विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में घोटालों की जो श्रृंखला बन चुकी है, उसे देखकर ऐसा महसूस होता है कि या तो ईमानदारी और बेईमानी की परिभाषा नये सिरे से गढ़नी होगी या फिर भ्रष्टाचार को लेकर अपनी सोच को ज्यादा उदार बनाना होगा।
घोटालों के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी लकीर खींचने वाले 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने भ्रष्टाचार के बावत एक प्रकार की अघोषित बहस छेड़ दी है। इस बहस का मूल मुद्दा यह है कि आखिर भ्रष्टाचार कहते किसे हैं और भ्रष्ट आचरण के मानदण्ड क्या हैं ?
बहस में पड़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला है क्या और इसे किस तरह अंजाम दिया गया।
सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 1.77 लाख करोड़ रुपये का है। सीएजी ने यह आंकड़ा निकालने के लिए 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन और मोबाइल कंपनी एस-टेल के सरकार को दिए प्रस्तावों को आधार बनाया है।
दूरसंचार की रेडियो फ्रिक्वेंसी को सरकार नियंत्रित करती है और अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीए) से तालमेल बनाकर काम करती है। दुनिया में आई मोबाइल क्रांति के बाद कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। सरकार ने हर कंपनी को फ्रिक्वेंसी रेंज यानी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर लाइसेंस देने की नीति बनाई। उन्नत तकनीकों के हिसाब से इन्हें पहली जनरेशन (पीढ़ी) अर्थात 1जी, 2जी और 3जी का नाम दिया गया। हर नई तकनीक में ज्यादा फ्रिक्वेंसी होती है और इसीलिए टेलीकॉम कंपनियां सरकार को भारी रकम देकर फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस लेती हैं।
सीएजी रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने 2008 में नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन किया। इसके लिए उनके विभाग ने 2001 में आवंटन के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को आधार बनाया, जो काफी पुरानी तथा आज के संदर्भ में औचित्यहीन थी। उन्होंने इसके लिए नीलामी के बिना ही पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर आवंटन किए। इससे 9 कंपनियों को काफी लाभ हुआ। प्रत्येक को केवल 1651 करोड़ रुपयों में स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए जबकि हर लाइसेंस की कीमत 7,442 करोड़ रुपयों से 47,912 करोड़ रुपये तक हो सकती थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस नीलामी का आवंटन
हालांकि दूरसंचार विभाग ने पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किया, लेकिन इसमें भी अनियमितताएं कर कुछ कंपनियों को सीधा लाभ पहुंचाया। कुल 122 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस अयोग्य और अपात्र कंपनियों को दिए गए। लाइसेंस आवंटन में कानून मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के सुझावों को भी ताक पर रख दिया गया।
सीएजी ने 1.77 लाख करोड़ का आंकड़ा निकालने के लिए दो तथ्यों को आधार बनाया। उन्होंने इस साल 3जी आवंटन में मिली कुल रकम और 2007 में एस-टेल कंपनी द्वारा लाइसेंस के लिए सरकार को दिए प्रस्ताव के आधार पर यह नतीजा निकाला। सीएजी के अनुसार 122 लाइसेंस के आवंटन में सरकार को जितनी रकम मिली, उससे 1.77 लाख करोड़ रुपए और मिल सकते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि 1.77 लाख करोड़ रुपये कम लिये गये इसीलिए यह घोटाला 1.77 लाख करोड़ रुपयों का माना गया।
जाहिर है कि ये सब अनियमितताएं यूं ही नहीं बरती गयी होंगी। ऐसा करने के पीछे कुछ खास निजी मकसद जरूर रहे होंगे और उन्हें स्पेक्ट्रम के आवंटन से पहले अथवा बाद में पूरा किया गया होगा। उक्त खास और निजी मकसद का इल्म सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाने वाले याची द्वारा दी गयी कुछ जानकारियों से हो रहा है। उसने याचिका के माध्यम से जानना चाहा है कि 18 अक्टूबर 2007 को अनिल अंबानी की कंपनी टाइगर ट्रस्टी ने किसी विदेशी कंपनी को अपने 50 लाख शेयर ट्रांसफर किए, जबकि कंपनी के बैंक अकाउंट में एक हजार करोड़ रु. थे। सीबीआई ने यह जानने की कोशिश नहीं की है कि यह शेयर किसे ट्रांसफर किए गए। यही नहीं, याचिकाकर्ता द्वारा दी गयी ठोस जानकारी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआई द्वारा अक्टूबर 2009 में दर्ज एफआईआर पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। 1.77 लाख करोड़ रुपए के इस घोटाले में लाभ कमाने वाली दो कंपनियों का सीवीसी की रिपोर्ट में नाम था, लेकिन सीबीआई की एफआईआर में उन्हें शामिल नहीं किया गया। दो कंपनियों को 1500-1600 करोड़ रुपए में स्पेक्ट्रम दिया गया, जबकि कुछ दिन बाद ही इसके लिए छह हजार करोड़ रुपए वसूले गए। सीबीआई ने सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर अज्ञात लोगों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया था।
इतना सब कुछ हो गया और सरकार का मुखिया गांधी जी के तीनों बंदरों की सीख को आत्मसात कर हाथ पर हाथ रखे बैठा रहा। उसने न कुछ देखा, ना सुना और ना बोला। इस सब के बावजूद संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस के घोषित राष्ट्रीय महासचिव व अघोषित युवराज राहुल गांधी आज प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बचाव कर रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार सिर्फ रिश्वत खाने तक सीमित है। भ्रष्टाचार की शिकायतों को लगातार अनदेखा करना, उन पर कोई टिप्पणी तक ना करना और कानों में तेल डालकर सोते रहना सोनिया व राहुल के मुताबिक भ्रष्टाचार नहीं है।
सोनिया गांधी द्वारा मनमोहन सिंह पर लग रहे आरोपों को शर्मनाक बताने का कुल जमा निष्कर्ष तो यही निकलता है कि किसी सरकार का मुखिया अपनी नाक के नीचे लाखों करोड़ का घोटाला होते देखकर भी केवल इसलिए ईमानदार है क्योंकि उसने खुद रिश्वत नहीं खायी।
अगर ईमानदारी ऐसी किसी कमजोरी का नाम है जो अपनी आंखों के सामने हो रही बेईमानी के खिलाफ मुंह खोलने की इजाजत नहीं देती तो निश्चित ही वो ईमानदारी, बेईमानी से भी बदतर है और ऐसा ईमानदार आदमी, बेईमानों से भी गया-गुजरा है।
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में किस-किस की भूमिका रही और यह भूमिका किस स्तर की थीं, यह तो आगे आने वाला वक्त ही बतायेगा लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि 1.77 लाख करोड़ रुपए का यह घोटाला न तो रातों-रात हुआ है तथा ना ही इसे अकेले ए. राजा ने अंजाम दिया है।
अभी तक इस मामले का जो आंशिक सच सामने आ पाया है, उससे साबित होता है कि देश इस समय स्वतंत्रत भारत के सर्वाधिक संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसा लगता है जैसे इस देश की कमान राजनीतिक पार्टियों या उनके नेताओं के हाथ में न होकर दलालों के हाथ में है और वही राज कर रहे हैं। यहां ना डेमोक्रेसी कायम है और ना ब्यूरोक्रेसी, यहां अगर कुछ कायम है तो वह है हिप्पोक्रेसी। जो जितना बड़ा हिप्पोक्रेट, वह उतना सफल इंसान।
हिप्पोक्रेट्स की इस जमात में एक तबका बड़ी शिद्दत तथा तेजी के साथ और जुड़ा है, और यह तबका है मीडियाकर्मियों का। वह मीडियाकर्मी जिन्हें अभिव्यक्ित की स्वतंत्रता के नाम पर किसी के भी ऊपर कीचड़ उछालने का लाइसेंस मिला हुआ है। वह मीडियाकर्मी जो खुद को लोकतंत्र का सच्चा 'पहरुआ' कहते हैं लेकिन हकीकत में वह उसके लिए कलंक बन चुके हैं। एनडीटीवी की ग्रुप एडीटर बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाइम्स के एडीटोरियल एडवाइजर वीर सिंघवी का नाम कार्पोरेट दलाल नीरा राडिया के साथ सार्वजनिक हो ही चुका है। अभी और ऐसे कितने नाम सामने आयेंगे, यह तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इलैक्ट्रॉनिक पत्रकारिता व इसके पॉलिश्ड पत्रकारों ने मीडिया को गर्त तक ले जाने का काम बखूबी किया है।
ये वो लोग हैं जो आज तक छोटे शहरों और कस्बों में खुद इन्हीं के लिए काम करने वाले स्ट्रिंगर्स को जर्नलिज्म का कोढ़ तथा दलाल प्रचारित करते रहे हैं जबकि कड़वा सच यह बखूबी जानते हैं। ये और इनके मालिकान खूब जानते हैं कि दिन-रात एक करके और जान हथेली पर लेकर काम करने वाले स्ट्रिंगर इनसे उतना पैसा भी नहीं पाते जितने में अपनी भागदौड़ का खर्चा पूरा कर सकें। घर-परिवार चलाने की तो सोचना तक बेमानी है। इन हालातों में वह कैसे और क्यों काम करते हैं, इस सच्चाई से भी कोई मीडिया व्यवसायी अनभिज्ञ नहीं होता। अगर यह कहा जाए कि मीडिया तथा मीडियाकर्मियों को भ्रष्ट बनाने में सबसे बड़ी भूमिका मीडिया व्यवासाइयों की है तो कुछ गलत नहीं होगा।
बहरहाल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने एक बात पूरी तरह साफ कर दी है कि इस देश के अंदर बह रही भ्रष्टाचार की गंगा में हर कोई हाथ धोने को बेताब है। फर्क है तो केवल इतना कि कोई हाथ धोकर तमाशबीन बना बैठा है और कोई किनारे बैठा मौके की तलाश कर रहा है।
लोकतंत्र के तीनों घोषित स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका पर तो भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब एकमात्र अघोषित स्तंभ 'पत्रकारिता' भी
इसमें न केवल शामिल हो चुका है बल्िक इनके लिए मध्यस्थ तथा लायजनर का काम कर रहा है।
इन हालातों में विचारणीय प्रश्न यह है कि जब 'मेढ़' ही 'खेत' को खाने पर आमादा हो तो वह खेत बचेगा कैसे और कब तक बचेगा। देश की अर्थव्यवस्था पर सीधी चोट करने वालों का बचाव यदि इसलिए किया जायेगा कि किसी भी प्रकार सरकार चलती रहे, यदि इसलिए एक प्रधानमंत्री अपने ही बेईमान मंत्रियों को खुली लूट करते देखता रहेगा कि वह कथित रूप से ईमानदार है तो उस देश को कितने समय तक बचाया जा सकता है। सरकारी खजाना किसी राजनीतिक पार्टी या सत्ताधारी दल की निजी सम्पत्ति नहीं होता। उस पर एकमात्र अधिकार जनता का है। उस खजाने को सुरक्षित ना रख पाने वाला, उसमें सेंध लगाने वाला तथा उसको नुकसान पहुंचाने वाला व्यक्ित जितना दोषी है, उतना ही दोषी वह व्यक्ित भी है जो जिम्मेदार पद पर रहते हुए चुपचाप यह सब देख रहा हो। तल्ख सच्चाई तो यह है कि वह उस पद पर रहने का हकदार ही नहीं है क्योंकि किसी की ईमानदारी अगर उसके लिए कमजोरी बन जाए तो न ऐसी ईमानदारी किसी काम की और ना ऐसा व्यक्ित।
देश इस समय ऐसे संक्रमण काल से गुजर रहा है जहां कुछ कठोर निर्णय लेने ही होंगे क्योंकि यदि अब भी वो निर्णय नहीं लिये गये तो हम निर्णय लेने लायक भी नहीं रहेंगे।
खोखली तरक्की के जिस सोपान पर चढ़कर हम इतरा रहे हैं, वह हमें एक झटके में किसी भी वक्त रसातल दिखा सकता है।
मैंने सुना है कि किसी देश में मैडम ट्रेसा द्वारा स्थापित ''चैम्बर ऑफ हॉरर्स'' नामक एक अनोखा अजायबघर था। इस अजायबघर में उसके नाम को सार्थक करती हुई भयानक वस्तुओं का संग्रह था।
अगर हमारे देश में सब-कुछ इसी प्रकार चलता रहा और देश को लूटने वाले तथा उसे लुटते देखने वाले अपने-अपने पक्ष में दलीलें देकर एक-दूसरे को इसी तरह जिम्मेदार ठहराते रहे तो मुझे पूरा यकीन है कि शीघ्र ही एक चैम्बर ऑफ हारर्स नामक अजायबघर हमारे यहां भी कायम किया जायेगा। इस अजायबघर में हमारे मंत्रियों और नेताओं की मूर्तियां स्थापित होंगी ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां यह जान सकें कि कभी भारत को कैसे-कैसे जीव-जंतु चलाते थे।
आने वाले युग के छात्रों को अध्यापक इन मंत्री व नेताओं की मूर्तियां दिखाकर इस बेईमान व भ्रष्ट दौर की दास्तां सुनायेंगे और बतायेंगे कि किस तरह के अकर्मण्य लोग सत्ता पर काबिज थे।
अध्यापक उन बच्चों को बतायेंगे कि सच्चाई व सिद्धांत पर दृढ़ रहना ऐसे अवगुण थे जिनसे ये मंत्री पद के भूखे महापुरुष हमेशा दूर रहते थे और उसी के सिर पर सेहरा बंधता था जो सच्चाई का पूरी तरह गला घोंट सके तथा जिस सिद्धांत पर खड़ा है, उसी की पीठ में छुरा घोंप सके।
निश्चित ही आने वाले युग के ये विद्यार्थी आश्चर्य करेंगे कि देश चलाने वाले जिन लोगों को बुद्धि की सबसे अधिक जरूरत थी, वही इस दृष्टि से सर्वथा शून्य थे।
उन्हें ऐसी जनता पर भी आश्चर्य होगा जो शेर की खाल ओढ़कर देश को पूरी तरह बर्बाद करने वाले इन गीदड़ों से शासित होती रही।
घोटालों के इतिहास में अब तक की सबसे बड़ी लकीर खींचने वाले 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने भ्रष्टाचार के बावत एक प्रकार की अघोषित बहस छेड़ दी है। इस बहस का मूल मुद्दा यह है कि आखिर भ्रष्टाचार कहते किसे हैं और भ्रष्ट आचरण के मानदण्ड क्या हैं ?
बहस में पड़ने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि आखिर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला है क्या और इसे किस तरह अंजाम दिया गया।
सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला करीब 1.77 लाख करोड़ रुपये का है। सीएजी ने यह आंकड़ा निकालने के लिए 3जी स्पेक्ट्रम आवंटन और मोबाइल कंपनी एस-टेल के सरकार को दिए प्रस्तावों को आधार बनाया है।
दूरसंचार की रेडियो फ्रिक्वेंसी को सरकार नियंत्रित करती है और अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीए) से तालमेल बनाकर काम करती है। दुनिया में आई मोबाइल क्रांति के बाद कई कंपनियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया। सरकार ने हर कंपनी को फ्रिक्वेंसी रेंज यानी स्पेक्ट्रम का आवंटन कर लाइसेंस देने की नीति बनाई। उन्नत तकनीकों के हिसाब से इन्हें पहली जनरेशन (पीढ़ी) अर्थात 1जी, 2जी और 3जी का नाम दिया गया। हर नई तकनीक में ज्यादा फ्रिक्वेंसी होती है और इसीलिए टेलीकॉम कंपनियां सरकार को भारी रकम देकर फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस लेती हैं।
सीएजी रिपोर्ट के अनुसार केंद्रीय दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने 2008 में नियमों का खुला उल्लंघन करते हुए 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन किया। इसके लिए उनके विभाग ने 2001 में आवंटन के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को आधार बनाया, जो काफी पुरानी तथा आज के संदर्भ में औचित्यहीन थी। उन्होंने इसके लिए नीलामी के बिना ही पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर आवंटन किए। इससे 9 कंपनियों को काफी लाभ हुआ। प्रत्येक को केवल 1651 करोड़ रुपयों में स्पेक्ट्रम आवंटित किए गए जबकि हर लाइसेंस की कीमत 7,442 करोड़ रुपयों से 47,912 करोड़ रुपये तक हो सकती थी। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि स्पेक्ट्रम के लिए लाइसेंस नीलामी का आवंटन
हालांकि दूरसंचार विभाग ने पहले आओ पहले पाओ के आधार पर किया, लेकिन इसमें भी अनियमितताएं कर कुछ कंपनियों को सीधा लाभ पहुंचाया। कुल 122 लाइसेंसों में से 85 लाइसेंस अयोग्य और अपात्र कंपनियों को दिए गए। लाइसेंस आवंटन में कानून मंत्रालय और वित्त मंत्रालय के सुझावों को भी ताक पर रख दिया गया।
सीएजी ने 1.77 लाख करोड़ का आंकड़ा निकालने के लिए दो तथ्यों को आधार बनाया। उन्होंने इस साल 3जी आवंटन में मिली कुल रकम और 2007 में एस-टेल कंपनी द्वारा लाइसेंस के लिए सरकार को दिए प्रस्ताव के आधार पर यह नतीजा निकाला। सीएजी के अनुसार 122 लाइसेंस के आवंटन में सरकार को जितनी रकम मिली, उससे 1.77 लाख करोड़ रुपए और मिल सकते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि 1.77 लाख करोड़ रुपये कम लिये गये इसीलिए यह घोटाला 1.77 लाख करोड़ रुपयों का माना गया।
जाहिर है कि ये सब अनियमितताएं यूं ही नहीं बरती गयी होंगी। ऐसा करने के पीछे कुछ खास निजी मकसद जरूर रहे होंगे और उन्हें स्पेक्ट्रम के आवंटन से पहले अथवा बाद में पूरा किया गया होगा। उक्त खास और निजी मकसद का इल्म सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को ले जाने वाले याची द्वारा दी गयी कुछ जानकारियों से हो रहा है। उसने याचिका के माध्यम से जानना चाहा है कि 18 अक्टूबर 2007 को अनिल अंबानी की कंपनी टाइगर ट्रस्टी ने किसी विदेशी कंपनी को अपने 50 लाख शेयर ट्रांसफर किए, जबकि कंपनी के बैंक अकाउंट में एक हजार करोड़ रु. थे। सीबीआई ने यह जानने की कोशिश नहीं की है कि यह शेयर किसे ट्रांसफर किए गए। यही नहीं, याचिकाकर्ता द्वारा दी गयी ठोस जानकारी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सीबीआई द्वारा अक्टूबर 2009 में दर्ज एफआईआर पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। 1.77 लाख करोड़ रुपए के इस घोटाले में लाभ कमाने वाली दो कंपनियों का सीवीसी की रिपोर्ट में नाम था, लेकिन सीबीआई की एफआईआर में उन्हें शामिल नहीं किया गया। दो कंपनियों को 1500-1600 करोड़ रुपए में स्पेक्ट्रम दिया गया, जबकि कुछ दिन बाद ही इसके लिए छह हजार करोड़ रुपए वसूले गए। सीबीआई ने सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर अज्ञात लोगों के खिलाफ ही मामला दर्ज किया था।
इतना सब कुछ हो गया और सरकार का मुखिया गांधी जी के तीनों बंदरों की सीख को आत्मसात कर हाथ पर हाथ रखे बैठा रहा। उसने न कुछ देखा, ना सुना और ना बोला। इस सब के बावजूद संप्रग की अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस के घोषित राष्ट्रीय महासचिव व अघोषित युवराज राहुल गांधी आज प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का बचाव कर रहे हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि भ्रष्टाचार सिर्फ रिश्वत खाने तक सीमित है। भ्रष्टाचार की शिकायतों को लगातार अनदेखा करना, उन पर कोई टिप्पणी तक ना करना और कानों में तेल डालकर सोते रहना सोनिया व राहुल के मुताबिक भ्रष्टाचार नहीं है।
सोनिया गांधी द्वारा मनमोहन सिंह पर लग रहे आरोपों को शर्मनाक बताने का कुल जमा निष्कर्ष तो यही निकलता है कि किसी सरकार का मुखिया अपनी नाक के नीचे लाखों करोड़ का घोटाला होते देखकर भी केवल इसलिए ईमानदार है क्योंकि उसने खुद रिश्वत नहीं खायी।
अगर ईमानदारी ऐसी किसी कमजोरी का नाम है जो अपनी आंखों के सामने हो रही बेईमानी के खिलाफ मुंह खोलने की इजाजत नहीं देती तो निश्चित ही वो ईमानदारी, बेईमानी से भी बदतर है और ऐसा ईमानदार आदमी, बेईमानों से भी गया-गुजरा है।
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में किस-किस की भूमिका रही और यह भूमिका किस स्तर की थीं, यह तो आगे आने वाला वक्त ही बतायेगा लेकिन एक बात जो तय है, वह यह कि 1.77 लाख करोड़ रुपए का यह घोटाला न तो रातों-रात हुआ है तथा ना ही इसे अकेले ए. राजा ने अंजाम दिया है।
अभी तक इस मामले का जो आंशिक सच सामने आ पाया है, उससे साबित होता है कि देश इस समय स्वतंत्रत भारत के सर्वाधिक संकट के दौर से गुजर रहा है। ऐसा लगता है जैसे इस देश की कमान राजनीतिक पार्टियों या उनके नेताओं के हाथ में न होकर दलालों के हाथ में है और वही राज कर रहे हैं। यहां ना डेमोक्रेसी कायम है और ना ब्यूरोक्रेसी, यहां अगर कुछ कायम है तो वह है हिप्पोक्रेसी। जो जितना बड़ा हिप्पोक्रेट, वह उतना सफल इंसान।
हिप्पोक्रेट्स की इस जमात में एक तबका बड़ी शिद्दत तथा तेजी के साथ और जुड़ा है, और यह तबका है मीडियाकर्मियों का। वह मीडियाकर्मी जिन्हें अभिव्यक्ित की स्वतंत्रता के नाम पर किसी के भी ऊपर कीचड़ उछालने का लाइसेंस मिला हुआ है। वह मीडियाकर्मी जो खुद को लोकतंत्र का सच्चा 'पहरुआ' कहते हैं लेकिन हकीकत में वह उसके लिए कलंक बन चुके हैं। एनडीटीवी की ग्रुप एडीटर बरखा दत्त और हिंदुस्तान टाइम्स के एडीटोरियल एडवाइजर वीर सिंघवी का नाम कार्पोरेट दलाल नीरा राडिया के साथ सार्वजनिक हो ही चुका है। अभी और ऐसे कितने नाम सामने आयेंगे, यह तो फिलहाल भविष्य के गर्भ में है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इलैक्ट्रॉनिक पत्रकारिता व इसके पॉलिश्ड पत्रकारों ने मीडिया को गर्त तक ले जाने का काम बखूबी किया है।
ये वो लोग हैं जो आज तक छोटे शहरों और कस्बों में खुद इन्हीं के लिए काम करने वाले स्ट्रिंगर्स को जर्नलिज्म का कोढ़ तथा दलाल प्रचारित करते रहे हैं जबकि कड़वा सच यह बखूबी जानते हैं। ये और इनके मालिकान खूब जानते हैं कि दिन-रात एक करके और जान हथेली पर लेकर काम करने वाले स्ट्रिंगर इनसे उतना पैसा भी नहीं पाते जितने में अपनी भागदौड़ का खर्चा पूरा कर सकें। घर-परिवार चलाने की तो सोचना तक बेमानी है। इन हालातों में वह कैसे और क्यों काम करते हैं, इस सच्चाई से भी कोई मीडिया व्यवसायी अनभिज्ञ नहीं होता। अगर यह कहा जाए कि मीडिया तथा मीडियाकर्मियों को भ्रष्ट बनाने में सबसे बड़ी भूमिका मीडिया व्यवासाइयों की है तो कुछ गलत नहीं होगा।
बहरहाल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने एक बात पूरी तरह साफ कर दी है कि इस देश के अंदर बह रही भ्रष्टाचार की गंगा में हर कोई हाथ धोने को बेताब है। फर्क है तो केवल इतना कि कोई हाथ धोकर तमाशबीन बना बैठा है और कोई किनारे बैठा मौके की तलाश कर रहा है।
लोकतंत्र के तीनों घोषित स्तंभ विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका पर तो भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब एकमात्र अघोषित स्तंभ 'पत्रकारिता' भी
इसमें न केवल शामिल हो चुका है बल्िक इनके लिए मध्यस्थ तथा लायजनर का काम कर रहा है।
इन हालातों में विचारणीय प्रश्न यह है कि जब 'मेढ़' ही 'खेत' को खाने पर आमादा हो तो वह खेत बचेगा कैसे और कब तक बचेगा। देश की अर्थव्यवस्था पर सीधी चोट करने वालों का बचाव यदि इसलिए किया जायेगा कि किसी भी प्रकार सरकार चलती रहे, यदि इसलिए एक प्रधानमंत्री अपने ही बेईमान मंत्रियों को खुली लूट करते देखता रहेगा कि वह कथित रूप से ईमानदार है तो उस देश को कितने समय तक बचाया जा सकता है। सरकारी खजाना किसी राजनीतिक पार्टी या सत्ताधारी दल की निजी सम्पत्ति नहीं होता। उस पर एकमात्र अधिकार जनता का है। उस खजाने को सुरक्षित ना रख पाने वाला, उसमें सेंध लगाने वाला तथा उसको नुकसान पहुंचाने वाला व्यक्ित जितना दोषी है, उतना ही दोषी वह व्यक्ित भी है जो जिम्मेदार पद पर रहते हुए चुपचाप यह सब देख रहा हो। तल्ख सच्चाई तो यह है कि वह उस पद पर रहने का हकदार ही नहीं है क्योंकि किसी की ईमानदारी अगर उसके लिए कमजोरी बन जाए तो न ऐसी ईमानदारी किसी काम की और ना ऐसा व्यक्ित।
देश इस समय ऐसे संक्रमण काल से गुजर रहा है जहां कुछ कठोर निर्णय लेने ही होंगे क्योंकि यदि अब भी वो निर्णय नहीं लिये गये तो हम निर्णय लेने लायक भी नहीं रहेंगे।
खोखली तरक्की के जिस सोपान पर चढ़कर हम इतरा रहे हैं, वह हमें एक झटके में किसी भी वक्त रसातल दिखा सकता है।
मैंने सुना है कि किसी देश में मैडम ट्रेसा द्वारा स्थापित ''चैम्बर ऑफ हॉरर्स'' नामक एक अनोखा अजायबघर था। इस अजायबघर में उसके नाम को सार्थक करती हुई भयानक वस्तुओं का संग्रह था।
अगर हमारे देश में सब-कुछ इसी प्रकार चलता रहा और देश को लूटने वाले तथा उसे लुटते देखने वाले अपने-अपने पक्ष में दलीलें देकर एक-दूसरे को इसी तरह जिम्मेदार ठहराते रहे तो मुझे पूरा यकीन है कि शीघ्र ही एक चैम्बर ऑफ हारर्स नामक अजायबघर हमारे यहां भी कायम किया जायेगा। इस अजायबघर में हमारे मंत्रियों और नेताओं की मूर्तियां स्थापित होंगी ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां यह जान सकें कि कभी भारत को कैसे-कैसे जीव-जंतु चलाते थे।
आने वाले युग के छात्रों को अध्यापक इन मंत्री व नेताओं की मूर्तियां दिखाकर इस बेईमान व भ्रष्ट दौर की दास्तां सुनायेंगे और बतायेंगे कि किस तरह के अकर्मण्य लोग सत्ता पर काबिज थे।
अध्यापक उन बच्चों को बतायेंगे कि सच्चाई व सिद्धांत पर दृढ़ रहना ऐसे अवगुण थे जिनसे ये मंत्री पद के भूखे महापुरुष हमेशा दूर रहते थे और उसी के सिर पर सेहरा बंधता था जो सच्चाई का पूरी तरह गला घोंट सके तथा जिस सिद्धांत पर खड़ा है, उसी की पीठ में छुरा घोंप सके।
निश्चित ही आने वाले युग के ये विद्यार्थी आश्चर्य करेंगे कि देश चलाने वाले जिन लोगों को बुद्धि की सबसे अधिक जरूरत थी, वही इस दृष्टि से सर्वथा शून्य थे।
उन्हें ऐसी जनता पर भी आश्चर्य होगा जो शेर की खाल ओढ़कर देश को पूरी तरह बर्बाद करने वाले इन गीदड़ों से शासित होती रही।