सनातन पर स्टालिन का बयान उन सभी छद्म धर्मनिरपेक्ष सनातनियों को समर्पित है, जो स्टालिन जैसों की ऊर्जा के स्त्रोत हैं और जिनके कारण समय-समय पर अनेक "विधर्मी", सनातन धर्मावलंबियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का दुस्साहस कर पाते हैं।
'सनातन' का शाब्दिक अर्थ है- 'शाश्वत' अर्थात 'सदा बना रहने वाला', यानी जिसका न आदि है और न अन्त। सनातन धर्म को हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म के नाम से भी जाना जाता है और इसे दुनिया के सबसे प्राचीनतम धर्म होने का गौरव प्राप्त है।
ऐसे में सवाल यही खड़ा होता है कि एक कन्वर्टेड ईसाई, भरी सभा में सनातन धर्म को समाप्त करने की घोषणा कर कैसे सकता है?
वो इसलिए कि प्रथम तो विधर्मियों ने सनातन धर्मावलंबियों की सहिष्णुता को 'कायरता' समझ रखा है। दूसरे जिस प्रकार वृक्ष को काटने में कुल्हाड़ी की मदद लकड़ी ही करती है, उसी प्रकार सदियों से कथित धर्मनिरपेक्ष लोग सनातन को समझे बिना उसको नष्ट-भ्रष्ट करने का ताना-बाना बुनते रहते हैं।
सच तो यह है कि धर्मनिरपेक्ष जैसा कोई शब्द होता ही नहीं, जो होता है वो धर्मसापेक्ष होता है। संभवत: इसीलिए संविधान में भी धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित नहीं किया गया है।
धर्मनिरपेक्षता की प्रचलित परिभाषा को यदि मान भी लिया जाए तो किसी दूसरे धर्म को समाप्त करने का आह्वान करने वाला व्यक्ति विशेष या राजनीतिक दल कैसे धर्मनिरपेक्ष हो सकता है। जाहिर है कि यह धर्मनिरपेक्षता की आड़ में कुर्सी के लिए खेला जाने वाला राजनीतिक खेल ही है।
बेशक हर राजनीतिक खेल हमेशा से ही सत्ता हथियाने का जरिया बना हुआ है और इसीलिए राजनीतिक बयानबाजी के निहितार्थ भी निकाले जाते रहे हैं, किंतु इसका मतलब यह कतई नहीं कि नेतागण मुंह को गटर की तरह इस्तेमाल करने लग जाएं।
राजनीति में प्रतिस्पर्धा होना सामान्य सी बात है और प्रतिस्पर्धा के चलते आरोप-प्रत्यारोप भी चलते हैं, परंतु किसी दूसरे धर्म को नेस्तनाबूद करने की मानसिकता यह बताती है कि वह व्यक्ति समाज में रहने लायक नहीं रहा। उसकी मन: स्थिति यह साबित करती है कि वह खुले में घूमने का अधिकार खो चुका है।
ये बात अलग है कि सैकड़ों साल से दिमागी दिवालियापन के शिकार ऐसे लोग समाज में न सिर्फ रहते आए हैं बल्कि धर्म और समाज दोनों को कलंकित भी करते रहे हैं।
देश पर आक्रांतांओं के आक्रमण का काल हो या गुलामी का कालखंड, हर दौर में ऐसे तत्वों की विशेष भूमिका रही है जिनके लिए 'राष्ट्रद्रोही' शब्द भी छोटा मालूम पड़ता है।
स्टालिन का दुस्साहस ऐसे ही तत्वों की करतूत है जो हर हाल में देश को पतन के रास्ते पर ले जाने की मंशा पाले बैठे हैं। इनमें नेता भी हैं, और अभिनेता भी। नौकरशाह भी हैं और जनसामान्य भी। किसी खास राजनीतिक दल की डोर से बंधे चाटुकार भी हैं और पत्रकार भी।
इनके अलावा एक वर्ग वो भी है जो खुद को सत्ता का स्वाभाविक दावेदार मानता है और जिसकी जहरभरी जुबान के लिए स्क्रिप्ट कहीं और से लिखी जाती है क्योंकि इस वर्ग के लोग अपना मानसिक संतुलन खो चुके हैं।
तय है कि ऐसे लोगों में सुधार की कोई गुंजाइश तलाशना आत्मघाती हो सकता है इसलिए समय रहते उपचार जरूरी है।
चंद रोज पहले देश की सर्वोच्च अदालत ने 'हेट स्पीच' को लेकर काफी कड़ी प्रतिक्रिया दी थी। शायद अब वो समय आ गया है कि देश के 80 करोड़ से अधिक लोगों की भावनाओं को आहत करने वाला बयान देकर स्टालिन ने हेट स्पीच के लिए जो मानदंड स्थापित किए हैं, उन्हें यदि अब नहीं रोका गया तो उसके दुष्परिणाम विधायिका एवं कार्यपालिका के साथ-साथ न्यायपालिका को भी भुगतने होंगे।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी