शनिवार, 18 मई 2019

कड़वा सच: “झूठ” बोले बिना एक दिन भी नहीं चल सकती ये दुनिया, बराक ओबामा ने कहा था…


सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
 नासत्यं च प्रियं ब्रूयात्, एष धर्मः सनातनः॥

अर्थात् सत्य और प्रिय बोलना चाहिए; पर अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए, और प्रिय असत्य भी नहीं बोलना, यही सनातन धर्म है ।
अब ज़़रा दूसरे पहलू पर गौर करें। अमेरिका के पूर्व राष्‍ट्रपति बराक ओबामा ने एकबार कहा था कि यदि सारे लोग सत्‍य बोलने लगें अर्थात् कोई झूठ न बोले तो ये दुनिया एक दिन भी नहीं चल सकती।
बराक ओबामा ने अपने कथन के पक्ष में तर्क दिए थे कि यदि कोई भी राष्‍ट्राध्‍यक्ष अपने देश की नीतियों का पूरा सच सामने ला दे, तो क्‍या होगा।
उदाहरण के लिए यदि पाकिस्‍तान सरकार का मुखिया आतंकवाद को लेकर अपने देश की रीति और नीति का खुलासा कर दे तो परिणाम का अंदाज लगाना मुश्‍किल नहीं है।
इसी प्रकार रूस, चीन, इजरायल, ईरान या अन्‍य दूसरे देशों की सत्ता पर काबिज़़ लोग सबकुछ सच-सच सामने ला दें तो विश्‍वयुद्ध छिड़ने में एक घंटा नहीं लगेगा।

संभवत: इसीलिए ”सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्… का उपदेश देने वाले हमारे धर्मग्रंथों ने भी ”अपवाद स्‍वरूप” विषम परिस्‍थितयों में झूठ बोलने का मार्ग छोड़ रखा था।
इसी मार्ग का अनुसरण कर धर्मयुद्ध कहलाने वाले ”महाभारत” में विषम परिस्‍थितियों को देखते हुए कई बार असत्‍य या अर्धसत्‍य का सहारा लिया गया।
इन सबके अलावा एक कथन यह भी है कि वक्‍त और परिस्‍थितयों के अनुसार सत्‍य एवं असत्‍य के मायने बदल जाते हैं।
किसी अवसर पर बोला गया सत्‍य भी साबित करना पड़ता है और कभी किसी मौके पर झूठ भी ग्राह्य होता है।
सत्‍य स्‍वयं सिद्ध होता है, यह बात किसी दौर में सार्थक रही होगी लेकिन आज सत्‍य को सिद्ध करने के लिए ही सर्वाधिक प्रयास करना पड़ता है।
बहरहाल, सांतवें चरण की वोटिंग के साथ कल शाम 2019 के लोकसभा चुनावों का समापन हो जाएगा और 23 मई की सुबह से पता चलने लगेगा कि लोकतंत्र के बाजार में किसका कितना ”सत्‍य” बिक सका या किसका कितना ”झूठ” कारगर हुआ।
ऐसा माना जाता है कि सत्‍य के साथ झूठ का मिश्रण उसी अनुपात में स्‍वीकार है, जिस अनुपात में भोजन के साथ नमक, किंतु इन लोकसभा चुनावों में तो झूठ का बाजार अधिक गर्म रहा और सत्‍य बार-बार सफाई देता दिखाई दिया।
अगर बात करें, उस जनता की जिसे जनार्दन (ईश्‍वर) की संज्ञा प्राप्‍त है तो सत्‍य और असत्‍य को परिभाषित करने का उसका अपना तरीका है क्‍योंकि एक व्‍यक्‍ति का सत्‍य आवश्‍यक नहीं कि दूसरे व्‍यक्‍ति के लिए भी सत्‍य हो।
ठीक इसी प्रकार किसी व्‍यक्‍ति का झूठ, किसी अन्‍य व्‍यक्‍ति के लिए सत्‍य भी हो सकता है।
सत्‍य और झूठ के बीच का यह भ्रम भी नया नहीं है। हर युग में यह भ्रम बना रहा और आज भी बना हुआ है क्‍योंकि सवाल दृष्‍टिकोण का है, न कि दृष्‍टि का। दृष्‍टि समान हो सकती है परंतु दृष्‍टिकोण समान हो, यह जरूरी नहीं। जिसका जैसा दृष्‍टिकोण होता है, उसकी वैसी ही दृष्‍टि हो जाती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि वो वैसी ही दृष्‍टि बना लेता है। उसके लिए चीजों को देखने और दिखाने का ढंग बदल जाता है।
लिखा-पढ़ी में सवा अरब की आबादी वाला यह देश आज हकीकत में करीब डेढ़ अरब की जनसंख्‍या का बोझ भले ही ढो रहा हो परंतु सत्‍य और असत्‍य को जांचने व परखने वालों की संख्‍या कितनी होगी, कभी इस पर विचार करके देखिए…बहुत मजा आएगा।
ऐसा लगता है एक भीड़ है जो मुठ्ठीभर लोगों से संचालित होती है। ये मुठ्ठीभर लोग हैं नेता और नौकरशाह। लोकतंत्र की परिभाषा में कहें तो विधायिका, कार्यपालिका और न्‍यायपालिका में उच्‍च पदों पर बैठे हुए लोग।
सुना है भीड़ के दिमाग नहीं होता। यदि ये कहावत सही है तो फिर कैसा लोकतंत्र और कैसे चुनाव। एक भीड़ है जो मुठ्ठीभर लोगों के इशारे पर संचालित है और इस भ्रम में जी रही है कि वही भाग्‍य विधाता है। यदि वही भाग्‍य विधाता है तो चुनावों के बाद उसका अपना भाग्‍य ”लोकतंत्र के तीन पायों” से बंधा क्‍यों नजर आता है।
यही वो असलियत है जो सत्‍य और असत्‍य अथवा झूठ और सत्‍य की पोल खोलती है।
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्… का ज्ञान देने वाला सनातन धर्म यहां आकर बराक ओबामा के इस कथन से हारने क्‍यों लगता है कि कि यदि सारे लोग सत्‍य बोलने लगें तो ये दुनिया एक दिन भी नहीं चल सकती।
19 मई और 23 मई के बीच सिर्फ 3 दिन रह जाएंगे, यह जानने के लिए कि देश और देशवासियों का भाग्‍य किस ओर करवट लेगा।
फिर एक शपथ ग्रहण समारोह होगा और फिर अगले कुछ सालों के लिए जनता ”जनार्दन” न होकर ”रिआया” बन जाएगी। यानी प्रजा, आम जनता। व्‍यंगात्‍मक भाषा में कहें तो मेंगो पीपुल।
अगले लोकसभा चुनावों में सत्‍य और असत्‍य के बीच झूलने को अभिशप्‍त अथवा सनातन धर्म और परिस्‍थितिजन्‍य धर्म के बीच पिसने को बाध्‍य।
जो भी हो, लेकिन अंतिम सत्‍य यही है कि राजा और प्रजा का यह रिश्‍ता ऐसे ही कायम रहेगा। सूरतें बदल सकती हैं लेकिन सीरतें जस की तस रहेंगी। कोई अपने सत्‍य को साबित करने की कवायद में जुटता दिखाई देगा तो कोई अपने असत्‍य को परवान चढ़ाने में ऐड़ी से चोटी तक का जोर लगा देगा क्‍योंकि सत्‍य का वजूद असत्‍य पर टिका है और असत्‍य का सत्‍य पर। इसलिए अस्‍तित्‍व में दोनों सदा से रहे हैं और आगे भी रहेंगे।
बस देखना यह है कि 23 मई के नतीजे आटे में नमक को तरजीह देते दिखाई देते हैं या बदलते वक्‍त में नमक भी आटे के साथ मिलाकर खिलाने की कला नेता जान चुके हैं। दोनों ही परिस्‍थितियों में जनता को अगले चुनावों तक इंतजार करना होगा, उससे अगले चुनावों तक ”अपनी सरकार” बनाने के धोखे में।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंगलवार, 14 मई 2019

नेताओं की बदजुबानी का यह दौर आखिर कहां तक जाएगा, क्‍या इस पर विचार किया?

सात चरणों में संपन्‍न होने जा रहे 2019 के लोकसभा चुनाव नेताओं की बदजुबानी के लिए भी जाने जाएंगे, हालांकि फिलहाल यह कहना मुश्‍किल है कि बदजुबानी का ऐसा सिलसिला आगे भी जारी रहेगा या इसे रोकने के कोई इंतजाम किए जाएंगे।
यूं देखा जाए तो अबकी बार चुनावी रैलियों में बेशक हर नेता ने अपनी बदजुबानी को नई धार दी परंतु इसकी शुरूआत काफी पहले ही हो चुकी थी।
सबसे पहले कब और किसने अपनी जुबान को बेलगाम तरीके से इस्‍तेमाल किया और कौन इसके लिए जिम्‍मेदार है, यह प्रश्‍न उसी प्रकार बेमानी हो जाता है जिस प्रकार यह जानने की कोशिश करना कि पहले अंडा आया या पहले मुर्गी।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि नेताओं की बदजुबानी ने समाज में वैमनस्‍यता को बढ़ावा दिया है। दलगत राजनीति इस कदर समाज पर हावी हो चुकी है कि अपने नेताओं की बदजुबानी को भी उनके समर्थक हर हाल में जायज ठहराने पर तुले रहते हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि सार्वजनिक मंचों से एक-दूसरे को गरियाने वाले नेता तो आपस में मिलने पर परस्‍पर सहोदरों सा व्‍यवहार करते हैं परंतु समर्थकों के बीच एक अघोषित पाला खिंच जाता है।
कौन नहीं जानता कि इन दिनों भाजपा और मोदी को पानी पी-पीकर कोसने वाली मायावती एक-दो नहीं तीन-तीन बार भाजपा की मदद से ही मुख्‍यमंत्री बनी थीं। किसे नहीं पता कि आज मायावती को दौलत की बेटी बताने वाली भाजपा को किसी समय मायावती में एक ‘श्रेष्‍ठ नेता’ के तमाम गुण दिखाई देते थे। मायावती के सर्वाधिक राखीबंध भाई भााजपा में ही हुआ करते थे।
दूसरी ओर जिस समाजवादी पार्टी ने, बकौल मायावती उन्‍हें जान से मारने की कोशिश की, वही मायावती आज अपना समूचा प्‍यार अखिलेश पर उड़ेल रही हैं।
इसी प्रकार कल तक भाजपा और उसके नेतृत्‍व के लिए बिछ जाने वाले नवजोत सिंह सिद्धू आज उसके खिलाफ अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं।
जो प्रियंका चतुर्वेदी चंद रोज पहले तक कांग्रेस के पक्ष में टीवी पर इतनी आक्रोशित हो जाती थीं कि जैसे अभी मारने-मरने पर आमादा हो जाएंगी, उन्‍होंने निजी भावनाएं या कहें कि ”महत्‍वाकांक्षा” पूरी होते न देख शत-प्रतिशत दक्षिणपंथी शिवसेना से हाथ मिलाने में देर नहीं की और ठीकरा यह कहकर फोड़ा कि कांग्रेस में गुंडों को तरजीह दी जा रही है।
जिन दलित नेता उदित राज ने पूरे पांच साल मोदी सरकार में मलाई मारी, वही टिकट न मिलने पर भाजपा के दुश्‍मन खेमे में जा खड़े हुए।
उत्तर प्रदेश में मात्र तीन सीटें पाने को सपा और बसपा नेतृत्‍व के सामने शीर्षासन करने वाले राष्‍ट्रीय लोकदल के मुखिया अजीत सिंह की चर्चा के बिना राजनीति के गिरते स्‍तर की कहानी पूरी नहीं हो सकती। रालोद मुखिया अजीत सिंह हाशिए पर जा पहुंचे लेकिन अपनी फितरत नहीं बदली।
उनकी इस फितरत से वाकिफ लोग संभवत: इसीलिए अब भी यह कहते सुने जा सकते हैं कि 23 मई का इंतजार कीजिए। पता नहीं 23 मई के बाद अजीत सिंह गठबंधन की गांठ तोड़कर भागने का श्रेय लेने में भी विलंब न करें।
आम आदमी पार्टी के खास नेताओं ने भी बदजुबानी की राजनीति में तो अपना उल्‍लेखनीय स्‍थान बनाया ही है, साथ ही सत्ता की भूख पूरी करने के लिए किसी भी स्‍तर तक गिर जाने का भी रिकॉर्ड जिस तेजी से कायम किया है, उसकी मिसाल मिलना मुश्‍किल है।
जिस कांग्रेस के खिलाफ अन्‍ना हजारे के कंधों का सहारा लेकर अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी ने राजनीति के गलियारों में प्रवेश किया, उसी कांग्रेस के साथ ”पैक्‍ट” करने के लिए ”साष्‍टांग दंडवत” हो जाने का ऐसा ‘बेशर्म अंदाज’ शायद ही पहले कभी सामने आया होगा।
मात्र पांच साल पहले कांग्रेसी नेताओं और विशेषकर शीला दीक्षित के लिए अपशब्‍दों का नित नया पिटारा खोलने वाले अरविंद केजरीवाल को इन चुनावों में उन्‍हीं से ”दे दाता के नाम, तुझको अल्‍ला रखे” की तर्ज पर झोली फैलाकर सीटों की भीख मांगते हुए किसने नहीं देखा।
उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्‍चिम तक आज ऐसे राजनीतिक दलों, नेताओं और प्रत्‍याशियों की पूरी फौज मिल जाएगी जिनके शब्‍दकोश में दीन-ईमान जैसा कुछ होता ही नहीं। जो एक मुंह से जिनके लिए गालियां निकालते हैं, दूसरे मुंह से उनकी ‘विरुदावली’ गाने का काम करते हैं।
सच कहा जाए तो मनुष्‍य के रूप में रेंगते दिखाई देने वाले ये ऐसे जीव हैं जिनकी फितरत के सामने गिरगिट के रंग बदलने की कहावत बेमानी हो चुकी है।
सांप जितनी जल्‍दी अपनी केंचुली नहीं बदल सकता, उतनी जल्‍दी यह अपना खोल बदल लेते हैं।
बदजुबानी इनकी इसी फितरत का हिस्‍सा और करवट लेती उस राजनीति का संकेत है जिसमें अंतत: पिसना उस जनता को ही होगा जो अपने मां-बाप से अधिक तरजीह इनके मान-सम्‍मान को देने लगी है।
किसी के भी विचारों से सहमत या असहमत होना हर व्‍यक्‍ति का विशेषाधिकार है लेकिन उन विचारों को थोपने के लिए असभ्‍य आचरण करना, किसी का अधिकार नहीं हो सकता।
अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का आशय यह नहीं कि जो मुंह में आए वही बकने लगें और किसी के लिए कुछ भी कह दें। हर स्‍वतंत्रता एक जिम्‍मेदारी का बोध कराने के लिए होती है, निरंकुश व्‍यवहार करने के लिए नहीं।
लोगों द्वारा, लोगों के लिए, लोगों की सरकार चुनना भी स्‍वतंत्रता की जिम्‍मेदारी का अहसास बनाए रखने और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को जीवित रखने का दायित्‍वबोध है। नेता यदि आज इसे नहीं समझ रहे तो हमें समझना होगा।
नहीं समझे तो बदजुबानी का जहर और दलबदुओं की फितरत का प्रभाव हमें कहीं का नहीं छोड़ेगा।
सत्ता की खातिर नेता हमें भी उस गर्त में ले जाएंगे जहां से निकल पाना हमारे लिए मुश्‍किल होगा, और हमारी यही मुश्‍किल उनके घृणित उद्देश्‍यों को पूरा करने का हथियार बनती रहेगी।
बेहतर होगा कि समय रहते गंभीरता से इस स्‍थित पर विचार करें ताकि आने वाले चुनावों में मुंह खोलने से पहले नेता यह सोचने के लिए मजबूर हो जाएं कि उनकी बदजुबानी उनका राजनीतिक भविष्‍य चौपट कर सकती है। उनकी दिशा ही नहीं, दशा भी निर्धारित कर सकती है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुरू होने के साथ ही छाता का “Delhi Public School” विवादों में, पेरेंट्स ने की 3 पन्‍नों की शिकायत

मथुरा को राष्‍ट्रीय राजधानी से जोड़ने वाले नेशनल हाईवे नंबर 2 पर छाता क्षेत्र में अपना पहला शिक्षा सत्र शुरू करने वाला Delhi Public School संभवत: पहला ऐसा हाई प्रोफाइल स्‍कूल होगा, जिसकी शिकायतें इतनी जल्‍दी आने लगीं।
समस्‍या है कहां
दरअसल, शिक्षा व्‍यवसाइयों से पेरेंट्स को होने वाली ऐसी समस्‍याएं न तो नई हैं और न अकेले Delhi Public School से जुड़ी हैं।
सच तो यह है कि ये सभी समस्‍याएं उस व्‍यवस्‍थागत खामियों का हिस्‍सा हैं जिनका भरपूर लाभ शिक्षा व्‍यवसाई उठाते हैं और पेरेंट्स को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं।
वो भी तब जबकि अधिकांश स्‍कूल उन जरूरतों को भी पूरा नहीं करते जो किसी स्‍कूल को चलाने के लिए अत्यंत आवश्‍यक होती हैं।
‘सेटेलाइट’ और ‘कोर’ स्‍कूल 
अगर बात करें DPS Society के अधीन चलने वाले Delhi Public School’s की तो उसके दो स्‍तर हैं।
पहला स्‍तर ‘सेटेलाइट’ स्‍कूल्स का होता है जिसकी कमान DPS Society खुद अपने हाथ में रखती है और उनके लिए शिक्षा के सभी अपने मानक लागू करती है। इस स्‍तर का मथुरा में ‘मथुरा रिफाइनरी’ द्वारा संचलित DPS है।
दूसरे स्‍तर में वो स्‍कूल आते हैं जिन्‍हें DPS Society कुछ शर्तों के साथ स्‍कूल चलाने का अधिकार देती है। ये DPS के ‘कोर’ स्‍कूल कहलाते हैं। अकबरपुर (छाता) में शुरू किया गया DPS ऐसे ही ‘कोर’ स्‍कूलों में से एक है। इन स्‍कूलों का नियंत्रण उसकी प्रबंध कमेटी के हाथ में होता है।
छाता क्षेत्र के अकबरपुर में शुरू किया गया Delhi Public School शायद ऐसा भी पहला ही स्‍कूल होगा जिसका उद्घाटन स्‍कूल कैंपस में न कराकर मथुरा की सांसद और प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी से एक होटल में करा लिया गया।
अन्‍यथा इस स्‍कूल के संचालकों को ऐसी क्‍या जल्‍दी थी कि उन्‍होंने न सिर्फ आनन-फानन में उद्घाटन कराकर स्‍कूल का पहला सत्र शुरू कर दिया बल्‍कि सत्र शुरू करने से पहले उन सुविधाओं तक का इंतजाम नहीं किया जिनका जोर-शोर से प्रचार कराया गया था और जिनका बच्‍चों के पेरेंट्स को कमिटमेंट भी किया।
सामान्‍य तौर पर चूंकि लोग ‘सेटेलाइट’ और ‘कोर’ स्‍कूल के अंतर को नहीं जानते इसलिए मात्र “Delhi Public School” लिखा होने के कारण झांसे में आकर जाने-अनजाने बच्‍चों के भविष्‍य से खिलवाड़ करने लगते हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि इन सुविधाओं में कोई अनोखी सुविधा शामिल नहीं थी। ये सभी वो सुविधाएं थीं जो इस स्‍तर के किसी भी स्‍कूल में आजकल सामान्‍यत: पाई जाती हैं। बावजूद इसके चंद दिनों के अंदर ही इस Delhi Public School की शिकायतों का अंबार लगने लगा है।
केडी मेडिकल कॉलेज के डॉक्‍टर्स ने की तीन पन्‍नों की लिखित शिकायत
सबसे ताजा मामला स्‍कूल के अत्‍यंत निकट स्‍थित केडी मेडिकल कॉलेज के उन डॉक्‍टर्स का है जिन्‍होंने नजदीक होने के कारण और स्‍कूल की मैनेजमेंट कमेटी पर भरोसा करके अपने बच्‍चों का यहां एडमिशन करा दिया।
कॉलेज के ऐसे डॉक्‍टर्स ने एक लिखित जनरल कंपलेंट करते हुए स्‍कूल की मैनेजमेंट कमेटी पर बच्‍चों को सुविधाएं मुहैया न कराने और पेरेंट्स से किए गए कमिटमेंट को पूरा न करने का आरोप लगाया है।
मेडिकल जैसे पेशे से जुड़े स्‍कूली बच्‍चों के इन पेरेंट्स का आरोप है कि Delhi Public School के मैनेजमेंट ने उनसे एडमिशन कराने से पूर्व जो वायदे किए थे, अब उनमें से किसी को पूरा नहीं किया जा रहा।
जैसे स्‍कूल प्रबंधन ने DPS के स्‍तर वाली सभी ट्रांसपोर्ट संबंधी सुविधाएं बच्‍चों को उपलब्‍ध कराने का वादा किया था लेकिन पहले दिन से लेकर आज तक कभी मेडिकल कॉलेज कैंपस में स्‍कूल बस टाइम से नहीं पहुंची। बस अक्‍सर एक से डेढ़ घंटे देर करती है, जिसके कारण बच्‍चों की शुरू की क्‍लासेस छूट जाती हैं।
शिकायत के अनुसार बच्‍चों के लिए स्‍कूल में एक फीमेल केयरटेकर उपलब्‍ध कराने का कमिटमेंट किया गया था, लेकिन वो भी पूरा नहीं किया जा रहा।
इसके अलावा स्‍कूल बस के अंदर क्षमता से अधिक बच्‍चे भरकर ले जाए जाते हैं जिस कारण भीषण गर्मी के इस दौर में बच्‍चों की तबियत खराब होने का खतरा बना रहता है। साथ ही सुरक्षा के लिहाज से भी बस सुरक्षित नहीं रहती।
पेरेंट्स का कहना है कि इस बारे में शिकायत करने पर स्‍कूल के मैनेजमेंट ने जल्‍द ही समस्‍याएं दूर करने का आश्‍वासन दिया लिहाजा वो निजी वाहनों से बच्‍चों को स्‍कूल छोड़ने जाने लगे किंतु समस्‍याओं का समाधान अब तक नहीं किया गया। इसके विपरीत बच्‍चों को स्‍कूल छोड़ने जाने वाले पेरेंट्स को गेट पर ही रोक दिया जाता है जबकि मेन गेट से स्‍कूल की बिल्‍डिंग काफी दूर है।
पेरेंट्स की एक शिकायत यह भी है कि एडमिशन से पहले उन्‍हें कहा गया था कि केडी मेडिकल कॉलेज से Delhi Public School की दूरी अधिकतम दो किलोमीटर होने के कारण वह इस कैंपस से आने वालों बच्‍चों की स्‍कूल बस फीस सामान्‍य फीस से आधी लेंगे किंतु अब पूअर बस सुविधा के बावजूद पूरी 1500 रुपए फीस वसूली जा रही है जो पूरी तरह नाजायज है।
पेरेंट्स की इन सभी शिकायतों के बारे में Delhi Public School को फोन करके मैनेजमेंट  का पक्ष जानना चाहा तो उधर से कुछ देर बाद जवाब देने की बात कही गई किंतु समाचार लिखे जाने तक कोई जवाब नहीं आया।
क्‍यों नहीं आया जवाब ? 
स्‍कूल प्रबंधन से जवाब न आने की सबसे बड़ी वजह स्‍कूल के संचालन में बेहिसाब खामियां होना तो है ही, साथ ही वो नियम व शर्तें भी अब तक पूरी न किया जाना है जो किसी भी स्‍कूल की मान्‍यता के लिए जरूरी होती हैं।
बताया जाता है कि मात्र कक्षा 7 तक के लिए शुरू किए गए इस Delhi Public School ने जिला स्‍तर पर बेसिक शिक्षा अधिकारी के यहां से जरूरी नियम व शर्तें भी फिलहाल पूरी नहीं की हैं जबकि उन नियम व शर्तों को पूरा किए बिना न तो मान्‍यता मिलना संभव है और न स्‍कूल के संचालन का अधिकार प्राप्‍त होता है।
ऐसे में यह माना जा सकता है कि शत-प्रतिशत सफलता की गारंटी वाले शिक्षा व्‍यवसाय को लोगों ने पेरेंट्स से सिर्फ और सिर्फ पैसा वसूलने का ज़रिया तो बना लिया है किंतु सुविधा और नियम-कानून ताक पर रख दिए हैं।
यदि ऐसा नहीं होता तो कैसे किसी नामचीन संस्‍था से जुड़ा स्‍कूल अपने पहले ही शिक्षा सत्र में पेरेंट्स को शिकायत करने का अवसर देता और कैसे शिकायत सुनने के बाद भी अपना पक्ष रखने की बजाय चुप्‍पी साध लेता।
-Legend News

भाजपा में शामिल होना चाहती थीं प्रियंका चतुर्वेदी, एक गाना बन गया रोड़ा

कल तक विभिन्न समाचार चैनलों पर कांग्रेस के लिए किसी से भी भिड़ जाने वाली तेजतर्रार नेता प्रियंका चतुर्वेदी शिवसेना में शामिल तो हो गईं, लेकिन असल में वे भाजपा में शामिल होना चाहती थीं।
बताया जाता है कि भाजपा में शामिल होने की उनकी ‘महत्वाकांक्षी’ योजना में रोड़ा उनका ही एक गाना बन गया।
एक रिपोर्ट के मुताबिक कांग्रेस छोड़ने के बाद प्रियंका की पहली पसंद भाजपा ही थी लेकिन प्रियंका चतुर्वेदी की राह में उनके द्वारा स्मृति ईरानी पर तंज कसता हुआ वह गाना बड़ी बाधा बन गया जो उन्‍होंने स्‍मृति ईरानी के अमेठी से नामांकन दाखिल करने के बाद उनकी शिक्षा को लेकर गाया था।
दरअसल, कुछ समय पहले प्रियंका ने स्मृति की डिग्री को लेकर कटाक्ष करते हुए टीवी चैनल पर एक गीत गुनगुनाया था, जिसका शीर्षक था ‘मंत्री भी कभी ग्रेजुएट थीं…’।
प्रियंका ने कुछ इस अंदाज में गुनगुनाया था- क्वालिफिकेशन के भी रूप बदलते हैं, नए-नए सांचे में ढलते हैं, एक डिग्री आती है एक डिग्री जाती है, बनते एफिडेविट नए-नए हैं’।
इसके माध्यम से प्रियंका चतुर्वेदी ने स्मृति पर खुलकर निशाना साधा था। यही कारण रहा कि ऐन वक्त पर उनकी भाजपा में एंट्री नहीं हो सकी।
गौरतलब है कि प्रियंका चतुर्वेदी मथुरा से टिकट चाहती थीं, लेकिन पार्टी ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। उन्होंने कहा भी था कि उन्होंने 10 साल पार्टी की नि:स्वार्थ सेवा की थी।
टिकट न मिलने से उनका असंतोष और बढ़ गया था। ऐसे में उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का मन बना लिया था। इसके लिए उन्‍होंने आड़ ली मथुरा में अपने साथ हुई उस कथित बदतमीजी की जो एक प्रेस कांफ्रेंस में मथुरा के एक कांग्रेसी गुट ने की थी।
हालांकि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने की वजह टिकट न मिलने को नहीं बताया और कहा कि पार्टी में अब गुंडों को तरजीह दी जा रही है इसलिए मैं बहुत दुखी मन से यह निर्णय ले रही हूं।
चूंकि उन्होंने कांग्रेस छोड़ने का मन बना ही लिया था और भाजपा में एंट्री नहीं हो पा रही थी, ऐसे में उन्होंने ऐसी पार्टी को चुना जो सत्ता केंद्र के निकट हो। अब देखना यह होगा कि शिवसेना में उनका कद कहां तक बढ़ता है।
-Legend News

प्रियंका चतुर्वेदी के कांग्रेस छोड़ने की बड़ी वजह महेश पाठक की “उम्‍मीदवारी” भी

नई दिल्‍ली। कांग्रेस की राष्‍ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी की पार्टी से नाराजगी की खबरों के बीच अब उनके पार्टी छोड़ने की खबर आ रही है। सूत्रों के हवाले से ऐसी खबर आ रही है कि मथुरा में हुई घटना के विरोध में प्रियंका ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। ट्विटर पर भी उन्होंने मथुरा घटना को लेकर खुलकर अपनी नाखुशी जाहिर की थी।
प्रियंका चतुर्वेदी ने अपने ट्विटर हैंडल के बायो इंट्रो में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता पद का परिचय हटा लिया है।
प्रियंका चतुर्वेदी ने अपने ट्विटर हैंडल के बायो इंट्रो से कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता पद का परिचय हटा लिया है।
बता दें कि मथुरा में कांग्रेस पार्टी के ही कुछ कार्यकर्ताओं ने प्रियंका चतुर्वेदी से दुर्व्यवहार किया था। हालांकि, उन्हें अपने व्यवहार पर खेद जताने के बाद पार्टी में वापस ले लिया गया।
प्रियंका ने इस पर नाराजगी जताते हुए ट्वीट किया था कि कांग्रेस के लिए अपना खून-पसीना एक करने वालों के स्थान पर कुछ लंपट आचरण करने वालों को तरजीह मिल रही है।
मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी दावा किया जा रहा है कि मथुरा की घटना के कारण पार्टी छोड़ने से पहले ही कुछ अन्‍य कारणोंवश प्रियंका पार्टी से नाराज चल रही थीं। मीडिया रिपोर्ट्स का कहना है कि प्रियंका मुखरता से पार्टी का पक्ष लेती थीं और उन्हें इस चुनाव में टिकट मिलने की उम्मीद थी। टिकट नहीं मिलने के कारण ही उन्होंने नाराजगी में पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया।
कांग्रेस की मुखर प्रवक्ता के तौर पर प्रियंका ने बनाई पहचान 
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस प्रवक्ता के तौर पर प्रियंका चतुर्वेदी ने अलग पहचान बनाई। वह मीडिया चैनल्‍स और सार्वजनिक मंचों पर बीजेपी और मोदी सरकार के खिलाफ पार्टी का मुखर चेहरा बनकर उभरी थीं। कांग्रेस में उन्हें राष्ट्रीय प्रवक्ता का पद भी दिया गया। कई बार उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष के साथ भी मंच साझा किया। हाल ही में उन्‍होंंने स्‍मृृति ईरानी के हलफनामे में डिग्री विवाद पर ताना कसते हुए स्‍मृति के ही लोकप्रिय सीरियल का गाना गाया था, जिसकी सोशल मीडिया पर काफी चर्चा हुई।
प्रियंका की नाराजगी के पीछे ”मथुरा” से महेश पाठक की उम्‍मीदवारी भी 
बहुत कम लोग जानते हैं कि प्रियंका चतुर्वेदी की जड़ें उत्तर प्रदेश के मथुरा से जुड़ी हैं। प्रियंका के पिता और पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट पुरुषोत्तम चतुर्वेदी मथुरा के चौबच्‍चा मौहल्ला निवासी हैं। 
मथुरा और चतुर्वेदी समुदाय में ”लाला” के नाम से मशहूर प्रियंका चतुर्वेदी के पिता कुछ समय पहले तक चतुर्वेदी समाज की पत्रिका के संपादक भी हुआ करते थे। 
किन्‍हीं कारणोंवश उनका विवाद माथुर चतुर्वेद परिषद के संरक्षक महेश चतुर्वेदी यानि महेश पाठक से हुआ। 
ये वही उद्योगपति महेश पाठक हैं जिन्‍हें कांग्रेस ने इस बार मथुरा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़वाया है। इस विवाद के बाद प्रियंका के पिता को समाज की पत्रिका के संपादक पद से मुक्‍त कर दिया गया। 
गौरतलब है कि महेश पाठक का नाम मथुरा से कांग्रेस प्रत्‍याशी के रूप में घोषित होने तक प्रियंका चतुर्वेदी का नाम काफी आगे चल रहा था और माना जा रहा था कि पार्टी उन्‍हें यहां से चुनाव मैदान में उतारने जा रही है किंतु ऐन वक्‍त पर महेश पाठक को टिकट दे दिया गया।
मथुरा कांग्रेस की गुटबाजी भी बड़ा कारण
इधर मथुरा कांग्रेस भी काफी लंबे समय से गुटबाजी का शिकार है। मथुरा में एकगुट पूर्व विधायक प्रदीप माथुर का है और दूसरा उन्‍हें पसंद न करने वाले कांग्रेसियों का। इस गुट में महेश पाठक भी बताए जाते हैं।
जाहिर है ऐसे में प्रदीप माथुर गुट को तरजीह देने वाली प्रियंका चतुर्वेदी को महेश पाठक की उम्‍मीदवारी रास नहीं आई।
प्रियंका चतुर्वेदी जिस विवाद का हवाला देकर कांग्रेस में गुंडों को महत्‍‍‍व देने की बात कर रही हैं, वो उस प्रेस कांफ्रेंस से ताल्‍लुक रखता है जिसे उन्‍होंने प्रदीप माथुर के साथ स्‍थानीय एक होटल में बुलाया था। यहीं गुटबाजी के चलते प्रियंका चतुर्वेदी से कथित तौर पर अभद्रता की गई।
अभद्रता की घटना पुरानी, फिर रिएक्‍शन अब क्‍यों 
प्रियंका चतुर्वेदी को महेश पाठक की उम्‍मीदवारी भले ही रास न आ रही हो किंतु उन्‍हें मौका तब मिला जब अभद्रता करने वालों का मथुरा में मतदान से ठीक तीन दिन पहले निलंबन वापस ले लिया गया।
पार्टी महासचिव ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के स्‍तर से वापस लिए गए इस निलंबन के पीछे भी महेश पाठक की उनसे नजदीकियां मानी जा रही हैं। ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया इससे ठीक पहले मथुरा में महेश पाठक के लिए रैलियां करके गए थे।
ऐसे में यह अनुमान लगाया जा रहा है कि प्रियंका चतुर्वेदी के धुर विरोधी महेश पाठक के कहने पर ही उन सभी लोगों का निलंबन रद्द किया गया जिनकी शिकायत प्रियंका चतुर्वेदी ने की थी।
मथुरा में अब हालांकि मतदान हो चुका है किंतु महेश पाठक की उम्‍मीदवारी ने यहां की गुटबाजी को राष्‍ट्रीय स्‍तर पर हवा दे दी और उसी का परिणाम रहा प्रियंका का कांग्रेस को छोड़ना। अब देखना यह है कि पांच चरणों के शेष मतदान में प्रियंका की नाराजगी क्‍या गुल खिलाती है क्‍योंकि मुंबई में उनकी सक्रियता भी कांग्रेस के प्रत्‍याशियों को प्रभावित कर सकती है।
-Legend News
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