केजरीवाल क्या कुत्ते की दुम हैं जो लाख जतन करके के बाद भी टेड़ी की टेढ़ी ही रहती है।माफ कीजिए मुझे एक अधूरे प्रदेश के पूरे मुख्यमंत्री को लेकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए किंतु क्या करूं जब से उनका एनडीटीवी पर इंटरव्यू देखा है, मुंह से कुछ इसी तरह की भाषा निकल रही है। डर है कि
कहीं कोई मेरा जूत-चांद सम्मेलन न कर दे, मुंह पर कालिख (स्याही) न मल दे
अथवा मेरे गाल को केजरीवाल का गाल समझकर झन्नाटेदार झापड़ रसीद न कर दे।
मैं तो केजरीवाल जितना महान भी नहीं कि ऐसा करने वालों को सौ फीसदी माफ कर
दूं और सबकी खुन्नस बेचारे नजीब जंग साहब तथा पीएम मोदी पर निकालने लगूं।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा कि अगर एलजी को अमित शाह का चौकीदार भी बुला ले, तो वह रेंगते हुए जाएंगे।
49 दिनों में सत्ता का खूंटा तोड़कर भाग खड़े होने वाले केजरीवाल को माफ करना दिल्ली वालों पर इतना भारी पड़ेगा, यह दिल्ली वालों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
दिल्ली वासियों को तो दिलवालों का खिताब मिला हुआ है, फिर ये टटपूंजियों की भाषा बोलने वाला उनका मुख्यमंत्री कैसे हो सकता है।
माना कि उन्होंने केजरीवाल की मासूम सी सूरत, चुपचाप जनता से जूता खा लेने, मुंह पर कालिख लगवा लेने तथा कुट-पिट लेने की कुव्वत देखकर उसे बहुमत दे दिया किंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि अब जनता को पूरे पांच साल नौटंकी झेलनी पड़े।
ये पब्लिक है, जो सब जानती है। ये कोई अन्ना हजारे, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव या मेधा पाटकर नहीं जिन्होंने केजरीवाल की काठ की हाण्डी एकबार तो चढ़वा ही दी और खुद बेआबरू होकर निकल लिये। और चुनाव कोई कुंभ का मेला नहीं। चुनाव तो पांच साला हैं, पांच साल बाद फिर माफी मांगने पब्लिक के बीच जाना पड़ेगा।
पब्लिक को क्या लेना-देना इस बात से कि तुम्हें कौन-कौन काम नहीं करने दे रहा और कौन किसका चमचा है। तुम आधे मुख्यमंत्री हो या पूरे हो, दिल्ली आधा राज्य है या अधूरा है। संविधान ने कितने अधिकार दे रखे हैं और कितने कर्तव्य।
यही सब परेशानियां थीं तो भाई किसने कहा था कि राजनीति में आओ, चुनाव लड़ो, 49 दिन का तमाशा देखकर और दिखाकर भी फिर मैदान में कूद पड़ो।
जहां तक मुझे याद है केवल कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के मंत्रियों ने तो केजरी एंड पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए उकसाया था। वही बात-बात पर कहते थे कि आओ चुनाव लड़ लो। जिन जंग साहब से आज केजरी जंग लड़ रहे हैं, तब वह कांग्रेसी थे, आज बिना सदस्यता लिए वह भाजपाई हो गये।
दरअसल केजरी की जंग साहब से जंग में एक बात पूरी तरह साफ हो चुकी है, और वह यह कि केजरी अब खुद को दिल्ली का नहीं, देश का नेता मान रहे हैं।
वह बार-बार मोदी पर हमला करते हैं ताकि किसी भी तरह खुद को मोदी के आस-पास खड़ा कर सकें। मोदी जी की चुप्पी उनके लिए असह्य हो गई है। समझ में नहीं आ रहा कि नमो-नमो जपते-जपते तीन महीने बीत गये किंतु नमो हैं कि पूरी तरह मौन धारण किये हैं। किसी ने केजरी के मसले पर मोदी जी से उनके मौन का कारण पूछा तो उनका जवाब था- आपने वो ऊपर की ओर मुंह करके थूकने वाली कहावत नहीं सुनी क्या।
मैं क्यों जवाब दूं, उसका थूक उसी के मुंह को सुशोभित कर रहा है। कुछ दिन और तमाशा देखिये, मुख्यमंत्री जी खांसेंगे ज्यादा और बोलेंगे कम क्योंकि उनकी खांसी मैंने ही उन्हें खास जगह भेजकर ठीक करवाई है। न खांसी स्थाई रूप से ठीक हुई है और न सत्ता स्थाई है। कहीं ऐसा न हो कि खांसी और सत्ता एकसाथ उखड़ पड़ें।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्यू में केजरीवाल ने एक बात और पते की कही। बात कुछ यूं है कि मोदी जी मुझे राहुल गांधी समझने की भूल न करें।
केजरीवाल के कहने का तात्पर्य यह है कि वो राहुल गांधी से कहीं ज्यादा घाघ राजनीतिज्ञ हैं। और राहुल गांधी उनके सामने कुछ भी नहीं।
केजरीवाल सोच रहे हैं कि मैं एक तीर से कई निशाने साध लूंगा लेकिन वो भूल रहे हैं कि राजनीति कोई सरकारी नौकरी नहीं और मोदी या राहुल उनके असंवैधानिक पद प्राप्त उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया नहीं, जिन्हें वो कुछ भी कह सकते हैं। जैसी चाहें वैसी टोपी पहना सकते हैं। एक देश का पीएम है और एक खानदानी राजनेता। पता नहीं केजरी किस मुगालते हैं।
कहीं ऐसा न हो कि नमो-नमो का जप केजरी पर उलटा पड़ जाए और जनता पूछने लगे कि भाई क्या तुम पहले नहीं जानते थे कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को कितने अधिकार हैं। अगर जानते थे तो चुनाव लड़े क्यों, पहले दिल्ली को पूर्ण राज्य बनवाने की लड़ाई लड़ लेते। और नहीं जानते थे तो अब पत्थरों से सिर मारकर क्या साबित करना चाहते हो।
सिर तो फूटेगा ही फूटेगा, कुछ दिनों में दिल्लीवासी ही पागल घोषित और कर देंगे। कहेंगे… इसे तो हमारे प्रति कर्तव्यों की नहीं, केंद्र को मिले अधिकारों की ज्यादा चिंता है। राहलु गांधी की चिंता है, सबकी चिंता है सिवाय जनता के।
मैं न तो दिल्ली का वोटर हूं और न आप का कार्यकर्ता। प्रशांत भूषण या योगेन्द्र यादव का आदमी भी नहीं हूं जो पुराने संबंधों का हवाला देकर ही केजरीवाल जी को समझा सकूं कि भइया… कोरी जंग में कुछ नहीं रखा।
अन्ना बेचारे तो समझाते-समझाते खुद समझ बैठे। सत्ता चीज ही ऐसी है।
यह केजरी वार और केजरी उवाच से नहीं चलती, इसे चलाने के लिए अनुभव, संयम और समझ की जरूरत है। यह आईआरएस की नौकरी नहीं, और न किसी न्यूज़ चैनल की एंकरिंग है। यह वो शै है, जो कदम-कदम पर इम्तिहान लेती है। पांच साल में एक बार से काम नहीं चलता।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्यू में केजरीवाल ने कहा कि अगर एलजी को अमित शाह का चौकीदार भी बुला ले, तो वह रेंगते हुए जाएंगे।
49 दिनों में सत्ता का खूंटा तोड़कर भाग खड़े होने वाले केजरीवाल को माफ करना दिल्ली वालों पर इतना भारी पड़ेगा, यह दिल्ली वालों ने सपने में भी नहीं सोचा होगा।
दिल्ली वासियों को तो दिलवालों का खिताब मिला हुआ है, फिर ये टटपूंजियों की भाषा बोलने वाला उनका मुख्यमंत्री कैसे हो सकता है।
माना कि उन्होंने केजरीवाल की मासूम सी सूरत, चुपचाप जनता से जूता खा लेने, मुंह पर कालिख लगवा लेने तथा कुट-पिट लेने की कुव्वत देखकर उसे बहुमत दे दिया किंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि अब जनता को पूरे पांच साल नौटंकी झेलनी पड़े।
ये पब्लिक है, जो सब जानती है। ये कोई अन्ना हजारे, शांति भूषण, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव या मेधा पाटकर नहीं जिन्होंने केजरीवाल की काठ की हाण्डी एकबार तो चढ़वा ही दी और खुद बेआबरू होकर निकल लिये। और चुनाव कोई कुंभ का मेला नहीं। चुनाव तो पांच साला हैं, पांच साल बाद फिर माफी मांगने पब्लिक के बीच जाना पड़ेगा।
पब्लिक को क्या लेना-देना इस बात से कि तुम्हें कौन-कौन काम नहीं करने दे रहा और कौन किसका चमचा है। तुम आधे मुख्यमंत्री हो या पूरे हो, दिल्ली आधा राज्य है या अधूरा है। संविधान ने कितने अधिकार दे रखे हैं और कितने कर्तव्य।
यही सब परेशानियां थीं तो भाई किसने कहा था कि राजनीति में आओ, चुनाव लड़ो, 49 दिन का तमाशा देखकर और दिखाकर भी फिर मैदान में कूद पड़ो।
जहां तक मुझे याद है केवल कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के मंत्रियों ने तो केजरी एंड पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए उकसाया था। वही बात-बात पर कहते थे कि आओ चुनाव लड़ लो। जिन जंग साहब से आज केजरी जंग लड़ रहे हैं, तब वह कांग्रेसी थे, आज बिना सदस्यता लिए वह भाजपाई हो गये।
दरअसल केजरी की जंग साहब से जंग में एक बात पूरी तरह साफ हो चुकी है, और वह यह कि केजरी अब खुद को दिल्ली का नहीं, देश का नेता मान रहे हैं।
वह बार-बार मोदी पर हमला करते हैं ताकि किसी भी तरह खुद को मोदी के आस-पास खड़ा कर सकें। मोदी जी की चुप्पी उनके लिए असह्य हो गई है। समझ में नहीं आ रहा कि नमो-नमो जपते-जपते तीन महीने बीत गये किंतु नमो हैं कि पूरी तरह मौन धारण किये हैं। किसी ने केजरी के मसले पर मोदी जी से उनके मौन का कारण पूछा तो उनका जवाब था- आपने वो ऊपर की ओर मुंह करके थूकने वाली कहावत नहीं सुनी क्या।
मैं क्यों जवाब दूं, उसका थूक उसी के मुंह को सुशोभित कर रहा है। कुछ दिन और तमाशा देखिये, मुख्यमंत्री जी खांसेंगे ज्यादा और बोलेंगे कम क्योंकि उनकी खांसी मैंने ही उन्हें खास जगह भेजकर ठीक करवाई है। न खांसी स्थाई रूप से ठीक हुई है और न सत्ता स्थाई है। कहीं ऐसा न हो कि खांसी और सत्ता एकसाथ उखड़ पड़ें।
एनडीटीवी को दिये इंटरव्यू में केजरीवाल ने एक बात और पते की कही। बात कुछ यूं है कि मोदी जी मुझे राहुल गांधी समझने की भूल न करें।
केजरीवाल के कहने का तात्पर्य यह है कि वो राहुल गांधी से कहीं ज्यादा घाघ राजनीतिज्ञ हैं। और राहुल गांधी उनके सामने कुछ भी नहीं।
केजरीवाल सोच रहे हैं कि मैं एक तीर से कई निशाने साध लूंगा लेकिन वो भूल रहे हैं कि राजनीति कोई सरकारी नौकरी नहीं और मोदी या राहुल उनके असंवैधानिक पद प्राप्त उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया नहीं, जिन्हें वो कुछ भी कह सकते हैं। जैसी चाहें वैसी टोपी पहना सकते हैं। एक देश का पीएम है और एक खानदानी राजनेता। पता नहीं केजरी किस मुगालते हैं।
कहीं ऐसा न हो कि नमो-नमो का जप केजरी पर उलटा पड़ जाए और जनता पूछने लगे कि भाई क्या तुम पहले नहीं जानते थे कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को कितने अधिकार हैं। अगर जानते थे तो चुनाव लड़े क्यों, पहले दिल्ली को पूर्ण राज्य बनवाने की लड़ाई लड़ लेते। और नहीं जानते थे तो अब पत्थरों से सिर मारकर क्या साबित करना चाहते हो।
सिर तो फूटेगा ही फूटेगा, कुछ दिनों में दिल्लीवासी ही पागल घोषित और कर देंगे। कहेंगे… इसे तो हमारे प्रति कर्तव्यों की नहीं, केंद्र को मिले अधिकारों की ज्यादा चिंता है। राहलु गांधी की चिंता है, सबकी चिंता है सिवाय जनता के।
मैं न तो दिल्ली का वोटर हूं और न आप का कार्यकर्ता। प्रशांत भूषण या योगेन्द्र यादव का आदमी भी नहीं हूं जो पुराने संबंधों का हवाला देकर ही केजरीवाल जी को समझा सकूं कि भइया… कोरी जंग में कुछ नहीं रखा।
अन्ना बेचारे तो समझाते-समझाते खुद समझ बैठे। सत्ता चीज ही ऐसी है।
यह केजरी वार और केजरी उवाच से नहीं चलती, इसे चलाने के लिए अनुभव, संयम और समझ की जरूरत है। यह आईआरएस की नौकरी नहीं, और न किसी न्यूज़ चैनल की एंकरिंग है। यह वो शै है, जो कदम-कदम पर इम्तिहान लेती है। पांच साल में एक बार से काम नहीं चलता।
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