसी प्रकार जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अखबारों में देह व्यापार के लिए लड़कियों की अथवा पुरुष वैश्यावृति के इच्छुक युवाओं की आवश्यकता संबंधी विज्ञापन भी प्रकाशित होने लगेंगे।
ताकत हमेशा अपने साथ तमाम बुराइयां लेकर आती है। चूंकि मीडिया फिलहाल काफी ताकतवर होकर उभरा है इसलिए वह निरंकुश हो चुका है। कहने के लिए मीडिया पर भी लगाम लगाने की व्यवस्था है किंतु यह व्यवस्था कुछ वैसी ही है जैसी सांसदों व विधायकों के वेतन-भत्ते तय करने की है। यानि मुजरिम ही मुंसिफ है।
तभी तो आलम यह है कि मीडिया हाउसेस को न किसी कानून की परवाह है और न किसी अदालत की। उस सर्वोच्च अदालत की भी नहीं जिसके चक्कर में फंसने से हर आम और खास आदमी बचने की पूरी कोशिश करता है।
सरकारी विज्ञापनों में मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों तथा जनप्रतिनिधियों के फोटो छपवाने पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया जिसके अनुसार सिर्फ प्रधानमंत्री को ही सरकारी विज्ञापन में फोटो छपवाने का अधिकार होगा। विशेष परिस्तिथियों में राष्ट्रपति, गवर्नर तथा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का फोटो सरकारी विज्ञापन का हिस्सा बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश तथा इससे संबंधित निर्देशों की सबसे पहले धज्जियां उड़ाईं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने। उसके बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों को खुली चुनौती देते हुए अपने फोटो सरकारी विज्ञापनों में प्रकाशित व प्रसारित कराये।
बेशक इस मामले में एक याचिका कांग्रेस नेता अजय माकन ने दायर की है और उस पर केंद्र तथा संबंधित राज्य सरकारों से जवाब तलब भी किया गया है। केंद्र से यह पूछा गया है कि उसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने की दिशा में क्या कदम उठाये हैं लेकिन उन अखबारों तथा टीवी चैनलों का क्या जो नेताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों की अवहेलना करने का जरिया बन रहे हैं।
अक्सर बात होती है कि नेता, अपराधी तथा पुलिस-प्रशासन का एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जो व्यवस्था पर हावी है और जिसने समाज को भयभीत कर रखा है। हाल ही में पुलिस की कार्यप्रणाली को रेखांकित करते हुए उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था के बावत इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी प्रकार की तल्ख टिप्पणी की है।
क्या ऐसा नहीं लगता कि इस टिप्पणी में कुछ छूट गया है, कुछ अधूरा रह गया है। यह टिप्पणी तब मुकम्मल होती जब इसके साथ मीडिया को भी शामिल किया जाता लेकिन लगता है कि न्यायिक व्यवस्था भी मीडिया से बच कर निकल जाने में भलाई समझती है।
यदि ऐसा नहीं है तो क्यों कोई उच्च या सर्वोच्च न्यायालय विज्ञापनों के मामले में दिये गये आदेश-निर्देशों की अवहेलना करने के सहयोगी मीडिया हाउसेस पर कार्यवाही नहीं कर रहा।
क्यों इस मामले में वह किसी की याचिका का मोहताज है, क्यों वह ऐसे मामले में स्वत: संज्ञान नहीं ले रहा जिसका संदेश जनता के बीच काफी गलत जा रहा है। आमजन के मन में यह बात घर कर रही है कि सत्ता पर काबिज तथा सामर्थ्यवान लोगों के सामने सर्वोच्च न्यायालय भी बौना है।
कल ही ”हिंदुस्तान टाइम्स” समूह के हिंदी संस्करण ”हिंदुस्तान” में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चित्रों सहित एक चार पेज का जैकेट विज्ञापन छपा है। महिला शिक्षा और सुरक्षा को लेकर उत्तर प्रदेश के बढ़ते कदमों को प्रचारित करने वाले इस विज्ञापन में पढ़ें बेटियां-बढ़ें बेटियां, कन्या विद्याधन योजना, कौशल विकास मिशन, वुमेन पॉवर हेल्प लाइन, रानी लक्ष्मी बाई महिला सम्मान कोष तथा समाजवादी पेंशन योजना सहित कृषि में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी व महिलाओं के सशक्तीकरण का बखान किया गया है।
घर बैठे ऑनलाइन शिकायत (एफआईआर) दर्ज कराने की सुविधा का भी इस विज्ञापन में जिक्र है और एंबुलेंस सेवा का भी। लैपटॉप वितरण का भी और आशा ज्योति केंद्रों का भी। विज्ञापन में अखिलेश के साथ उनकी धर्मपत्नी व सांसद डिंपल यादव का भी फोटो प्रकाशित किया गया है और प्रदेश के अन्य दूसरे मंत्रियों व अधिकारियों का भी।
यह बात अलग है कि जिस दिन 16 जुलाई को अखिलेश सरकार ने ”मीडिया मार्केटिंग इनीशिएटिव” की आड़ लेकर लाखों रुपए का यह विज्ञापन अखबार में छपवाया, उसी दिन मथुरा के जिला अस्पताल में भर्ती एक नौ साल की लावारिस व मंदबुद्धि बच्ची के साथ गैंगरेप की वारदात सामने आई जिससे विज्ञापन की असलियत खुद-ब-खुद जाहिर हो जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हर किस्म के मीडिया की आमदनी का एकमात्र ”वैध” स्त्रोत विज्ञापन ही हैं और विज्ञापनों को प्रकाशित किये बिना किसी मीडिया संस्थान का सुचारु रुप से संचालन संभव नहीं है किंतु इसका यह मतलब कतई नहीं हो सकता कि आमदनी के लिए भक्ष या अभक्ष में भेद न रखा जाए।
आमदनी जरूरी है लेकिन जिस प्रकार कोई अपनी क्षुदा पूर्ति के लिए नाले-नाली की गंदगी नहीं खाता, उसी प्रकार मीडिया हाउसेस को भी यह तय करना होगा कि आमदनी के लिए अवैध तथा गंदे स्त्रोत स्वीकार न हों।
यदि समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो तोप का मुकाबला करने की क्षमता रखने वाले जिन अखबारों ने कभी नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित कर देश को स्वतंत्र कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी, जिनके उच्च आदर्श समाज को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे, जिनमें छपने वाले समाचारों के कारण कोई सत्ता से बेदखल हुआ तो कोई अप्रत्याशित रूप से सत्ता पर काबिज होने में सफल रहा, वही अखबार तथा समय के साथ प्रकट हुए मीडिया के दूसरे रूप खुद अपने वजूद को बचा पाने की क्षमता खो देंगे।
माना कि आज मीडिया जगत विज्ञापन ही नहीं, समाचारों के प्रकाशन व प्रसारण में मनमानी करने की ताकत पा चुका है लेकिन यह ताकत ही उसे ऐसे गर्त में ले जाने का माध्यम बन सकती है जिससे उबर पाना आसान नहीं होगा।
संभवत: यही कारण है कि आज आमजन के अंदर जिस कदर नेताओं, उनके राजनीतिक दलों तथा उनके लिए भांड़ों का काम कर रहे पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति आक्रोश बैठा हुआ है, उसी प्रकार मीडिया के प्रति भी आक्रोश पनप रहा है।
मीडिया और मीडिया कर्मियों को आमजन निश्चित ही अब अच्छी नजर से तो नहीं देखता।
वैध या अवैध तरीकों से पैसा जुटाने की जुगत में मीडिया ने अपने लिए करवट लेती इस जनभावना को नहीं पहचाना और सरकारों की सांठगांठ से उसका धंधा परवान चढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब उसका भी खेल खत्म होते ज्यादा देर नहीं लगेगी।
और तब उसके सभी कथित हिमायती या उसकी ताकत के सामने चुप बैठे रहने पर मजबूर संवैधानिक संस्थाएं ही उनकी जड़ों में मठ्ठा डालने का काम करेंगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
बानगी देखिए:
छोटा लिंग, निराश क्यों ? जापानी लिंगवर्धक यंत्र फ्री। सेक्स धमाका…लिंग को 7-8 इंच लंबा, मोटा, सुडौल तथा ताकतवर बनाएं। लाभ नहीं तो पैसा वापस।
क्या आपके पति की आपमें रुचि कम हो रही है? आपमें सेक्स इच्छा की कमी है…जापानी-M कैप्सूल पुरुषों के लिए और जापानी-F कैप्सूल महिलाओं के लिए। शौकीन लोग भी इस्तेमाल करके असर देखें।
यह मजमून उन विज्ञापनों का है जो हर रोज देश के तथाकथित बड़े अखबारों में छपते हैं।
यह और ऐसे अनेक विज्ञापन जिनमें डेटिंग, मीटिंग, चेटिंग, फ्रेंडशिप कराने से लेकर हर उम्र की महिला से संपर्क कराने का दावा किया जाता है, प्रमुख अखबारों की कमाई का बड़ा जरिया हैं।
इन विज्ञापनों को प्रकाशित करने वाले अखबार अपने बचाव में एक छोटी सी सूचना अथवा परामर्श भी सबसे नीचे कहीं प्रकाशित करते हैं।
यहां सवाल यह है कि समाज के हर वर्ग को दिन-रात नीति और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले तथा किसी के भी चरित्र का हनन करने को तत्पर अखबारों के मालिकान अपने बचाव में मात्र एक चेतावनी जारी करके कुछ भी छापने के लिए अधिकृत हैं या ये भी कानून से बच निकलने के हथकंडे अपनाकर नीति व नैतिकता को ताक पर रख चुके हैं।
आश्चर्य की बात तो यह है कि कोई सामाजिक या राजनीतिक संगठन इनके विरोध में आवाज नहीं उठाता जबकि अखबारों के ऐसे विज्ञापन यौन अपराधों की ओर प्रेरित करने का खुला आह्वान कर रहे हैं।
हालांकि इस मामले में न इलैक्ट्रॉनिक मीडिया पीछे हैं और न वेब मीडिया। वह जैसे प्रिंट मीडिया से प्रतिस्पर्धा को उतावला है, किंतु प्रिंट मीडिया व बाकी मीडिया में एक फर्क है। फर्क यह है कि छपे हुए शब्द इंसान को जितना अधिक प्रभावित करते हैं, उतना दूसरे माध्यम नहीं करते। इसके अलावा अखबार समाचारों का सबसे पुराना माध्यम हैं लिहाजा अखबारों की जिम्मेदारी भी औरों से अधिक बनती है लेकिन पैसे की खातिर अखबारों ने जिम्मेदारी को लाचारी में तब्दील कर लिया है।
अखबार मालिकानों का पैसे के लिए यह नैतिक पतन यदि इसी प्रकार जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब अखबारों में देह व्यापार के लिए लड़कियों की अथवा पुरुष वैश्यावृति के इच्छुक युवाओं की आवश्यकता संबंधी विज्ञापन भी प्रकाशित होने लगेंगे।
ताकत हमेशा अपने साथ तमाम बुराइयां लेकर आती है। चूंकि मीडिया फिलहाल काफी ताकतवर होकर उभरा है इसलिए वह निरंकुश हो चुका है। कहने के लिए मीडिया पर भी लगाम लगाने की व्यवस्था है किंतु यह व्यवस्था कुछ वैसी ही है जैसी सांसदों व विधायकों के वेतन-भत्ते तय करने की है। यानि मुजरिम ही मुंसिफ है।
तभी तो आलम यह है कि मीडिया हाउसेस को न किसी कानून की परवाह है और न किसी अदालत की। उस सर्वोच्च अदालत की भी नहीं जिसके चक्कर में फंसने से हर आम और खास आदमी बचने की पूरी कोशिश करता है।
सरकारी विज्ञापनों में मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों तथा जनप्रतिनिधियों के फोटो छपवाने पर पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया जिसके अनुसार सिर्फ प्रधानमंत्री को ही सरकारी विज्ञापन में फोटो छपवाने का अधिकार होगा। विशेष परिस्तिथियों में राष्ट्रपति, गवर्नर तथा सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस का फोटो सरकारी विज्ञापन का हिस्सा बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश तथा इससे संबंधित निर्देशों की सबसे पहले धज्जियां उड़ाईं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने। उसके बाद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों को खुली चुनौती देते हुए अपने फोटो सरकारी विज्ञापनों में प्रकाशित व प्रसारित कराये।
बेशक इस मामले में एक याचिका कांग्रेस नेता अजय माकन ने दायर की है और उस पर केंद्र तथा संबंधित राज्य सरकारों से जवाब तलब भी किया गया है। केंद्र से यह पूछा गया है कि उसने सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने की दिशा में क्या कदम उठाये हैं लेकिन उन अखबारों तथा टीवी चैनलों का क्या जो नेताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों की अवहेलना करने का जरिया बन रहे हैं।
अक्सर बात होती है कि नेता, अपराधी तथा पुलिस-प्रशासन का एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जो व्यवस्था पर हावी है और जिसने समाज को भयभीत कर रखा है। हाल ही में पुलिस की कार्यप्रणाली को रेखांकित करते हुए उत्तर प्रदेश की कानून-व्यवस्था के बावत इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसी प्रकार की तल्ख टिप्पणी की है।
क्या ऐसा नहीं लगता कि इस टिप्पणी में कुछ छूट गया है, कुछ अधूरा रह गया है। यह टिप्पणी तब मुकम्मल होती जब इसके साथ मीडिया को भी शामिल किया जाता लेकिन लगता है कि न्यायिक व्यवस्था भी मीडिया से बच कर निकल जाने में भलाई समझती है।
यदि ऐसा नहीं है तो क्यों कोई उच्च या सर्वोच्च न्यायालय विज्ञापनों के मामले में दिये गये आदेश-निर्देशों की अवहेलना करने के सहयोगी मीडिया हाउसेस पर कार्यवाही नहीं कर रहा।
क्यों इस मामले में वह किसी की याचिका का मोहताज है, क्यों वह ऐसे मामले में स्वत: संज्ञान नहीं ले रहा जिसका संदेश जनता के बीच काफी गलत जा रहा है। आमजन के मन में यह बात घर कर रही है कि सत्ता पर काबिज तथा सामर्थ्यवान लोगों के सामने सर्वोच्च न्यायालय भी बौना है।
कल ही ”हिंदुस्तान टाइम्स” समूह के हिंदी संस्करण ”हिंदुस्तान” में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चित्रों सहित एक चार पेज का जैकेट विज्ञापन छपा है। महिला शिक्षा और सुरक्षा को लेकर उत्तर प्रदेश के बढ़ते कदमों को प्रचारित करने वाले इस विज्ञापन में पढ़ें बेटियां-बढ़ें बेटियां, कन्या विद्याधन योजना, कौशल विकास मिशन, वुमेन पॉवर हेल्प लाइन, रानी लक्ष्मी बाई महिला सम्मान कोष तथा समाजवादी पेंशन योजना सहित कृषि में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी व महिलाओं के सशक्तीकरण का बखान किया गया है।
घर बैठे ऑनलाइन शिकायत (एफआईआर) दर्ज कराने की सुविधा का भी इस विज्ञापन में जिक्र है और एंबुलेंस सेवा का भी। लैपटॉप वितरण का भी और आशा ज्योति केंद्रों का भी। विज्ञापन में अखिलेश के साथ उनकी धर्मपत्नी व सांसद डिंपल यादव का भी फोटो प्रकाशित किया गया है और प्रदेश के अन्य दूसरे मंत्रियों व अधिकारियों का भी।
यह बात अलग है कि जिस दिन 16 जुलाई को अखिलेश सरकार ने ”मीडिया मार्केटिंग इनीशिएटिव” की आड़ लेकर लाखों रुपए का यह विज्ञापन अखबार में छपवाया, उसी दिन मथुरा के जिला अस्पताल में भर्ती एक नौ साल की लावारिस व मंदबुद्धि बच्ची के साथ गैंगरेप की वारदात सामने आई जिससे विज्ञापन की असलियत खुद-ब-खुद जाहिर हो जाती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हर किस्म के मीडिया की आमदनी का एकमात्र ”वैध” स्त्रोत विज्ञापन ही हैं और विज्ञापनों को प्रकाशित किये बिना किसी मीडिया संस्थान का सुचारु रुप से संचालन संभव नहीं है किंतु इसका यह मतलब कतई नहीं हो सकता कि आमदनी के लिए भक्ष या अभक्ष में भेद न रखा जाए।
आमदनी जरूरी है लेकिन जिस प्रकार कोई अपनी क्षुदा पूर्ति के लिए नाले-नाली की गंदगी नहीं खाता, उसी प्रकार मीडिया हाउसेस को भी यह तय करना होगा कि आमदनी के लिए अवैध तथा गंदे स्त्रोत स्वीकार न हों।
यदि समय रहते ऐसा नहीं किया गया तो तोप का मुकाबला करने की क्षमता रखने वाले जिन अखबारों ने कभी नैतिकता के उच्च मानदंड स्थापित कर देश को स्वतंत्र कराने में बड़ी भूमिका निभाई थी, जिनके उच्च आदर्श समाज को दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे, जिनमें छपने वाले समाचारों के कारण कोई सत्ता से बेदखल हुआ तो कोई अप्रत्याशित रूप से सत्ता पर काबिज होने में सफल रहा, वही अखबार तथा समय के साथ प्रकट हुए मीडिया के दूसरे रूप खुद अपने वजूद को बचा पाने की क्षमता खो देंगे।
माना कि आज मीडिया जगत विज्ञापन ही नहीं, समाचारों के प्रकाशन व प्रसारण में मनमानी करने की ताकत पा चुका है लेकिन यह ताकत ही उसे ऐसे गर्त में ले जाने का माध्यम बन सकती है जिससे उबर पाना आसान नहीं होगा।
संभवत: यही कारण है कि आज आमजन के अंदर जिस कदर नेताओं, उनके राजनीतिक दलों तथा उनके लिए भांड़ों का काम कर रहे पुलिस व प्रशासनिक अधिकारियों के प्रति आक्रोश बैठा हुआ है, उसी प्रकार मीडिया के प्रति भी आक्रोश पनप रहा है।
मीडिया और मीडिया कर्मियों को आमजन निश्चित ही अब अच्छी नजर से तो नहीं देखता।
वैध या अवैध तरीकों से पैसा जुटाने की जुगत में मीडिया ने अपने लिए करवट लेती इस जनभावना को नहीं पहचाना और सरकारों की सांठगांठ से उसका धंधा परवान चढ़ता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब उसका भी खेल खत्म होते ज्यादा देर नहीं लगेगी।
और तब उसके सभी कथित हिमायती या उसकी ताकत के सामने चुप बैठे रहने पर मजबूर संवैधानिक संस्थाएं ही उनकी जड़ों में मठ्ठा डालने का काम करेंगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी