शुक्रवार, 16 दिसंबर 2022

नगर निकाय चुनाव यूपी: कोर्ट के रुख से बहुत से भाजपाई खुश, लेकिन पार्टी के व्यवहार से क्षुब्ध


 यूपी में नगर निकाय चुनावों के लिए आरक्षण की अधिसूचना पर इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा फिलहाल रोक लगाए जाने से एक ओर जहां तमाम वो भाजपाई खुश हैं जो सामान्य सीट होने की स्‍थिति में चुनाव लड़ने की योग्‍यता रखते हैं वहीं दूसरी ओर पार्टी पदाधिकारियों के रवैये से कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग नाखुश दिखाई दे रहा है।

दरअसल, नगर निकाय चुनावों के लिए आरक्षित सीटों की घोषणा होने से पहले भाजपा का एक बड़ा वर्ग अपने लिए पार्षद और मेयर के पदों पर चुनाव लड़ने की संभावना तलाश रहा था, किंतु आरक्षण की घोषणा ने उसकी उम्‍मीदों पर पानी फेर दिया। विशेषकर उन जिलों में जहां 2017 के चुनावों में भी मेयर पद आरक्षित था।

ऐसे जिलों में कृष्‍ण की नगरी मथुरा का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। दरअसल, 2017 के निकाय चुनावों में ही स्‍थानीय लोगों के भारी विरोध को दरकिनार कर मथुरा एवं वृंदावन नगर पालिकाओं को मिलाकर ''मथुरा-वृंदावन नगर निगम'' बना दिया गया। फिर यहां का मेयर पद भी दलित के लिए आरक्षित कर दिया।

अब पार्टीजन ये मानकर चल रहे थे कि 2022 में इस धार्मिक नगरी का मेयर पद सामान्य घोषित कर दिया जाएगा किंतु इस बार इसे ओबीसी (महिला) के लिए आरक्षित कर दिया।

बहरहाल, ओबीसी आरक्षण के खिलाफ दायर एक याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंड पीठ द्वारा फिलहाल 20 दिसंबर तक रोक लगाकर सुनवाई की जा रही है जिससे उम्‍मीद बंधी है कि शायद सरकार की घोषणा लागू न हो सके और ओबीसी के लिए पिछले दिनों घोषित सीटों पर भी बिना आरक्षण चुनाव कराने पड़ें। लेकिन इस सबके बीच बीजेपी कार्यकर्ताओं का एक बड़ा वर्ग पार्टी पदाधिकारियों के उपेक्षित रवैये से नाराज है।

उसका कहना है कि सालों-साल मेहनत तो करता है सामान्‍य कार्यकर्ता, किंतु जब बात आती है टिकटों के बंटवारे की तो उसे कोई तरजीह नहीं दी जाती। यहां तक कि उसी के इलाके की उम्‍मीदावारी पर भी उसकी राय लेना जरूरी नहीं समझा जाता और पार्टी पदाधिकारी 'अंधे बांटें रेवड़ी' की कहावत को चरितार्थ करने लगते हैं।

इन कार्यकर्ताओं की मानें तो पार्टी पदाधिकारी अपमान की हद तक उनके साथ रूखा व्‍यवहार करते हैं और अपने-अपने लोगों के नाम आगे बढ़ाने में लगे रहते हैं, जो समर्पित कार्यकताओं के साथ सरासर अन्याय है।

यही नहीं, पार्षद के पद पर चुनाव लड़ने के इच्‍छुक कार्यकर्ताओं द्वारा दावेदारी जताये जाने की स्‍थिति में उन्‍हें उनकी हैसियत का अहसास कराया जाता है ताकि वह चुनाव लड़ने का विचार ही त्याग दें।

उदाहरण के तौर पर यदि बात करें मथुरा की तो इसका प्रमाण तब देखने को मिला जब दो दिन पहले सीएम योगी आदित्यनाथ यहां आए।

पार्टी सूत्रों के अनुसार योगी की सभा में भीड़ जुटाने की जिम्‍मेदारी पार्षद का चुनाव लड़ने के इच्‍छुक कार्यकर्ताओं पर थोप दी गई। एक-एक दावेदार से सौ-सौ लोगों को सभा स्‍थल तक पहुंचाने को कहा गया। साथ ही उनसे दो-दो बड़े होर्डिंग लगवाए गए।

चूंकि एक-एक वार्ड से टिकट मांगने वाले कार्यकताओं की संख्‍या दर्जनों तक पहुंच रही है इसलिए भीड़ तो एकत्र हो गई लेकिन उसे जुटाने तथा होर्डिंग लगवाने का खर्चा बहुतों को अखर गया।

ऐसे में जाहिर है कि अनेक ऐसे कार्यकर्ता तो पार्षद का भी चुनाव लड़ने की बात नहीं सोच सकते जिनकी आर्थिक स्‍थिति लाखों रुपए खर्च करने की इजाजत नहीं देती।

यदि वो किसी पदाधिकारी के सामने अपनी इच्‍छा व्‍यक्त करते हैं तो उन्‍हें इसका अहसास करा दिया जाता है कि चुनाव लड़ना उनके बस की बात नहीं।

बेशक आज निकाय चुनाव लड़ना आसान नहीं रहा और इसमें भी दूसरे चुनावों की तरह प्रत्याशी को पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है लेकिन समर्पित कार्यकर्ता तो चुनावों का बेसब्री से इंतजार करते ही हैं क्योंकि उनका अपना राजनीतिक भविष्‍य अंतत: चुनावों पर ही टिका होता है।

ऊपर से अगर पार्टी पदाधिकारी उनके साथ सौतेला व्‍यवहार करते हैं और उन्‍हीं का नाम आगे बढ़ाते हैं जो या तो उनकी गणेश परिक्रमा करने में माहिर होते हैं या फिर पैसा खर्च करने में समर्थ, तो आम कार्यकर्ताओं को ठेस लगना स्‍वाभाविक है।

भारतीय जनता पार्टी को आज जो मुकाम हासिल है, उसके पीछे आम कार्यकर्ता की मेहनत, लगन, निष्‍ठा और समर्पण का भी बहुत बड़ा हाथ है इसलिए उसे किसी षड्यंत्र या सोची-समझी रणनीति के तहत चुनाव लड़ने के उसके अधिकार से वंचित करना तथा टिकट मांगने पर हतोत्‍साहित करना, आज नहीं तो कल पार्टी को भारी पड़ सकता है।

ये बात इसलिए और अहमियत रखती है कि पिछले दिनों जब पार्टी ने मथुरा-वृंदावन का मेयर पद ओबीसी (महिला) के लिए आरक्षित कर दिया था तब भी अधिकांश वही लोग हावी होने की कोशिश कर रहे थे जिन्‍हें सीधे तौर पर टिकट का हकदार नहीं माना जा सकता। इन लोगों में वो लोग प्रमुख थे जिनके पुत्रों ने इस श्रेणी की महिला से शादी की है या जिनकी अपनी पत्नी इस इस वर्ग के आरक्षण की श्रेणी में आती हैं।

नगर निगम बनने के बाद दलित के लिए आरक्षित योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन भूमि का पहला मेयर तो भाजपा के मुकेश आर्यबंधु को चुना गया लेकिन उनका कार्यकाल ऐसा नहीं रहा जिसमें कोई उल्‍लेखनीय उपलब्‍धि हासिल की गई हो और जनता उनके काम से संतुष्‍ट हो।

माना कि इस दौर में भाजपा के सभी प्रत्याशी मोदी और योगी पर चुनकर आते हैं किंतु फिर भी पब्‍लिक की अपने जनप्रतिनिधि से कुछ तो अपेक्षाएं होती ही हैं। इन अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए योग्य प्रत्‍याशियों का चयन जरूरी है।

पद चाहे मेयर का हो या पार्षद का, न तो आम जनता यह चाहती है कि उसके लिए प्रत्याशी उसके ऊपर थोप दिया जाए और न पार्टी कार्यकर्ता ऐसे प्रत्याशी को पसंद करते हैं। विकल्‍प के अभाव में जनता, तथा अनुशासन की डोर में बंधे होने के कारण कार्यकर्ता बुझे मन से भले ही टिकट पाने वाले प्रत्‍याशी का साथ देते नजर आएं लेकिन कहीं न कहीं उन्‍हें ये बात अखरती जरूर है।

हाल ही में सपन्‍न हुए हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के नतीजे इस बात का प्रमाण है कि असंतुष्‍ट एवं बागी भाजपा प्रत्‍याशियों ने किस तरह पार्टी के जबड़े से जीत छीन ली और वोट प्रतिशत में बहुत मामूली अंतर रहने के बावजूद भाजपा इतिहास बनाने से चूक गई।  

पार्टी के सूत्रों की मानें तो मथुरा-वृंदावन मात्र उदाहरण है अन्‍यथा पूरे प्रदेश में कमोबेश हालात एक जैसे हैं। सामान्य कार्यकर्ता तरसता रह जाता है और प्रभावशाली लोग अपने मोहरे फिट करने में सफल हो जाते हैं।

'मथुरा' के भाजपाइयों को तो इस मामले में यूं भी काफी कटु अनुभव है क्‍योंकि पिछले तीन लोकसभा चुनावों से यहां पार्टी किसी स्‍थानीय को न लड़ाकर, बाहरी प्रत्‍याशी को लड़ा रही है। 2009 में गठबंधन के चलते रालोद के जयंत चौधरी को टिकट दे दिया गया और 2014 तथा 2019 में हेमा मालिनी बाजी मार ले गईं। 2024 के लिए भी कोई स्‍थानीय चेहरा नहीं चमक रहा।

जो भी हो, समय रहते यदि पार्टी ने गंभीर होती इस समस्‍या पर ध्‍यान नहीं दिया और समर्पित भाजपा कार्यकर्ताओं की इसी तरह उपेक्षा की जाती रही तो निश्‍चित ही इसके परिणाम भविष्‍य में अच्‍छे नहीं निकलेंगे।

बेहतर होगा कि नगर निकाय के इन चुनावों में भी प्रत्‍याशियों का चयन योग्‍यता के आधार पर किया जाए, न कि चापलूसी या संबंधों के अधार पर। सीट आरक्षित हो या सामान्‍य, लेकिन जनसामान्‍य के दिलों में जगह बनाने वाले जनप्रतिनिधि ही बड़ी लकीर खींचने में सफल होंगे। वही पार्टी के लिए मुफीद होंगे और वही जनता के लिए। भाजपा के निर्णायक नेता इस पर कम से कम एकबार विचार करके जरूर देखें।

- लीजेण्‍ड न्‍यूज़  

सावधान: आगरा व मथुरा भी शामिल हैं भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील जोन 4 में

 देर रात भूकंप के झटकों से दिल्‍ली-एनसीआर में दहशत फैल गई। 9 नवंबर की रात करीब 1.57 बजे ये झटके लगे। राजधानी से लेकर नोएडागुड़गांवगाजियाबाद और यहां तक कि  मथुरा सहित अन्‍य तमाम इलाकों में भी झटके महसूस किए गए। रात को सर्द मौसम की वजह से बंद पंखे अचानक हिलने लगे। खिड़कियां कड़कड़ाने लगीं। फर्नीचर इधर-उधर होने लगा। सोशल मीडिया पर लोग झटकों के अनुभव बता रहे हैं। नेशनल सेंटर फॉर सीस्‍मोलॉजी (NCS) के अनुसार भूकंप का केंद्र नेपाल में था। अपने ट्वीट में NCS ने कहा कि भूकंप की गहराई जमीन से 10 किलोमीटर नीचे थी। भूकंप के झटके उत्‍तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ समेत कई जिलों में भी महसूस हुए। नेपाल में 8 नवंबर को 9.41 बजे और 8.52 पर भी भूकंप आया था। हालांकि इसकी तीव्रता 5 से कम थी।

इससे पहले 25 अप्रैल 2015 को आये भूकंप ने नेपाल में बर्बादी का जैसा मंजर दिखाया जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। और कल फिर जिस तरह लोगों को भी कांपने पर मजबूर कर दिया उसके बाद अब भारत में भी इस पर खासी चर्चा की जाने लगी है कि यदि कभी कोई तीव्रता का भूकंप भारत के उन क्षेत्रों में आया जो भूकंप के प्रति अति संवेदनशील जोन 4 में आता है तो स्‍थिति क्‍या होगी।

आगरा व मथुरा भी शामिल हैं भूकंप के प्रति अति संवेदनशील जोन 4 में

यहां यह जान लेना जरूरी है कि राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली और उसके आसपास का "ब्रज वसुंधरा" कहलाने वाला सारा क्षेत्र जिसमें मथुरा व आगरा भी शामिल हैं भूकंप के प्रति अति संवेदनशील जोन 4 में आता है।

दिल्‍ली से आगरा जहां करीब 200 किलोमीटर दूर है जबकि मथुरा 146 किलोमीटर की दूरी पर है। आगरा एक एतिहासिक शहर है और वहां ताजमहल सहित अनेक विश्‍व प्रसिद्ध इमारत हैं जबकि मथुरा को भगवान श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली का गौरव प्राप्‍त है। इन दोनों ही शहरों का पुराना रिहायशी इलाका न सिर्फ काफी घना है बल्‍कि इस इलाके में खड़ी तमाम इमारतें, दुकान तथा मकान जर्जर अवस्‍था को प्राप्‍त हो चुके हैं।

मथुरा में तो अंदर का एक बड़ा हिस्‍सा मिट्टी के टीलों पर बसा है और इस हिस्‍से में ढाई-ढाई, तीन-तीन सौ साल पुराने मकान भी देखे जा सकते हैं।

जाहिर है कि इन पुराने व जर्जर मकानों व इमारतों में इतनी सामर्थ्‍य शेष नहीं है कि वह किसी बड़े भूकंप को झेल सकें।

इन रिहायशी हिस्‍सों में शासन-प्रशासन भी कुछ कर पाने में असमर्थ है किंतु यदि बात करें आगरा और मथुरा के उस बाहरी हिस्‍से की जो तरक्‍की की दौड़ में शामिल होकर बहुमंजिला इमारतों से तो भरता जा रहा है किंतु उनके भी निर्माण में भूकंपरोधी तकनीक का इस्‍तेमाल नहीं किया जा रहा। हां, उसका प्रचार करके लोगों को गुमराह अवश्‍य किया जा रहा है।

क्या आगरा और मथुरा के नव निर्माण में अपनाई जा रही है भूकंपरोधी तकनीक?

अब सवाल यह खड़ा होता है कि आखिर कैसे बनती है कोई इमारत भूकंपरोधी, क्‍या कहता है इस बारे में हमारा कानून और सच्‍चाई के धरातल पर हो क्‍या रहा है?

इन सब बातों के जवाब जानने के लिए ''लीजेण्‍ड न्‍यूज़'' ने जब विशेषज्ञों से बात की तो चौंकाने वाले तथ्‍य सामने आये।

क्या होती है भूकंपरोधी तकनीक और कैसे किसी इमारत को बनाया जाता है भूकंपरोधी

किसी बिल्‍डिंग को भूकंपरोधी बनाने लिए सबसे जरूरी है सॉइल टेस्टिंग रिपोर्ट। यह रिपोर्ट बताती है कि उस जगह की मिट्टी में बिल्डिंग का कितना वजन सहन करने की क्षमता है। इलाके की मिट्टी की क्षमता के आधार पर ही बिल्डिंग में मंजिलों की संख्या तय की जाती है और डिजाइन तैयार किया जाता है। तकनीकी शब्दों में इसे सॉइल की 'बियरिंग कैपेसिटीकहा जा सकता है। इस रिपोर्ट से ही यह पता चलता है कि नेचुरल ग्राउंड लेवल के नीचे कितनी गहराई तक जाकर भूकंप के प्रति बियरिंग कैपेसिटी मिल सकती है। मान लीजिए यदि रिपोर्ट बताती है कि हमें तीन मीटर नीचे जाकर बियरिंग कैपेसिटी मिलेगी, तो यहां से स्ट्रक्चरल इंजीनियर का काम शुरू होता है। वह रिपोर्ट के आधार पर वहां डेढ़ बाई डेढ़ मीटर की फाउंडेशन तैयार करेगा। इसके बाद स्ट्रक्चरल इंजीनियर का काम बिल्डिंग का डिजाइन तैयार करना होता है। आजकल भूकंपरोधी मकान बनाने के लिए लोड बियरिंग स्ट्रक्चर की बजाय फ्रेम स्ट्रक्चर बनाए जाते हैंजिनसे पूरी बिल्डिंग कॉलम पर खड़ी हो जाती है। कॉलम को जमीन के नीचे दो-ढाई मीटर तक लगाया जाता है। फ्लोर लेवललिंटेल लेवलसेमी परमानेंट लेवल (टॉप) और साइड लेवल (दरवाजे-खिड़कियों के साइड) में बैंड (बीम) डालने जरूरी होते हैं।

कौन करेगा जांच

- मिट्टी की जांच की जिम्मेदारी सेमी गवर्नमेंट और कई प्राइवेट एजेंसी संभालती हैं। इसके लिए इंश्योरेंस सर्वेयर्स की तरह इंडिपेंडेंट सर्वेयर भी होते हैं।

- इसके लिए वे बाकायदा एक निर्धारित फीस चार्ज करते हैं।

- जांच के बाद एक सर्टिफिकेट जारी किया जाता है।

क्या पता चलेगा

- मिट्टी प्रति स्क्वेयर सेंटीमीटर कितना लोड झेल सकती है?

- यह जगह कंस्ट्रक्शन के लिए ठीक है या नहीं?

- इलाके में वॉटर लेवल कितना है?

- वॉटर लेवल और बियरिंग कैपेसिटी का सही अनुपात क्या है?

- मिट्टी हार्ड है या सॉफ्ट?

कितना आएगा खर्च

90 गज के प्लॉट के लिए करीब 25 हजार रुपये।

बिल्डिंग के लिए जिम्मेदारी

- टेस्टिंग के बाद सर्वेयर और बिल्डिंग डिजाइन करने के बाद स्ट्रक्चरल इंजीनियर एक सर्टिफिकेट जारी करता हैं। बिल्डिंग को कोई नुकसान पहुंचने पर इसकी भी जवाबदेही तय की जा सकती है।

क्या है सेफ

- कॉलम में सरिया कम-से-कम 12 मिमी. मोटाई वाला हो।

- फाउंडेंशन कम-से-कम 900 बाई 900 की हो।

- लिंटेल बीम (दरवाजों के ऊपर) में कम-से-कम 12 मिमी मोटाई का स्टील इस्तेमाल किया जाए।

- पुटिंग में कम-से-कम 10-12 मिमी. मोटाई वाले स्टील का प्रयोग हो।

- स्टील की मोटाई कंक्रीट की थिकनेस के आधार पर कम या ज्यादा की जा सकती है।

- स्टील की क्वॉलिटी बेहतर होनी चाहिएज्यादा इलास्टिसिटी वाले स्टील से बिल्डिंग को मजबूती मिलती है।

तैयार मकान

अगर आप प्लॉट पर अपना मकान बनवाने की बजाय पहले से ही तैयार कोई मकान लेने जा रहे हैंतो उसकी जांच करने के लिए आपके पास विकल्प सीमित हो जाते हैं। इसके लिए ठीक ब्लड टेस्ट की तरह थोड़े-थोड़े सैंपल लेकर जांच की जा सकती हैलेकिन यह काम भी कोई आम आदमी नहीं कर सकता। इसके लिए किसी स्ट्रक्चरल इंजीनियर की सर्विस लेनी पड़ती है। उदाहरण के लिएतैयार मकान के कॉलम को किसी जगह से छीलकर सरिये की मोटाई और संख्या का पता लगाया जा सकता है। इसके लिए खास मशीन भी आती हैजो एक्स-रे की तरह कॉलम को नुकसान पहुंचाए बिना सरिये की स्थिति बता देती है। इसी तरहप्लिंथ (फ्लोर) लेवल पर कंक्रीट की थिकनेस और एरिया देखकर उसका मिलान मिट्टी की बियरिंग कैपेसिटी से कर सकते हैं। अगर कोई कमी पाई जाती है और लगता है कि मकान भूकंप नहीं सह सकता तो अतिरिक्त कॉलम खड़े करके उसे मजबूत बनाया जा सकता है। वैसे कंस्ट्रक्शन मटीरियल की जांच भी कुछ राहत दे सकती है।

मटीरियल की जांच

जमीन की मिट्टी ठीक होना ही बिल्डिंग की सुरक्षा के लिए काफी नहीं हैजरूरी है कि बिल्डिंग को तैयार करने में क्वॉलिटी मटीरियल भी लगाया गया हो। इस मटीरियल में कंक्रीटसीमेंटईंटसरिया आदि शामिल होता है। मटीरियल के ठीक होने या नहीं होने के संबंध में ज्यादातर संतुष्टि केवल डेवलपर के ट्रैक रिकॉर्ड और उसकी साख को देखकर ही की जाती है। फिर भी कुछ हद तक सावधानी बरती जा सकती है।

बिल्डिंग मटीरियल टेस्टिंग

- किसी प्रोफेशनल एजेंसी से भी बिल्डिंग मटीरियल की टेस्टिंग कराई जा सकती है।

- ये एजेंसियां पूरी बिल्डिंग या आपकी इच्छानुसार किसी खास हिस्से के मटीरियल की टेस्टिंग करेंगी।

- अलग-अलग तरह की जांच के लिए अलग-अलग फीस ली जाती है।

- जांच के बाद 10-15 दिनों में रिपोर्ट मिल जाती है।

प्रोफेशनल सर्टिफिकेट

- आरसीसी फ्रेमवर्क के तहत आने वाली चीजों की जांच किसी प्रोफेशनल से कराई जा सकती है।

- इस फ्रेमवर्क के अंतर्गत पिलरनींवस्लैब्स आदि आते हैं।

- प्रोफेशनल के रूप में स्ट्रक्चरल इंजीनियर से सटिर्फिकेट लिया जा सकता है।

साइट विजिट

- अंडर कंस्ट्रक्शन प्रॉपर्टी में फ्लैट बुक कराया है तो साइट विजिट जरूर करें।

- वहां मौजूद एक्सपर्ट/प्रोजेक्ट इंचार्ज से मटीरियल की जानकारी लें।

- आम आदमी को भी मौके पर रखे सामान को देखकर क्वॉलिटी का अंदाजा हो जाता है।

थर्ड पार्टी क्वॉलिटी चेक

- इस प्रक्रिया के अंतर्गत बिल्डर मिट्टी समेत सभी मटीरियल की क्वॉलिटी चेक कराता है।

- यह जांच प्राइवेट एजेंसियां निर्धारित मानकों के आधार पर करती हैंजिन्हें मानना बिल्डर के लिए जरूरी होता है।

- सभी चीजों की जांच के बाद सर्टिफिकेट दिए जाते हैंजिन्हें एक बार जरूर देख लेना चाहिए।

मल्टी स्टोरी फ्लैट

मल्टी स्टोरी फ्लैट भूकंपरोधी हैं या नहींयह जांच करने के ज्यादा मौके आपके पास नहीं होते। इसके लिए बिल्डर पर भरोसा कर लेना ही आमतौर पर उपलब्ध विकल्प होता है। एक्सपर्ट्स के अनुसारकिसी भी फ्लैट में इंडिविजुअल रूप से यह नहीं जांचा जा सकता कि वह भूकंपरोधी है या नहींइसके लिए पूरी बिल्डिंग की ही टेस्टिंग की जाती है। हांडेवलपर से बिल्डिंग और फ्लैट का स्ट्रक्चरल डिजाइन मांगकर उसे किसी एक्सपर्ट से चेक कराया जा सकता है।

क्या है स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग

स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग सिविल इंजीनियरिंग का एक हिस्सा है। इसके अंतर्गत किसी बिल्डिंगब्रिजडैम या किसी अन्य निर्माण का स्ट्रक्चर और कंस्ट्रक्शन का कार्य आता है। बिल्डिंग के स्ट्रक्चर को डिजाइन करते समय बिल्डिंग कैसे खड़ी होगी और इस पर कितना लोड आयेगाइसका आंकलन सबसे पहले किया जाता है। बिल्डिंग कितने लोगों के लिए तैयार की जा रही हैयह बिल्डिंग कॉमर्शियल होगी या रेजीडेंशियलजमीन किस तरह की हैमिट्टी की क्षमता कितनी हैउस स्थान पर भूकंपबाढ़ व अन्य प्राकृतिक आपदाओं का कितना डर है आदि बातों को ध्यान में रखकर बिल्डिंग का डिजाइन तैयार किया जाता है। यह सारा कार्य स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग के अंतर्गत आता है। इसके अंतर्गत कॉलमबीमफ्लोरस्लैब आदि की मोटाई जैसे मुद्दों पर भी गंभीर रूप से ध्यान दिया जाता है। स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड और इंडियन बिल्डिंग कोड के मानकों का ध्यान रखा जाता हैजिससे मकान या बिल्डिंग सालों-साल सुरक्षित रहते हैं।

स्ट्रक्चरल इंजीनियर और सावधानियां

- घर या बिल्डिंग बनवाने से पहले ही नहींफ्लैट खरीदते वक्त भी स्ट्रक्चरल इंजीनियर से सलाह लें।

- यह सलाह ड्रॉइंग डिटेल बनवाने तक ही सीमित न रहे। उस डिटेल पर पूरी तरह अमल भी करें।

- घर बनवाते वक्त/साइट पर स्ट्रक्चरल इंजीनियर से यह चेक करवाते रहें कि निर्माण सही हो रहा है या नहीं?

- आर्किटेक्ट और स्ट्रक्चरल इंजीनियर का आपसी मेल-जोल होना भी बहुत जरूरी है।

- अगर खुद घर बनवा रहे हैं तो कंस्ट्रक्शन पर आने वाली कुल लागत का अनुमान लगाना आसान हो जाता है।

गौरतलब है कि समय के अभाव और रेडीमेड के चलन ने मकानों का निर्माण खुद कराने की परंपरा को लगभग समाप्‍त सा कर दिया है। अधिकांश लोग निजी बिल्‍डर या डेवलेपमेंट अथॉरिटी द्वारा निर्मित कॉलोनियों में मकान खरीदने को प्राथमिकता देते हैं। निजी बिल्‍डर को अपनी कॉलोनी का डेवलेपमेंट अथॉरिटी से अप्रूवल लेने के लिए न सिर्फ सभी जरूरी कानूनी औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं बल्‍कि इसके लिए भारी-भरकम रकम भी देनी पड़ती है।

क्‍या कहते हैं बिल्‍डर

इस बारे में बिल्‍डर्स का कहना है कि यदि वह किसी प्रोजेक्‍ट का नियमानुसार अप्रूवल लेना चाहें तो कभी प्रोजेक्‍ट खड़ा ही नहीं कर सकते। फिर भूकंपरोधी इमारत बनाने के मामले में तो अप्रूवल के बाद भी गुणवत्‍ता को चेक करने का प्रावधान शामिल है।

उनका कहना है कि किसी इमारत को भूकंपरोधी बनाने के लिए सबसे अहम् और बेसिक चीज सॉइल टेस्टिंग रिपोर्ट की बात करें तो उसी पर कोई खरा नहीं उतरेगा।

शायद ही कोई बिल्‍डर हो जिसने अप्रूवल से पूर्व डेवलेपमेंट अथॉरिटी को नियमानुसार सॉइल टेस्टिंग रिपोर्ट दी हो जबकि अप्रूवल सबको दे दिया जाता है क्‍योंकि वहां अप्रूवल के लिए सॉइल टेस्टिंग रिपोर्ट की नहींकदम-कदम पर मोटे सुविधा शुल्‍क की दरकार होती है।

बिल्‍डर्स के कथन की पुष्‍टि इस बात से भी होती है कि अनेक प्रयास करने के बावजूद आज तक विकास प्राधिकरण का कोई अधिकारी इस मामले में मुंह खोलने को तैयार नहीं हुआ।

रही बात निर्माण कार्य शुरू हो जाने के बाद प्राधिकरण के अधिकारियों तथा तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा चेक करने की, तो उसका सवाल ही पैदा नहीं होता। पैदा होती है तो केवल हर सुविधा देने की कीमत जिसे वह इमारत के निर्माण की गति बढ़ने के साथ वसूलते रहते हैं।

विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जनपद मथुरा और उसके उपनगर वृंदावन में इन दिनों तमाम मल्‍टी स्‍टोरी बिल्‍डिंग्‍स का निर्माण कार्य जोरों पर है। इनमें 3 मंजिला से लेकर 14 मंजिला इमारत तक शामिल हैं।

इन बहुमंजिला इमारतों को बनाने की इजाजत किस स्‍तर से और किस तरह दी गई हैयह जानकारी देने वाला भी कोई नहीं। अलबत्‍ता यह बात जरूर कही जा रही है कि मथुरा में 4 मंजिल से अधिक ऊंची इमारत को बनाने की परमीशन देने का अधिकार स्‍थानीय अधिकारियों के पास नहीं है।

निर्माणाधीन इन तमाम हाइट्स में से कई तो भर्त की जमीन पर खड़ी की जा रही हैं यानि जहां ये बन रही हैं, वह जगह पहले गड्ढे के रूप में थी जिसे बाद में मिट्टी भरवाकर समतल किया गया है जबकि इस तरह की जगह पर मल्‍टी स्‍टोरी बनाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। सामान्‍य मकान बनाने से पहले भी भर्त करने की एक जटिल प्रक्रिया अपनाने के बाद ऐसी जगह के लिए परमीशन दी जाती है।

इन हालातों में ब्रज वसुंधरा पर जगह-जगह बन रहीं मौत की ये हाइट्स जमीन के अंदर होने वाली जरा सी हलचल से कैसे ताश के पत्‍तों की तरह ढह जायेंगीइसका अंदाज लगाना बहुत कठिन नहीं है है। तब इन ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं और उनमें रहने वालों का हाल क्‍या होगाइसका भी अंदाज बखूबी लगाया जा सकता है... लेकिन अभी तो सब उसी तरह आंखें बंद किये बैठे हैं जैसे बिल्‍ली द्वारा देख लिए जाने पर भी कबूतर इस झूठी उम्‍मीद में अपनी आंखें बंद कर लेता है कि उसके ऐसा कर लेने से शायद मौत टल जायेगी।

कबूतर फिर भी बेवश होता है लेकिन यहां तो सब-कुछ जानते हुए लोग मौत को खुला निमंत्रण दे रहे हैं जो एक प्रकार से आत्‍महत्‍या का प्रयास ही है। भ्रष्‍टाचार की रेत और गारे पर टिकी इन तमाम हाइट्स को मौत की हाइट्स में तब्‍दील होते उतनी भी देर नहीं लगेगी जितनी कि पलक झपकने में लगती है लेकिन फिलहाल तो तरक्‍की का पैमाना बन चुकी इन हाइट्स की बुनियाद में झांकने का वक्‍त किसी के पास नहीं।

-लीजेण्ड न्यूज़ विशेष 

सोमवार, 7 नवंबर 2022

होटल अग्निकांड: क्या ''बसेरा ग्रुप'' के मालिक को बचाव का मौका दे रही है मथुरा पुलिस?

 क्या "बसेरा ग्रुप" के मालिक रामकिशन अग्रवाल को मथुरा पुलिस बचाव का मौका दे रही है? 


यह सवाल इसलिए खड़ा होता है कि बसेरा ग्रुप के वृंदावन स्‍थित होटल 'वृंदावन गार्डन' में हुए अग्निकांड को आज पांचवां दिन है, लेकिन अब तक इसके जिम्‍मेदार किसी आरोपी की गिरफ्तारी पुलिस नहीं कर सकी है जबकि इस अग्निकांड ने होटल के ही दो कर्मचारियों की जान ले ली और एक की हालत गंभीर है। 
यह सवाल इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि दुर्घटना वाले दिन पहले तो वृंदावन पुलिस ने FIR में ही लीपापोती करने का प्रयास किया और 'नामजदगी' की जगह 'स्‍वामी प्रबंधक' होटल 'वृंदावन गार्डन' लिखकर सबको गुमराह करने की कोशिश की किंतु 'लीजेण्‍ड न्यूज' ने जब पुलिस की इस 'कारस्तानी' को 'हाईलाइट' किया तब अगले दिन बसेरा ग्रुप ऑफ होटल के मालिक रामकिशन अग्रवाल, प्रबंधक ऋषि कुंतल तथा एक अन्‍य कर्मचारी सतीश पाठक को नामजद किया। 
अग्निशमन अधिकारी की ओर से आईपीसी की धारा 304 और 308 के तहत दर्ज कराए गए इस मामले में 'नामजदगी' के बावजूद पांचवें दिन तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है। 
पुलिस दे रही है मौका 
बताया जा रहा है कि जिले की पुलिस ही नहीं, प्रशासन को भी विभिन्न माध्‍यमों से ऑब्‍लाइज करने वाला बसेरा ग्रुप का मालिक रामकिशन अग्रवाल लखनऊ तक पहुंच रखता है और इसीलिए पुलिस उस पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं कर रही। 
सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार सत्ता के गलियारों तक पैठ बना चुका रामकिशन अग्रवाल तीन स्‍तर पर अपने बचाव की कोशिश में लगा है। उसकी पहली कोशिश तो यह है कि पुलिस की तफ्तीश में ही उसे क्लीन चिट मिल जाए और वह साफ बच निकले। रामकिशन अग्रवाल की दूसरी कोशिश है कि हाई कोर्ट से उसे अरेस्‍ट स्‍टे या अग्रिम जमानत प्राप्‍त हो जाए। 
यदि इनमें से कुछ भी संभव नहीं होता तो रामकिशन अग्रवाल राजनीतिक प्रभाव से इस मामले की जांच सीबीसीआईडी के हवाले कराना चाहता है जिससे एक ओर गिरफ्तारी की आशंका से मुक्‍ति मिले तथा दूसरी ओर मामला ठंडे बस्‍ते के हवाले हो जाए क्योंकि सीबीसीआईडी की जांच ऐसे लोगों के लिए बहुत मुफीद साबित होती है, साथ ही उसकी जांच का तरीका किसी केस की गर्मी को शांत करने का पूरा मौका उपलब्‍ध कराता है। 
खबर के साथ लगा वर्ष 2014 का फोटो यह बताने के लिए काफी है कि रामकिशन अग्रवाल की सत्ता में पहुंच कब से तथा किस स्‍तर तक है। इस फोटो में वह किसी कार्यक्रम के दौरान यूपी के तत्‍कालीन राज्यपाल राम नाइक जी को गाय की प्रतिमा भेंट करते दिखाई दे रहा है। 
यूं भी किसी इतने बड़े कारोबारी से, जिससे पुलिस-प्रशासन समय-समय पर ऑब्‍लाइज होता रहता हो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना उसके लिए आसान नहीं होता। कारोबारी भी ऐसा, जिसकी सत्ताधारी पार्टी में ऊपर तक पहुंच हो। 
ये भी पता लगा है कि इस बीच पुलिस प्रशासन को इस आशय का संदेश भिजवाया गया है कि अग्निकांड की चपेट में आए होटल कर्मचारियों ने चूंकि शराब का सेवन कर रखा था इसलिए वो अपना बचाव नहीं कर सके। यानी आग का शिकार होने के लिए किसी हद तक वो भी जिम्‍मेदार थे। हालांकि जांच अधिकारी के गले यह बात कितनी उतरती है और क्या पोस्‍टमार्टम रिपोर्ट से ऐसी किसी बात की पुष्‍टि हुई है, इसका पता लगना बाकी है। 
बहरहाल, इतना तो साफ है कि लखनऊ के 'लेवाना' होटल में हुए अग्‍निकांड की तरह कृष्‍ण की नगरी में हुए इस अग्‍निकांड को न तो पुलिस उतनी गंभीरता से ले रही है और न प्रशासन अथवा राज्य सरकार। 
यही कारण है कि बिना एनओसी के चल रहे इस होटल में दो कर्मचारियों की मौत का करण बने अग्‍निकांड की बमुश्‍किल एफआईआर दर्ज किए जाने के अतिरिक्‍त अब तक कोई एक्शन नहीं लिया गया। न तो मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण के किसी अधिकारी अथवा कर्मचारी से पूछताछ हुई और न किसी को बिना एनओसी होटल का नक्शा पास करने का जिम्‍मेदार ठहराया गया। 
बस यही फर्क है प्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक होटल में हुए अग्निकांड में और मथुरा के वृंदावन स्‍थित होटल के अग्‍निकांड में। वहां न केवल 15 अधिकारी तत्‍काल निलंबित कर दिए गए बल्‍कि 19 अधिकारियों के ख़िलाफ़ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए जिनमें कुछ रिटायर अधिकारी भी शामिल हैं। 
सीएम योगी आदित्‍यनाथ ने लखनऊ मंडल के पुलिस आयुक्त से जांच कराई। इस जांच रिपोर्ट में फायर ब्रिगेड, ऊर्जा विभाग, नियुक्ति विभाग, आवास और शहरी विकास विभाग सहित आबकारी विभाग के कई अधिकारियों की अनियमितता व लापरवाही पाई गई। 
जांच में पाया गया कि होटल 'लेवाना' को अवैध रूप से बनाया गया था। जिसके लिए लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा 22 इंजीनियरों और जोनल अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की संस्‍तुति की गई लेकिन वृंदावन में दो मौतों के बाद भी किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही। आखिर लखनऊ, लखनऊ है। प्रदेश की राजधानी है। और मथुरा-वृंदावन एक अदना सा जिला। इसकी बराबरी प्रदेश की राजधानी से कैसे संभव है, चाहे मौत के मामले समान रूप से दुखदायी क्यों न माने जाते हों। 
-Legend News 

वृंदावन गार्डन अग्निकांड में FIR तो दर्ज हुई लेकिन आरोपियों के नाम नदारद, इसे कहते हैं प्रभाव


 उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश की प्रमुख धार्मिक नगरी मथुरा के वृंदावन धाम स्‍थित जिस होटल 'वृंदावन गार्डन' में कल सुबह भयंकर अग्निकांड हुआ और जिसमें होटल के दो कर्मचारियों ने अपनी जान गंवा दी तथा एक गंभीर रूप से झुलस गया उस होटल के मालिक या प्रबंधक का नाम तक न तो FIR दर्ज कराने वाले अग्निशमन अधिकारी जानते हैं और न स्‍थानीय पुलिस को पता है जबकि वो एक नामचीन बिल्डर है, साथ ही उसके वृंदावन में ही तीन होटल हैं। 

बसेरा ग्रुप के ये होटल 'बसेरा', 'बसेरा ब्रजभूमि' और होटल 'वृंदावन गार्डन' के नाम से संचालित हैं। इनमें से एक फोगला आश्रम के पास, दूसरा अटल्‍ला चुंगी पर तथा तीसरा रामकृष्‍ण मिशन हॉस्‍पिटल के सामने स्‍थित है। 
इसी प्रकार इन्‍होंने वृंदावन में ही कई कॉलोनियां डेवलप की हैं जिनमें से प्रमुख हैं 'बसेरा वैकुंठ', 'हरेकृष्‍णा धाम' और 'गौधूलि पुरम'। इसके अलावा इनके फॉर्म हाउस तथा कोल्ड स्‍टोरेज भी हैं, लेकिन इतना सब होने के बावजूद अग्निशमन विभाग और वृंदावन पुलिस के अधिकारी इनके मालिक का नाम नहीं जानते। है न भद्दा मजाक? 
सबकी आंखों में धूल झोंक कर दो लोगों की मौत के जिम्‍मेदारों को बचाने के इस शर्मनाक कृत्‍य का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि कल FIR दर्ज कराने वाले अग्निशमन विभाग ने ही 08 सितंबर 22 को 'अग्नि सुरक्षा' की दृष्‍टि से होटल 'वृंदावन गार्डन' का परीक्षण कर उसमें 6 खामियां पाई थीं और उन्‍हें 30 दिन के अंदर दूर करने का नोटिस दिया था लेकिन तब भी इन्‍होंने मालिक का नाम जानने की आवश्‍यकता तक नहीं समझी।     
जी हां, होटल वृंदावन गार्डन में कल सुबह हुए अग्निकांड की FIR तो कल देर शाम 7 बजकर 23 मिनट पर थाना कोतवाली वृंदावन में दर्ज कर ली गई किंतु इस FIR में आरोपियों की जगह 'स्‍वामी प्रबंधक' होटल 'वृंदावन गार्डन' लिखा गया है। मतलब जिस व्‍यक्ति को मथुरा-वृंदावन का बच्‍चा-बच्‍चा जानता है, उसे मथुरा के अग्निशमन अधिकारी और वृंदावन के कोतवाल नहीं जानते। 
आईपीसी की धारा 304 और 308 के तहत दर्ज इस अग्निकांड की जांच पुलिस इंस्‍पेक्‍टर ज्ञानेन्‍द्र सिंह सोलंकी को सौंपी गई है। 
आखिर क्यों दर्ज नहीं किए गए FIR में आरोपियों के नाम? 
ऐसे में हर व्‍यक्‍ति के मन में यह सवाल उठना स्‍वाभाविक है कि आखिर FIR में आरोपियों की नामजदगी क्यों नहीं की गई? 
इसका सीधा सा उत्तर है कि इसे ही "प्रभाव" कहते हैं। यही होता है अफसरों को समय-समय पर ऑब्‍लाइज करने का प्रतिफल। पुलिस से पूछिए तो कहेगी कि जांच के दौरान या जांच के बाद आरोपियों के नाम जोड़े जा सकते हैं, किंतु उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं हो सकता कि जिसके नाम और काम से सब परिचित हैं, उससे वह कैसे अनजान हैं। 
जाहिर है कि FIR दर्ज कराने वाले और करने वाले दोनों अधिकारियों की यह मासूमियत उच्‍च अधिकारियों के आदेश-नर्देश पर निर्भर है। अधिकारी चाहते तो यह संभव ही नहीं था कि आरोपियों के नाम इस तरह नदारद कर दिए जाते। पुलिस की एफआईआर से तो यह भी स्‍पष्‍ट नहीं है कि स्‍वामी और प्रबंधक अलग-अलग हैं या दोनों को एक ही मान लिया गया है। 
कानून के जानकारों की मानें तो यह सारा खेल एक गंभीर अपराध के जिम्‍मेदारों को अपने बचाव का पूरा मौका देने और जांच में लीपापोती करने की गुंजाइश रखने के लिए खेला गया है। 
कुछ भी कहें सीएम योगी, लेकिन हकीकत यही है 
प्रदेश के सीएम योगी कुछ भी कहें और कितनी ही सख्‍ती बरतने के आदेश-निर्देश देते रहें किंतु कड़वा सच यही है। तभी तो कहीं गैंगरेप के मामले में सीओ स्‍तर का  कोई अधिकारी 5 लाख रुपए की रिश्‍वत मांगता है और कहीं भ्रष्‍टाचार के पर्याय लोकनिर्माण विभाग के अधिकारी अपनी मनमानी करने से बाज नहीं आते। 
बेशक संज्ञान में आने पर शासन स्‍तर से ऐसे एक-दो लोगों के खिलाफ कभी-कभी कार्रवाई की जाती है परंतु उन अधिकारी एवं कर्मचारियों की संख्‍या काफी अधिक है जो साफ बच निकलते हैं। 
लखनऊ के होटल लेवाना में सरकार की नाक के नीचे आग लगती है तो उसके अवैध निर्माण का भी तुरंत पता लग जाता है और जिम्‍मेदारों के खिलाफ कार्रवाई भी तत्‍काल हो जाती है लेकिन वृंदावन के होटल में आग लगती है तो पुलिस होटल मालिक का नाम तक पता करना जरूरी नहीं समझती। 
इन हालातों में ऐसी कोई उम्‍मीद करना कि मथुरा-वृंदावन सहित प्रदेश भर के तमाम जिलों में बने अवैध होटल, गेस्‍ट हाउस, हॉस्‍पिटल या शॉपिंग कॉम्‍प्‍लेक्‍स के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार 'विकास प्राधिकरण' के अधिकारियों पर कभी कोई सख्‍त कार्रवाई होगी, हसीन सपने देखने जैसा है। 
यही कारण है कि प्रदेश का कोई जिला, कोई कस्‍बा, कोई तहसील ऐसी नहीं होगी जहां अवैध निर्माण न हो और जहां नियम-कानून को ताक पर रखकर खड़ी की गई इमारतें मौत के मंजर पेश करने की वजह न बनें। 
कल लखनऊ का लेवाना बना था, तो आज वृंदावन का वृंदावन गार्डन। लेकिन दावे के साथ कहा जा सकता है कि यह सिलसिला यहीं थमने वाला नहीं, क्‍योंकि जब लखनऊ में अवैध निर्माण संभव है तो मथुरा-वृंदावन जैसे जिलों की अहमियत ही कितनी है। 
बेनामी एफआईआर के आधार पर आरोपियों को गिरफ्तारी की आस लगाना, खुद को धोखे में रखने के अलावा कुछ नहीं। हो सकता है होटल वृंदावन गार्डन का मालिक किसी अधिकारी के पास बैठा दिखाई दे और अधिकारी कहे कि मैं तो उन्‍हें पहचानता ही नहीं था। यह होटल तो किसी और के नाम है, ग्रुप इनका है तो क्या? 
-Legend News 

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ये आग कब बुझेगी: 'लेवाना' के बाद अब मथुरा के होटल 'वृंदावन गार्डन' में लगी आग, 2 कर्मचारियों की मौत और 3 गंभीर रूप से झुलसे

 

अभी दो महीने ही बीते हैं जब प्रदेश की राजधानी लखनऊ के हजरतगंज स्‍थित 30 कमरों वाले होटल 'लेवाना' में आग लगने से 4 लोगों की मौत हो गई थी जबकि कई घायल हुए थे। उत्तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ और लखनऊ से सांसद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इस अग्‍निकांड को गंभीरता से लिया था जिस कारण न केवल 15 अधिकारी तत्‍काल निलंबित कर दिए गए बल्‍कि 19 अधिकारियों के ख़िलाफ़ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए जिनमें कुछ रिटायर अधिकारी भी शामिल हैं। 

सीएम योगी ने लखनऊ मंडल के पुलिस आयुक्त से जांच कराई। इस जांच रिपोर्ट में फायर ब्रिगेड, ऊर्जा विभाग, नियुक्ति विभाग, आवास और शहरी विकास विभाग सहित आबकारी विभाग के कई अधिकारियों की अनियमितता व लापरवाही पाई गई। 
इसके अलावा जांच में पाया गया कि होटल 'लेवाना' को अवैध रूप से बनाया गया था। जिसके लिए लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा 22 इंजीनियरों और जोनल अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की संस्‍तुति की गई। 
एलडीए ने हजरतगंज थाने में बंसल कंस्ट्रक्शन के मुकेश जसनानी और उनके सहयोगियों के खिलाफ आवासीय भूखंड पर होटल चलाने के लिए एफआईआर भी दर्ज कराई। पुलिस ने भी इस मामले में अपनी तरफ से एक मुकद्दमा दर्ज किया। 
इतना सब-कुछ किए जाने के बावजूद सारा सिस्‍टम किस तरह उसी ढर्रे पर चल रहा है, इसका उदाहरण आज तब देखने को मिला जब कृष्‍ण की लीला स्‍थली वृंदावन (मथुरा) के होटल वृंदावन गार्डन में सुबह के समय आग लगने से दो कर्मचारियों उमेश तथा बीरी सिंह की मौत हो गई और तीन झुलस गए जिनमें से एक 45 वर्षीय बिजेन्द्र की हालत गंभीर बताई जाती है लिहाजा उसे आगरा रैफर किया गया है। 
क्या अवैध है होटल 'वृंदावन गार्डन'?
जिस तरह लखनऊ के होटल 'लेवाना' में अग्‍निकांड के बाद पता लगा कि उसका निर्माण ही अवैध था, उसी तरह अब पता लग रहा है कि मथुरा का यह होटल भी अवैध रूप से बना है और मथुरा-वृंदावन विकास प्राधिकरण से इसका नक्शा एक मैरिज होम के तौर पर पास है। हालांकि हमेशा की तरह फिलहाल इसकी पुष्‍टि करने वाला कोई नहीं है क्‍योंकि होटल मालिक रामकिशन अग्रवाल काफी प्रभावशाली व्‍यक्‍ति है और इसके अलावा भी वह कई होटलों का मालिक है जो बसेरा ग्रुप के तहत संचालित हैं। 

अग्‍निशमन विभाग ने दे रखा है नोटिस 
 विकास प्राधिकरण की चुप्‍पी के बीच इतनी जानकारी जरूर सामने आई है कि अग्‍निशमन विभाग कोसीकलां के प्रभारी जसराम सिंह ने ''होटल वृंदावन गार्डन'' वृंदावन का 8 सितंबर 2022 को सुरक्षा की दृष्‍टि से निरीक्षण किया था और इस दौरान उन्‍होंने होटल में तमाम खामियां पाईं। 
उन्‍होंने इसी दिन होटल के स्‍वामी/प्रबंधक को एक नोटिस जारी कर उत्तर प्रदेश फायर सर्विस अधिनियम 1944 की धारा 1 व 2 के अंतर्गत जनहित में सभी कमियां 30 दिन के अंदर दूर कराने को कहा था लेकिन होटल स्‍वामी/प्रबंधक के कानों पर जूं नहीं रेंगी, जिसके परिणाम स्‍वरूप दो कर्मचारियों को जान से हाथ धोना पड़ा और तीन अपनी जिंदगी के लिए लड़ रहे हैं। 
अग्‍निशमन विभाग कोसीकलां के प्रभारी द्वारा जारी नोटिस से स्‍पष्‍ट है कि होटल वृंदावन गार्डन में अग्‍निसुरक्षा के नाम पर कुछ नहीं था, बावजूद इसके वो नोटिस देने के अतिरिक्‍त कुछ और कर भी नहीं सकते थे। 
अग्‍निशमन विभाग की मानें तो उसके पास इससे अधिक कोई अधिकार हैं ही नहीं। वो नोटिस-नोटिस खेलने के बाद ज्‍यादा से ज्‍यादा 'कोर्ट' मूव कर सकते हैं किंतु सीधे कोई कार्रवाई नहीं कर सकते।  
सड़क पर कराई जाती है 'पार्किंग' 
मथुरा-वृंदावन रोड पर स्‍वामी रामकृष्‍ण मिशन हॉस्‍पिटल के सामने बने होटल वृंदावन गार्डन द्वारा भी मथुरा जनपद के अन्‍य अनेक होटलों की तरह पार्किंग के लिए सड़क को इस्‍तेमाल किया जाता है जबकि होटल में 5-7 नहीं करीब 25 कमरे हैं और प्रदेश ही नहीं, देश का प्रमुख धार्मिक स्‍थल होने के कारण यहां के सभी कमरे शायद ही कभी खाली रहते हों। 
आश्‍चर्य की बात यह है कि सीएम योगी समेत प्रदेश के अन्‍य बहुत से मंत्री तथा उच्‍च अधिकारियों का वृंदावन आना-जाना अक्‍सर लगा रहता है और उनकी यहां के विकास पर भी निगाहें केंद्रित हैं, बावजूद इसके सरकारी मशीनरी है कि सुधरने का नाम नहीं लेती। 
ऑब्‍लाइज रहते हैं अधिकांश अधिकारी 
होटल, मैरिज होम, गेस्‍ट हाउस, हॉस्‍पिटल, नर्सिंग होम तथा शॉपिंग कॉम्प्लेक्स आदि के अवैध निर्माण का एक बड़ा कारण अधिकांश अधिकारियों का इनके मालिकों से ऑब्‍लाइज रहना भी बताया जाता है। कहीं ये ऑब्लिगेशन 'कैश' के रूप में होता है तो कहीं 'काइंड' के रूप में। 
कुछ होटल और गेस्‍ट हाउस मालिकों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि उन्‍हें कई कमरे तो हमेशा अधिकारियों की 'बेगार' के लिए खाली रखने पड़ते हैं जिससे अधिकारी खुद या उनके मेहमान जब चाहें आकर रुक सकें। ऐसा न करने पर प्रताड़ित किया जाता है। 
इसी प्रकार हॉस्‍पिटल और नर्सिंग होम संचालकों का भी अधिकारी भरपूर 'दुर-उपयोग' करते देखे जा सकते हैं। राष्‍ट्रीय राजमार्ग पर बने हॉस्‍पिटल और नर्सिंग होम इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं जहां खुलेआम सर्विस रोड को घेरकर 'पार्किंग' बना दिया गया है और यहां तक कि अपने स्‍तर पर उसका निजी ठेका भी उठा दिया गया है लेकिन न कोई बोलने वाला है और न सुनने वाला। यही हाल शहर के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स का है। 
बहरहाल, कृष्‍ण की नगरी कितनी ही महत्‍वपूर्ण क्यों न हो लेकिन यह प्रदेश की राजधानी लखनऊ नहीं है इसलिए यहां के होटल में अग्‍निकांड के जिम्‍मेदार लोगों पर तत्‍काल प्रभाव से किसी एक्शन की उम्‍मीद करना बेमानी है। होटल के दो कर्मचारी मर चुके हैं तथा तीन जिंदगी के लिए जूझ रहे हैं किंतु सरकारी सिस्‍टम कुछ दिनों बाद इसे भी ठीक वैसे ही भूल जाएगा जैसे लखनऊ के होटल लेवाना के हादसे को भूल गया। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सिस्‍टम की लगाई इस आग में कभी लखनऊ झुलसेगा तो कभी मथुरा, किंतु सिस्‍टम शायद ही कभी झुलस पाएगा। उसके हाथ में हमेशा तुरुप का पत्ता रहेगा क्योंकि जांच भी उसी को करनी है और रिपोर्ट भी उसी को सौंपनी है। 
होटल वृंदावन गार्डन में आग कैसे लगी, अभी तो यही पता नहीं लगा। फिर यह पता कैसे लगेगा कि इस 'आग' की भेंट चढ़े लोगों की मौत का जिम्‍मेदार कौन-कौन है। लखनऊ के लेवाना होटल की आग ठंडी पड़ चुकी है। वृंदावन गार्डन की भी आग जल्‍द ठंडी पड़ जाएगी, लेकिन सिस्‍टम का खेल बदस्‍तूर जारी रहेगा। 
-Legend News 

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

खेल वाइफ स्वैपिंग का: दिल्‍ली का "कचरा" यमुना को और "कल्चर" मथुरा को कर रहा है प्रदूषित


 हाल ही में मध्‍यप्रदेश की एक 21 वर्षीय विवाहिता युवती ने अपने पति पर आरोप लगाए हैं कि वह उसे "वाइफ स्वैपिंग" (पत्नी की अदला-बदली) वाली पार्टी में शामिल होने के लिए मजबूर करता है। पीड़िता का पति चाहता है कि वह पार्टी में शामिल होकर गैर मर्दों के साथ शरीरिक संबंध बनाए। 

मप्र की राजधानी भोपाल के कोहेफिजा इलाके की रहने वाली इस 21 वर्षीय युवती का निकाह मोहम्मद अम्मार के साथ हुआ था। मोहम्मद अम्मार बीकानेर के एक पांच सितारा होटल में मैनेजर है। निकाह के बाद से वह बीकानेर में अपने पति के साथ रह रही थी। 
पीड़िता का आरोप है कि निकाह के कुछ दिन बाद से ही उसका पति उस पर वाइफ स्वैपिंग पार्टी में शामिल होने और उसका हिस्सा बनने के लिए दबाव डालने लगा। बीमारी का बहाना बनाकर वह बमुश्‍किल अपने मायके भोपाल पहुंच सकी। 
पुलिस ने धारा 377, 498 A, 323, 506, 34, 3/4 के तहत उसके पति पर FIR दर्ज कर उसकी गिरफ्तारी के प्रयास शुरू कर दिए हैं। 
मध्‍यप्रदेश न तो अकेला ऐसा राज्य है और न बीकानेर एकमात्र ऐसी जगह जहां वाइफ स्‍वैपिंग का यह घिनौना खेल खेला जा रहा है। सच तो यह है कि मेट्रो सिटीज दिल्‍ली, मुंबई, कलकत्‍ता, चेन्‍नई सहित देश के तमाम दूसरे महानगरों सहित अनेक छोटे शहर भी अब इस खेल की गिरफ्त में आ चुके हैं। 
यूं तो अन्य शहरों के मुकाबले तरक्‍की की दौड़ में विश्‍व का नामचीन धार्मिक शहर मथुरा भी बेशक काफी पिछड़ा हुआ प्रतीत होता हो, बेशक यहां अभी तरक्‍की को परिभाषित करने वाली अनेक सुविधाओं का अभाव हो, बेशक देश-दुनिया के साथ तरक्‍की के लिए कदम ताल मिलाने में इसे लंबा समय लगे, लेकिन वाइफ स्‍वैपिंग के मामले में कृष्‍ण की यह नगरी अन्‍य दूसरे महानगरों एवं नगरों से किसी तरह पीछे नहीं है। सच तो यह है कि वह बहुत से नगरों एवं महानगरों से इस क्षेत्र में काफी आगे है।
जी हां! चाहे आपको आसानी से यकीन आये या ना आए, चाहे आपका मुंह आश्‍चर्य से एकबार को खुले का खुला रह जाए लेकिन सच्‍चाई यही है कि विश्‍व की धार्मिक, सांस्‍कृतिक, आध्‍यात्‍मिक एवं साहित्‍यिक विरासत को दरकिनार कर यह शहर उस दिशा में करवट ले चुका है जिसके बारे में सोचना तक आम आदमी के लिए किसी महापाप से कम नहीं है।
"वाइफ स्‍वैपिंग" या "कपल स्‍वैपिंग" कहलाने वाले इस खेल में अधिकांशत: पैसे वाले परिवारों से संबंध रखने वाले लोग कम से कम छ: कपल का एक ग्रुप बनाते हैं और यह ग्रुप फिर वाइफ स्‍वैपिंग करता है। वाइफ स्‍वैपिंग के तहत न्‍यूड एवं सेमी न्‍यूड ग्रुप डांस से लेकर ग्रुप सेक्‍स तक सब-कुछ शामिल होता है।
इसके लिए सबकी सहमति से शहर के किसी बाहरी हिस्‍से में अच्‍छे होटल का हॉल तथा कमरे बुक कराये जाते हैं, जहां ग्रुप के सदस्‍य कपल पूर्व निर्धारित दिन व समय पर अपनी-अपनी गाड़ियों से पहुंचते हैं। इस खेल में शामिल होने के लिए जितना जरूरी है एक अदद कपल का होना, उतना ही जरूरी है एक गाड़ी का होना। खेल की शुरूआत ड्रिंक या ड्रग्‍स से होती है, और उसके बाद जैसे-जैसे सुरूर चढ़ता जाता है, खेल शुरू होने लगता है।
खेल की शुरूआत के लिए ग्रुप के सभी सदस्‍य हॉल की बत्‍तियां बुझाकर एक टेबिल पर अपनी-अपनी गाड़ियों की चाभियां रख देते हैं और फिर अंधेरे में ही ग्रुप के पुरुष सदस्‍य किसी एक गाड़ी की चाभी उठाते हैं। जिसके हाथ में जिसकी गाड़ी की चाभी आ जाती है, वह उस सदस्‍य की बीबी के साथ खेल खेलने को अधिकृत हो जाता है। ठीक इसी प्रकार उसकी बीबी के साथ वह सदस्‍य खेल खेलने का अधिकारी हो जाता है जिसकी चाभी उसके हाथ लगी है।
चाभियों की अदला-बदली के साथ यह सदस्‍य अपने पार्टनर को होटल में ही पहले से बुक्‍ड कमरों में ले जाते हैं और फिर वहां स्‍वछंद सेक्‍स का यह खेल शुरू हो जाता है।
इससे भी आगे इस खेल में कुछ लोग हॉल के अंदर ही एक-दूसरे की पत्‍नियों को लेकर सब-कुछ करने को स्‍वतंत्र होते हैं जबकि कुछ लोग दो-दो और तीन-तीन की संख्‍या में ग्रुप सेक्‍स करते हैं।
जाहिर है कि इस सारे खेल का राजदार और हिस्‍सेदार वह होटल मालिक भी होता है जिसके यहां खेल खेला जाता है। उसे इसके लिए अच्‍छी-खासी रकम मिलती है, वो अलग।
बताया जाता है कि मथुरा के नवधनाढ्यों को इस खेल की लत उस क्‍लब कल्‍चर से लगी है जो कथित तौर पर समाज सेवा के कार्य करते हैं अथवा समाज सेवा करने का दावा करते हैं।
इनके अलावा कुछ लोगों ने पर्सनल क्‍लब या ग्रुप भी बना लिए हैं और उनकी आड़ में विभिन्‍न कार्यक्रमों का आयोजन करते रहते हैं। जिनका असल मकसद उनके बीच से छांटकर ‘वाइफ स्‍वैपिंग’ अथवा ‘कपल स्‍वैपिंग' के लिए एक अलग ग्रुप बनाना होता है।
विश्‍वस्‍त सूत्रों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार पिछले कुछ समय के अंदर इस धार्मिक शहर के विशेष वर्ग में हुईं आकस्‍मिक युवा संदिग्‍ध मौंतों के पीछे यही खेल रहा है क्‍योंकि इसके आफ्टर इफेक्‍ट अंतत: ऐसे ही परिणाम निकालते हैं।
सूत्रों की मानें तो एक प्रसिद्ध होटल मालिक की शादी-शुदा बहिन इसी खेल में अपनी जान दे चुकी है। उसकी मौत को इसलिए आत्‍महत्‍या प्रचारित किया गया क्‍योंकि उसने अपने मायके में जान दी थी, परंतु बताया जाता है कि इसके पीछे का असली कारण वाइफ स्‍वैपिंग का खेल ही था।
इसके अलावा कुछ समय पहले एक बिल्‍डर के युवा पुत्र की संदिग्‍ध मौत हो या एक अन्‍य  बड़े व्‍यवसाई के अधेड़ उम्र पुत्र की होटल के कमरे में हुई मौत का मामला हो, सबके पीछे यही खेल बताया जाता है।
जिन परिवारों में यह मौतें हुई हैं, वह दबी जुबान से इतना तो स्‍वीकार करते हैं कि अवैध संबंध इन मौतों का कारण बने हैं लेकिन सीधे-सीधे वाइफ स्‍वैपिंग के खेल में संलिप्‍तता स्‍वीकार नहीं करते।
चूंकि इस खेल के परिणाम स्‍वरूप एचआईवी एड्स तथा आज के दौर की दूसरी संक्रामक बीमारियां भी तोहफे में मिलने की पूरी संभावना रहती है इसलिए इसके परिणाम तो किसी न किसी स्‍तर पर जाकर घातक होने ही होते हैं। ऐसी स्‍थिति में पति-पत्‍नी एक-दूसरे को दोषी ठहराने का प्रयास करते हैं और इसके फलस्‍वरूप गृहक्‍लेश बढ़ जाता है। रोज-रोज के गृहक्‍लेश का नतीजा फिर किसी अनहोनी के रूप में सामने आता है।
इस खेल से जुड़े लोगों से प्राप्‍त जानकारी के अनुसार धार्मिक शहर मथुरा में यूं तो इस खेल की शुरूआत हुए कई साल हो चुके हैं, लेकिन पिछले करीब पांच सालों से इसमें काफी तेजी आई है। पांच सालों में मथुरा के अंदर इस खेल के कई ग्रुप बने हैं और इसी कारण सो-कॉल्‍ड सभ्रांत परिवारों में कई जवान संदिग्‍ध मौतें भी हुई हैं।
आज तक ऐसी किसी मौत का मामला पुलिस के पास न पहुंचने की वजह से पुलिस ने उसमें कोई रुचि नहीं ली क्‍योंकि यूं भी मामला पैसे वालों से जुड़ा होता है।
यही कारण है वाइफ स्‍वैपिंग का यह खेल धर्म की इस नगरी में न केवल बदस्‍तूर जारी है बल्‍कि दिन-प्रतिदिन परवान चढ़ रहा है।
एक-दो नहीं, अनेक अपराधों का रास्‍ता बनाने वाला यह खेल यदि इसी प्रकार फलता-फूलता रहा और पुलिस व प्रशासन के बड़े अधिकारियों ने इस ओर अपनी निगाहें केंद्रित न कीं तो आने वाले समय में कृष्‍ण की नगरी के लिए यह ऐसा कलंक साबित होगा जिससे पीछा छुड़ाना मुश्‍किल हो जायेगा।
मुश्‍किल इसलिए कि मथुरा से दिल्‍ली बहुत दूर नहीं है। दिल्‍ली का कचरा अगर यमुना में बहकर आ रहा है तो दिल्‍ली का कल्‍चर भी सड़क के रास्‍ते मथुरा को प्रदूषित कर ही रहा है।आप अगर इस गलतफहमी में है कि 'बिहारी जी' सहित मथुरा के अन्‍य धार्मिक स्‍थानों पर धर्म के नाम पर तेजी के साथ बढ़ रही अनियंत्रित भीड़ का कारण अचानक उपजा भक्तिभाव है तो इस गलतफहमी को दूर कर लीजिए। 
-लीजेण्‍ड न्‍यूज़ 
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