बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

जय गुरुदेव के उत्‍तराधिकारी पंकज बाबा के पिता चरन सिंह यादव ने की दूसरी शादी

मथुरा। जिन दिनों बाबा जय गुरुदेव का ड्राइवर पंकज यादव किसी तरह बाबा की विरासत का उत्‍तराधिकारी बनने की कोशिश में था, लगभग उन्‍हीं दिनों ड्राइवर पंकज का पिता और बाबा का अनुयायी चरण सिंह यादव बाबा की ही एक शिष्‍या के साथ दोबारा घर बसाने में लगा था।
बेटा जहां बाबा जय गुरुदेव की सैकड़ों करोड़ की संपत्‍ति पर काबिज होने के लिए गृहस्‍थाश्रम से दूर रहने का निर्णय ले चुका था वहीं बाप, बाबा के आश्रम में रहते हुए फिर से गृहस्‍थी बसाने जा रहा था किंतु इसकी भनक शायद किसी को नहीं थी।
बाबा जयगुरूदेव ट्रस्‍ट के पदाधिकारी चरण सिंह यादव की दूसरी शादी का खुलासा अब जाकर हुआ है जबकि उनका पुत्र और कभी बाबा का ड्राइवर रहा पंकज यादव ”पंकज बाबा” के रूप में बाबा जयगुरूदेव का उत्‍तराधिकारी बन चुका है।
पंकज बाबा के पिता चरण सिंह यादव की शादी का सर्टीफिकेट बताता है कि उन्‍होंने 30 अप्रैल 2009 को गाजियाबाद के डिप्‍टी रजिस्‍ट्रार (रिजस्‍ट्रार ऑफ मैरिज 4th) के यहां पार्वती मील नामक महिला के साथ शादी की थी जो राजस्‍थान के जिला सीकर में पलारी गांव की निवासी है और पेशे से आर्कीटेक्‍ट बताई जाती है।
पंकज बाबा के पिता चरन सिंह यादव को इस उम्र में आकर फिर से शादी करने की क्‍या जरूरत पड़ गई, यह तो वही बता सकते हैं किंतु इतना जरूर कहा जा सकता है कि जो समय बेटे की शादी करने का था, उस समय तो बाबा जय गुरुदेव के सैकड़ों करोड़ का वारिस बनाने की खातिर चरन सिंह यादव ने बेटे पंकज को बाबा बना दिया और खुद ने दूसरी शादी कर ली। charansing
बाबा जय गुरुदेव का स्‍वर्गवास हालांकि मई सन् 2012 में हुआ था जबकि चरन सिंह ने दूसरी शादी 2009 में ही कर ली थी लेकिन तब तक बाबा सहित किसी को चरन सिंह द्वारा दूसरी शादी किए जाने का कोई इल्‍म नहीं था।
आज भी यूं तो चरन सिंह या जय गुरुदेव धर्म प्रचारक संस्‍था से जुड़ा कोई व्‍यक्‍ति चरन सिंह की दूसरी शादी को लेकर कुछ बोलने के लिए तैयार नहीं होता किंतु अब जबकि चरन सिंह का मैरिज सर्टीफिकेट सामने आ चुका है तो किसी के बोलने या ना बोलने से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता।
वैसे देखा जाए तो किसी व्‍यक्‍ति द्वारा पहली पत्‍नी के न होने अथवा तलाकशुदा होने की सूरत में दूसरी शादी कर लेना कोई गुनाह नहीं है किंतु यहां इस शादी पर सवाल खड़े होने की वजह चरन सिंह का पंकज बाबा का पिता होना तथा जय गुरुदेव धर्म प्रचारक संस्‍था से जुड़ा होना है।
चूंकि चरन सिंह खुद जय गुरुदेव के अनुयायी हैं और आज का पंकज बाबा, जय गुरुदेव की मृत्‍यु से ठीक पहले तक उनका ड्राइवर हुआ करता था इसलिए इस शादी को लेकर सवाल उठने लाजिमी हैं।
मथुरा में सरकारी उद्यान विभाग के जवाहर बाग कांड का सरगना रामवृक्ष यादव भी बाबा जयगुरुदेव का अनुयायी था और उसके साथ रहने वाले चंदन बोस सरीखे अपराधी भी कभी जय गुरुदेव के ही अनुयायी रहे थे।
एसपी सिटी मथुरा मुकुल द्विवेदी तथा एसओ फरह संतोष यादव के खून से अपने हाथ रंगने वाले रामवृक्ष यादव के तमाम गुर्गों ने जवाहर बाग को कब्‍जाने में बाबा जय गुरुदेव के नाम का भरपूर इस्‍तेमाल किया क्‍योंकि बाबा जय गुरुदेव ने भी अपनी अकूत संपत्‍ति ऐसे ही हासिल की थी जिसका सच अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है। मथुरा में नेशनल हाईवे नंबर 2 पर अरबों रुपए की जमीन बाबा जय गुरुदेव ने खरीदी नहीं है बल्‍कि अधिकांश पर कब्‍जा किया है। यही कारण है कि आज बाबा जय गुरुदेव की समाधि पर भी विवाद खड़ा हो गया है और कोर्ट ने उसके निर्माण पर रोक लगा दी है।
कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि बात चाहे बाबा जय गुरुदेव के वर्तमान उत्‍तराधिकारी पंकज बाबा की हो या उसके पिता चरन सिंह यादव अथवा जवाहर बाग कांड के सरगना रामवृक्ष यादव की, इन सबका चरित्र एवं गतिविधियां किसी न किसी स्‍तर पर संदिग्‍ध हैं। यदि इनकी गतिविधियों की जांच की जाए और बाबा के पूरे साम्राज्‍य व अकूत धन संपदा के स्‍त्रोत का पता लगाया जाए तो एक ऐसे संगठित गिरोह का पर्दाफाश हो सकता है जिसने धर्म की आड़ में अधर्म का ऐसा खेल खेला जिसकी मिसाल आसानी से मिलना मुश्‍किल है। पंकज बाबा के पिता चरन सिंह यादव द्वारा 2009 में ही दूसरी शादी कर लेना और उसे अब तक छिपाए रखने के पीछे भी कोई ऐसा मकसद जरूर है जिसके बहुत महत्‍वपूर्ण मायने होंगे। आज नहीं तो कल ये मायने सामने जरूर आयेंगे और तब हो सकता है एक नया विवाद भी उठ खड़ा हो।
-लीजेंड न्‍यूज़

मथुरा के प्रत्‍याशियों में बड़ा फेरबदल करने की तैयारी कर रही है BSP

मथुरा में अब तक घोषित प्रत्‍याशियों को लेकर BSP (बहुजन समाज पार्टी) बड़ा फेरबदल करने की तैयारी कर रही है। लखनऊ में बैठे उच्‍च पदस्‍थ सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार पार्टी सुप्रीमो मायावती मथुरा की पांचों विधानसभा सीटों पर काबिज होना चाहती हैं और इसलिए वह मौजूदा घोषित प्रत्‍याशियों में बड़ा उलटफेर कर सकती हैं।
सूत्रों की मानें तो यह उलटफेर ऐन वक्‍त तक भी हो सकता है क्‍योंकि मायावती इसके लिए दूसरी पार्टियों के पत्‍ते खुलने का इंतजार कर रही हैं।
अब तक बसपा ने मथुरा-वृंदावन विधानसभा क्षेत्र से वृंदावन निवासी योगेश द्विवेदी को प्रत्‍याशी घोषित किया हुआ है। नगरपालिका वृंदावन की पूर्व चेयरमैन पुष्‍पा शर्मा के पुत्र योगेश द्विवेदी बसपा की टिकट पर ही गत लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन उन्‍हें हार का मुंह देखना पड़ा था। लगभग तभी से योगेश द्विवेदी विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं।
बताया जाता है कि शहर की इस सीट को लेकर बहिनजी काफी गंभीर हैं लिहाजा इसे खोना नहीं चाहतीं। भारतीय जनता पार्टी की ओर से भी इस सीट के लिए किसी बाह्मण को ही प्रत्‍याशी बनाए जाने की प्रबल संभावना है। यदि ऐसा होता है तो बसपा योगेश द्विवेदी को चुनाव लड़ाने पर पुनर्विचार कर सकती है क्‍योंकि बहिनजी ऐसी स्‍थिति में ब्राह्मण मतों के विभाजन का खामियाजा नहीं भुगतना चाहेंगी।
इसके अतिरिक्‍त यह भी कहा जा रहा है कि मांट क्षेत्र से घोषित बसपा प्रत्‍याशी पंडित श्‍यामसुंदर शर्मा राष्‍ट्रीय लोकदल के पत्‍ते खुलने का इंतजार कर रहे हैं। यदि राष्‍ट्रीय लोकदल उनके खिलाफ जयंत चौधरी की पत्‍नी चारू चौधरी को चुनाव मैदान में ले आता है तो श्‍यामसुंदर शर्मा भी अपने लिए क्षेत्र बदलने की मांग कर सकते हैं। चूंकि श्‍यामसुंदर शर्मा जाट बाहुल्‍य मांट क्षेत्र में पिछले विधानसभा चुनावों के दौरान जयंत चौधरी से शिकस्‍त खा चुके हैं इसलिए वह इस बार कोई जोखिम उठाना नहीं चाहेंगे।
बताया जाता है कि अगर हालात श्‍यामसुंदर शर्मा को अपने अनुकूल नहीं लगते तो वह भी मथुरा-वृंदावन क्षेत्र से लड़ना पसंद करेंगे।
इधर गोवर्धन विधानसभा से भी सिटिंग विधायक राजकुमार रावत का क्षेत्र बदले जाने की संभावना जताई जा रही है। राजकुमार रावत की स्‍थिति हालांकि अपने क्षेत्र में मजबूत है और वह लगातार वहां सक्रिय भी रहे हैं किंतु पार्टी सूत्रों की मानें तो गोवर्धन से प्रदेश के पूर्व कबीना मंत्री और बहिनजी के करीबी माने जाने वाले रामवीर उपाध्‍याय को चुनाव मैदान में उतारा जा सकता है। पार्टी रामवीर उपाध्‍याय के लिए उनके पुराने क्षेत्र को मुफीद नहीं मान रही। पार्टी सूत्रों का कहना है कि ऐसी स्‍थिति में सिटिंग विधायक राजकुमार रावत के लिए जनपद के बाहर भी कोई क्षेत्र चुना जा सकता है।
छाता विधानसभा क्षेत्र से हालांकि पिछले दिनों बसपा ने अशर एग्रो के निदेशक इंडस्‍ट्रियलिस्‍ट मनोज चतुर्वेदी (पाठक) को अपना प्रत्‍याशी घोषित किया है किंतु बताया जाता है कि मनोज चतुर्वेदी को चुनाव लड़ाए जाने की संभावना काफी कम हैं।
मूल रूप से मथुरा के चौबिया पाड़ा क्षेत्र अंतर्गत गजापाइसा निवासी मनोज चतुर्वेदी (पाठक) को न तो राजनीति का कोई अनुभव है और ना ही छाता क्षेत्र में उनका कोई जनाधार है। छाता क्षेत्र से उनका यदि कोई वास्‍ता है तो सिर्फ्र इतना कि उनकी धान फैक्‍ट्री अशर एग्रो छाता क्षेत्र में स्‍थित है।
यूं भी छाता क्षेत्र के सिटिंग विधायक ठाकुर तेजपाल सिंह के पुत्र ठाकुर अतुल सिसौदिया ”लवी” ने पिछले दिनों बसपा ज्‍वाइन की है और यही माना जा रहा था कि लवी ही छाता से बसपा के प्रत्‍याशी होंगे किंतु पिछले दिनों अचानक एक कार्यक्रम के दौरान पार्टी ने मनोज चतुर्वेदी (पाठक) को अपना प्रत्‍याशी घोषित कर दिया। मनोज चतुर्वेदी (पाठक) की उम्‍मीदवारी किसी की समझ में नहीं आ रही और पार्टी के ही पदाधिकारी दबी जुबान से यह स्‍वीकार भी कर रहे हैं कि मनोज चतुर्वेदी (पाठक) को छाता से चुनाव लड़ाने का मतलब होगा, भाजपा प्रत्‍याशी चौधरी लक्ष्‍मीनारायण को प्‍लेट में रखकर जीत उपलब्‍ध करा देना। बसपा सरकार में ही लंबे समय तक कबीना मंत्री रहे चौधरी लक्ष्‍मीनारायण अब भाजपा का हिस्‍सा बन चुके हैं और उनकी पत्‍नी जिला पंचायत अध्‍यक्ष हैं।
यूं भी यदि बसपा मनोज चतुर्वेदी (पाठक) को चुनाव लड़ाती है तो उसे बगावत भी झेलनी पड़ सकती है, और उस स्‍थिति में बसपा के लिए ज्‍यादा मुसीबत खड़ी होना लाजिमी है। इसकी एक वजह यह बताई जाती है मनोज पाठक ने अपनी उम्‍मीदवारी घोषित कराने के लिए मोटा पैसा खर्च किया है। मनोज पाठक की अचानक सामने आई राजनीतिक महत्‍वाकांक्षा भी लोगों के गले नहीं उतर रही।
शेष रह जाती है गोकुल सुरक्षित सीट, जहां से प्रेमचंद कर्दम को पार्टी ने अपना प्रत्‍याशी घोषित किया हुआ है।
बताया जाता है यूं तो प्रेमचंद कर्दम के लिए फिलहाल कोई खतरा नहीं है किंतु एक सिटिंग विधायक वहां से बसपा की टिकट पर चुनाव लड़ने के प्रबल इच्‍छुक हैं। इसके लिए वह पार्टी भी बदलने को तैयार हैं और बसपा के कुछ कद्दावर नेताओं के संपर्क में हैं।
यदि यह बात सही है तो प्रेमचंद कर्दम का भी पत्‍ता कट सकता है क्‍योंकि बसपा इससे दोहरा लाभ अर्जित करने का लोभ शायद ही त्‍याग पाए।
बसपा फिलहाल कृष्‍ण नगरी की कुल पांच विधानसभा सीटों में से तीन सीटों पर काबिज है। हालांकि इनमें से दो विधायकों मांट के श्‍यामसुंदर शर्मा तथा छाता के ठाकुर तेजपाल ने हाल ही में बसपा ज्‍वाइन की है। श्‍यामसुंदर शर्मा ने अपना पिछला चुनाव ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के साथ रहकर लड़ा था जबकि छाता से ठाकुर तेजपाल ने राष्‍ट्रीय लोकदल प्रत्‍याशी के तौर पर बसपा के चौधरी लक्ष्‍मीनारायण को हराया था।
इस तरह पिछले विधानसभा चुनावों के बाद बसपा के खाते में गोवर्धन विधानसभा क्षेत्र से राजकुमार रावत के रूप में एकमात्र विधायक ही आ पाया था। अब जबकि दो विधायक उसके खाते में आगामी चुनावों से पहले और जुड़ चुके हैं तो बसपा उन्‍हें भी खोना नहीं चाहेगी। बेशक उसे उनके लिए कोई बड़ा फेरबदल ही क्‍यों न करना पड़े।
यही कारण है कि उच्‍च स्‍तर पर बसपा में इसके लिए गंभीर चिंतन चल रहा है और पार्टी चाहती है कि वह इस बार मथुरा-वृंदावन के साथ-साथ गोकुल क्षेत्र में भी कोई चमत्‍कार कर दे ताकि भाजपा के सामने बड़ी लकीर खींच सके।
बसपा की इस कोशिश के पीछे एक कारण मथुरा में उसके सामने भाजपा के अतिरिक्‍त कोई दूसरी चुनौती न होना भी है। समाजवादी पार्टी लाख प्रयासों के बावजूद मथुरा में कभी अपना खाता नहीं खोल पाई है और कांग्रेस के पास एक शहरी सीट के अलावा यहां कुछ है नहीं। इस शहरी सीट पर काबिज कांग्रेसी विधायक प्रदीप माथुर को लेकर क्षेत्रीय जनता में भारी आक्रोश व्‍याप्‍त है। प्रदीप माथुर पिछला चुनाव भी मात्र 500 मतों से बमुश्‍किल जीत पाए थे, वो भी तब जबकि पिछले चुनावों में कांग्रेस का राष्‍ट्रीय लोकदल से गठबंधन था और इसका लाभ प्रदीप माथुर को मिला।
शेष चारों विधानसभा क्षेत्रों छाता, मांट, गोकुल और गोवर्धन में आज भी कांग्रेस यथास्‍थिति को प्राप्‍त है लिहाजा वह दूसरी किसी पार्टी के लिए चुनौती बनने की स्‍थिति में नहीं है।
राष्‍ट्रीय लोकदल जरूर इन चुनावों में हाथ-पैर मार रही है किंतु उसका अब तक का इतिहास उसकी साख पर बट्टा लगा चुका है। 2009 के लोकसभा चुनावों में मथुरा की जनता ने रालोद के युवराज जयंत चौधरी को सिर-आंखों पर बैठाया और भाजपा के सहयोग से जयंत चौधरी ने वह चुनाव भारी मतों के अंतर से जीता किंतु उसके बाद जयंत चौधरी ने मथुरा की जनता को पूरी तरह निराश किया। यहां तक कि मथुरा में रहना भी जयंत ने जरूरी नहीं समझा। इसके बाद जयंत चौधरी ने सांसद रहते 2012 का मांट से श्‍यामसुंदर शर्मा के खिलाफ विधानसभा चुनाव भी लड़ा और इसमें भी जीत हासिल की जबकि श्‍यामसुंदर शर्मा मांट क्षेत्र में अपराजेय माने जाते थे। जयंत चौधरी को क्षेत्रीय जनता ने उनके इस आश्‍वासन पर चुनाव जितवाया कि वह जीतने के बाद लोकसभा की सदस्‍यता त्‍याग देंगे और विधायक रहकर क्षेत्र का विकास कराएंगे।
दरअसल, तब राष्‍ट्रीय लोकदल के मुखिया चौधरी अजीत सिंह अपने पुत्र को राजनीतिक सौदेबाजी के तहत मुख्‍यमंत्री बनाने का ख्‍वाब अपने मन में संजोए बैठे थे किंतु सपा को मिले स्‍पष्‍ट बहुमत ने उनके इस ख्‍वाब को मिट्टी में मिला दिया।
ख्‍वाब के मिट्टी में मिलते ही रालोद और जयंत चौधरी ने क्षेत्रीय जनता से किया गया लोकसभा की सदस्‍यता त्‍यागने का वायदा तोड़ने में रत्‍तीभर मुरव्वत नहीं की और लोकसभा की जगह मांट की विधायकी से त्‍यागपत्र दे दिया। इसके बाद हुए उप चुनावों में एकबार फिर श्‍यामसुंदर शर्मा को जीत हासिल हुई।
यही सब कारण थे कि 2014 के लोकसभा चुनावों में रालोद के युवराज कहीं के नहीं रहे और भाजपा की हेमा मालिनी ने भारी मतों से जीत दर्ज की।
अब बेशक रालोद एकबार फिर अपनी खोई हुई जमीन पाने के लिए हाथ-पैर मार रहा है किंतु उसमें वह कितना सफल होगा और किन सीटों पर सफल होगा, यह वक्‍त ही बताएगा। हां, एकबात जरूर तय है कि रालोद अब मथुरा में किसी पार्टी के लिए चुनौती देने की स्‍थिति में नहीं रहा। मांट क्षेत्र में भी वह तभी चुनौती बन सकता है जब खुद जयंत चौधरी अथवा उनकी पत्‍नी चारू चौधरी चुनाव मैदान में उतरें। दूसरे चुनाव क्षेत्रों में तो उसके पास प्रत्‍याशियों का भी टोटा दिखाई देता है।
संभवत: इन्‍हीं सब स्‍थिति-परिस्‍थितियों का लाभ उठाने के लिए बसपा मथुरा को लेकर गंभीर है और गहन चिंतन कर रही है। वह इस मौके को खोना नहीं चाहती, चाहे इसके लिए उसे पूर्व घोषित उम्‍मीदवारों में बड़ा फेरबदल ही क्‍यों न करना पड़े।
-लीजेंड न्‍यूज़

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

इनका क्‍या…ये तो अपने भी DNA का सबूत मांग सकते हैं

ये वो लोग हैं, जो अपने DNA का भी सबूत मांग सकते हैं। ये अपने पिता से कह सकते हैं कि वह ”उनके पिता” होने का सबूत दें। ये अपनी मां को अपनी ”बल्‍दियत” साबित करने की चुनौती दे सकते हैं। ये कुछ भी कर सकते हैं और कुछ भी कह सकते हैं।
ऐसे लोग यदि एलओसी के पार जाकर भारतीय सेना द्वारा पाकिस्‍तान के खिलाफ की गई ”सर्जीकल स्‍ट्राइक” पर सवालिया निशान लगा रहे हैं तो कोई आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए।
दरअसल, जिस तरह कुत्‍ता चाहे किसी भी नस्‍ल का क्‍यों न हो, स्‍वामी भक्‍ति उसका मौलिक गुण होता है और वही उसकी पहचान भी है। उसी तरह कुछ लोगों की नस्‍ल में ही गद्दारी निहित होती है, लिहाजा वह अपनी इस मौलिकता को छोड़ नहीं सकते। कई बार ऐसा लगता जरूर है कि वह देश व धर्म की बात कर रहे हैं किंतु असलियत कुछ और होती है।
अब जैसे दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ही ले लें। केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मोदी को सेल्‍यूट करने की आड़ में न सिर्फ इंडियन आर्मी के सर्जीकल स्‍ट्राइक पर सवाल खड़े कर दिए बल्‍कि पाकिस्‍तान के प्रवक्‍ता भी बन बैठे।
अब पाकिस्‍तान के हुक्‍मरान और उनका मीडिया तो अरविंद केजरीवाल की तरह मूर्ख हैं नहीं। उन्‍होंने तुरंत केजरीवाल की मंशा को भांपते हुए उन्‍हें हीरो बना डाला।
केजरीवाल की सारी चालाकी, उनकी सेल्‍यूट के पीछे छिपी मंशा या कहें कि मूर्खता की पराकाष्‍ठा को जब पाकिस्‍तान ने पकड़ कर बेनकाब कर दिया तो केजरीवाल सफाई दे रहे हैं।
केजरीवाल की मानें तो उन्‍होंने न सर्जीकल स्‍ट्राइक पर कोई सवाल खड़ा किया और न इंडियन आर्मी पर। उन्‍होंने तो केवल इतना कहा कि अब मोदी को पाकिस्‍तान के प्रोपेगंडा का जवाब सर्जीकल स्‍ट्राइक के सबूत सामने रखकर दे देना चाहिए।
अपने बचाव में केजरीवाल द्वारा दी जा रही यह सफाई साबित करती है कि उनका अक्‍ल से दूर-दूर तक कभी कोई वास्‍ता नहीं रहा। एक राजनीतिक दुर्घटना के तहत वह दिल्‍ली की जनता के दुर्भाग्‍य से मुख्‍यमंत्री बन बैठे और अब जनता को बता रहे हैं कि भावनाओं को कैश करके किस तरह मूर्खों की जमात भी शासन कर सकती है।
अरविंद केजरीवाल के पास क्‍या इस बात का कोई जवाब है कि वह पाकिस्‍तान के सवालों को लेकर इतने चिंतित और गंभीर क्‍यों हैं ?
उन्‍हें क्‍यों लगता है कि भारत के लिए पाकिस्‍तान की तथाकथित शंका दूर करना इतना जरूरी है ?
क्‍या वह पाकिस्‍तान सरकार, पाकिस्‍तान की सेना अथवा आईएसआई के प्रवक्‍ता हैं या फिर वह अपनी घिनौनी मानसिकता को पाकिस्‍तानी सवालों की आड़ से पोषित करना चाह रहे हैं ?
जहां तक सवाल कांग्रेसी नेता संजय निरुपम, दिग्‍विजय सिंह, पी. चिदंबरम, जेडी-यू नेता अजय आलोक जैसों का है तो यह…और इनके जैसे तमाम अन्‍य लोग राजनीति में हैं ही इसलिए कि उन्‍हें खुद अपनी ही असलियत पर शक है। इन्‍हें खुद नहीं पता कि वह हैं क्‍या।
आइना देखते हैं तो अपने आप से सवाल करने लगते हैं कि अभी-अभी जो चेहरा देखा था, वह किसका था। संभवत: इसीलिए खुद उनकी पार्टियों को हर चौथे रोज यह कहना पड़ता है कि उनके बयानों से पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। उन्‍होंने जो कुछ कहा है, वह उनके निजी विचार हैं।
यह एक अलग किस्‍म की राजनीति है। पल्‍ला झाड़ने की राजनीति। लेकिन क्‍या इतना आसान होता है पल्‍ला झाड़ लेना ?
अरविंद केजरीवाल हों या संजय निरुपम, दिग्‍विजय सिंह, पी. चिदंबरम, और अजय आनंद। इन सबका कहना है कि भाजपा के नेतृत्‍व वाली मोदी सरकार सर्जीकल स्‍ट्राइक का क्रेडिट लेकर राजनीतिक लाभ अर्जित करना चाहती है। चूंकि पांच राज्‍यों के चुनाव सामने हैं इसलिए वह इस सर्जीकल स्‍ट्राइक को भुनाना चाहती है।
मैं इन सभी और इनके जैसे सभी बुद्धिहीनों से यह पूछना चाहता हूं कि उरी में सेना के हमले के बाद यह क्‍यों चुप्‍पी साध कर नहीं बैठ गए। क्‍यों विधवा विलाप करने लगे कि 56 इंच के सीने वाले प्रधानमंत्री को बदला लेना चाहिए। क्‍यों कहते रहे कि जनता अब कार्यवाही चाहती है, बयान नहीं।
इन्‍हें करना तो यह चाहिए था कि आगामी पांच राज्‍यों के चुनावों में जनता के बीच जाकर मोदी सरकार के बयानों की हवा निकालते और कहते कि देखिए मोदी सरकार ने सेना के कितने जवान मरवा दिए लेकिन पाकिस्‍तान के किसी चूहे तक को नहीं मार पाए। मोदी के 56 इंच के सीने पर कायरता का तमगा चस्‍पा करते और बताते कि उनकी तो नवाज शरीफ तथा पाकिस्‍तान के साथ पहले दिन से सांठगांठ चली आ रही है।
हो सकता है कि यदि यह विधवा विलाप न करते और मोदी सरकार पर कार्यवाही के लिए दबाव बनाकर उसे चुनौती नहीं देते तो वह भी कांग्रेसी शासन की तरह हाथ पर हाथ रखे बैठी होती। ऐसे में कांग्रेस संभवत: उत्‍तर प्रदेश, पंजाब तथा गोवा में अपनी सरकार बनाने का ख्वाब देख सकती थी और उत्‍तराखंड व हिमाचल में काबिज रहने की कोशिश कर सकती थी।
हो सकता है कि अनेक विवादों में घिरे होने के बावजूद मोदी जी की अक्षमता के प्रचार से अरविंद केजरीवाल की पार्टी ही पंजाब पर काबिज हो जाती और दिल्‍ली की तरह पंजाब को धन्‍य करती, किंतु लगता है इन्‍हें इस बात का इल्‍म नहीं रहा कि दांव उल्‍टा पड़ जाएगा क्‍योंकि सरकार ने जनभावनाओं के मद्देनजर कार्यवाही कर डाली।
ऐसे में कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी कोई सामाजिक संस्‍था तो है नहीं। वह भी एक राजनीतिक दल है और सत्‍ता पर काबिज रहने की उसकी कोशिश किसी नजिरए से गलत नहीं है। यदि वह सर्जीकल स्‍ट्राइक से कोई राजनीतिक लाभ अर्जित करना चाहती है तो इसमें गलत क्‍या है। सेना का मनोबल बढ़ाकर तथा जन भावनाओं के अनुरूप काम करके सत्‍ता में बने रहने का प्रयास करना क्‍या गुनाह है।
कौन सा राजनीतिक दल और कौन सा नेता ऐसा है जिसकी कोशिश अपने क्रिया-कलापों का राजनीतिक लाभ अर्जित करने की नहीं होती। सब यही तो करते हैं।
फिर सर्जीकल स्‍ट्राइक का राजनीतिक लाभ उठाने की मोदी सरकार की कोशिश पर आश्‍चर्य कैसा ?
क्‍या कांग्रेस को 1971 के युद्ध में इंदिरा गांधी द्वारा उठाए गए कदमों का राजनीतिक लाभ नहीं मिला ?
जनभावनाओं के अनुरूप निर्णय लेने का लाभ दुनिया के हर मुल्‍क की सरकारों को मिलता रहा है और मिलता रहेगा। मोदी सरकार इसका अपवाद नहीं हो सकती।
बेहतर होगा कि सर्जीकल स्‍ट्राइक पर पाकिस्‍तान के हुक्‍मरानों की भाषा बोलने वाले इस सच्‍चाई को समय रहते समझ लें क्‍योंकि अब भी उनके पास डैमेज कंट्रोल करने का वक्‍त है। यूपी सहित जिन राज्‍यों में चुनाव प्रस्‍तावित हैं, उनमें कुछ माह बाकी हैं।
अगर और कुछ समय तक सर्जीकल स्‍ट्राइक पर सवाल खड़े किए जाते रहे और पाकिस्‍तान की तरह सेना की कार्यवाही पर शक जताया जाता रहा तो तय जानिए कि कांग्रेस के जनाजे को कांधा देने के लिए चार लोग भी शायद ही मिलें। तब संजय निरुपम, दिग्‍विजय सिंह तथा पी. चिदंबरम के अलावा कांग्रेस की अर्थी उठाने के लिए चौथा आदमी निश्‍चित ही अरविंद केजरीवाल होगा क्‍योंकि ये दल बेशक अलग हों, दिल तो दोनों के मिले हुए हैं।
राजनीति के चक्‍कर में सेना की सर्जीकल स्‍ट्राइक पर शक करके और पाकिस्‍तानी मीडिया की सुर्खियां बनकर दोनों ने साबित कर दिया है कि सोच के धरातल पर कांग्रेस व केजरीवाल में कोई अंतर नहीं है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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