रविवार, 28 जून 2015

शांति भूषण का दावा: आडवाणी चाहते थे कायम रहे आपातकाल लगाने की ताकत

नई दिल्‍ली। देश के अंदर आपातकाल लगाने वाली पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ मुकद्दमा लड़ने और जीतने वाले वकील शांति भूषण ने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा है कि बीजेपी के सीनियर लीडर लालकृष्ण आडवाणी चाहते थे कि सरकार के पास आपातकाल लगाने की ताकत मौजूद रहे।
लालकृष्ण आडवाणी ने इसके लिए संविधान के 44वें संशोधन का विरोध किया था।
शांति भूषण का बयान इसलिए भी अहम है क्योंकि आडवाणी इमरजेंसी के खिलाफ खुलकर बोलते रहे हैं। पिछले दिनों आडवाणी ने आशंका जताई थी कि देश में फिर से आपातकाल लग सकता है।
इमरजेंसी और राजनीतिक से जुड़े सवालों को लेकर रू-ब-रू हुए पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील शांति भूषण से। पेश है बातचीत के मुख्य अंशः
सवाल- 40 साल पहले 25 जून 1975 को कांग्रेस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोपा था। अब आप जब मुड़कर देखते हैं तो लोकतंत्र को किस मायने में मजबूत और किस मायने में कमजोर पाते हैं?
जवाब- उस समय संविधान में ही प्रावधान था कि सरकार अपनी जरूरत के अनुसार जनाधिकारों को छीन सकती है इसलिए इंदिरा ने इतनी आसानी से मुल्क को तानाशाही के शासन में धकेल दिया। अब ऐसा नहीं है। 1977 में मैं जब कानून मंत्री बना तो 44वां संविधान संशोधन हुआ। संशोधन में दर्ज हुआ कि आपातकाल लगाए जाने के बावजूद भी संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 को खत्म नहीं किया जाएगा जबकि 1975 में इंदिरा ने इन्हीं दोनों अनुच्छेदों को हम से ले लिया। अनुच्छेद 19 में दो बेहद महत्वपूर्ण अधिकार हैं। पहला, अभिव्यक्ति का अधिकार जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है और दूसरा है बिना हथियार शांतिपूर्वक एकत्रित होकर विरोध करने का अधिकार। वहीं अनुच्छेद 21 के तहत प्रावधान है कि अगर किसी को गलत तरीके से गिरफ्तार किया जाए तो वह अदालत में ‘हैबियस कॉरपस याचिका’ दाखिल कर अदालत से रिहाई की अपील कर सकता है। साफ है कि अब कोई सरकार आपातकाल लगाकर जनता के बुनियादी अधिकारों पर ताला नहीं जड़ सकती ।
सवाल- 1975 के बाद क्या कभी ऐसा हुआ जब आपको लगा हो कि अगर 44वां संविधान संशोधन नहीं हुआ होता देश में आपातकाल लग सकता था?
जवाब- साल 2011 में अन्ना आंदोलन से खौफजदा कांग्रेस सरकार दोबारा देश पर आपातकाल लाद सकती थी। एक हफ्ते के भीतर जिस तरह देश में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन फैला उससे सरकार आपातकाल के बाद पहली बार घबराई थी। जनता से लेकर मीडिया तक कोई उनके साथ नहीं था, कांग्रेस पार्टी के नेताओं का आत्मविश्वास लगातार डांवाडोल हो रहा था। वे इतने घबराए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की ज्वाइंट ड्राफ्टिंग कमेटी की मांग तक को मान गए जिसके बारे में उनका कहना था कि यह गैर संवैधानिक है। पर 44वें संशोधन के बाद अब सरकार के पास ऐसा कोई अधिकार ही नहीं है कि वह अभिव्यक्ति, प्रेस की आजादी और अदालत जाने के अधिकार को छीन सके।
सवाल- तो क्या देश में अब आपातकाल असंभव है?
जवाब- बेशक, देश में आपातकाल असंभव है। यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी बहुमत के सरकार के बूते आपातकाल दोहराना चाहें तो वह एक दिवास्वप्न ही साबित होगा। लोगों की लोकतांत्रिक चेतना, मीडिया और संचार माध्यमों की पकड़ देश में विद्रोह करा देगी पर आपातकाल को नहीं सह पाएगी।
सवाल- पर आप लोगों ने संविधान संशोधन के दौरान आपातकाल का प्रावधान ही क्यों नहीं खत्म कर दिया?
जवाब- आपातकाल से सरकार को कुछ अधिकार मिलते हैं। अगर कोई सरकार आपातकाल लगाकर लोकतंत्र को खत्म नहीं कर पाती और वह आपातकाल देश के मुश्किल वक्त की जरूरत है, फिर इसमें मुझे कोई बुराई नहीं जान पड़ती। उस पर ज्यादा हायतौबा नहीं मचाया जाना चाहिए। कई बार आपातकाल देश के लिए जरूरी भी हो सकता है, रेयर ऑफ द रेयरेस्ट मामलों में, खासकर युद्ध की स्थितियों में।
सवाल- फिर आडवाणी की आशंका ‘दुबारा भी लगाया जा सकता है आपातकाल’ का क्या आधार है?
जवाब- नेता दो तरह के होते हैं। एक वो जो सिर्फ अपना और अपनी पार्टी का फायदा देखते हैं, दूसरे वो जिन्हें स्टेट्समैन कहते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी स्टेट्समैन थे जबकि लालकृष्ण आडवाणी अपना भला चाहने वालों में हैं। जनता पार्टी की सरकार में जब वो मेरे साथ कैबिनेट मंत्री थे, तब भी उन्होंने 42 वें संशोधन का विरोध किया। वकील राम जेठमलानी और आडवाणी जी का कहना था कि 42वें संशोधन का हू-ब-हू लागू किया जाए अन्यथा उसे पूरे तौर पर खत्म कर दिया जाए। मेरा कहना था जो उसकी अच्छी चीजें हैं उसे लेने में हर्ज क्या है? कैबिनेट ने उनके सुझाव को तवज्जो नहीं दी थी। अब 40 साल बाद उन्हें आपातकाल का डर सता रहा है। मुझे लगता है कि आडवाणी जी ने संविधान का 44वां संशोधन पढ़ा ही नहीं, अन्यथा ऐसा नहीं कहते। मेरा विनम्र सुझाव है कि एक बार वह संशोधन को ध्यान से पढ़ लें, जवाब उन्हें स्वत: मिल जाएगा।
सवाल- कई नेता, राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं, लिख रहे हैं कि देश में अघोषित आपातकाल जैसी स्थितियां हैं?
जवाब- देखिए,सरकारों के काम करने के दो तरीके हैं। पहला लोकतांत्रिक होकर, सबको शामिल कर और दूसरा है अकेले के फैसले को ही नियम बताकर। लोकतांत्रिक तरीके में विकास की गति थोड़ी धीमी रहती है लेकिन समाज के सभी वर्गों का ख्याल रखा जाता है। वहीं अकेले की शासन प्रणाली में व्यक्ति ही कानून और अध्यादेश हो जाता है, हालांकि विकास की गति तेज होती है। मोदी सरकार भी फिलहाल एकल नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ रही है। अपने ही मंत्रियों-नेताओं के पर कतर रही है, मगर इसे अघोषित आपातकाल कहने की बजाए प्रैक्टिस कह सकते हैं। जैसे-जैसे लोगों का मन पकता जाएगा मोदी के तेवर भी बिखरते जाएंगे।
सवाल- आपको इंदिरा गांधी के खिलाफ पैरवी के लिए खड़े होने का मौका कैसे मिला?
जवाब- 1971 के लोकसभा चुनाव के दौरान मैं उत्तर प्रदेश का एडवोकेट जनरल था। तभी मुझसे राजनारायण मिले। उन्होंने याचिका में मुख्य मुद्दा ‘केमीकली टिंटेड बैलेट पेपर’ का उठाया था। उनका कहना था कि इंदिरा ने बैलेट पर रूस से मंगाए केमीकल का इस्तेमाल किया है। इस संदर्भ में उन्होंने लखनऊ के एक-दो वैज्ञानिकों से मेरी मुलाकात कराई। वैज्ञानिकों ने अल्ट्रा वॉयलेट किरणों के जरिए कुछ दिखाया पर मैंने कहा, इससे कुछ नहीं होना है। फिर मैंने कुछ आधार बनाए। चुनावी सभाओं-प्रचारों में सरकारी धन का दुरुपयोग, एयरफोर्स के हेलीकॉप्टरों से इंदिरा का चुनावी दौरा, अदालत में मुद्दा बना जिसके आधार पर 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1971 के चुनाव को अवैध और अमान्य करार दिया।
सवाल- तो क्या इंदिरा गांधी गलत तरीके से जीती थीं?
जवाब- सरकारी धन का इस्तेमाल किया था पर जीत की वजह कुछ और थी। इंदिरा ने कहा, ‘ये लोग कहते हैं इंदिरा हटाओ, मैं कहती हूं गरीबी हटाओ।’ और दूसरा उन्होंने निजी बैंकों का सरकारीकरण कर दिया। ये दोनों आपस में जुड़ गए। इंदिरा के प्रचार तंत्र से गरीबों ने पूछा कैसे हटेगी गरीबी, उनका जवाब था इसलिए तो निजी बैंकों को सरकारी किया है। गरीबों को लगा अब बैंक सरकारी हो गए, जो रुपए पहले एक आदमी के थे वो सबके हो गए। इसकी तुलना आप मोदी सरकार के उस वादे से कर सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि स्विस बैंक से कालाधन लाकर हर व्यक्ति के खाते में 15 लाख जमा होंगे।
सवाल- लोग मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से करते हैं?
जवाब- मैं भी मानता हूं कि मोदी में बहुत कुछ इंदिरा गांधी जैसा है। संसाधनों पर पकड़, निर्णय पर एकाधिकार, विरोध करने वालों को हाशिए पर डालना, मजबूत नेताओं को कमजोर बनाते जाना और सबके ऊपर छा जाने की फितरत जैसी तमाम चीजें इंदिरा जैसी दिखती हैं पर वह इंदिरा का आपातकाल नहीं लागू कर सकते कि वह 1975 में नहीं बल्कि 2014 में शासन कर रहे हैं।
क्या है संविधान का 44 वां संशोधन?
संविधान में 44वां संविधान संशोधन 1977 में किया गया था। संशोधन में दर्ज किया गया कि देश में आपातकाल लगाए जाने के बावजूद भी संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 को खत्म नहीं किया जाएगा।

शनिवार, 27 जून 2015

फर्जीवाड़ा: एक ही वक्त पर 9 कॉलेजों में पढ़ा रही थी टीचर

गोरखपुर। दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर यूनिवर्सिटी से जुड़े डिग्री कॉलेजों में पढ़ाने वाली 100 महिला टीचर मुश्किल में हैं। इनमें से हर एक टीचर एक ही समय में अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ाती पाई गई हैं। फर्जीवाड़े की आरोपी एक टीचर तो एक ही समय पर अलग-अलग जिलों में फैले नौ डिग्री कॉलेजों में पढ़ाती पाई गई है। यूनिवर्सिटी ने पहले ऐसी 10 महिला टीचरों के खिलाफ कार्यवाही करने का फैसला किया है।
फर्जीवाड़े का खुलासा उस वक्त हुआ, जब गृह विज्ञान विषय के परीक्षकों की कमी हुई। कुलपति प्रो. अशोक कुमार ने जब मातहतों से जानकारी ली तो पता चला कि 259 कॉलेजों में गृह विज्ञान पढ़ाने के लिए 325 टीचर हैं। कॉलेजों से जब सभी टीचरों के बारे में जानकारी मंगाई गई तो पता चला कि एक ही नाम की टीचर कई कॉलेजों में एक ही वक्त पर पढ़ा रही है।
35 कॉलेजों में पढ़ा रहीं 10 टीचर
कार्यवाही के लिए तैयार पहली लिस्ट में जिन 10 शिक्षिकाओं का नाम है, वे 35 अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ा रही हैं। इस सवाल का जवाब कोई नहीं दे सकेगा कि शिक्षिका एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कॉलेज तक एक ही वक्त पर किस तरह से पहुंचती हैं।
अलग-अलग जिलों में एक ही वक्त मौजूद
जिन महिला टीचरों पर कार्यवाही की तैयारी है, उनमें डॉ. किरण यादव का नाम भी शामिल है। यूनिवर्सिटी को जांच से पता चला कि वह नौ कॉलेजों में गृह विज्ञान पढ़ाती हैं। एक ही वक्त पर वह देवरिया जिले के तीन कॉलेजों के अलावा गोरखपुर, महराजगंज, कुशीनगर और बस्ती के भी एक-एक कॉलेज में क्लास लेती दिखाई गई हैं। बाकी टीचरों की सूची भी गड़बड़झाले की पोल खोल देती है।
क्या कहते हैं कुलपति?
डीडीयू गोरखपुर यूनिवर्सिटी के कुलपति डॉ. अशोक कुमार का कहना है कि सख्त कार्यवाही की जाएगी ताकि भविष्य में इस तरह के फर्जीवाड़े को रोका जा सके।
यूनिवर्सिटी प्रशासन ने इस मामले में अब तक 35 कॉलेजों को नोटिस जारी किया है। इनसे जवाब न मिलने या जवाब के संतोषजनक न होने पर सख्त कार्यवाही करने का भरोसा कुलपति दे रहे हैं। संबंधित शिक्षिकाओं को अयोग्य घोषित कर कॉलेज की संबद्धता भी खत्म की जा सकती है। कुलपति ने इसके साथ ही सभी कॉलेजों और उनमें पढ़ाने वाले शिक्षक-शिक्षिकाओं का डाटा बैंक बनाने का भी आदेश दिया है ताकि इस तरह के फर्जीवाड़े को रोका जा सके।

ग्वाटेमाला में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ प्रतीक बन गए हैं ओसवाल्डो ओचोआ

लातिन अमरीकी देश ग्वाटेमाला में 62 ओसवाल्डो ओचोआ भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ प्रतीक बन गए हैं. उन्होंने बीते दिनों बिना कुछ खाए अकेले 200 किलोमीटर लंबा सफ़र तय किया. उनका कहना है कि वो अपने देश में साफ़ और स्वच्छ सरकार के लिए लड़ रहे हैं.
भ्रष्टाचार पर नज़र रखने वाली संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल का कहना है कि भ्रष्टाचार सिर्फ़ ग्वाटेमाला नहीं, बल्कि लातिन अमरीकी क्षेत्र के दो तिहाई देशों के लिए एक बड़ी समस्या है.
बावजूद इसके कुछ विश्लेषक लातिन अमरीका में हालात भारत और चीन से बेहतर बताते हैं.
ब्राज़ील में इसी साल मार्च में 15 लाख और फिर अप्रैल में छह लाख से ज़्यादा लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ ज़ोरदार प्रदर्शन किए.
वहां हाल में भ्रष्टाचार के दो बड़े मामले सामने आए हैं.
कई बड़े राजनेताओं पर तेल कंपनी पेत्रोब्रास से रिश्वत लेने के आरोप लगे तो निर्माण कंपनी ओदरब्रेश्ट के मुखिया को भी भ्रष्टाचार के आरोपों में गिरफ़्तार किया गया.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक़ लातिन अमरीका में भ्रष्टाचार को लेकर सबसे ख़राब स्थिति वेनेजुएला और हैती की है.

शुक्रवार, 19 जून 2015

जालसाजी के कारण नहीं मिली रामकिशोर के केडी मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता

मथुरा। आरके ग्रुप ऑफ एजुकेशन के चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल के केडी मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता न मिल पाने का कारण कॉलेज के संचालन में की जा रही भारी जालसाजी बताया गया है।
यह जानकारी देशभर के मेडिकल कॉलेजों को मान्यता प्रदान करने वाली संस्‍था मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के सूत्रों ने दी है।

सूत्रों का तो यह कहना है कि अब तक आम लोगों को जालसाजी करके डिग्रियां हासिल करने वाले ”मुन्‍ना भाइयों” की ही जानकारी रही होगी लेकिन मथुरा का यह पूरा कॉलेज ही ”मुन्‍ना भाई मेडीकल कॉलेज” निकला।
एमसीआई के सूत्रों का कहना है कि केडी मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता देने के लिए किये गये इंस्‍पेक्‍शन में पता लगा कि कॉलेज में न सिर्फ फैकल्‍टीज फर्जी दिखाई गई हैं बल्‍कि फर्जी मरीज तक लाकर एडमिट कर दिये गये।
एमसीआई के मुताबिक तीन बार किये गये इंस्‍पेक्‍शन के दौरान एमसीआई के पैनल को पता लगा कि जो फैकल्‍टीज केडी मेडीकल कॉलेज में कार्यरत दर्शायी गई हैं, एक्‍चुअली वह पहले से किन्‍हीं दूसरे मेडीकल कॉलेज में कार्यरत थीं।
इसी प्रकार पैनल को जो मरीज पहले इंस्‍पेक्‍शन में कॉलेज के अंदर एडमिट दिखाये गये वही मरीज हर बार यानि दूसरे और तीसरे इंस्‍पेक्‍शन में भी दिखा दिये गये। कॉलेज के ओपीडी से लेकर आईसीयू आदि में वही मरीज एडमिट मिले।
एमसीआई के सूत्रों ने बताया कि इन मरीजों में से भी करीब 60 प्रतिशत वो लोग बार-बार एडमिट दिखाये जा रहे थे जो किसी रोग से पीड़ित ही नहीं थे।
यही कारण रहा कि केडी मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता की प्रक्रिया से बाहर (डी-बार) कर दिया गया।
एमसीआई के सूत्रों का कहना है कि अब कम से कम दो साल बाद आरके ग्रुप इस कॉलेज की मान्‍यता के लिए आवेदन कर सकता है लेकिन तब भी उन कारणों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता जिन कारणों से अब इसे डी-बार किया गया है।
बताया जाता है कि केडी मेडीकल कॉलेज के निर्माण पर काफी बड़ी रकम खर्च हो जाने के बावजूद इसे मान्‍यता न मिल पाने से ग्रुप के चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल डिप्रेशन में आ गये हैं और डिप्रेशन के चलते ही उन्‍होंने कॉलेज के कर्मचारियों से वो व्‍यवहार कर डाला जो किसी गरिमामय पद पर बैठे व्‍यक्‍ति को शोभा नहीं देता।
यह भी जानकारी मिली है कि रामकिशोर के व्‍यवहार और मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता न मिल पाने के कारण बहुत बड़ी संख्‍या में कर्मचारियों ने कॉलेज छोड़ दिया है।
कुछ समय पहले तक केडी मेडीकल कॉलेज में जहां 104 कर्मचारी हुआ करते थे, वहां आज की तारीख में मात्र 34 कर्मचारी कार्यरत हैं, और ये कर्मचारी भी पिछले दिनों उनके साथ हुई मारपीट की घटना के कारण कॉलेज छोड़ने का मन बना चुके हैं।
केडी मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता न मिलने तथा वहां कर्मचारियों के साथ मारपीट किये जाने का समाचार ”लीजेंड न्‍यूज़” में प्रकाशित होने के बाद आज आगरा से प्रकाशित दैनिक जागरण अखबार के पृष्‍ठ संख्‍या चार पर केडी मेडीकल कॉलेज का एक क्‍वार्टर पेज विज्ञापन प्रकाशित कराया गया है किंतु आरके ग्रुप के चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल संभवत: यह भूल गये हैं कि इस तरह ऑब्‍लाइज करके वह किसी अखबार में समाचार छपने से तो रोक सकते हैं लेकिन मान्‍यता नहीं पा सकते।
मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता न मिल पाने के बाद आरके ग्रुप के फर्जीवाड़े की और भी बहुत सी जानकारियां अब सामने आ रही हैं।
कॉलेज के ही सूत्र बताते हैं कि ग्रुप में भी एक ही फैकल्‍टी को कई-कई जगह कार्यरत दिखाया जा रहा है। जैसे जो व्‍यक्‍ति इनके डेंटल कॉलेज में किसी एक पद पर कार्यरत है, वही इनकी फार्मेसी में किसी दूसरे पद पर और राजीव एकेडमी में किसी अन्‍य पद पर कार्यरत दर्शा रखा है।
बताया जाता है कि इसी महीने की 19 से 24 तारीख तक केडी डेंटल कॉलेज का इंस्‍पेक्‍शन होना है। इस इंस्‍पेक्‍शन के लिए ग्रुप के लोग फर्जी अर्थात् भाड़े की अस्‍थाई फैकल्‍टी तथा नकली मरीजों का जुगाड़ करने में लगे हैं ताकि कहीं डेंटल कॉलेज की मान्‍यता पर भी आंच न आ जाए।
रामकिशोर की कार्यप्रणाली का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि इंस्‍पेक्‍शन के दौरान वह अपने यहां कार्यरत ठेका मजदूरों को ही मरीज बनाकर लेटा देते हैं और आस-पास के गांवों से ट्रॉलियां भरवाकर लोगों को बुला लेते हैं।
इंस्‍पेक्‍शन से पहले अखबारों में फ्री चैकअप तथा कैंप संबंधी विज्ञापन दे दिया जाता है जिससे लोग अच्‍छी तादाद में पहुंचने लगते हैं जबकि सामान्‍य दिनों में पहुंचने वाले मरीजों को कॉलेज के डॉक्‍टर उसी प्रकार तारीख पर तारीख देते रहते हैं जिस प्रकार कचहरी में दी जाती है क्‍योंकि आज भी डेंटल कॉलेज में फैकल्‍टी की भारी कमी है।
रही बात मेडीकल कॉलेज के कर्मचारियों से मारपीट करने की तो यह न पहली बार हुआ है न केवल मेडीकल कॉलेज का किस्‍सा है।
बताया जाता है कि छोटी-छोटी बात पर उत्‍तेजित होकर आपे से बाहर हो जाना रामकिशोर, उनके पुत्रों तथा मामा के नाम से कुख्‍यात उनके साले का शगल रहा है।
यह बात अलग है कि अब तक यह अपने पैसे तथा प्रभाव के बल पर ऐसे सभी मामलों को दबाने में सफल रहे हैं।
मेडीकल कॉलेज को मान्‍यता न मिल पाने की वजह से बर्बादी के कगार तक पहुंच चुके रामकिशोर की इस दशा का एक कारण व्‍यावसायिक तथा पारिवारिक प्रतिद्वंदता भी बताई जाती है।
सूत्रों की मानें तो हर काले को सफेद करने में माहिर रामकिशोर इस बार इसलिए मात खा गये कि व्‍यावसायिक व पारिवारिक प्रतिद्वंदियों ने इंस्‍पेक्‍शन करने वाले पैनल को कुछ भी गलत करने का मौका नहीं मिलने दिया। उन्‍होंने रामकिशोर की पूरी असलियत उनके सामने रखी और इसके लिए हर वो हथकंडा अपनाया जिससे पैनल किसी बहकावे में न आ सके।
दरअसल, एक मामूली से व्‍यवसायी से तकनीकी शिक्षा के हब का चेयरमैन बन जाने वाले रामकिशोर अग्रवाल ने कभी सोचा नहीं था कि वक्‍त जब करवट लेता है तो सारे पांसे उल्‍टे पड़ने लगते हैं और सारी जालसाजी रखी की रखी रह जाती है।
रामकिशोर अग्रवाल के स्‍वास्‍थ्‍य के लिए अब यही मुफीद होगा कि वह शिक्षा के अपने व्‍यवसाय में पूरी परदर्शिता रखें और खुद को किसी मसीहा की तरह पेश न करके व्‍यावसायिक सच्‍चाइयों से रुबरू हों।
रामकिशोर अग्रवाल को समझना होगा कि हर रोज किसी न किसी संस्‍था से कोई अवार्ड पाने का समाचार अखबारों में छपवाने से सच्‍चाई को बहुत दिनों तक छिपा पाना संभव नहीं होता।
वक्‍त पर सच्‍चाई सामने आकर रहती है, और रामकिशोर अग्रवाल इसका अहसास एक बार विधानसभा का चुनाव लड़कर भी कर चुके हैं।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

बुधवार, 17 जून 2015

आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन को बड़ा झटका, मेडीकल कॉलेज को नहीं मिली मान्‍यता

-रामकिशोर, उनके पुत्रों व साले सहित कई लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज 
-मेडीकल कॉलेज के कर्मचारियों ने किया आंदोलन का ऐलान 
-न्‍याय न मिलने पर सामूहिक त्‍यागपत्र की भी घोषणा
The biggest shock of the R Group of Education, Medical College has not recognizedअपने मेडीकल कॉलेज का सपना पूरा न हो पाने और प्रस्‍तावित मेडीकॉल कॉलेजेस की लिस्‍ट से भी डीबार हो जाने के कारण आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन के चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल इस कदर बौखला गये कि उन्‍होंने मेडीकल कॉलेज के कर्मचारियों पर ही जानलेवा हमला कर दिया।
इस हमले में मेडीकल कॉलेज के एक कर्मचारी की रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोट आई है तथा उसकी एक आंख भी बुरी तरह जख्‍मी है जबकि कई अन्‍य कर्मचारी भी जख्‍मी हुए हैं। नीरज चाहर नाम के जिस कर्मचारी की रीढ़ की हड्डी टूटी है तथा आंख में गंभीर चोट है, उसकी हालत चिताजनक बताई गई है और वो आगरा के निजी अस्‍पताल में एडमिट है।
इस घटना के बाद कॉलेज के करीब 53 कर्मचारियों ने चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए एक ओर जहां आंदोलन करने का ऐलान किया है वहीं दूसरी और नौकरी से ही त्‍यागपत्र देने की घोषणा कर दी है।
collegeइस संबंध में मिली विस्‍तृत जानकारी के मुताबिक पिछले कई वर्षों से आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन के चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल अपने यहां मेडीकल कॉलेज बनाने का सपना देख रहे थे क्‍योंकि केडी डेंटल कॉलेज यह ग्रुप काफी समय से संचालित कर रहा है। मेडीकल कॉलेज के लिए उन्‍होंने मथुरा जनपद की सीमा के अंदर पड़ने वाले नेशनल हाईवे नंबर-2 के कस्‍बा छाता अंतर्गत अकबरपुर में ‘केडी मेडीकल कॉलेज हॉस्‍पीटल एंड रिचर्स सेंटर’ की विशाल इमारत खड़ी करके मान्‍यता के लिए प्रक्रिया शुरू कर दी।
इस प्रक्रिया के तहत के समय-समय पर इस मेडीकल कॉलेज की इस इमारत तथा कॉलेज की मान्‍यता के लिए जरूरी स्‍टाफ व उपकरणों सहित अन्‍य मामलों का तीन बार मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने इंस्‍पेक्‍शन किया और तीनों ही बार रामकिशोर अग्रवाल के केडी मेडीकल कॉलेज इंस्‍पेक्‍शन में फेल हो गया लिहाजा इसे मेडीकल कॉलेज के संचालन की मान्‍यता तो दी ही नहीं गई, साथ ही डीबार यानि इस प्रक्रिया से ही बाहर कर दिया गया।
2015 में यूपी के जिन तीन संस्‍थानों को मेडीकल कॉलेज संचालित करने की मान्‍यता दी गई है उनमें से एक सहारनपुर का शेख-उल-हिंद मौलाना हसन मेडीकल कॉलेज है, दूसरा है सीतापुर का हिंद इंस्‍टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइंसेज तथा तीसरा है वाराणसी का हैरीटेज इंस्‍टीट्यूट ऑफ मेडीकल साइंसेंज।
kdआर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन के चेयरमैन को जब इस लिस्‍ट से अपने मेडीकॉल कॉलेज को डीबार कर देने की जानकारी हुई तो वह बुरी तरह बौखला गये और उन्‍होंने इंस्‍पेशन फेल होने का कारण मेडीकल कॉलेज के स्‍टाफ को मानते हुए उन्‍हें कॉलेज से बाहर निकल जाने का फरमान सुना दिया।
बताया जाता है चेयरमैन रामिकशोर अपने पुत्रों तथा साले सहित अपने तमाम गुर्गों को लेकर मेडीकल कॉलेज जा पहुंचे और वहां के रेजीडेंट डॉक्‍टर, टेक्‍निकल स्‍टाफ तथा नर्सिंग स्‍टाफ को तत्‍काल कॉलेज छोड़ देने के लिए कहा।
कॉलेज सूत्रों के अनुसार कर्मचारियों ने कहा कि जब मेडीकल कॉलेज को मीन्‍यता ही नहीं मिली है तब हम यहां रहकर करेंगे भी क्‍या किंतु हमें आप थोड़ा समय दीजिए जिससे हम अपना बंदोबस्‍त कर सकें।
कॉलेज कर्मचारियों के मुताबिक कर्मचारियों के इतना कहते ही चेयरमैन रामकिशोर, उनके बेटे व साला तथा साथ आये गुर्गे बुरी तरह बौखला गये और कर्मचारियों के साथ गाली-गलौज करते हुए उन्‍हें पीटने लगे।
इसी दौरान बीच-बचाव के प्रयास में चेयरमैन रामकिशोर के भी किसी का हाथ लग गया। चेयरमैन पर हाथ लगते ही वह, उनके परिजन तथा गुर्गे कर्मचारियों को बुरी तरह पीटने लगे।
इस पिटाई में नीरज चाहर को टारगेट किया गया क्‍योंकि चेयरमैन को शक था कि उनके ऊपर उसी ने हाथ उठाया है।
बताया जाता है कि यह लोग नीरज चाहर को तब तक मारते रहे जब तक वह मरणासन्‍न न हो गया।
मेडीकल कॉलेज में इस घटना की जानकारी होने के बाद मौके पर पहुंची इलाका पुलिस ने रामकिशोर के प्रभाव में और तो कुछ नहीं किया अलबत्‍ता गंभीर रूप से घायल नीरज चाहर को उपचार के लिए ले गई जहां उसकी चिंताजनक हालत को देखते हुए उसे आगरा भेज दिया गया।
kd-1बताया जाता है कि इलाका पुलिस द्वारा इस संबंध में एफआईआर भी दर्ज न किये जाने के बाद पीड़ित पक्ष ने सीआरपीसी की धारा 156/3 के तहत कोर्ट के आदेश से एफआईआर दर्ज कराई गई है जिसमें चेयरमैन रामकिशोर, उनके पुत्रों मनोज व पंकज तथा साले अरुण उर्फ मामा सहित कई लोगों को नामजद कराया है।
आज इस संबंध में जब ‘लीजेंड न्‍यूज़’ ने चेयरमैन रामकिशोर अग्रवाल के मोबाइल नंबर पर बात की तो उनका कहना था कि कर्मचारियों के साथ मारपीट पब्‍लिक ने की थी, हमने नहीं।
रामकिशोर अग्रवाल से यह पूछे जाने पर कि यदि पब्‍लिक ने मारपीट की थी तो आपने एफआईआर क्‍यों नहीं कराई जबकि वो आपके ही कर्मचारी हैं, रामकिशोर कोई जवाब नहीं दे पाये और कहने लगे कि हम तो सभी मीडिया हाउसेस और मीडियाकर्मियों को ऑब्‍लाइज करते हैं, आप ऐसी बातें मुझसे क्‍यों कर रहे हैं।
‘लीजेंड न्‍यूज़’ ने जब उनसे कहा कि हम न कभी किसी से ऑब्‍लाइज होते हैं और न खबरों में कोई समझौता करते हैं, तो रामकिशोर कहने लगे कि मैं तो शिक्षण संस्‍थाएं चलाकर समाज सेवा कर रहा हूं और आप उसका यह प्रतिफल दे रहे हैं।
दरअसल आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन के चेयरमैन रामकिशोर ही नहीं, लगभग सभी शिक्षा व्‍यवसायी अब खुद को शिक्षाविद् तथा अपने इस व्‍यवसाय को समाज सेवा का जामा पहनाने की कोशिश करते हैं जबकि सच्‍चाई यह है कि वह पूरी तरह पेशेवर हैं और निर्धारित फीस से कई गुना अधिक फीस भी वसूलने से नहीं चूकते।
यही कारण है कि कृष्‍ण की जिस नगरी में चंद वर्षों पहले तक जहां एक ढंग का कॉलेज नहीं हुआ करता था और तकनीकी शिक्षा के नाम पर तो कुछ नहीं था, उस धार्मिक जनपद की पहचान अब तकनीकी शिक्षा के हब की बन चुकी है।
जिन्‍होंने एक कॉलेज से शुरूआत की थी, बहुत कम समय में वो ‘एजुकेशनल ग्रुप’ बन गये। कभी साड़ी के कारखाने में किराये की जगह पर राजीव एकेडमी से शुरूआत करने वाले रामकिशोर के आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन में आधा दर्जन से अधिक कॉलेज हैं और जीएल बजाज के नाम से एक अलग ग्रुप और स्‍थापित हो चुका है।
यही नहीं, आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन ने अपनी जड़े सीमा पर श्रीलंका तथा नेपाल तक जमा ली हैं। नोएडा में तो इनका एक कॉलेज चल ही रहा है।
यह वही रामकिशोर हैं जो सन् 1998 से पहले शहर के अंदर संगीत सिनेमा के बराबर एक बाड़े में छोटा सा कंम्‍प्‍यूटर इंस्‍टीट्यूट चलाते थे और चांदी के सामान्‍य कारोबारी थे।
बताया जाता है कि रामकिशोर के के डी डेंटल कॉलेज में भी अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर एडमीशन लिये जा रहे हैं और डिस्‍टेंश एजुकेशन की आड़ में देश के सुदूरवर्ती इलाकों के छात्रों को डिग्रियां दी जा रही हैं। इसके लिए उनसे मोटा पैसा वसूला जाता है जबकि के डी डेंटल कॉलेज डिस्‍टेंश एजुकेशन के लिए अधिकृत ही नहीं है।
इसी प्रकार इनके ग्रुप द्वारा संचालित इंटर कॉलेज ”राजीव इंटरनेशनल” में भी भारी अनियमितताओं का पता लगा है। इस कॉलेज को भी अभी सीबीएसई से 12वीं बोर्ड की परीक्षा कराने के लिए मान्‍यता नहीं मिली है जबकि यह अपने यहां 12वीं के छात्रों को पढ़ा रहे हैं। इस मामले में विस्‍तृत विवरण की प्रतीक्षा है।
जो भी हो, लेकिन इतना तो तय है कि मेडीकल कॉलेज की मान्‍यता पाने के लिए जरूरी औपचारिकताएं पूरी न कर पाने के कारण आर के ग्रुप ऑफ एजुकेशन के साथ-साथ ब्रजवासियों का भी मथुरा में एक मेडीकल कॉलेज खुलने का सपना टूट गया। यह बात अलग है कि इसके बाद ग्रुप के चेयरमैन बुरी तरह बौखला गये और बौखलाहट में ऐसा कदम भी उठा बैठे जो उनकी गरिमा, मान-सम्‍मान व प्रतिष्‍ठा का शोभा नहीं देता। हो सकता कि अब उन्‍हें इसके लिए ठेस भी लगे क्‍योंकि मामला कोर्ट-कचहरी तक जा पहुंचा है और मेडीकल कॉलेज के कर्मचारी नीरज चाहर की हालत चिंताजनक बनी हुई है।
-लीजेंड न्‍यूज़ विशेष

गुरुवार, 11 जून 2015

आरटीआई ने खोली जमीन अधिग्रहण बिल के विरोध पर कांग्रेस की पोल

नई दिल्‍ली। कांग्रेस तकरीबन एक साल से जमीन अधिग्रहण संशोधन बिल का सख्त विरोध कर रही है, लेकिन आरटीआई के तहत हासिल दस्तावेजों ने कांग्रेस के इस विरोध की पोल खोल दी है।
ये दस्तावेज वही कह रहे हैं जो नरेंद्र मोदी कह रहे हैं यानी कांग्रेस शासित राज्यों ने भी सहमति वाले क्लॉज और कई अन्य विवादास्पद संशोधनों का समर्थन किया था।
इन दस्तावेजों के मुताबिक ग्रामीण विकास मंत्रालय ने संशोधनों पर राज्यों का मूड जानने के लिए 26 जून 2014 को बैठक बुलाई थी। इसमें कांग्रेस शासित राज्यों केरल, कर्नाटक, मणिपुर और महाराष्ट्र ने सहमति वाले क्लॉज और सोशल इंपेक्ट असेसमेंट की जरूरत से जुड़े संशोधनों का समर्थन किया था। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) प्रॉजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण से प्रभावित 80 फीसदी परिवारों की सहमति वाले क्लॉज में बदलाव के बीजेपी सरकार के प्रस्ताव का छत्तीसगढ़, केरल, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गुजरात और हरियाणा (उस वक्त यहां भी कांग्रेस की सरकार थी) की सरकारों ने समर्थन किया था।
आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक की तरफ से हासिल किये गये इन दस्तावेजों में यह भी कहा गया कि जून 2014 की बैठक में केरल, महाराष्ट्र और हरियाणा ने भी उपयोग नहीं की गई जमीन की वापसी के मामले में बीजेपी सरकार के प्रस्ताव का समर्थन किया था। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार के जमीन अधिग्रहण ऐक्ट 2013 में कहा गया है कि अगर सरकार की तरफ से ली गई जमीन का पांच साल तक कोई उपयोग नहीं होता है तो इसे इसके मूल मालिकों को लौटाने की जरूरत होगी। हालांकि, संशोधन बिल में बीजेपी सरकार ने यह फैसला राज्यों पर छोड़ दिया है कि किस पीरियड के बाद इस्तेमाल नहीं की गई जमीन को लौटाने की जरूरत होगी। यूपीए सरकार के बिल में सरकारी ऑफिसर की तरफ से गड़बड़ी के मामले में सजा का प्रावधान रखा गया था। बीजेपी के संशोधन बिल में इसे खत्म कर दिया गया है और इसका समर्थन केरल ने भी किया था।
कांग्रेस शासित 9 राज्यों ने मुख्यमंत्रियों ने मंगलवार को प्रस्ताव पास जमीन अधिग्रहण बिल के संशोधनों को खारिज किया था। इस बैठक में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी मौजूद थे। इस प्रस्ताव के मद्देनजर यह खुलासा किया गया है। हालांकि, कांग्रेस इस खुलासे पर ज्यादा परेशान नजर नहीं आई। पार्टी के सीनियर नेता और पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने लॉर्ड कीन्स को कोट करते हुए कहा, ‘जब तथ्य बदलते हैं तो मैं अपनी राय बदल लेता हूं।’ हालांकि, उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि जब यूपीए सरकार ने लैंड बिल पर सलाह-मशवरा शुरू किया था तो केरल, हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे कई राज्यों ने सहमति वाले क्लॉज पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा, ‘जब हमने राज्यों से बात की थी तो पृथ्वीराज (महाराष्ट्र के तत्कालीन सीएम), हुड्डा (हरियाणा के तत्कालीन सीएम) और केरल के सीएम को आपत्ति थी।’

शनिवार, 6 जून 2015

केजरीवाल क्‍या कुत्‍ते की दुम हैं?

केजरीवाल क्‍या कुत्‍ते की दुम हैं जो लाख जतन करके के बाद भी टेड़ी की टेढ़ी ही रहती है।माफ कीजिए मुझे एक अधूरे प्रदेश के पूरे मुख्‍यमंत्री को लेकर ऐसी भाषा का इस्‍तेमाल नहीं करना चाहिए किंतु क्‍या करूं जब से उनका एनडीटीवी पर इंटरव्‍यू देखा है, मुंह से कुछ इसी तरह की भाषा निकल रही है। डर है कि कहीं कोई मेरा जूत-चांद सम्‍मेलन न कर दे, मुंह पर कालिख (स्‍याही) न मल दे अथवा मेरे गाल को केजरीवाल का गाल समझकर झन्‍नाटेदार झापड़ रसीद न कर दे। मैं तो केजरीवाल जितना महान भी नहीं कि ऐसा करने वालों को सौ फीसदी माफ कर दूं और सबकी खुन्‍नस बेचारे नजीब जंग साहब तथा पीएम मोदी पर निकालने लगूं।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्‍यू में केजरीवाल ने कहा कि अगर एलजी को अमित शाह का चौकीदार भी बुला ले, तो वह रेंगते हुए जाएंगे।
49 दिनों में सत्‍ता का खूंटा तोड़कर भाग खड़े होने वाले केजरीवाल को माफ करना दिल्‍ली वालों पर इतना भारी पड़ेगा, यह दिल्‍ली वालों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
दिल्‍ली वासियों को तो दिलवालों का खिताब मिला हुआ है, फिर ये टटपूंजियों की भाषा बोलने वाला उनका मुख्‍यमंत्री कैसे हो सकता है।
माना कि उन्‍होंने केजरीवाल की मासूम सी सूरत, चुपचाप जनता से जूता खा लेने, मुंह पर कालिख लगवा लेने तथा कुट-पिट लेने की कुव्‍वत देखकर उसे बहुमत दे दिया किंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि अब जनता को पूरे पांच साल नौटंकी झेलनी पड़े।
ये पब्‍लिक है, जो सब जानती है। ये कोई अन्‍ना हजारे, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेन्‍द्र यादव या मेधा पाटकर नहीं जिन्‍होंने केजरीवाल की काठ की हाण्‍डी एकबार तो चढ़वा ही दी और खुद बेआबरू होकर निकल लिये। और चुनाव कोई कुंभ का मेला नहीं। चुनाव तो पांच साला हैं, पांच साल बाद फिर माफी मांगने पब्‍लिक के बीच जाना पड़ेगा।
पब्‍लिक को क्‍या लेना-देना इस बात से कि तुम्‍हें कौन-कौन काम नहीं करने दे रहा और कौन किसका चमचा है। तुम आधे मुख्‍यमंत्री हो या पूरे हो, दिल्‍ली आधा राज्‍य है या अधूरा है। संविधान ने कितने अधिकार दे रखे हैं और कितने कर्तव्‍य।
यही सब परेशानियां थीं तो भाई किसने कहा था कि राजनीति में आओ, चुनाव लड़ो, 49 दिन का तमाशा देखकर और दिखाकर भी फिर मैदान में कूद पड़ो।
जहां तक मुझे याद है केवल कांग्रेस के नेतृत्‍व वाली यूपीए सरकार के मंत्रियों ने तो केजरी एंड पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए उकसाया था। वही बात-बात पर कहते थे कि आओ चुनाव लड़ लो। जिन जंग साहब से आज केजरी जंग लड़ रहे हैं, तब वह कांग्रेसी थे, आज बिना सदस्‍यता लिए वह भाजपाई हो गये।
दरअसल केजरी की जंग साहब से जंग में एक बात पूरी तरह साफ हो चुकी है, और वह यह कि केजरी अब खुद को दिल्‍ली का नहीं, देश का नेता मान रहे हैं।
वह बार-बार मोदी पर हमला करते हैं ताकि किसी भी तरह खुद को मोदी के आस-पास खड़ा कर सकें। मोदी जी की चुप्‍पी उनके लिए असह्य हो गई है। समझ में नहीं आ रहा कि नमो-नमो जपते-जपते तीन महीने बीत गये किंतु नमो हैं कि पूरी तरह मौन धारण किये हैं। किसी ने केजरी के मसले पर मोदी जी से उनके मौन का कारण पूछा तो उनका जवाब था- आपने वो ऊपर की ओर मुंह करके थूकने वाली कहावत नहीं सुनी क्‍या।
मैं क्‍यों जवाब दूं, उसका थूक उसी के मुंह को सुशोभित कर रहा है। कुछ दिन और तमाशा देखिये, मुख्‍यमंत्री जी खांसेंगे ज्‍यादा और बोलेंगे कम क्‍योंकि उनकी खांसी मैंने ही उन्‍हें खास जगह भेजकर ठीक करवाई है। न खांसी स्‍थाई रूप से ठीक हुई है और न सत्‍ता स्‍थाई है। कहीं ऐसा न हो कि खांसी और सत्‍ता एकसाथ उखड़ पड़ें।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्‍यू में केजरीवाल ने एक बात और पते की कही। बात कुछ यूं है कि मोदी जी मुझे राहुल गांधी समझने की भूल न करें।
केजरीवाल के कहने का तात्‍पर्य यह है कि वो राहुल गांधी से कहीं ज्‍यादा घाघ राजनीतिज्ञ हैं। और राहुल गांधी उनके सामने कुछ भी नहीं।
केजरीवाल सोच रहे हैं कि मैं एक तीर से कई निशाने साध लूंगा लेकिन वो भूल रहे हैं कि राजनीति कोई सरकारी नौकरी नहीं और मोदी या राहुल उनके असंवैधानिक पद प्राप्‍त उप मुख्‍यमंत्री मनीष सिसौदिया नहीं, जिन्‍हें वो कुछ भी कह सकते हैं। जैसी चाहें वैसी टोपी पहना सकते हैं। एक देश का पीएम है और एक खानदानी राजनेता। पता नहीं केजरी किस मुगालते हैं।
कहीं ऐसा न हो कि नमो-नमो का जप केजरी पर उलटा पड़ जाए और जनता पूछने लगे कि भाई क्‍या तुम पहले नहीं जानते थे कि दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री को कितने अधिकार हैं। अगर जानते थे तो चुनाव लड़े क्‍यों, पहले दिल्‍ली को पूर्ण राज्‍य बनवाने की लड़ाई लड़ लेते। और नहीं जानते थे तो अब पत्‍थरों से सिर मारकर क्‍या साबित करना चाहते हो।
सिर तो फूटेगा ही फूटेगा, कुछ दिनों में दिल्‍लीवासी ही पागल घोषित और कर देंगे। कहेंगे… इसे तो हमारे प्रति कर्तव्‍यों की नहीं, केंद्र को मिले अधिकारों की ज्‍यादा चिंता है। राहलु गांधी की चिंता है, सबकी चिंता है सिवाय जनता के।
मैं न तो दिल्‍ली का वोटर हूं और न आप का कार्यकर्ता। प्रशांत भूषण या योगेन्‍द्र यादव का आदमी भी नहीं हूं जो पुराने संबंधों का हवाला देकर ही केजरीवाल जी को समझा सकूं कि भइया… कोरी जंग में कुछ नहीं रखा।
अन्‍ना बेचारे तो समझाते-समझाते खुद समझ बैठे। सत्‍ता चीज ही ऐसी है।
यह केजरी वार और केजरी उवाच से नहीं चलती, इसे चलाने के लिए अनुभव, संयम और समझ की जरूरत है। यह आईआरएस की नौकरी नहीं, और न किसी न्‍यूज़ चैनल की एंकरिंग है। यह वो शै है, जो कदम-कदम पर इम्‍तिहान लेती है। पांच साल में एक बार से काम नहीं चलता।

-यायावर

गुरुवार, 4 जून 2015

मैगी मुद्दा: “मीडिया” पर मुकद्दमा क्‍यों नहीं?

बहुराष्‍ट्रीय कंपनी नेस्‍ले के मैगी नूडल्‍स में घातक पदार्थों की मौजूदगी का मुद्दा यूं तो राष्‍ट्रव्‍यापी हो चुका है और उसकी बिक्री पर बैन से लेकर ब्राण्‍ड एंबेसेडर्स तक के खिलाफ एफआईआर के आदेश दिये जा चुके हैं किंतु इस सबके बावजूद एक सवाल है जिसका उत्‍तर देने को कोई तैयार नहीं जबकि सवाल उतना ही महत्‍वपूर्ण है, जितना महत्‍वपूर्ण है मैगी मुद्दा।
सवाल यह है कि जब दो साल पहले मैगी का विज्ञापन छोड़ चुके अमिताभ बच्‍चन पर और 12 साल पहले मैगी का विज्ञापन करने वाली प्रीति जिंटा पर आज मुकद्दमा कायम हो सकता है तो उन मीडिया हाउसेस पर क्‍यों नहीं हो सकता जो अब तक मैगी का विज्ञापन बराबर कर रहे हैं।
अमिताभ और प्रीति जिंटा ने जब यह विज्ञापन किया था, तब तो मैगी में घातक पदार्थों की मौजूदगी का मुद्दा था ही नहीं और माधुरी दीक्षित ने भी जब विज्ञापन लिया होगा तब उस पर कोई विवाद नहीं था किंतु मीडिया तो अब जबकि सब-कुछ सामने आ चुका है, तब भी मैगी के विज्ञापनों को प्रकाशित व प्रसारित कर रहा है।
हम यहां अमिताभ, प्रीति या माधुरी अथवा उनके जैसे तमाम सेलिब्रिटीज द्वारा भ्रामक विज्ञापनों का पक्ष नहीं ले रहे और न उन्‍हें क्‍लीनचिट दे रहे हैं, हम तो यह जानने का प्रयास कर रहे हैं कि एक ही देश में किसी आपराधिक कृत्‍य पर दोहरा दृष्‍टकोण या दोहरी नीति क्‍यों?
बात प्रिंट मीडिया की हो या इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया अथवा नये उभरते वेब मीडिया की ही क्‍यों न हो, इन सभी में ऐसे आपत्‍तिजनक विज्ञापनों की भरमार देखी जा सकती है जो स्‍वास्‍थ्‍य व समाज के लिए तो घातक हैं ही, बढ़ते अपराध के लिए भी काफी हद तक जिम्‍मेदार हैं लेकिन उनका प्रकाशन व प्रसारण करने वाले मीडिया हाउसेस के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं होती।
देशभर के लगभग सभी नामचीन अखबार लिंग वर्धक यंत्र बिकवा रहे हैं, तंत्र-मंत्र और वशीकरण करने वालों का प्रचार कर रहे हैं, चमत्‍कारिक नगीने व पैंडेट सहित देवी-देवताओं की मूर्तियां बेच रहे हैं…और यहां तक कि युवितयों व घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने का दावा करने वाले विज्ञापन छाप रहे हैं। लगभग सभी चैनल्‍स जिनमें न्‍यूज़ चैनल्‍स भी शामिल हैं, ज्‍योतिषियों से हर समस्‍या का समाधान करा रहे हैं, उन लोगों को भी भरपूर प्रोत्‍साहन दे रहे हैं जो अंधश्रद्धा बढ़ाने में सहायक हैं, किंतु किसी के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो रही।
अखबार तो अपने बचाव में विज्ञापनों के साथ बहुत छोटी सी वैधानिक चेतावनी इस आशय की प्रकाशित करके अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर लेते हैं कि ”पाठकों को सलाह दी जाती है कि किसी उत्‍पाद या सेवा के बारे में पूरी जांच-पड़ताल कर लें, यह समाचार पत्र उत्‍पाद या सेवा की गुणवत्‍ता तथा विज्ञापनदाता द्वारा किये गये दावे की पुष्‍टि नहीं करता। समाचार पत्र उपरोक्‍त विज्ञापनों के बारे में उत्‍तरदायी नहीं होगा।”
विज्ञापनों के अंत में या किसी एक कोने में छोटी सी इस आशय की चेतावनी लिख देने भर से क्‍या समाचार पत्र की जिम्‍मेदारी पूरी हो जाती है, क्‍या उन्‍हें इसकी आड़ में वैश्यावृत्‍ति को बढ़ावा देने वाले, आपराधिक कृत्‍यों के लिए प्रोत्‍साहित करने वाले और अंधभक्‍ति व अंधश्रद्धा की ओर उन्‍मुख करने वाले विज्ञापन छापने का अधिकार मिल जाता है ?
आश्‍चर्य इस बात पर भी है कि अपना चेहरा चमकाने के लिए विभिन्‍न समाचार चैनल्‍स पर पैनल डिस्‍कशन का हिस्‍सा बनने वाले तथाकथित समाज सुधारक और हर मामले के विशेषज्ञ भी इस मामले में कुछ बोलते दिखाई नहीं देते। वो किसी एंकर से नहीं पूछते कि उनके अपने चैनल्‍स पर भ्रामक विज्ञापन क्‍यों प्रसारित किये जा रहे हैं।
समौसे और चटनी, रसगुल्‍ले तथा खीर खिलाकर बड़ी से बड़ी समस्‍या का समाधान करने वाले बाबा का विज्ञापन भी बदस्‍तूर जारी है जबकि कुछ समय पहले उसके खिलाफ भी आवाज़ उठी थी और पैनल डिस्‍कशन तक हुए थे।
हाल ही में सभी तथाकिथत बड़े अखबारों ने रीयल एस्‍टेट से जुड़ा एक ऐसा भ्रामक जैकेट पेज विज्ञापन छापा था जिसमें 2 लाख 40 हजार का प्‍लॉट खरीदने पर 2 लाख 56 हजार रुपए का बोनस देने की बात कही गई थी। 15 लाख का एक फ्लैट बुक कराने पर 9 लाख रुपए की गाड़ी देने का झांसा दिया गया था।
इस तरह के विज्ञापन जो किसी बड़े ”फ्रॉड” का स्‍पष्‍ट रूप से अहसास कराते हैं और जिनकी वजह से फ्रॉड लोग अपने मकसद में कामयाब होते हैं, क्‍या उनके प्रकाशक पर कार्यवाही नहीं होनी चाहिए।
किसी खास डीओ की महक से राह चलती लड़कियों को बेकाबू कर देने का विज्ञापन क्‍या महिलाओं के मान-सम्‍मान को बढ़ाता है किंतु ऐसे विज्ञापन प्रसारित करने वाले मीडिया हाउसेस लगातार मलाई मार रहे हैं। उनके खिलाफ कोई कुछ नहीं कहता। वो महिलाएं भी नहीं, जो देश में महिला सुरक्षा को लेकर हर सरकार और यहां तक कि हर मर्द को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकतीं। जैसे मर्द होना कोई गुनाह हो और हर मर्द एक वहशी दरिंदा हो।
किसी भी दिन का कोई नामचीन अखबार उठाकर देख लीजिए। उनमें जापानी तेल व जापानी कैप्‍सूल से लेकर लिंग वर्धक यंत्र सहित मनचाहे प्‍यार को वशीकरण के जरिये आपकी झोली में डाल देने तथा घरेलू महिलाओं की मसाज करके हजारों रुपए कमाने जैसे विज्ञापनों की भरमार होगी। विज्ञापनों के साथ इनकी भाषा तक भड़काऊ और अश्‍लील होती है किंतु उनके लिए शायद कोई कानून नहीं बना।
मैगी हो या कोई भी दूसरा खाद्य पदार्थ, रोजमर्रा में उपयोग आने वाली सामग्री हो या प्रसाधन सामग्री, यदि वह गलत दावे के साथ बेची जा रही है तो उसके खिलाफ कार्यवाही जरूर की जानी चाहिए क्‍योंकि लूट का लाइसेंस देना अथवा लोगों के स्‍वास्‍थ्‍य या जीवन से खिलवाड़ करने का मौका देना किसी के हित में नहीं होगा परंतु उस लूट तथा धोखे के प्रत्‍यक्ष हिस्‍सेदारों पर भी कार्यवाही अवश्‍य की जानी चाहिए। फिर चाहे वह अमिताभ बच्‍चन जैसा कोई महानायक हो, करोड़ों दिलों को धड़काने वाली माधुरी दीक्षित हो, प्रीति जिंटा जैसी अभिनेत्री हो या फिर लोकतंत्र का तथाकथित चौथा पाया ”मीडिया” ही क्‍यों न हो। कानून सबके लिए बराबर होना चाहिए और न्‍याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए ताकि आम जनता को महसूस हो कि मीडिया के पास सिर्फ सवाल करने का हक ही नहीं है, जवाब देने की जिम्‍मेदारी भी है।
उसका काम केवल दूसरों को कठघरे में खड़ा करने का न होकर खुद को कठघरे से रुबरू कराना भी है। विज्ञापन लेना मीडिया की व्‍यावसायिक मजबूरी बन चुका है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भक्ष और अभक्ष का भेद भुलाकर अपने लिए सबकुछ ग्राह्य बना लिया जाए तथा मैगी या किसी अन्‍य उत्‍पाद पर पैनल डिस्‍कशन कराकर अपने कर्तव्‍य की इतिश्री कर ली जाए।
-लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष
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