गुरुवार, 31 जनवरी 2019

योर ऑनर…मुझे इस देश का नाम “भारत” होने पर आपत्ति है, भावनाएं आहत होती हैं!

योर ऑनर…मुझे इस देश का नाम “भारत” होने पर आपत्ति है, भावनाएं आहत होती हैं! कल को कोई ‘सिरफिरा’ इस दलील के साथ अपनी याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दे और सुप्रीम कोर्ट उस याचिका को स्‍वीकार भी कर ले तो कोई आश्‍चर्य नहीं, क्‍योंकि ‘सेक्युलर’ शब्‍द तभी मुकम्‍मल होता है अन्‍यथा न्‍यायपालिका भी ‘सांप्रदायिक’ हो सकती है।
न्‍यायपालिका सांप्रदायिक न हो इसके लिए जरूरी है हर उस याचिका को स्‍वीकार कर लेना जिससे ”कुछ तत्‍वों” की भावनाएं आहत होने का दावा किया गया हो।
देश का नाम भारत रहे या न रहे लेकिन Secularism रहना चाहिए अन्‍यथा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा, संभवत: इसी धारणा के तहत सुप्रीम कोर्ट ने देशभर के 1125 केंद्रीय विद्यालयों में की जाने वाली इस प्रार्थना- “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय” पर आपत्ति संबंधी याचिका न सिर्फ स्‍वीकार कर ली बल्‍कि केंद्र सरकार को नोटिस भेजकर जवाब भी तलब कर लिया।
दरअसल, केंद्रीय विद्यालय से ही शिक्षा प्राप्‍त जबलपुर के एक वकील विनायक शाह ने सुप्रीम कोर्ट में इस आशय की याचिका दाखिल की थी कि केंद्रीय विद्यालयों में 1964 से “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय” नामक सुबह की जो प्रार्थना कराई जाती है वो पूरी तरह असंवैधानिक है। याचिकाकर्ता ने इसे संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के खिलाफ बताते हुए कहा है कि इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती।
वकील विनायक शाह के अनुसार चूंकि इन स्कूलों को सरकार से सहायता दी जाती है ऐसे में उन्हें धार्मिक मान्यताओं और एक संप्रदाय विशेष को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। उनके अनुसार इस तरह की प्रार्थनाएं वैज्ञानिक चेतना के विकास में बाधा खड़ी करती हैं।
कोर्ट ने इस पर नोटिस जारी करते हुए केंद्र सरकार और केंद्रीय विद्यालय संगठन से पूछा कि क्या हिंदी और संस्कृत में होने वाली प्रार्थना से किसी धार्मिक मान्यता को बढ़ावा मिल रहा है। जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस नवीन सिन्हा की बेंच ने इसे गंभीर संवैधानिक मुद्दा भी बताया।
केंद्र सरकार की ओर से सोमवार को सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में कहा कि केंद्रीय विद्यालयों की प्रार्थना संस्कृत में होने मात्र से किसी धर्म से नहीं जुड़ जाती है। “असतो मा सद्गमय’ धर्मनिरपेक्ष है। यह सार्वभौमिक सत्य के बोल हैं।
इस पर जस्टिस आरएफ नरीमन ने कहा कि संस्कृत का यह श्लोक उपनिषद से लिया गया है। जवाब में मेहता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के हर कोर्टरूम में लगे चिह्न पर भी संस्कृत में लिखा है- “यतो धर्मस्ततो जय:’’। यह महाभारत से लिया गया है। इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक है। संस्कृत को किसी धर्म से जोड़कर नहीं देखना चाहिए।
इसके बाद जस्टिस नरीमन ने कहा कि धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़े इस मुद्दे पर संविधान पीठ को सुनवाई करनी चाहिए।
जमीयत-उलेमा-ए-हिंद ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर केंद्रीय विद्यालय संगठन के संशोधित एजुकेशन कोड को चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना लागू है। इस सिस्टम को नहीं मानने वाले अल्पसंख्यक छात्रों को भी इसे मानना पड़ता है। मुस्लिम बच्चों को हाथ जोड़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। 
ऐसे में सबसे अहम सवाल तो यह उठ खड़ा होता है कि जिस संविधान का हवाला देकर वकील विनायक शाह ने सर्वोच्‍च न्‍यायालय में याचिका दायर की और जिसे प्रथम दृष्‍टया असंवैधानिक मानते हुए जस्टिस आरएफ नरीमन और जस्टिस नवीन सिन्हा की बेंच ने गंभीर संवैधानिक मुद्दा मानकर केंद्र सरकार से जवाब तलब किया, उसकी तो प्रस्‍तावना ही “हम भारत के लोग…से शुरू होती है।
“असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय” पर आपत्ति दर्ज कराने और इसे असंवैधानिक बताने वाले पूछ सकते हैं कि इस मुद्दे को देश के नाम “भारत” से क्‍यों जोड़ा जा रहा है और इसका धर्म से क्‍या वास्‍ता है ?
वास्‍ता है और बहुत गहरा वास्‍ता है
भारतवर्ष का नामकरण कैसे हुआ इस संबंध में मतभेद हैं क्‍योंकि भारतवर्ष में तीन भरत हुए। एक भगवान ऋषभदेव के पुत्र, दूसरे राजा दशरथ के और तीसरे दुश्यंत- शकुंतला के पुत्र भरत।
भारत-1 : भारत नाम की उत्पति का संबंध प्राचीन भारत के चक्रवर्ती सम्राट राजा मनु के वंशज भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत से है। श्रीमद् भागवत एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है।
ऋषभदेव स्वयंभू मनु से पांचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। राजा और ऋषि ऋषभनाथ के दो पुत्र थे- भरत और बाहुबली।
बाहुबली को वैराग्य प्राप्त हुआ तो ऋषभ ने भरत को चक्रवर्ती सम्राट बनाया। भरत को वैराग्य हुआ तो वो अपने बड़े पुत्र को राजपाट सौंपकर जंगल चले गए।
भारत-2 : राम के छोटे भाई भरत राजा दशरथ के दूसरे पुत्र थे। उनकी माता कैकयी थीं। उनके अन्य भाई थे लक्ष्मण और शत्रुघ्न। परंपरा के अनुसार राम को गद्दी पर विराजमान होना था लेकिन उन्हें 14 वर्ष का वनवास मिला। इस दौरान भरत ने राजगद्दी संभाली और उन्होंने राज्य का विस्तार किया। कहते हैं उन्हीं के कारण इस देश का नाम भारत पड़ा।
भरत-3 : पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना ‘महाभारत’ में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के एक वृत्तांत अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ।
मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ‍ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।
हालांकि ज्यादातर विद्वान मानते हैं कि ऋषभनाथ के प्रतापी पुत्र भरत के नाम पर ही भारत का नामकरण हुआ।
जो भी हो किंतु इन तीनों राजाओं का ताल्‍लुक सनातन धर्म से है, न कि किसी अन्‍य से। आज के ‘सेक्युलर’ कल यह भी कह सकते हैं कि देश के इस नाम से सांप्रदायिकता की बू आती है इसलिए संविधान में संशोधन कर देश का नाम ‘भारत’ की बजाय कुछ ऐसा रखना चाहिए जिससे Secularism और लोकतंत्र जिंदा रहें।
हिंदुस्‍तान नाम भी ऐसे तत्‍वों को रास नहीं आएगा क्‍योंकि हिंदुस्‍तान के पहले दो अक्षर ही हिंदुइज्‍म के द्योतक हैं।
यूं भी देश का नाम “भारत” होना इसलिए सांप्रदायिक बताया जा सकता है क्‍योंकि राष्‍ट्रवादी लोग तो “भारत” को मां का दर्जा देते हैं और भारत माता की जय बोलते हैं जबकि जिनकी जिनकी भावनाएं आहत होती हैं, उन्‍हें भारत माता की जय बोलने में भी आपत्ति है।
ये बात अलग है कि उन्‍हीं के बीच से निकले प्रसिद्ध शायर मुनव्वर राना ने मां की शान में लिखा है-
”चलती फिरती आंखों से अज़ा देखी है, मैंने जन्‍नत तो नहीं देखी मां देखी है”
हिंदू यानी सनातन धर्मावलंबी तो हमेशा से कहते आए हैं ‘जननी-जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् जननी (माता) और जन्मभूमि का स्थान स्वर्ग से भी श्रेष्ठ एवं महान है।
माता का प्यार, दुलार व वात्सल्य अतुलनीय है। इसी प्रकार जन्मभूमि की महत्ता हमारे समस्त भौतिक सुखों से कहीं अधिक है। लगभग सभी लेखकों, कवियों व महामानवों ने भी जन्मभूमि की गरिमा और उसके गौरव को जन्मदात्री के तुल्य ही माना है।
बहरहाल, आज के माहौल में ऐसे उदाहरण देना भी सांप्रदायिक सोच का परिचायक हो सकता है इसलिए तथ्‍य परक उदाहरण अधिक अनुकूल हो सकते हैं।
तथ्‍य परक उदाहरण बताते हैं कि आज प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने लगभग 4,500 लंबित मामले हैं, जबकि अधीनस्थ न्यायपालिका के प्रत्येक न्यायाधीश को लगभग 1,300 लंबित मामलों का निपटारा करना है।
राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड के अनुसार 2018 के अंत में, जिला और अधीनस्थ अदालतों में 2.91 करोड़ मामले लंबित थे जबकि 24 उच्च न्यायालयों में 47.68 लाख मामले लंबित थे। 
आंकड़ों के अनुसार उच्च न्यायालयों में प्रति न्यायाधीश 4,419 मामले लंबित हैं और प्रत्येक निचली अदालत के न्यायाधीश के सामने 1,288 मामले हैं। 
बेशक यह भी कहा जा सकता है कि देश में स्‍वीकृत न्यायिक अधिकारियों की कमी है और इसलिए भी काम प्रभावित होता है किंतु इसका यह मतलब नहीं कि बेतुकी और अप्रासंगिक याचिकाएं स्‍वीकार कर ली जाएं लेकिन लंबित मामले निपटाने में इसलिए कोई रुचि न ली जाए क्‍योंकि उससे किसी एक खास धर्म की भावनाएं आहत नहीं होतीं।
एक धर्म विशेष से जुड़े फांसी की सजा प्राप्‍त आतंकवादियों के लिए तो आधी-आधी रात को भी न्‍यायधीशों के दरवाजे खुल जाएं किंतु दूसरे धर्म की आस्‍था से जुड़ा मुद्दा सुनवाई के लिए भी प्राथमिकता में शुमार न हो।
नामचीन लोगों से जुड़े मामलों पर सेम डे हियरिंग भी हो जाए तथा निर्णय भी सुना दिया जाए लेकिन जनसामान्‍य को दशकों तक तारीख पर तारीख मिलती रहे और उसकी तीन-तीन पीढ़ियां न्‍याय की आस में दिवंगत होती रहें।
बृहदारण्यक उपनिषद के पवमान मन्त्र का प्रसिद्ध श्लोक है- 
ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।। 
अर्थात-
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।
मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो।
मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो॥ 
अब बताइए कि ये शब्‍द क्‍या किसी धर्म को परिभाषित करते हैं अथवा किसी धर्म विशेष से ताल्‍लुक रखने वाले व्‍यक्‍ति की भावनाएं आहत करते हैं।
असत्‍य से सत्‍य की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले चलने की प्रार्थना कौन सा धर्म अथवा धार्मानुयायी नहीं करता।
ये तो मानव मात्र के कल्‍याण की कामना करने वाली प्रार्थना है। इसका किसी धर्म विशेष से क्‍या वास्‍ता।
और अगर इस प्रार्थना को लेकर भी आपत्ति है और कहा जा रहा है कि यह किसी एक धर्म का प्रतिनिधित्‍व करती है तथा दूसरे धर्म की भावनाएं आहत करती है तो फिर तय जानिए कि न धर्म बचेगा, न धर्मानुयायी। न संविधान बचेगा न लोकतंत्र।
फिर तो विधायिका और न्‍यायपालिका भी अपना मकसद खो देंगी। जैसा कि जस्टिस आरएफ नरीमन को जवाब देते हुए सॉलीसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के हर कोर्टरूम में लगे चिह्न पर भी संस्कृत में लिखा है- “यतो धर्मस्ततो जय:’। यह महाभारत से लिया गया है। इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक है।
लोकतंत्र के किसी भी पिलर की अहमियत तब तक है जब तक वह उस औचित्‍य को सिद्ध करता रहे जिसके लिए उसका निर्माण किया गया था। यह औचित्‍य तब सिद्ध होता है जब सभी संस्‍थाएं अपनी-अपनी जिम्‍मेदारी अन्‍य संस्‍थाओं के काम में दखल न देते हुए पूरी करती रहें। एक-दूसरे के काम में हस्‍तक्षेप और अधिकारों का अतिक्रमण किसी भी संस्‍था को बर्बाद करने की दिशा में उठाया गया पहला कदम हो सकता है।
विधायिका हो या कार्यपालिका, अथवा न्‍यायपालिका ही क्‍यों न हो, अधिकारों का अतिक्रमण और कार्यक्षेत्र में हस्‍तक्षेप किसी के हित में नहीं।
जिस तरह Secularism को अब तक कोई ठीक-ठीक परिभाषित नहीं कर सका है, उसी तरह धार्मिक भावनाओं के भी आहत होने को परिभाषित करना बड़ा मुश्‍किल है। आज जिनकी भावनाएं ‘असतो मा सद्गमय’ से आहत हो रही हैं, क्‍या गारंटी है कि कल उनकी भावनाएं देश का नाम ”भारत” होने से आहत नहीं होंगी। तो क्‍या कल कोर्ट ऐसी भी किसी याचिका को स्‍वीकार करके सरकार को नोटिस भेज देगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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