BHRASHT INDIA
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रविवार, 21 जुलाई 2024
यूपी में बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल के बीच सीएम योगी को खुला खत: मूल समस्या के कारण और निवारण...
लोकसभा चुनाव 2024 में अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पाने के बाद से यूपी की राजनीति एक गंभीर उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। कोई इसके लिए गोरखनाथ पीठ के महंत और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली पर उंगली उठा रहा है तो कोई भाजपा के अंदरूनी कलह को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि पार्टी ने उम्मीदवारों के चयन में चूक कर दी। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक चुनाव परिणामों की समीक्षा बैठकों के साथ कयासों का दौर भी जारी है। फिलहाल, पार्टी का फोकस उपचुनावों पर है और ऐसा माना जा रहा है कि इन चुनावों के नतीजे स्थिति को कहीं ज्यादा स्पष्ट कर देंगे लिहाजा अनुमान है कि उसके उपरांत हाईकमान कोई बड़ा तथा ठोस निर्णय ले।
बहरहाल, राजनीति की उलटबांसियां अपनी जगह किंतु जन आकांक्षाएं और जनभावनाएं अपनी जगह। राजनेताओं के लिए जनता ही अंतत: जनार्दन साबित होती है क्योंकि उसी के मत से सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। नेता चाहे जितनी चालें चल लें परंतु वोट की चोट उसे अहसास करा ही देती है कि तुरुप का इक्का किसके हाथ है।
ऐसे में जनअपेक्षाओं तथा जनभावनाओं का जानना बहुत जरूरी होता है। जो पार्टी या नेता इससे अनभिज्ञ रहता है, उसके लिए अपेक्षित परिणाम मिलना मुश्किल होता है। यूपी की जनता भी कुछ यही इशारे कर रही है। समय रहते समझ में आ जाएं तो ठीक अन्यथा 2027 बहुत दूर नहीं है।
2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों को लेकर यूपी के लोगों की भावनाएं और उनकी अपेक्षाएं क्या हैं, उसे लेकर पेश है सीएम योगी के सामने एक खुला खत-
माननीय मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश सरकार योगी आदित्यनाथ जी! आपकी निष्ठा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, नैतिकता, मेहनत तथा लगन को लेकर शायद ही किसी को कोई शक हो किंतु इसमें भी दोराय नहीं है कि भ्रष्टाचार के बाबत जिस जीरो टॉलरेंस की नीति का ढिंढोरा आपकी सरकार द्वारा 2017 में पीटा गया वह आज सात साल की सत्ता के बावजूद निरर्थक साबित हो रहा है।
माननीय मुख्यमंत्री जी, क्या आपको ज्ञात है कि आपकी भ्रष्टाचार को लेकर अपनाई गई जीरो टॉलरेंस की नीति प्रदेश के अधिकारी एवं कर्मचारियों के लिए बेहद मुफीद साबित हुई है क्योंकि उसे नौकरशाही ने अपना सबसे बड़ा हथियार बना लिया है।
आज स्थिति यह है कि उसी जीरो टॉलरेंस नीति के बहाने अधिकारी एवं कर्मचारी पहले से अधिक रिश्वत यह कहकर वसूल करते हैं कि सरकार सख्त है इसलिए रिस्क भी अधिक है।
योगी जी! क्या आपको पता है कि रिश्वत के लिए सर्वाधिक बदनाम पुलिस महकमे की बात छोड़ भी दें तो आवास-विकास, विकास प्राधिकरण, बिजली विभाग, उद्योग, लोक निर्माण विभाग से लेकर परिवहन, तहसील, सिंचाई और शिक्षा तक में भ्रष्टाचार का बोलबाला है।
बेशक ये विभाग सदा से भ्रष्ट थे, और पूर्ववर्ती सरकारों में इनके अधिकारी एवं कर्मचारियों का आमजन के प्रति रवैया खासा खराब था परंतु कड़वा सच यह है कि आज भी स्थित जस की तस है। इसमें कोई अंतर कहीं दिखाई नहीं देता। दिखाई देता है तो केवल इतना कि नौकरशाह अब 'जीरो टॉलरेंस' की आड़ में जमकर टॉर्चर कर रहे हैं। यकीन न हो तो किसी भी एक विभाग को आप स्वयं चुन लीजिए, और उसकी सच्चाई जानिए। शर्त यह है कि किसी भी तरह आपके अभियान की भनक न लगे। गोपनीयता इसके लिए बेहद जरूरी है।
प्रदेश भर के सभी सरकारी विभागों में चल रहे भ्रष्टाचार के बड़े खेल का सिलसिलेवार ब्यौरा बाद में लेकिन उससे पहले वो सवाल जो जनता के मन में बैठे हैं और जिन्हें लेकर जनता आपसे बहुत उम्मीद लगाए बैठी थी परंतु नतीजा आज तक शून्य नजर आता है।
सबसे पहले बात लखनऊ के गोमती रिवर फ्रंट घोटाले की
माननीय मुख्यमंत्री जी! सर्वविदित है कि समाजवादी पार्टी के शासनकाल में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते हजारों करोड़ रुपए का गोमती रिवर फ्रंट घोटाला हुआ। आपने अपनी पहली पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनने के साथ ये ऐलान किया था कि गोमती रिवर फ्रंट घोटाले का कोई अपराधी बच नहीं सकेगा और जल्द से जल्द सारे घोटालेबाज जेल के अंदर होंगे।
सीबीआई ने इस मामले में कुल 189 लोगों को आरोपी बनाया लेकिन आज तक सतही कार्रवाई के अलावा कुछ नहीं हुआ। अगर पकड़े भी गए तो वो लोग जिन्हें गुर्गे कहा जा सकता है। कोई भी सरगना या मास्टर माइंड आज तक गिरफ्त में नहीं आया। सच कहें तो आज वही आप पर और आपकी सरकार पर हमलावर हैं, लेकिन आप कुछ नहीं कर पा रहे। जनता जानना चाहती है कि ऐसा क्यों।
हजारों करोड़ रुपए का घोटाले करने वाले अब तक सरकार की पकड़ से दूर क्यों हैं और सरकार इसमें क्या कर रही है।
माननीय योगी जी! आप भली भांति जानते हैं कि कोई भी बड़ा घोटाला सत्ता का संरक्षण पाए बिना संभव ही नहीं है। सत्ता का संरक्षण किसी भी घोटाले को तब मिलता है जब सरकार पर काबिज लोगों के निजी स्वार्थ उससे पूरे होते हों, तो फिर आज तक गोमती रिवर फ्रंट घोटाले के संरक्षणदाताओं का क्यों कुछ नहीं बिगड़ा।
मायावती के कार्यकाल का नोएडा पार्क घोटाला
अखिलेश यादव के कार्यकाल से पहले मायावती के शासनकाल में नोएडा का पार्क घोटाला सामने आया। हजारों करोड़ रुपए के इस घोटाले में भी बड़े-बड़े लोगों की संलिप्तता सामने आई। इस पार्क में लगाए गए पत्थरों के हाथी और बहनजी की मूर्तियों पर किसी आम आदमी की सोच से भी परे जाकर पैसा खर्च किया गया। पहले अखिलेश यादव ने कहा कि इस घोटाले का कोई आरोपी बच नहीं सकेगा। फिर आपकी सरकार ने उम्मीद जगाई किंतु राजनीति के बियाबान में इस घोटाले की सच्चाई कहां खो गई, कुछ पता नहीं लगा।
आज बहिन जी राजनीतिक हैसियत भले ही पहले जितनी न रह गई हो लेकिन उनके ठाठ-बाट और शानो-शौकत में कोई कमी नहीं है। पत्थरों के बने बुत बोल पाते तो बताते कि घोटालेबाज आज भी मौज कर रहे हैं। सत्ता का संरक्षण उन्हें भी प्राप्त था, और क्यों प्राप्त था इसे अब दोहराने की दरकार नहीं रह गई।
आय से अधिक संपत्ति के मामले भी ठंडे बस्ते में
माननीय मुख्यमंत्री जी! इसी प्रकार कुछ कद्दावर नेताओं पर आय से अधिक संपत्ति के मामले दर्ज हुए थे। ये मामले कोर्ट-कचहरी तक भी पहुंचे किंतु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। आपकी सरकार कह सकती है कि कुछ को न्यायालय से राहत मिल गई और कुछ लंबित हैं, लेकिन सवाल यह भी है कि न्यायालय से राहत कैसे मिल गई। मामले अब तक लंबित क्यों है। इन मामलों में पर्याप्त पैरोकारी क्यों नहीं की जा रही, और की जा रही है तो उसकी स्थिति क्या है।
योगी जी! आप ही बताइए कि क्या ये सब जानने का जनता को कोई अधिकार नहीं है। क्या जनता को आपसे जो अपेक्षाएं थीं, वो गलत थीं। यदि वो सही थीं तो हजारों-हजार करोड़ रुपया डकार जाने वाले आज तक बेनकाब क्यों नहीं हुए। उल्टा क्यों आज तक वो आपको, आपकी नीतियों को, आपके काम को तथा आपकी पार्टी को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
शायद इसलिए कि उन्हें इसके लिए भरपूर मौका मिल रहा है। अब विचारणीय प्रश्न यह है कि ये मौका कौन दे रहा है और क्यों दे रहा है।
पहले पत्र में इतना ही। बाकी ये सिलसिला जारी रहेगा ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए क्योंकि यूपी को 2027 के लिए भी आपसे बहुत उम्मीदें हैं। दरअसल, सवाल चुनावों में जीत-हार का नहीं उस भरोसे का है जो आपने दिया है और जो अभी टूटा नहीं है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
शनिवार, 13 जुलाई 2024
हरि अनंत हरि कथा अनंता: मान गए गुज्जू भाई आपको, जूता भी उनका... चांद भी उनकी... वो भी सरेआम
मान गए गुज्जू भाई आपको! वाकई कमाल की खोपड़ी पाई है ऊपर वाले से आपने। कल तक जो पानी-पी पीकर भरी सभाओं में आपको कोसा करते थे, वही आज पूरे टब्बर के साथ शिरकत करने जा पहुंचे। यहां तक कि जो बुढ़ऊ कोर्ट से कहते रहते हैं कि माई-बाप, तमाम बीमारियों ने घेर रखा है। हाथ-पैर काम नहीं करते। शरीर से लाचार हूं। व्हीलचेयर के सहारे जिंदगी सरक रही है, वह भी दोनों पैरों पर सरपट चलते दिखाई दिए। राजनीतिक कुनबे के दूसरे सदस्यों का हाल कुछ अलग नहीं रहा। कोई दरवाजे पर दांत निपोरते नजर आया तो कोई लाइन में लगा हुआ था। मीडिया से मुंह छिपाना आसान न रहा तो नजर चुराते हुए किसी ने कहा, हम तो आशीर्वाद देने आए हैं। कोई बोला, निमंत्रण था... बहुत इसरार किया इसलिए आना पड़ा।
पिता-पुत्र की एक जोड़ी तो दरवाजे पर खड़ी होकर ऐसे दांत निपोर रही थी जैसे ढोल-नगाड़े वाले न्योछावर पाने की फिराक में निपोरते हैं। शेर की खाल वाले ये गीदड़ कतई नमूने नजर आ रहे थे, लेकिन उन्हें इस बात का रत्तीभर घमंड नहीं था।
खप्पर हाथ में लेकर हर वक्त खून की प्यासी सी रहने वाली एक नेत्री भी जा पहुंचीं। दुश्मन दल के 'दोस्त' की मेहमान नवाजी ही कुछ ऐसी थी कि खुद के पहुंचने के बहाने भी खुद ही गढ़ लिए।
बिना टोपी के जिन्हें रात में नींद नहीं आती, उनकी टोपी नदारद नजर आई। अलबत्ता बाकी लिबास वही था, जो उनकी पहचान बन गया है। बीबी-बच्चे बेशक आयोजन की नजाकत समझ रहे थे इसीलिए मौके और दस्तूर के मुताबिक सज-संवर कर आए लेकिन भैया ने समारोह को भी सम्मेलन समझ लिया। शायद ये डर भी रहा होगा कि पार्टी के ड्रेस कोड से इतर कुछ पहन-ओढ़ लिया तो कहीं लोग पहचानने से ही इंकार न कर दें। कल को इतने भव्य आयोजन में गैर हाजिरी लग गई तो लोग पूछने लगेंगे कि भैया कहां रास्ता भटक गए। भाभी-बच्चे तो चहकते दिखाई दिए लेकिन आपका वो सिर, सिरे से गायब क्यों रहा जिस पर दिन-रात खास रंग की टोपी सुशोभित होती रहती है।
हाल ही में जीवन के 54 बसंत देख चुके चिर युवा नेता जी तो गुज्जू भैया की शान में इतने कसीदे पढ़ चुके हैं कि निमंत्रण मिलने पर उनकी स्थिति दयनीय सी हो गई। उनके और उनकी अम्मा के गले में अटक गया ये न्योता। समझ में ही नहीं आया कि उसे निगलें कि उगलें। आखिर एक उपाय सूझा कि फिलहाल पतली गली से विदेश यात्रा पर निकल लो। बाद की बाद में देखा जाएगा। अम्मा का क्या है, बुढ़िया भी है और बीमार भी। कोई न कोई बहाना बना ही देगी। रिटर्न गिफ्ट नहीं मिल सकेगा तो न सही। वैसे संभव है कि सोने-चांदी के वर्क लगे लड्डुओं का डिब्बा, मय रिटर्न गिफ्ट घर पर ही आ जाए। यूं तो अभी दो आयोजन और बाकी हैं, क्या पता अम्मा देर-सवेर हाजिरी लगा ही दे।
जनता का क्या है, अगले इलेक्शन तक सब भूल जाती है। फिर हमारी जात की बेशर्मी का कोई तोड़ है क्या किसी के पास। शैतान भी हमारे सामने पानी मांग जाता है। गुज्जू भाइयों को गरियाने का कोई नया बहाना तब तक ढूंढ लेंगे। और इस बात का भी कि हम देश को लूटने वाले कारोबारियों के यहां क्यों गए थे। कह देंगे कि हम तो अपनी हिस्सेदारी तय करने गए थे। जिसकी जितनी संख्या भारी... उतनी उसकी हिस्सेदारी। हर बार 99 के फेर में थोड़े ही फंसना है। किनारे से लग गए हैं तो कभी लहर भी आ ही जाएगी। हां, अफसोस इस बात का जरूर रहेगा कि शादी-ब्याह रचाया होता, बाल-बच्चे खेल-कूद रहे होते तो हर बात के लिए अम्मा का मुंह न ताकना पड़ता। बिना पूछे भी जाना हो सकता था। मीडिया वालों से मुंह छिपाकर निकलने में तो महारत हासिल है। जैसे बाकी बातों के लिए टरका देते हैं, वैसे ही इस मामले में भी टरका देते। वैसे हैं अब भी बड़ी उलझन में, इसलिए विदेश यात्रा बीच में छोड़कर आशीर्वाद देने जा पहुंचें तो कोई आश्चर्य नहीं।
अधेड़ उम्र वाले युवराज की सिपहसालारी करने वाले एक पूर्व मंत्री अपनी ओवरवेट बेगम के जा पहुंचे तो वायरल वीडियो के लिए कुख्यात कानूनविद ने भी मौका हाथ से नहीं निकलने दिया।
बहरहाल, अब सुनिए मुद्दे की बात। और मुद्दे की बात यह है कि गुज्जू भाइयों ने इस मौके पर सबकी लंका लगाने का प्लान लोकतंत्र के महापर्व की मझधार में ही बना लिया था। उन्होंने कानाफूसी करके उसी दौरान तय कर लिया था कि न्योते को लालायित इन सारे चिल्लरों को सपरिवार आमंत्रित करना है। गुज्जू भाइयों को अपनी अक्ल और इनकी बेअक्ली पर पूरा भरोसा था। उन्हें पता था कि न्योता मिलते ही ये सब लार टपकाते आ पहुंचेंगे क्योंकि बुनियादी रूप से तो सबकी जात एक ही है और इसी लिए एक ही हमाम में बैठे हैं।
गुज्जू भाइयों को बखूबी पता था कि इनका थूका हुआ इन्हीं की जीभ से चटवाने का इससे बेहतर अवसर दूसरा नहीं मिलेगा। चूंकि इन्होंने थूका भी था भरी सभाओं में तो चाटने के लिए भी इससे अच्छा मंच कौन सा होगा जहां देशी ही नहीं, विदेशी मेहमान भी इकठ्ठे हों।
अब वो मेहमान देश-दुनिया को बता सकेंगे कि गुज्जू भाइयों को दिन-रात गरियाने वालों की असली औकात है क्या। वो दिखा सकेंगे कि कभी किसी तरह पद या कुर्सी पा जाने से कूकुर की फितरत नहीं बदल जाती। नस्ल कोई भी क्यों न रही हो, मूल प्रवृत्ति तो वही रहती है।
गुज्जू भाई जानते हैं भोंकने के आदी ये लोग बेशक भोंकने से बाज अब भी नहीं आऐंगे, लेकिन अब अपने बचाव में भोंकेंगे। गौर कीजिएगा कि अब ये जब कभी भोंकना शुरू करेंगे तो इनकी दुम दबी होगी क्योंकि वही इस प्रजाति की कड़वी सच्चाई है जिसे गुज्जू भाई एक झटके में सामने ले आए। जय हिंद। जय भारत।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
शनिवार, 29 जून 2024
24 फरवरी 2015 को Legend News में लिखा गया था ये लेख: कुमार स्वामी... साधु या शैतान?
सुना है पहले बड़े ही सुनियोजित तरीके से ठगों के गिरोह ठगाई का अपना धंधा किया करते थे। मसलन जैसे कोई व्यक्ति पशु पैंठ से गाय खरीद कर लाया। रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मौजूद गिरोह का एक सदस्य उससे पूछता था- अरे भाई, यह गधा कितने का खरीदा?
गाय को गधा बताये जाने पर पहले तो वह आदमी चौंककर कहता है कि क्या अंधे हो भाई... यह गधा नहीं गाय है, लेकिन रास्ते में जब तमाम लोग यही सवाल करते मिलते तो गाय लाने वाले को अपने ऊपर ही शक हो जाता था और वह सोचने लगता कि हो न हो मैं ही मूर्ख बन आया हूं। गांव पहुंचूंगा इसे लेकर तो बड़ी बदनामी होगी, साथ ही मजाक भी उड़ेगा लिहाजा वह खुद भी गाय को गधा मानकर रास्ते में ही कहीं चुपचाप छोड़कर चल देता था और पीछे से ठग उस गाय को ले उड़ते थे।
समय के साथ ठगाई का तरीका भले ही बदल गया हो लेकिन धंधा आज भी जारी है। यकीन न हो तो 'स्वयंभू ब्रह्मर्षि' कुमार स्वामी' के संदर्भ में छपा अखबार का एक विज्ञापन देख लो।
एक अखबार में जैकेट पेज विज्ञापन छपा है। यह विज्ञापन मथुरा के वृंदावन में कुमार स्वामी द्वारा 12 व 13 जुलाई को आयोजित 'प्रभु कृपा दुख निवारण समागम' का है। 'स्वयंभू ब्रह्मर्षि' कुमार स्वामी के इस विज्ञापन में नेशनल हाईवे नंबर दो के पास वृंदावन के ही चौमुहां क्षेत्र अंतर्गत श्री राधा-कृष्ण का एक विशाल मंदिर बनाये जाने की घोषणा की गई है। 108 एकड़ भूमि पर प्रस्तावित इस मंदिर के निर्माण में दो हजार किलो सोना इस्तेमाल करने की बात लिखी है।
इस मंदिर के उद्देश्य और इसके ऊपर होने वाले खर्च पर चर्चा बाद में, पहले इसी विज्ञापन में किए गये दूसरे दावों की बात
विज्ञापन में 'दिव्य पाठ से आई जीवन में खुशहाली' शीर्षक से करीब डेढ़ दर्जन लोगों के अनुभव प्रकाशित कराये गये हैं। इन लोगों में युवक-युवतियों एवं महिला-पुरुषों के अलावा दो बच्चों के भी फोटो लगे हैं।
इन तथाकथित निजी अनुभवों के माध्यम से दावा किया गया है कि ब्रह्मर्षि कुमार स्वामी द्वारा उपलब्ध कराये गये दिव्य पाठ से, उनके समागम में शामिल होने से तथा उनके द्वारा बताये गये अन्य उपायों से किस प्रकार उनके सारे कष्ट दूर हो गए।
इन कष्टों में एमबीबीएस करने के लिए एडमीशन से लेकर गोल्डमेडल हासिल होने तथा मनमाफिक नौकरी पाने से लेकर हार्ट की ब्लॉकेज समाप्त हो जाने तक का जिक्र है।
इतना ही नहीं, अखबार में छपे विज्ञापन के जरिए दावा किया गया है कि कुमार स्वामी की कृपा और उनके द्वारा बताये गये उपायों से किसी का लाइलाज ब्रेस्ट कैंसर पूरी तरह ठीक हो गया तो किसी की बच्चेदानी का कैंसर ठीक हो गया। ब्लड शुगर, ब्लड प्रेशर व थॉयराइड जैसी बीमारियां कुमार स्वामी की कृपा से खत्म होने का दावा विज्ञापन में दर्शाये गए लोगों के द्वारा कथित तौर पर किया गया है।
इसी विज्ञापन में 'मेडिकल साइंस हतप्रभ' शीर्षक से दावा किया गया है कि कुमार स्वामी द्वारा उपलब्ध कराये गये दिव्य पाठ के बाद जन्म से गूंगा व बहरा एक बच्चा बोलने व सुनने लगा तथा किसी कारण पूरी तरह आंखों की रोशनी गंवा चुके एक अन्य बच्चे की आंखें पूरी तरह ठीक हो गईं और वह साफ-साफ देखने लगा। विज्ञापन के अनुसार गूंगे व बहरे बच्चे का इलाज पूर्व में पीजीआई चण्डीगढ़ से चल रहा था लेकिन वहां कोई लाभ नहीं हुआ।
विज्ञापन की मानें तो जहां मेडीकल साइंस असमर्थ हो गई, वहां कुमार स्वामी से उपलब्ध दिव्य पाठ ने चमत्कार कर दिखाया। यहां तक कि अनेक असाध्य रोगों का इलाज मात्र ईमेल के जरिए कर दिया।
लोगों को प्रभावित करने के लिए विज्ञापन में एक ओर जहां आज देश के प्रधानमंत्री व गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा मथुरा की सांसद एवं सुविख्यात अभिनेत्री हेमा मालिनी का कुमार स्वामी को लेकर तथाकथित संदेश भी छापा गया है वहीं दूसरी ओर अमेरिका के सीनेटरों से प्राप्त अंबेसेडर ऑफ पीस अवार्ड, न्यूयॉर्क स्टेट सीनेट से प्राप्त सम्मान, मॉरीशस के पीएम से प्राप्त एंजल ऑफ ह्यूमेनिटी अवार्ड तथा ब्रिटेन की संसद से प्राप्त अंबेसेडर ऑफ पीस अवार्ड के फोटो प्रकाशित किये गये हैं। यह बात अलग है कि इन फोटोग्राफ्स की सत्यता को भी प्रमाण की जरूरत पड़ सकती है। जैसे नरेन्द्र मोदी और हेमा मालिनी का संदेश कब और किस संदर्भ में दिया गया था, दिया गया था भी या नहीं।
इन फोटोग्राफ्स को विज्ञापन में प्रकाशित करने के पीछे लोगों को प्रभावित करने के अलावा भी कोई दूसरा मकसद हो सकता है, यह समझ से परे है। हां, यह बात जरूर समझ में आती है कि प्रभावित क्यों और किसलिए किया जा रहा है।
स्पष्ट है कि पूर्व में कभी जिस तरह ठगों का सरगना गाय को गधा साबित करने के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत गिरोह के सदस्यों का इस्तेमाल किया करता था, ठीक उसी तरह आज के कुमार स्वामी अपने तथाकथित भक्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं जो वास्तव में उनके गिरोह का ही हिस्सा हैं अन्यथा क्या ऐसा संभव है कि जन्म से गूंगा-बहरा कोई ऐसा बच्चा जिसे ठीक करने में मेडीकल साइंस भी असमर्थ हो, उसे कुमार स्वामी ने ठीक कर दें। क्या ऐसा संभव है कि लाइलाज कैंसर का इलाज और ब्लड शुगर व ब्लड प्रेशर को कुमार स्वामी हमेशा के लिए ठीक कर सकें। मनमाफिक नौकरी पाने की बात हो या परीक्षा में मनमाफिक अंक प्राप्त करने की, सबकुछ कुमार स्वामी करवा सकते हों।
सूरदास के भक्तिपदों में एक पद है-
चरण-कमल बंदौ हरि राई।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाई।।
बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई।
'सूरदास' स्वामी करूणामय, बार-बार बन्दौं तेहि पाई।।
सूरदास ने अपने भक्ति पदों की रचना भगवान कृष्ण के संदर्भ में की है जबकि सूरदास प्रत्यक्षत: स्वयं मृत्युपर्यन्त दृष्टिहीन ही रहे और सूरदास नाम भी जन्मांध लोगों का पर्याय बन गया। लेकिन यहां तो सब-कुछ ब्रह्मर्षि कुमार स्वामी की कृपा से संभव बताया जा रहा है।
बेशक धर्म की आड़ में लोगों को ठगने का धंधा करने वाले आज हर धर्म में सक्रिय हैं और कोई धर्म इस प्रकार के धंधेबाजों से अछूता नहीं रह गया है लेकिन कुमार स्वामी के विज्ञापन की चर्चा इसलिए जरूरी है क्योंकि यह कुछ समय पूर्व इसी तरह यमुना को शुद्ध करने का बीड़ा मथुरा में उठा चुके हैं। तब इन्होंने एक बड़ी धनराशि अपनी ओर से यमुना शुद्धीकरण के लिए दान देने का ऐलान यमुना पर संकल्प के साथ किया था लेकिन आज न उस धनराशि का कोई पता है और ना ही यमुना शुद्धीकरण के लिए उठाये गये संकल्प का। हां, उसके साथ ही कुमार स्वामी के संस्थान की वेबसाइट पर यमुना शुद्धीकरण के लिए यथासंभव दान देने की अपील जरूर शुरू कर दी गई थी। उसके माध्यम से कितना दान मिला, और कुमार स्वामी द्वारा यमुना के लिए दान की गई भारी-भरकम रकम का क्या हुआ, कुछ नहीं पता।
अब कुमार स्वामी ने 108 एकड़ में दो हजार किलो सोने से जड़ा राधाकृष्ण का मंदिर बनाने की घोषणा की है।
यदि 25 हजार रुपया प्रति दस ग्राम सोने की कीमत से दो हजार किलो सोने का भाव कैलकुलेट किया जाए तो यह रकम बैठती है पांच सौ करोड़ रुपया। पांच सौ करोड़ रुपए का सोना और उसके अलावा 108 एकड़ नेशनल हाईवे से सटी हुई जगह की कीमत, फिर इतने बड़े मंदिर के निर्माण पर आने वाला खर्च आदि सब जोड़ा जाए तो यह रकम हजारों करोड़ बैठेगी।
यहां सवाल यह पैदा होता होता है कि कुमार स्वामी के पास इतनी रकम पहले से है या यह उगाही जानी है। यदि पहले से है तो आई कहां से।
नहीं है तो क्या मंदिर के निर्माण की घोषणा और उसके लिए अखबार में दिये गये लाखों रुपये कीमत के विज्ञापन का मकसद उसी प्रकार धन की उगाही करना है जिस प्रकार यमुना शुद्धीकरण के नाम पर कुछ समय पूर्व शुरू किया था।
एक अन्य सवाल यहां यह भी है कि 12-13 जुलाई को वृंदावन क्षेत्र में आयोजित प्रभु कृपा दुख निवारण समागम या अन्य स्थानों पर होते आ रहे ऐसे ही दूसरे समागम क्या नि:शुल्क होते हैं अथवा इनमें शामिल होने की कोई फीस वसूली जाती है। विज्ञापन के अनुसार उत्तर प्रदेश में कुमार स्वामी का यह 396वां समागम है। 395 इससे पहले विभिन्न स्थानों पर किये जा चुके हैं।
यदि यह समागम नि:शुल्क होते हैं तो इनके आयोजन के लिए भारी-भरकम खर्च कहां से आता है, कौन यह खर्च उठाता है और उसका इसके पीछे मकसद क्या है।
जाहिर है कि इन सभी प्रश्नों का जवाब कुमार स्वामी के दो पेज वाले 'जेकेट एड' से मिल जाता है परंतु धर्म की आड़ लेकर चल रहे ठगी के इस धंधे पर रोक लगाना आसान नहीं। हाल ही मैं साईं बाबा को लेकर उपजा विवाद इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
चूंकि धर्म ही सभी पापकर्मों के लिए सबसे बड़ी आड़ का काम कर सकता है इसलिए कुमार स्वामी जैसे लोग न केवल धर्म को धंधा बनाकर ऐश कर रहे हैं बल्कि देश व विदेश में मौजूद उस कालेधन को सफेद करने में लगे हैं जिनको बाहर निकालने में अब तक सरकारें भी असफल रही हैं।
पता नहीं क्यों सरकारों का ध्यान इस ओर नहीं जाता। यदि जाने लगे तो एक बड़ी मात्रा में कालेधन का पता और उसकी आड़ बने पूरे खेल का पर्दाफाश होते ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
बुधवार, 12 जून 2024
नयति की नियति को प्राप्त होने जा रहा है मथुरा का एक मशहूर हॉस्पिटल, चेयरमैन की विदेशी डिग्री भी चर्चा का विषय
कॉर्पोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया ने कृष्ण की पावन स्थली मथुरा से 28 फरवरी 2016 को एक सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल का संचालन शुरू किया था। 'नयति' के नाम से खोले गए इस हॉस्पिटल का उद्घाटन देश के दिग्गज उद्योगपति रतन टाटा के हाथों कराया गया। नेशनल हाईवे से सटी एक जमीन को लीज पर लेकर शुरू किए गए इस हॉस्पिटल ने बहुत कम समय में अच्छी खासी शोहरत हासिल कर ली लेकिन हॉस्पिटल की चेयरपर्सन नीरा राडिया का मकसद संभवत: कुछ और था, लिहाजा हॉस्पिटल के चर्चे इलाज से अधिक विवादों के कारण होने लगे। नीरा राडिया ने इन विवादों पर ध्यान देने की बजाय उन्हें दबाने में अधिक रुचि ली जिसके परिणाम स्वरूप मात्र चार साल में 'नयति' अपनी 'नियति' को प्राप्त हो गया। आज इस हॉस्पिटल पर ताला लटका है। मथुरा का एक अन्य हॉस्पिटल भी अब उसी राह पर
नयति की तरह ही नेशनल हाईवे के किनारे लीज की जमीन पर शुरू किया गया एक अन्य हॉस्पिटल भी अब उसी राह पर चल पड़ा है। बहुत कम समय में इस हॉस्पिटल ने भी प्रसिद्धि के साथ-साथ विवादों को जन्म देना प्रारंभ कर दिया है। इसे इत्तेफाक कहें या कुछ और कि नयति की तरह ही इस हॉस्पिटल में भी एक ओर जहां मरीजों के परिजनों से रूखा व्यवहार करना, मनमाने पैसे वसूलना तथा गोपनीयता की आड़ लेकर इलाज की कोई जानकारी न देना एवं मरीज की स्थिति न बताने जैसी बातें काफी आम हो चुकी हैं। वहीं दूसरी ओर नयति की तरह ही इस हॉस्पिटल में सेवारत डॉक्टर्स समय पर अपना वेतन पाने के लिए तरसने लगे हैं जिससे हॉस्पिटल के भविष्य का अनुमान लगाना कोई बड़ी बात नहीं रह गई।
बताया जाता है हॉस्पिटल के लिए बैंक से प्राप्त कर्ज की किस्तें भी अब समय पर अदा नहीं की जा रही हैं।
हॉस्पिटल के सूत्रों की मानें तो इस सबका एक बड़ा कारण संचालक द्वारा हॉस्पिटल से होने वाली आमदनी का बड़ा हिस्सा जमीनों की खरीद-फरोख्त में निवेश करना है ताकि एकमुश्त मोटी कमाई की जा सके।
नयति सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल की चेयरपर्सन नीरा राडिया और इस हॉस्पिटल के चेयरमैन में एक और बड़ी समानता है। सब जानते हैं कि नीरा राडिया शासन-प्रशासन में बने अपने रसूख का इस्तेमाल नयति या खुद के ऊपर लगे आरोपों को दबाने में करती रहीं, इसलिए नीरा राडिया के खिलाफ तमाम लोग मुंह खोलने को आसानी से तैयार नहीं होते थे।
ठीक इसी तरह इस हॉस्पिटल के चेयरमैन भी पुलिस-प्रशासन के साथ-साथ सत्ता के गलियारों तक उठने-बैठने में रुचि रखते हैं, और उससे बने अपने प्रभाव का प्रयोग अपने अथवा हॉस्पिटल के खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने में कर रहे हैं।
फर्क सिर्फ इतना है कि नीरा राडिया चिकित्सकीय पेशे से ताल्लुक नहीं रखती थीं जबकि ये महोदय इसी पेशे से ताल्लुक रखते हैं। हालांकि विदेश से प्राप्त इनकी डिग्री अच्छी-खासी चर्चा का विषय बनी हुई है।
चेयरमैन की डिग्री को लेकर चर्चा क्यों?
बताया जाता है चिकित्सकीय पेशे से जुड़े लोगों और इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) की मथुरा इकाई में भी इस हॉस्पिटल के 'चेयरमैन डॉक्टर' की डिग्री चर्चा का विषय बनी हुई है क्योंकि उन्होंने अपनी पढ़ाई भारत से न करके ऐसे देश से की है जो दुनिया में सबसे सस्ती चिकित्सकीय एजुकेशन देने के लिए पहचाना जाता है।
यूं भी किसी दूसरे देश से डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करके आने वालों के लिए भारत में प्रेक्टिस शुरू करने से पहले फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन (FMGE) की परीक्षा पास करनी होती है।
क्या कहते हैं भारत के नियम-कानून
भारत सरकार के नियमानुसार विदेश से MBBS की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौटने वाले डॉक्टर को पहले यहां फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एग्जामिनेशन (FMGE) की परीक्षा पास करनी पड़ती है और तभी वह यहां प्रेक्टिस करने के लिए अधिकृत माने जाते हैं। इस परीक्षा को पास किए बिना वे भारत में मेडिकल प्रैक्टिस नहीं कर सकते। उन्हें लाइसेंस ही नहीं मिलेगा, किंतु विदेश से पढ़कर आने वाले अधिकांश डॉक्टर ऐसा नहीं करते क्योंकि इस परीक्षा को पास करने वालों की संख्या 15 फीसदी से भी कम है।
ये आंकड़े कुछ समय पहले नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशंस (NBE) द्वारा जारी किए गए हैं। NBE ही FMGE का आयोजन करती है।
विदेश से मेडिकल की पढ़ाई के लिए भी अब NEET अनिवार्य
विदेश से मेडिकल की पढ़ाई करने वालों की योग्यता पर लगते रहे सवालिया निशानों से निजात पाने के लिए सरकार ने नियमों में बदलाव भी किया है। अब विदेश जाकर मेडिकल की पढ़ाई करने के इच्छुक छात्रों को भारत में NEET की परीक्षा पास करना अनिवार्य कर दिया गया है। इसके बाद भी केवल वही छात्र स्वदेश लौटकर मेडिकल प्रैक्टिस करने के लिए पात्र होंगे, जिन्होंने ऐसे देश से पढ़ाई की हो जहां भारत के समकक्ष मेडिकल की पढ़ाई होती हो।
दरअसल, कई देश ऐसे हैं जहां डॉक्टर को दी जाने वाली डिग्री वहां भी मान्य नहीं होती, या सीमित चिकित्सकीय कार्य के लिए मान्य होती है।
IMA मथुरा का क्या कहना है?
IMA मथुरा के अध्यक्ष डॉक्टर मनोज गुप्ता से Legend News ने जब ये जानकारी चाही कि मथुरा में ऐसे कितने डॉक्टर प्रेक्टिस कर रहे हैं जिन्होंने देश के बाहर से डिग्री ली है, तो उनका कहना था कि IMA मथुरा के पास ऐसी कोई सूची नहीं है। सीएमओ ऑफिस में रजिस्टर्ड डॉक्टर्स को IMA की सदस्यता दे दी जाती है।
अलबत्ता डॉक्टर मनोज गुप्ता ने इतना जरूर माना कि समय-समय पर ये मुद्दा IMA की बैठकों में उठाया जाता रहा है किंतु किसी नतीजे तक नहीं पहुंचा। इसका कारण IMA में होने वाले वार्षिक चुनाव बताए जाते हैं। चूंकि IMA के पदाधिकारियों को अल्प अवधि के लिए चुना जाता है इसलिए कोई पदाधिकारी इस गंभीर मुद्दे पर ठोस निर्णय नहीं ले पाता। ये भी कह सकते हैं कि वो किसी विवाद में पड़ कर अपने लिए मुसीबत मोल नहीं लेना चाहता।
इस संबध में और जानकारी करने पर इतना पता जरूर लगा कि IMA मथुरा के ही एक पूर्व पदाधिकारी ने कुछ समय पहले मुख्यमंत्री के पोर्टल पर शिकायत कर विदेश से डिग्री लेकर आए डॉक्टर्स द्वारा गैर कानूनी तरीके से प्रेक्टिस किए जाने का मुद्दा उठाया था, जिसे सीएमओ मथुरा को रेफर भी किया गया लेकिन तत्कालीन सीएमओ मथुरा ने उसे भी 'भुना' लिया और कोई कार्रवाई नहीं की।
वर्तमान सीएमओ मथुरा क्या बताते हैं?
मथुरा के वर्तमान सीएमओ से जब इस मुतल्लिक बात की गई तो उनका कहना था कि विदेश से डॉक्टर की डिग्री लेकर आने वालों द्वारा भारत में कहीं भी प्रेक्टिस किए जाने की जानकारी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया या मेडिकल एजुकेशन से जुड़े विभागों को ही होती है। हमारे पास तो वही लिस्ट होती है जो IMA के पास रहती है।
IMA मथुरा में कुल कितने डॉक्टर पंजीकृत हैं?
एक अनुमान के अनुसार IMA मथुरा के सदस्य डॉक्टरों की संख्या लगभग चार सौ के करीब है। इसमें वो डॉक्टर भी शामिल हैं जो विदेश से डिग्री लेकर आए हैं और वो भी जो विभिन्न कारणों से प्रेक्टिस करने के पात्र नहीं हैं।
ऐसे डॉक्टर खुद भी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि वो प्रेक्टिस करने के लिए अधिकृत नहीं हैं इसलिए कहीं वो संचालक का चोला ओढ़कर काम कर रहे हैं तो कहीं चेयरमैन या चेयरपर्सन बनकर।
लीज की जमीन पर हॉस्पिटल का संचालन कर रहे उसके चेयरमैन चिकित्सक को भी कभी किसी का उपचार करते नहीं देखा गया जबकि वो सर्जन बताए जाते हैं।
विदेश से डिग्री लेकर आने वाले इन डॉक्टर्स और गैरकानूनी तरीके से प्रेक्टिस कर रहे डॉक्टर्स की जानकारी देने को कोई इसलिए भी तैयार नहीं है क्योंकि IMA मथुरा के कुछ सदस्य ऐसे भी हैं जिनका संरक्षण गैरकानूनी तरीके से प्रेक्टिस कर रहे इन डॉक्टर्स को प्राप्त है और वो निजी स्वार्थवश उनके खिलाफ कोई एक्शन नहीं होने देना चाहते।
बेशक काबिल डॉक्टर्स का एक बड़ा वर्ग चाहता है कि इन तत्वों के खिलाफ ठोस एक्शन हो जिससे वो उस जमात में अलग से पहचाने जा सकें किंतु फिलहाल ऐसा होता नजर नहीं आ रहा।
चिकित्सकीय पेशे के लिए कलंक बना कॉर्पोरेट कल्चर
कोई भी डॉक्टर जिसने अपनी मेहनत एवं लगन और मरीजों के प्रति अपने प्रोफेशनल एथिक्स के बूते समाज में जगह बनाई है, वह कभी नहीं चाहता कि उसका कोई मरीज या उसके परिजन उसकी सेवा से असंतुष्ट होकर जाएं, लेकिन इसके उलट जिन्होंने इस पेशे को कार्पोरेट कल्चर में ढाल रखा है उनके लिए अधिक से अधिक कमाई ही उनका एकमात्र ध्येय होता है।
यही कारण है कि मथुरा जैसे छोटे से शहर में आए दिन किसी न किसी हॉस्पिटल से कोई न कोई विवाद सामने आता रहता है, और इस स्थिति से जनसामान्य के साथ-साथ काफी बड़ी संख्या में स्थानीय डॉक्टर्स भी परेशान हैं। लेकिन सवाल यह खड़ा होता है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन?
और यदि कोई ये घंटी बांधने का दुस्साहस कर भी ले तो क्या गारंटी है कि उसके बाद कार्रवाई होगी। जैसे कि मुख्यमंत्री पोर्टल पर शिकायत करने के बाद भी नहीं हो सकी।
जैसे कि IMA से लेकर CMO तक, ये तो स्वीकार कर रहे हैं कि गैरकानूनी तरीके से प्रेक्टिस और कॉर्पोरेट कल्चर से हॉस्पिटल चलाने वालों की संख्या अच्छी-खासी है किंतु वो उनका नाम सार्वजनिक करने को तैयार नहीं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
बुधवार, 22 मई 2024
यूपी की वो समस्या जिसका पहले कार्यकाल से लेकर अब तक समाधान नहीं निकाल सके योगी जी जैसे सीएम
शुक्रवार 20 नवंबर 2020 को लखनऊ में की गई एक समीक्षा बैठक के दौरान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जिलाधिकारियों और पुलिस कप्तानों सहित सभी उच्च अधिकारियों को स्पष्ट आदेश एवं निर्देश दिए कि उन्हें अपने सरकारी मोबाइल (सीयूजी) नम्बर पर आने वाली हर कॉल खुद रिसीव करनी होगी। साथ ही सीयूजी नंबरों के जरिए सामने आने वाली जनसमस्याओं को गंभीरता से लेना होगा और उनका समाधान करना होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने साफ-साफ कहा कि डीएम और पुलिस कप्तान सहित अन्य सभी अधिकारी अपने सीयूजी नम्बर पर आने वाली हर फोन कॉल का जवाब भी जरूर दें। यह आदेश तत्काल प्रभाव से अमल में लाया जाए। इसे जांचने के लिए अगले एक सप्ताह में मुख्यमंत्री कार्यालय से औचक फोन कर अधिकारियों की कार्यशैली परखी जाएगी ताकि आदेश की अवहेलना करने वाले अधिकारियों के खिलाफ आवश्यक एक्शन लिया जा सके। सीएम योगी ने गैर जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के लिए उच्चाधिकारियों को भी निर्देशित किया।
जनहित में दिए गए इन आदेश-निर्देशों के अनुपालन की सत्यता परखने के लिए योगी सरकार ने लगभग चार महीने बाद 15 मार्च 2021 को तमाम बड़े अधिकारियों से उनके सीयूजी नंबरों पर संपर्क साधने का प्रयास किया किंतु इनमें से 25 जिलाधिकारियों तथा 4 कमिश्नरों ने अपने सीयूजी नंबर रिसीव करने की जहमत नहीं उठाई। अधिकारियों की इस हरकत के लिए प्रदेश के नियुक्ति एवं कार्मिक विभाग ने वाराणसी, प्रयागराज, अयोध्या तथा बरेली के मंडलायुक्तों से जवाब तलब भी किया।
इनके अतिरिक्त गौतमबुद्ध नगर (नोएडा), गाजियाबाद, बदायूं, अलीगढ़, कन्नौज, संत कबीरनगर, सिद्धार्थनगर, गोरखपुर, फिरोजाबाद, हापुड़, अमरोहा, पीलीभीत, बलरामपुर, गोंडा, जालौन, कुशीनगर, औरैया, कानपुर देहात, झांसी, मऊ तथा आजमगढ़ के जिलधिकारियों को भी कारण बताओ नोटिस जारी किए गए किंतु इसके तीन साल बाद भी स्थिति जस की तस है।
2017 में पूर्ण बहुमत के साथ यूपी के सीएम बने योगी आदित्यनाथ ने 2022 में एकबार फिर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। अब उस सरकार को बने भी दो साल से अधिक का समय बीत चुका है किंतु अधिकारियों के रवैये में कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहा।
अधिकांश अधिकारी आज भी न तो अपने सीयूजी नंबर रिसीव करते हैं और न किसी को कोई जवाब देते हैं। ऐसे अधिकारियों की भी कमी नहीं हैं जिनके सीयूजी नंबर उनके अधीनस्थ उठाते हैं और फोन करने वाले का 'स्टेटस' देखकर जवाब देते हैं।
जनसामान्य की तो किसी भी समस्या को शायद ही कोई अधिकारी गंभीरता से लेता हो अन्यथा ज्यादातर अधिकारी और उनके अधीनस्थ अनजान नंबर से आए कॉल को रिसीव करना तक जरूरी नहीं समझते।
इसके अलावा हर सरकारी अधिकारी के सीयूजी नंबर पर WhatsApp चालू होना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसे 'सीन' करना यानी देखना तथा देखकर आवश्यकता अनुसार उसका जवाब देना और समस्या का यथासंभव समाधान करना। लेकिन तमाम अधिकारी ऐसा नहीं करते।
उन्होंने अपने WhatsApp पर इस तरह की सेटिंग की हुई है कि प्रथम तो वो उन तक संदेश पहुंचते ही नहीं हैं, और यदि पहुंच भी जाएं तो भेजने वाले को पता नहीं लगता कि उसका मैसेज देखा भी है या नहीं क्योंकि उस सेटिंग के बाद वहां 'ब्लू टिक' शो नहीं करता। सिर्फ मैसेज पहुंचने के दो टिक शो होते हैं।
अगर बात करें राजनीतिक एवं धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मथुरा जैसे जिले की तो उसका हाल भी दूसरे जिले से कुछ अलग नहीं है। मथुरा में तैनात अधिकांश अधिकारी यही रवैया अनपाए हुए हैं जबकि योगी सरकार कहती है कि अयोध्या के बाद उसका सारा फोकस मथुरा के विकास तथा यहां के लोगों की समस्याओं के समाधान पर टिका है।
आज इस बाबत 'लीजेण्ड न्यूज़' ने मथुरा में सत्ताधारी दल के जिलाध्यक्ष निर्भय पांडे से फोन पर बात की और पूछा कि क्या यह बड़ी समस्या उनके संज्ञान में है?
इस पर उनका कहना था कि फिलहाल चुनाव संबंधी कार्य के लिए मैं आजमगढ़ में हूं, और समय मिलते ही इसे चेक करके उच्च अधिकारियों से बात करूंगा।
मथुरा बीजेपी के महानगर अध्यक्ष घनश्याम लोधी ने बताया कि वह भी चुनाव प्रचार के लिए श्रावस्ती गए हुए हैं, और लौटकर जिलाधिकारी से इस संबंध में बात करेंगे।
मथुरा में कांग्रेस के जिलाध्यक्ष भगवान सिंह वर्मा को जब इस समस्या से अवगत कराया गया तो उन्होंने भी चुनाव प्रचार में व्यस्तता का हवाला देते हुए कहा कि समय मिलते ही वो इस मुद्दे को जिलाधिकारी के सामने रखेंगे।
उनका कहना था कि वह पड़ोसी राज्य हरियाणा के गुरूग्राम से लोकसभा चुनाव लड़ रहे अभिनेता राजबब्बर के चुनाव प्रचार में लगे हैं। और वहां से फ्री होने पर यह मुद्दा जरूर उठाएंगे।
बहरहाल, 1 जून को लोकसभा के चुनाव संपन्न होने जा रहे हैं और 4 जून को उनका नतीजा भी निकल आएगा। बस देखना यह होगा कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेतागण इसके बाद इस अत्यंत जरूरी मुद्दे पर कितने गंभीर होते हैं और इसका निराकरण कैसे करते हैं। फिलहाल तो समाधान के लिए दिए गए सीयूजी नंबर अपने आप में एक समस्या बनकर रह गए हैं जिसका हल शायद योगी जी जैसे सीएम को भी नहीं सूझ रहा।
यदि ऐसा न होता तो अपने पहले कार्यकाल में उठाई गई इस समस्या का कोई तो समाधान योगी जी दूसरे कार्यकाल तक जरूर ढूंढ चुके होते।
अधिकारी भी भली-भांति जानते हैं कि ऊपर से आए आदेश-निर्देशों का कितना और किस तरह पालन करना है। इसीलिए सरकारें बदलती हैं लेकिन सरकारी अफसरों की कार्यप्रणाली जस की तस रहती है। उसमें कहीं कोई बदलाव नहीं आता।
इतना जरूर है कि जिला अध्यक्ष और महानगर अध्यक्ष के रूप में बैठे सत्ताधारी दल के पदाधिकारी अगर इस ओर ध्यान दें और खुद मॉनिटरिंग करके सरकार तक जमीनी हकीकत पहुंचाएं तो काफी हद तक अधिकारियों की मनमानी पर शिकंजा कसा जा सकता है। वरना ढर्रे पर तो सब चल ही रहा है क्योंकि लखनऊ में बैठे अधिकारी रोज-रोज फैक्ट चेक नहीं कर सकते। करते भी हैं तो नोटिस देकर खाना-पूरी कर लेते हैं, जैसा 15 मार्च 2021 को किया तो गया लेकिन किसी अधिकारी के खिलाफ कोई एक्शन हुआ हो, इसकी कोई सूचना कहीं से नहीं मिली। नतीजा सामने है।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
सोमवार, 29 अप्रैल 2024
यूनिवर्सिटीज से लेकर कॉलेज और स्कूली छात्र तक ड्रग स्मगलर्स की गिरफ्त में, धार्मिक स्थल भी अछूते नहीं
बंदरगाह, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन तथा बस अड्डों से देशभर में आए दिन पकड़ी जाने वाली ड्रग्स की अच्छी-खासी तादाद इस बात की पुष्टि करती है कि भारत हर किस्म के नशीले पदार्थों की खपत का एक बड़ा केंद्र बना हुआ है, किंतु सवाल यह खड़ा होता है कि जो ड्रग्स पकड़ी नहीं जाती वह कहां जाती है। साथ ही यह भी कि जो पकड़ में नहीं आती, उस ड्रग्स की तादाद कितनी है और उसे ड्रग स्मगलर्स कहां तथा कैसे खपाते हैं। ड्रग्स स्मगलर्स की गिरफ्त में हैं हर आयु वर्ग के छात्र-छात्राएं
अब यह कोई दबी-ढकी बात नहीं रह गई कि ड्रग स्मगलर्स का सबसे आसान शिकार बनते हैं विभिन्न आयु वर्ग के छात्र-छात्राएं, क्योंकि पढ़ाई के अलावा करियर बनाने का दबाव आज के छात्रों पर इतना अधिक होता है कि उन्हें भटकते देर नहीं लगती। फिर घर-परिवार से दूरी उनके भटकाव में अहम भूमिका निभाती है।
धर्म और शिक्षा का मिश्रण बनाता है गंभीर हालात
वैसे तो देश का हर धार्मिक स्थल ड्रग स्मगलर्स के लिए मुफीद रहता है, लेकिन यदि कोई स्थान धर्म के साथ-साथ पर्यटन का केंद्र और शिक्षा का हब भी हो तो नशे के कारोबार में वह चार-चांद लगाने का काम करता है।
धर्म की आड़ करती है सोने पर सुहागे का काम
कृष्ण का जन्मस्थान मथुरा चूंकि देश का एक बड़ा धार्मिक स्थल है, इसलिए यहां आने-जाने वाले लोगों की संख्या भी काफी है। मथुरा की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि इसकी एक सीमा राजस्थान से तो दूसरी हरियाणा से लगती है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी यहां से मात्र 150 किलोमीटर की दूरी पर है।
कुछ वर्षों पहले तक मथुरा और उसके आस-पास के धार्मिक स्थलों पर मात्र उन यात्रियों का आना-जाना रहता था जो अपने मन में भक्तिभाव रखते थे तथा श्रद्धावश यहां खिंचे चले आते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। जब से देश में धार्मिक पर्यटन का शौक पैदा हुआ है और इसका एक नया वर्ग बना है तब से यह विश्व प्रसिद्ध धार्मिक स्थल, पर्यटक स्थल में तब्दील हो चुका है। मथुरा जनपद में कुछ समय से भीड़ का दबाव इतना अधिक है कि प्रशासन के भी हाथ-पांव फूले रहते हैं।
जाहिर है कि धार्मिक पर्यटक के रूप में आने वाला हर व्यक्ति न तो धार्मिक होता है और न श्रद्धालु, वह एक ऐसा बहरूपिया होता है जो मौका देखकर सुविधा अनुरूप अपना रूप बदलता रहता है। इसमें एक रूप ड्रग स्मगलर का, तो दूसरा ड्रग पेडलर का भी हो सकता है।
एजुकेशन हब के रूप में भी है मथुरा की पहचान
चूंकि मथुरा की पहचान अब एजुकेशन हब के रूप में भी स्थापित हो चुकी है तो यहां शिक्षा ग्रहण करने न सिर्फ देश, बल्कि विदेशों तक से छात्र आते हैं इसलिए ड्रग स्मगलर्स के लिए यह धार्मिक जनपद काफी लाभदायी साबित हो रहा है। ड्रग स्मगलर्स ने यहां अपने पेडलर का बड़ा जाल बुन लिया है जो यूनिवर्सिटीज से लेकर कॉलेज तथा स्कूलों के छात्र-छात्राओं तक अपनी पहुंच रखते हैं। हॉस्टल और बोर्डिंग स्कूल विशेष तौर पर ड्रग पेडलर के निशाने पर होते हैं क्योंकि घर-परिवार से दूर रहने वाले छात्र उनके शिकंजे में आसानी से फंस जाते हैं। बाद में यही छात्र उनकी 'चेन' बनाने के काम आते हैं।
विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार मोक्ष नगरी मथुरा में आज ड्रग सप्लायर और ड्रग पेडलर इस कदर सक्रिय हैं कि शायद ही किसी शिक्षण संस्था के छात्र-छात्राएं उनकी पहुंच से दूर हों। ड्रग स्मगलर ने इस काम में शहर के उन बेरोजगार तथा महत्वाकांछी युवाओं को लगा रखा है जो कम समय के अंदर अपने सारे सपने पूरे करना चाहते हैं। ये युवा सुबह से शाम तक शिक्षण संस्थाओं के इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं जिसकी पूरी जानकारी इलाका पुलिस को भी होती है और वो इन्हें पूरा संरक्षण देती है।
शिक्षण संस्थाएं भी नहीं हैं अनभिज्ञ
ऐसा नहीं है कि छात्र-छात्राओं में ड्रग्स के एडिक्शन और उसको पूरा करने के लिए ड्रग पेडलर की सक्रियता से शिक्षा व्यवसायी अनभिज्ञ हों, वह सब-कुछ जानते हैं लेकिन चुप रहने में अपनी भलाई समझते हैं।
इस बारे में बात करने पर वो साफ कहते हैं कि प्रथम तो संस्थान के बाहर होने वाली किसी गतिविधि से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरे इससे संस्थान की बदनामी होती है और संस्थान का प्रबंध तंत्र अपने चारों ओर दुश्मन खड़े पाता है।
बात चाहे पुलिस-प्रशासन की हो या अभिवावकों की, हर कोई संस्थान पर दोषारोपण करने में जुट जाता है जबकि ड्रग पेडलर पुलिस से मिल रहे संरक्षण तथा छात्र-छात्राओं की मनोदशा का ही लाभ उठाते हैं।
स्थानीय निजी हॉस्पिटल और नर्सिंग होम्स उठाते हैं जमकर आर्थिक लाभ
मथुरा में यूं तो कोई नामचीन हॉस्पिटल नहीं है, लेकिन निजी नर्सिंग होम्स तथा हॉस्पिटल की कमी भी नहीं हैं।
बताया जाता है नशे की ओवरडोज होने से तबीयत बिगड़ने पर बाहरी छात्र-छात्राएं अक्सर निजी हॉस्पिटल अथवा किसी नर्सिंग होम पहुंचते हैं, लेकिन इनके संचालक इसकी सूचना सही जगह देने के बजाय उनका आर्थिक शोषण करते हैं।
सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार नेशनल हाईवे पर बने कई हॉस्पिटल तथा नर्सिंग होम्स इसका भरपूर आर्थिक लाभ उठा रहे हैं जिसकी जानकारी पुलिस को भी है, किंतु न पुलिस उनके खिलाफ कोई एक्शन लेती है और न वो पुलिस से ड्रग पेडलर को मिल रहे संरक्षण पर अपना मुंह खोलते हैं।
यही कारण है कि मथुरा नगरी एक ओर जहां ड्रग स्मगलर्स के लिए तो दूसरी ओर पुलिस प्रशासन के लिए माल कमाने का सुरक्षित ठिकाना बन चुकी है। पिछले दिनों हुई एक भीषण सड़क दुर्घटना के तार भी कहीं न कहीं नशे के काले कारोबार से जुड़ रहे हैं लेकिन कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है। कारण वही है कि इस 'हमाम' में शिकार और शिकारी दोनों की स्थिति एक जैसी है। किसी एक ने जुबान खोल दी तो तमाम सफेदपोश लोग मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे।
- सुरेन्द्र चतुर्वेदी
सोमवार, 22 अप्रैल 2024
किस्सा कुर्सी का: घुंघुरू सेठ... शुगर, ईडी, सीबीआई और आम के फेर में फंसे खास आदमी
"आम" से "खास आदमी" बने AAP के दिल्ली वाले घुंघुरू सेठ तो बड़े "खदूस" निकले। सेठ जी जेल प्रवास के दौरान भी न केवल "सेठानी" के हाथ से बने पकवानों का मजा लूट रहे हैं बल्कि मधुमेह जैसी बीमारी को भी ठीक उसी अंदाज में चुनौती दे रहे हैं जैसे तिहाड़ जाने से पहले ED और CBI को दिया करते थे। कहते थे कि हिम्मत है तो हाथ डाल कर दिखाएं, लाखों घुंघुरू सेठ दिल्ली की सड़कों पर दिखाई देंगे। ये बात अलग है कि घुंघुरू सेठ की चुनौती को स्वीकार करते हुए जब ED ने उनके गले पर हाथ डालकर हवालात में ला ठूंसा, तो दिल्ली के किसी कोने से 'चूं' की आवाज भी सुनाई नहीं दी।
जो आवाजें सुनाई दे भी रही हैं, वो AAP के उन्हीं खास आदमियों की हैं जिन्होंने AAP के साथ ही आम आदमी की आत्मा का पिंडदान कर दिया था। वो अब खास से खासमखास बनने की जुगाड़ में हैं और इसलिए उसी तरह की हरकतें कर रहे हैं जिस तरह की हरकतें आप तिहाड़ में कर रहे हैं।फर्क सिर्फ इतना है कि आप बाहर निकलने की जुगत में हैं और वो आपको लंबे समय तक अंदर रखने का बंदोबस्त करने में लगे हैं। आप अपनी शुगर बढ़ा रहे हैं जिससे मेडिकल ग्राउंड पर बेल मिल जाए और वो उसे कम कराने के लिए "इंसुलिन" मांग रहे हैं ताकि सब-कुछ ठीक हो जाए और मेडिकली फिट-फाट होकर आप 'तिहाड़ी लुत्फ़' उठाते रहें।
घुंघुरू सेठ, आपको याद होगा कि आपने अपनी जेल यात्रा से पहले और अपने साथियों के जेल प्रवास पर बहुत कुछ ऐसा कहा था जिसका बड़ा गूढ़ अर्थ था। जैसे वो तो 'सेनानी' हैं। साल-दो साल भी रहना पड़ा तो हंस-हंस के काट लेंगे, लेकिन जब आपकी बारी आई है तो आपका रो-रोकर बुरा हाल है।
वैसे घुंघुरू सेठ एक बात तो तय है कि आपकी जिह्वा पर देवी सरस्वती विराजती हैं। आपके पुराने वीडियो देखे। उन्हें देखने के बाद इस बात का इल्म हुआ, अन्यथा आपकी 'सरकार' बन जाने के बाद भी हम तो आपको वही फटोली टाइप का चप्पल चटकाता हुआ आम आदमी समझते रहे। हमें पता ही नहीं था कि कभी ठेल-ढकेलों पर गोलगप्पे खाने वाला झोलाछाप शर्ट में लिपटा हुआ यह आदमी इतना शातिर निकलेगा कि ED और CBI को भी 'मीठी गोली' दे देगा।
नतीजा जो भी हो, फिलहाल चुनावों के बीच घुंघुरू सेठ चर्चा में हैं और उनका शुगर लेवल राष्ट्रीय स्तर की बहस का मुद्दा बना हुआ है। हालांकि आश्चर्य इस बात पर जरूर हो रहा है कि घुंघुरू सेठ को घर से आम, मिठाई तथा पूरी जैसे पकवान भेजने वाली सेठानी ने अचानक चुप्पी साध ली है। डाइट चार्ट को ताक पर रखकर 'तर माल' भेजने वाली सेठानी की चुप्पी आने वाले तूफान का संकेत दे रही है क्योंकि कहते हैं "राजनीति" में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। कुल मिलाकर मामला कुर्सी का है और कुर्सी जो न करवा दे, वो थोड़ा है।
कुर्सी यदि बच्चों के सिर की कसम तुड़वा सकती है। 'अनीति' से 'शराब नीति' बनवा सकती है। 'विश्वास' के साथ धोखा कर सकती है और सत्य के प्रतीक 'सत्येन्द्र' को झूठ के पुलिंदे में तब्दील करा सकती है, तो सेठानी से भी सब-कुछ करा सकती है। कुर्सी पर बैठने की रिहर्सल तो सेठानी कर ही चुकी हैं। बस उसे अमलीजामा पहनाना बाकी है।
दरअसल, सेठानी भी जानती हैं कि घुंघुरू सेठ चाहे जितने पैर पीट लें... वो लंबे नप चुके हैं। उनका शुगर लेवल हाई रहे या लो, लेकिन उनका अपना लेवल अब शायद ही उठ सके।
भरोसा न हो इस बात पर तो एक नजर यूपी के उन मियां साहब की हालत पर डाल लें जिनके नाम का अर्थ ही उर्दू में "महान और पराक्रमी" होता है और कभी सत्ता के गलियारों में उनकी एक आवाज से बड़े-बड़े शूरमाओं का पायजामा ढीला हो जाया करता था लेकिल आज बेचारे वैसे ही सींखचों के पीछे पाए जाते हैं जैसे कि घुंघुरू सेठ बैरक नंबर दो में पाए जाते हैं।
वैसे घुंघुरू सेठ के नाम का अर्थ ही "कमल" होता है। इस नजरिये ये देखें तो घुंघुरू सेठ खुद से लड़ रहे हैं। और खुद से लड़कर कोई जीता है क्या।बेहतर होगा कि वह अपने अब तक किए पापों का प्रायश्चित पूरी ईमानदारी से कर लें और सेठानी को चुपचाप कुर्सी सौंपकर तिहाड़ में उनके भी आने का मार्ग प्रशस्त करें। ईश्वर उनकी मदद जरूर करेंगे क्योंकि संभवत: ईश्वर के पास भी उनके इलाज का मात्र यही एक उपाय शेष है। आखिर अर्धांगिनी जो हैं। पाप-पुण्य में बराबर की भागीदार तो होंगी ही।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी