मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

CAA और NRC की आड़ में एकबार फिर जिन्‍ना सी जिद और नेहरू सी महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने का षड्यंत्र

जिन्‍ना की जिद और नेहरू की महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अखंड भारत को खंड-खंड करने का जो सिलसिला 1947 में प्रारंभ किया गया था, उसका नया अध्‍याय लिखने की कोशिश है CAA और NRC की आड़ लेकर कराए जा रहे हिंसक प्रदर्शन।
तर्क-वितर्क और कुतर्कों के बीच देश के कई हिस्‍सों में जारी हिंसा से एक बात तो बड़ी आसानी के साथ समझी जा सकती है कि इस समय जो कुछ हो रहा है या सही मायनों में कहें तो किया जा रहा है, वह पूर्व नियोजित है…आकस्‍मिक नहीं।
गौर करें तो पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि जिस वक्‍त नागरिकता संसोधन बिल (CAB) को पास कराने के लिए लोकसभा और राज्‍यसभा में बहसों का दौर चल रहा था, ठीक उसी समय कुछ ऐसे लोग जिन्‍हें यह मालूम था कि वह बिल को पास होने से रोक नहीं सकते, सरकार के खिलाफ हिंसात्‍मक प्रदर्शन की तैयारी में लगे थे।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि इतने बड़े पैमाने पर हिंसक प्रदर्शन की तैयारी मात्र इन्‍हीं दो दिनों में नहीं हो गई, इसकी बुनियाद 2014 से तभी रखी जाने लगी थी जब केंद्र में पहली बार नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व वाली सरकार बनी।
दिमाग पर जोर डालें तो साफ-साफ दिखाई देने लगेगा कि किस तरह मोदी सरकार को पहले दिन से बार-बार कठघरे में खड़ा करने के प्रयास किए जाते रहे। कभी असहिष्‍णुता के नाम पर तो कभी अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का राग अलापकर। कभी सूटबूट की सरकार बताकर तो कभी मुस्‍लिम विरोधी प्रचारित करके।
सत्ता की खातिर नरेन्‍द्र मोदी से वैमनस्‍यता का घृणित खेल इतना आगे जा पहुंचा कि विभिन्‍न न्‍यायालयों के निर्णयों को भी मोदी सरकार की कार्यप्रणाली से जोड़ा जाने लगा।
सर्वोच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायाधीशों की अपने ही बॉस से रोस्‍टर प्रणाली को लेकर तनातनी भी मोदी सरकार से जोड़ दी गई। उसके लिए सीजेआई दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग तक लाने का प्रयास किया गया।
तीन तलाक के लिए कानून बनाने का आदेश देश की सर्वोच्‍च अदालत ने दिया किंतु प्रचारित यह किया गया कि इसके लिए मोदी सरकार की मुस्‍लिम विरोधी मानसिकता जिम्‍मेदार है।
इतने से भी काम नहीं चला तो 2019 के लोकसभा चुनावों में ”चौकीदार चोर” है का अत्‍यंत निम्‍नस्‍तरीय नारा बुलंद किया गया और पूरी बेशर्मी के साथ उसे जायज ठहराने की कोशिश भी की गई।
इस सबके बावजूद 2019 में मोदी सरकार को मिले भारी बहुमत ने जब सारे अरमानों पर पानी फेर दिया तो नए सिरे से षड्यंत्रों का ताना-बाना बुना जाने लगा।
इन षड्यंत्रों को परवान चढ़ाने की कोशिश सबसे पहले तब की गई जब सरकार ने जम्‍मू-कश्‍मीर से धारा 370 को समाप्‍त कर उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया।
एक अस्‍थाई धारा को संविधान सम्‍मत प्रावधानों के तहत हटाने के बावजूद विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने आसमान सिर पर उठा लिया। लोकसभा और राज्‍यसभा में जमकर हंगामा किया गया और सड़कों पर धरने-प्रदर्शनों की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट से लेकर श्रीनगर तक यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि देश को आग में झोंकने का काम किया गया है।
जब कहीं कोई सफलता नहीं मिली और थक-हारकर बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा तो अयोध्‍या पर आने वाले सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निर्णय को लेकर हवा दी जाने लगी। कहा जाने लगा कि मंदिर पर यदि हिंदुओं के पक्ष में निर्णय नहीं आया तो सरकार उसे पलट देगी। मोदी सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्‍त करेगी।
बहरहाल, अयोध्‍या पर आए सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्‍मत निर्णय ने अरमानों पर पानी फेर दिया क्‍योंकि उसके विरोध में कहीं से कोई आवाज नहीं उठी। हालांकि फिर भी उकसाने का काम चालू रहा लिहाजा चंद लोग यह कहने लगे कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सबूतों को दरकिनार कर धार्मिक आस्‍था के मद्देनजर दिया है।
बाद में इन्‍हीं लोगों ने रिव्‍यू पिटीशन दाखिल कर एकबार पुन: अयोध्‍या विवाद को जिंदा रखने का प्रयास किया परंतु सभी रिव्‍यू पिटीशन सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दीं।
यही कारण रहा कि जैसे ही मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में नागरिकता संशोधन बिल लाई वैसे ही उसे लेकर अफवाहों का बाजार गर्म करना शुरू कर दिया गया। NRC को नागरिकता संशोधन बिल यानी CAB से जोड़कर इस आशय का प्रचार किया जाने लगा कि यह दोनों एक-दूसरे के पूरक और मुस्‍लिमों को देश से खदेड़ने की योजना का हिस्‍सा हैं।
पूरे-पूरे दिन CAB पर संसद के दोनों सदनों में बहस होने के बाद नागरिकता संशोधन बिल पास हुआ और राष्‍ट्रपति के हस्‍ताक्षर से इसने कानून का रूप लिया तो विपक्ष को अपने अरमानों पर फिर से पानी फिरता दिखाई देने लगा।
यही कारण रहा कि एक ओर वह हिंसक प्रदर्शनों को परोक्ष समर्थन देकर अपनी मंशा पूरी करने में जुट गया वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्‍ट्रपति तक के पास दौड़ा परंतु राहत कहीं से न मिलनी थी और न मिली।
कितने आश्‍चर्य की बात है कि जिस बिल को पूरे संवैधानिक तौर-तरीकों से संसद के दोनों सदनों में पास कराया गया, उसे अब भी असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक घोषित कर देशभर में आग लगाने की कोशिश की जा रही है।
नागरिकता संशोधन कानून अर्थात CAA को लेकर हिंसक प्रदर्शन करने वाले इसके बारे में कितना जानते हैं, इसकी पुष्‍टि मीडिया द्वारा उनसे पूछे जा रहे सवालों से बखूबी हो रही है।
जामिया मिल्‍लिया इस्‍लामिया, अलीगढ़ मुस्‍लिम यूनिवर्सिटी, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू और अन्‍य कुछ शिक्षण संस्‍थानों के छात्रों की बात छोड़ दी जाए तो आज हजारों की तादाद में जगह-जगह प्रदर्शन करने वाले इतना भर नहीं बता पा रहे कि वो किस संबंध में तथा क्‍यों प्रदर्शन करने आए हैं। हालांकि बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी के छात्र भी यह बताने में असमर्थ हैं कि CAA और NRC किस तरह एक-दूसरे के पूरक हैं और किस तरह भारतीय मुसलमानों के खिलाफ हैं।
हिंसक प्रदर्शनों में लिप्‍त और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त इन उपद्रवी तत्‍वों को यदि कुछ पता है तो मात्र इतना कि उन्‍हें मोदी सरकार का विरोध करना है क्‍योंकि उनके मुताबिक यह सरकार मुस्‍लिम विरोधी है।
उनके पास इस प्रश्‍न का कोई जवाब नहीं है कि वो किस आधार पर मोदी सरकार को मुस्‍लिम विरोधी बता रहे हैं और उनके पास इसके लिए क्‍या तर्क है।
सच तो यह है कि धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा कराने वाली और सात दशक से तुष्‍टीकरण की राजनीति करने वाली पार्टी को अब यह समझ में आ चुका है कि उसके लिए मोदी के रहते सत्ता में वापसी का कोई रास्‍ता शायद ही मिले इसलिए किसी भी तरह मोदी को हटाया जाए।
जिन रास्‍तों से देश की सबसे पुरानी पार्टी सर्वाधिक लंबे समय तक सत्ता सुख भोगती रही, मोदी सरकार ने क्रमश: उन सभी रास्‍तों को बंद कर दिया है। यदि कोई रास्‍ता बचा भी है, तो उसे बंद करने की पूरी तैयारी उसने कर रखी है।
अर्श से फर्श पर आई स्‍वतंत्रता सेनानियों की पार्टी को समझ में नहीं आ रहा कि वह उसकी जड़ों तक मठ्ठा डालने वाली मोदी की नीतियों से आखिर कैसे पार पाए। कैसे उसके अकाट्य तर्कों का जवाब दे और कैसे अपने डूबते जहाज को बचाए।
जाहिर है कि उसे इस सबके लिए अंतिम सहारे के रूप में वहीं लौटना पड़ रहा है जहां से उसकी शुरूआत हुई थी। मतलब धार्मिक आधार पर बंटवारे की राजनीति पर।
जिन्‍ना की जिद और नेहरू की महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अखंड भारत को खंड-खंड करने का जो सिलसिला 1947 में प्रारंभ किया गया था, उसका नया अध्‍याय लिखने की कोशिश है CAA और NRC की आड़ लेकर कराए जा रहे हिंसक प्रदर्शन।
किसी भी हिंसक प्रदर्शन के लिए भीड़ से अच्‍छा कोई हथियार नहीं होता क्‍योंकि भीड़ बेदिमाग होती है। संभवत: इसीलिए हर राजनीतिक दल अपना मंसूबा पूरा करने को भीड़ का सहारा लेता है और उसे नाम देता है जनसमर्थन का।
चूंकि भीड़ बेदिमाग होती है इसलिए कई बार वह उकसाने वालों पर ही भारी पड़ जाती है। भीड़ को हथियार बनाकर शिकार करने वाले तब खुद उसके हाथों शिकार होते देखे गए हैं। दुनिया के तमाम मुल्‍क इसकी पुष्‍टि करते हैं।
बेहतर होगा कि लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देकर भीड़ को उकसाने वाले राजनीतिक दल जितनी जल्‍दी हो यह समझ जाएं कि हथियार सिर्फ हत्‍या और सुरक्षा के लिए नहीं होते, आत्‍महत्‍या के कारण भी वही बनते हैं।
और अंत में एक बिन मांगी सलाह कि हो सके तो आत्‍मघाती खोखले मुद्दों को हथियार बनाने की जगह यह विचार कीजिए कि इस दयनीय दशा तक कैसे और क्‍यों पहुंचे।
माना कि राजनीति आज की तारीख में एक विशुद्ध पेशा है, सेवा नहीं परंतु पेशे के सफल संचालन को भी पेशेवर रुख अख्‍यतियार करना पड़ता है। गैर पेशेवर तरीका अंतत: कहीं का नहीं छोड़ता।
रहा सवाल CAA और NRC का, तो देर-सवेर ठीक उसी तरह इनकी अहमियत वर्ग विशेष को भी समझ में आ जाएगी जिस तरह 370 हटने की अहमियत कश्‍मीरियों को समझ में आ गई।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

अबे चल हट…तू 5 हजार रुपए घंटे वाला प्रवक्‍ता, मैं 10 हजार रुपए Per Hour वाला Spokes Person


अबे चल हट…तू 5 हजार रुपए घंटे वाला क्षेत्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता, मैं 10 हजार रुपए Per Hour वाला नेशनल पार्टी का Spokes Person……….. तेरी मेरे सामने क्‍या औकात।
चौंकिए मत, अब लगभग दिन-दिनभर चलने वाली Tv debates में पार्टिसिपेट कर रहे लोग एक-दूसरे को यह सब कहते-सुनते नजर आएं तो आश्‍चर्य मत कीजिएगा, क्‍योंकि गंदा है पर धंधा है। पापी पेट का सवाल है।
सरकार किसी की हो, कभी प्‍याज तो कभी पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर रोते हुए मुंह मांगे दामों पर पिज्‍जा-बर्गर खाने वाले ‘हम लोग’ फ्री में फाइट देखने के इतने आदी हैं कि ‘नूरा कुश्‍ती’ को भी असलियत मानकर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं।
इतना ही नहीं, उसके बाद अपना निठल्‍ला चिंतन लेकर सोशल मीडिया पर आवारा सांड़ों की तरह विचरण करने जा पहुंचते हैं ताकि किसी से भिड़कर सींगों की खुजली मिटा सकें।
वहां मुंह से न सही शब्‍दों से ऐसी जुगाली करते हैं कि भले ही उसकी दुर्गंध संबंधों को तार-तार करके रख दे किंतु पीछे हटने को तैयार नहीं होते।
मजे की बात यह है कि इतना सब-कुछ हम बिना यह जाने करते हैं कि हर डिबेट प्रायोजित है। हर प्रवक्‍ता, हर विशेषज्ञ, हर विश्‍लेषक बिकाऊ है। इन-फैक्‍ट एंकर से लेकर प्रवक्‍ता तक और विशेषज्ञ से लेकर विश्‍लेषक तक सब बिकाऊ हैं।
बहुत जल्‍द डेढ़ सौ करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही देश की आबादी के एक बड़े हिस्‍से को शायद ही यह ज्ञान प्राप्‍त हो कि सुबह से शाम तक विभिन्‍न टीवी चैनलों पर बहस का हिस्‍सा बनने वाले लोग हमारी-तुम्‍हारी तरह फोकटिया नहीं हैं। वो हर घंटे की कीमत वसूलते हैं।
National party के Spokes Person को एक घंटे की बहस में भाग लेने का 10 हजार रुपया मिलता है और क्षेत्रीय दलों के प्रवक्‍ता पांच-पांच देकर निपटा दिए जाते हैं।
अब जरा विचार कीजिए कि एक राष्‍ट्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता सुबह से शाम तक यदि चार चैनलों को निपटा दे तो 40 हजार रुपए की दिहाड़ी पूरी हो गई।
क्षेत्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता भी 20 हजार रुपए दिनभर में पीट लेता है। यानी राष्‍ट्र के नाम पर मात्र एक महीने में एक करोड़ बीस लाख की कमाई और क्षेत्रीय होकर भी राष्‍ट्रभर की दुहाई देकर 60 लाख रुपए महीने की आमदनी। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा।
विशेषज्ञ और विश्‍लेषक भले ही अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बिकते हों परंतु बिकाऊ सब होते हैं। जनहित में बहस करने की फुरसत किसी को नहीं।
रही बात एंकर की तो उसे चैनल की पॉलिसी मेंटेन रखते हुए ‘मैढ़ा’ लड़ाने का ही वेतन मिलता है। उसका अपना कोई दीन-धर्म नहीं होता। वह ‘जैसी ढपली वैसा राग’ का अनुकरण कर अपने कर्तव्‍य की पूरे दिन इतिश्री करता रहता है।
जो कल तक किसी चैनल पर ‘ताल ठोक’ रहा था वह आज ‘दंगल’ करा रहा है। जो ‘आर-पार’ कर रहा था, वो ‘हल्‍ला बोल’ रहा है। किसी चैनल पर ‘मास्‍टर स्‍ट्रोक’ लगाया जा रहा है तो कोई ‘ललकार’ रहा है।
नाम भी ऐसे कि भोजपुरिया फिल्‍मों के टाइटिल तक लजा जाएं। सबका अपना-अपना ‘एजेंडा’ है, बस नाम का फर्क है।
कह भले ही लो कि नाम में क्‍या रखा है, लेकिन बंधु नाम में ही बहुत कुछ रखा है तभी तो ऐसे बेढंगे नाम ढूंढ-ढूंढकर रखे जाते हैं और फिर उन नामों को सार्थक करते हुए उनके अनुरूप बहसें कराई जाती हैं। पैसा फेंककर तमाशा देखने और दिखाने का यह चलन कितने दिन और चलेगा, यह बता पाना तो मुश्‍किल है किंतु यह जरूर बताया जा सकता है कि जल्‍द ही इन बहसों का रूप परिवर्तन होने वाला है।
ढर्रे पर चल रही बहसों से पब्‍लिक को ऊब होने लगी है। खट्टी डकारें आने लगी हैं। जायका नजर नहीं आता, इसलिए वह चेंज चाहती है।
चैनल भी जनता की बेहद मांग पर अति शीघ्र इन बहसों में गाली-गलौज का तड़का लगाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। बस मौके की तलाश है।
‘कुछ मीठा हो जाए’ की तर्ज पर ‘कुछ तीखा हो जाए’ टीवी मार्केट में उतारने की योजना है। गाली-गलौज न सही लेकिन इतना तो हो कि प्रवक्‍ताओं, विशेषज्ञों एवं विश्‍लेषकों के पैकेज की भरपाई की जा सके।
ऐसा ही कुछ कि अबे चल हट…बहुत देखे तेरे जैसे पांच-पांच हजार रुपल्ली पर बिकने वाले। जिस दिन मेरी तरह दस हजार रुपए घंटे मिलने लगें उस दिन मुझसे बात करना। अभी तेरी औकात नहीं है मुझसे बहस करने की।
विशेषज्ञ और विश्‍लेषक भी इसी अंदाज में एक-दूसरे की औकात बताते हुए रिटायरमेंट का लुत्फ लेते रहेंगे।
मार-पिटाई के सीन अगली प्‍लानिंग के लिए छोड़े जा सकते हैं क्‍योंकि उसके बाद चैनलों के पास कुछ बचेगा नहीं।
जाते-जाते एकबार और जान लो। ये घंटे-घंटेभर में हजारों रुपए छापकर ले जाने वाले जो लोग आपको चैनलों पर एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन दिखाई देते हैं वो कैमरा ऑफ होते ही साथ बैठकर कॉफी सिप करने लगते हैं।
दिमाग पर बिना यह जोर डाले कि ‘चार पैसे’ देकर मेंढ़े लड़ाने वाले चैनल भी आपनी-अपनी टीआरपी के लिए सारे देश को लड़ा रहे हैं।
हो सके तो आप ही अपने दिमाग पर जोर डाल लेना कि आपको इस सबसे आखिर क्‍या मिल रहा है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

हम भारत के लोग: विशिष्‍टजनों के कारण आखिर कब तक होते रहेंगे परेशान ?

यूं भी देश को ब्रितानी हुकूमत से मुक्‍त हुए 72 वर्ष पूरे हो चुके हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाते हैं और उसे लेकर फख्र करते नहीं अघाते किंतु क्‍या यही लोकतंत्र है जिसमें एक सामान्‍य व्‍यक्‍ति पद पर प्रतिष्‍ठापित होते ही इस कदर विशिष्‍ट बना दिया जाए कि आमजन की परछाई भी उस तक न पहुंच सके।
कल सुबह से शाम तक कुछ ऐसा रहा मथुरा-वृंदावन की सड़कों का हाल
26 नवंबर को देश ने संविधान दिवस मनाया और 28 नवंबर को देश के सर्वोच्‍च संवैधानिक पद पर आसीन महामहिम राष्‍ट्रपति रामनाथ कोविंद योगीराज भगवान श्रीकृष्‍ण की पावन लीलाभूमि वृंदावन आए।
अपनी पत्‍नी और पुत्री के साथ वृंदावन पधारे महामहिम ने एक ओर जहां स्‍वामी विवेकानंद द्वारा स्‍थापित रामकृष्‍ण मिशन में कैंसर मरीजों के लिए स्‍थापित एक ब्‍लॉक का उद्धाटन किया वहीं दूसरी ओर ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद द्वारा स्‍थापित संस्‍था ‘इस्‍कॉन’ से संचालित ‘अक्षय पात्र फाउंडेशन’ का अवलोकन किया। इसके अलावा राष्‍ट्रपति कोविंद ने बांकेबिहारी के दर्शन भी किए।
कुल मिलाकर महामहिम राष्‍ट्रपति यहां कुछ घंटे रुके। राष्‍ट्रपति की इस यात्रा में यूपी के सीएम योगी आदित्‍यनाथ, राज्‍यपाल आनंदी बेन पटेल सहित अन्‍य तमाम विशिष्‍टजन भी सहभागी थे।
इन विशिष्‍ट और अति विशिष्‍टजनों की यात्रा से लगभग एक सप्‍ताह पहले ही समूचा जिला प्रशासन इनके आगमन की तैयारियों में जुट गया था। जमीन से लेकर आसमान तक की सुरक्षा व्‍यवस्‍था सहित वो हर इंतजाम किया गया जो हमेशा इस वर्ग के लिए किया जाता है। उसके बाद मौके-मुआइने और रिहर्सलों का दौर भी चला। कुल मिलाकर हालात ऐसे थे जैसे आसमान से फरिश्‍तों को जमीन पर उतारा जा रहा हो।
इस सबके बीच सर्वाधिक दिलचस्‍प कवायद इस बात के लिए देखी गई कि महामहिम के रास्‍ते में कोई जनसामान्‍य अर्थात प्रजा कहीं बाधा न बन जाए।
इसके लिए सुबह से शाम तक के लिए वो सभी मार्ग अवरुद्ध कर दिए गए जहां से विशिष्‍ट और अति विशिष्‍टजनों को गुजरनाभर था।
यहां तक कि कई-कई किलोमीटर पहले से उन रास्‍तों पर भी पहरा बैठा दिया गया, जो विशिष्‍टजनों का काफिला निकालने के लिए तय मार्ग की ओर जाते थे। नेशनल हाईवे, हाईवे और एक्सप्रेसवे भी या तो रोक दिए गए या डाइवर्ट कर दिए गए। कहावत में कहें तो ‘परिन्‍दा भी पर न मार सके’ ऐसे चाक-चौबंद इंतजामों को अंजाम दिया गया।
इंसान तो इंसान, बंदर और कुत्तों को भी महामहिम की राह में रोड़ा बनने से रोकने की मुकम्‍मल व्‍यवस्‍था की गई। इसके लिए कहीं पुलिसकर्मी स्‍वयं हाथ में गुलेल लेकर निशाना लगाते देखे गए तो कहीं लंगूर घुमाते नजर आए क्‍योंकि कहा जाता है लंगूर के रहते बंदर पास नहीं आते।
दरअसल, गत दिनों मथुरा की सांसद और बॉलीवुड अभिनेत्री हेमा मालिनी ने संसद में वृंदावन के बंदरों का जिक्र कर मंकी सफारी स्‍थापित करने की मांग रखी थी।
हेमा मालिनी ने भले ही यह मांग अब रखी हो और भले ही यह मांग अगले कई वर्षों तक पूरी न हो परंतु विशिष्‍टजनों के लिए बंदर परेशानी का कारण न बनें, इसका इंतजाम करना ही था लिहाजा किया गया।
बेशक ये सारे इंतजाम राष्‍ट्रपति के रूप में न तो पहली बार रामनाथ कोविंद के लिए किए गए थे और न दूसरे विशिष्‍टजन पहली मर्तबा इसकी वजह बने थे। जब-जब कोई वीवीआईपी और वीआईपी कहीं जाते हैं तो ऐसी ही व्‍यवस्‍थाएं की जाती हैं इसलिए पहली नजर में कुछ अनोखा नहीं लगता परंतु अनोखा है जरूर।
वो इसलिए कि जिस देश के संविधान की प्रस्‍तावना ही ”हम भारत के लोग” से शुरू हुई हो, साथ ही जिसमें सिर्फ और सिर्फ लोक कल्‍याण की भावना निहित हो उसमें किसी संवैधानिक पद पर काबिज व्‍यक्‍ति के लिए ऐसी व्‍यवस्‍थाएं करना अनोखा तो लगेगा ही।
हो सकता है कि संविधान रचते वक्‍त आज की परिस्‍थितियों, मसलन जनसंख्‍या की बेतहाशा वृद्धि और उसी अनुपात में वाहनों की तादाद आदि से लेकर सड़कों के सिकुड़ते जाने की संभावनाओं पर गौर न किया गया हो परंतु आज तो इस सबके मद्देजनर समीक्षा की जा सकती है।
यूं भी देश को ब्रितानी हुकूमत से मुक्‍त हुए 72 वर्ष पूरे हो चुके हैं। हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाते हैं और उसे लेकर फख्र करते नहीं अघाते किंतु क्‍या यही लोकतंत्र है जिसमें एक सामान्‍य व्‍यक्‍ति पद पर प्रतिष्‍ठापित होते ही इस कदर विशिष्‍ट बना दिया जाए कि आमजन की परछाई भी उस तक न पहुंच सके।
माना कि आतंकवाद जैसी समस्‍याओं ने खास लोगों के जीवन को परेशानी में डाला है परंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि उनकी सुरक्षा व्‍यवस्‍था के लिए आम लोगों के सामने कदम-कदम पर अवरोध खड़े किए जाएं।
आम लोगों की अपनी समस्‍याएं हैं और उनसे आज के ये खास लोग भलीभांति परिचित भी हैं क्‍योंकि ये उन्‍हीं आम लोगों के बीच से निकले हैं, किंतु पता नहीं क्‍यों आम से खास होते ही अपने अतीत को भूल जाते हैं।
भूल जाते हैं कि कल तक वो भी खास लोगों के कारण होने वाली परेशानियों से न सिर्फ रूबरू होते थे बल्‍कि इस वीआईपी कल्‍चर को कोसते भी थे।
रामनाथ कोविंद, योगी आदित्‍यनाथ और आनंदी बेन पटेल जैसे अति विशिष्‍टजन हों या कोई जन समान्‍य… श्रीकृष्‍ण का वृंदावन सबका स्‍वागत करता है… सबके लिए सहज सुलभ है। फिर यहां आने वाले वीआईपी सहज क्‍यों नहीं रह पाते। क्‍यों वह सबको सहज नहीं रहने देते। क्‍यों फिरंगियों से विरासत में मिले वीआईपी कल्‍चर को ढो रहे हैं।
निसंदेह खास लोगों का जीवन अमूल्‍य है और इसलिए उनके जीवन की सुरक्षा की जानी चाहिए किंतु वो आमजन को परेशानी में डाले बिना भी किया जाना संभव है। वक्‍त का तकाजा है कि इस ओर गौर किया जाना चाहिए अन्‍यथा वो दिन दूर नहीं कि जिस तरह आज एक परिवार की सुरक्षा व्‍यवस्‍था बदले जाने पर संसद में हंगामा हो रहा है, ठीक उसी तरह समूचे वीआईपी कल्‍चर को लेकर सड़क से संसद तक हंगामा होने लगे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

अपने इन हत्‍यारों को तू कभी क्षमा मत करना मां!

तारीख 20, महीना मार्च, दिन सोमवार, सन् 2017
ये वो दिन है, जब नैनीताल हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। अपने इस फैसले में हाई कोर्ट ने जनमानस से मां का दर्जा प्राप्‍त गंगा और यमुना नदी को वैधानिक व्यक्ति का दर्जा देते हुए लिखा था- इन दोनों नदियों को क्षति पहुंचाना अब किसी इंसान को नुकसान पहुंचाने जैसा माना जाएगा।
ऐसे में आईपीसी के तहत आपराधिक केस चलेगा और आरोपी को उसी तरह सजा सुनाई जाएगी जिस तरह किसी व्‍यक्‍ति को क्षति पहुंचाने पर सुनाई जाती है।
अपने फैसले में हाई कोर्ट ने गंगा-यमुना के साथ-साथ इनकी सहायक नदियों, उपनदियों, समस्त जल धाराओं और यहां तक कि पानी के उनसे जुड़े समस्‍त प्राकृतिक स्रोतों को भी वैधानिक व्यक्ति का दर्जा देने को कहा।
न्यायमूर्ति राजीव शर्मा व न्यायमूर्ति आलोक सिंह की खंडपीठ ने यूपी और उत्तराखंड की परिसंपत्तियों के बंटवारे से संबंधित एक जनहित याचिका का निस्‍तारण करते हुए यह आदेश दिया। यह याचिका देहरादून निवासी मोहम्मद सलीम ने दायर की थी।
हाई कोर्ट के आदेश में यह भी निहित था कि गंगा-यमुना को दिए गए अधिकार का उपयोग 3 सदस्यीय एक समिति करेगी। यानी यह समिति इन नदियों को क्षति पहुंचाए जाने से संबंधित सभी मुकदमों की पैरवी करेगी।
इस समिति में उत्तराखंड के मुख्य सचिव, नैनीताल हाई कोर्ट के महाधिवक्ता और नमामि गंगे प्राधिकरण के महानिदेशक शामिल किए गए।
अदालत ने 20 मार्च के अपने इस आदेश में स्पष्ट किया था कि ये तीनों अधिकारी आगे से गंगा के प्रति जवाबदेह भी होंगे।
तारीख 28, महीना अप्रैल, दिन शुक्रवार, सन् 2017
नैनीताल हाई कोर्ट से ‘मानव’ दर्जा मिलने के बाद इस दिन पहली बार गंगा नदी को नोटिस जारी किया। हाई कोर्ट ने ऋषिकेश में प्रस्तावित कूड़ा निस्तारण ग्राउंड (ट्रेंचिंग ग्राउंड) को लेकर गंगा का पक्ष जानना चाहा।
हालांकि इस आदेश को उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसके बाद जुलाई 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने गंगा-यमुना को जीवित इंसान का दर्जा देने संबंधी फैसला रद्द कर दिया जबकि नैनीताल हाई कोर्ट ने आदेश किसी जल्‍दबाजी या भावावेश में नहीं सुनाया था।
न्यूजीलैंड की नदी बनी नजीर
याचिकाकर्ता मोहम्मद सलीम की ओर से वरिष्ठ वकील एम सी पंत ने गंगा-यमुना की खराब दशा बताते हुए कोर्ट के समक्ष न्यूजीलैंड में नदी को जीवित प्राणी का दर्जा देने का उदाहरण पेश किया था। उनकी दलील पर कोर्ट ने गंगा-यमुना को भी जीवित प्राणी का दर्जा देने के निर्देश दिए।
पंत का कहना था कि कोर्ट के पास किसी को भी वैधानिक व्यक्ति का दर्जा देने के अधिकार हैं और इसी आधार पर गंगा-यमुना को यह दर्जा दिया गया।
दरअसल, इस आदेश से पहले नैनीताल हाई कोर्ट प्रदूषण एवं पर्यावरण से जुड़े कई मामलों में एक के बाद एक कई फैसले दे चुका था किन्‍तु उत्तराखंड सरकार ने उन्‍हें गंभीरता से नहीं लिया।
न्‍यायालय ने देखा कि नदियों और जंगलों के संरक्षण की जो योजनाएं चल रही हैं, वो सब कागजी हैं, सरकारें उन पर कोई अमल नहीं करतीं वरना देश की प्रमुख नदियां कब की साफ हो चुकी होतीं।
अमेरिका में भी कुछ नदियों को कानूनी अधिकार, रिवर एक्ट भी मौजूद
अमेरिका में भी कुछ नदियों को कानूनी अधिकार प्राप्‍त हैं और इसके लिए बाकायदा वाइल्ड रिवर एक्ट नाम का एक क़ानून भी बनाया गया है। इस कानून के मुताबिक नदियों को निर्बाध बहने का अधिकार है लिहाजा उन्हें अपने निरंतर बहाव को बचाए रखने का भी अधिकार है।
भारत की बात
अगर बात भारत की करें तो इस देश के लिए गंगा और यमुना महज नदी नहीं हैं। ये यहां की संस्कृति का पर्याय हैं। एक विशाल आबादी के लिए जीवनदायिनी हैं और आस्था का केंद्र भी हैं, इसलिए आवश्यक केवल यह नहीं है कि नदियों के अविरल प्रवाह की चिंता की जाए, बल्‍कि इन्‍हें सहेजने के पर्याप्‍त इंतजाम भी हों क्‍योंकि ऐसा किए बिना नदियों के ही नहीं, इस देश के भी धार्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक महत्व को बचाए रखना मुश्किल होगा।
यमुना की दुर्दशा
उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिला अंतर्गत यमुनोत्री में समुद्र तल से 10804 फीट ऊंची बंदरपूंछ नामक चोटी यमुना नदी का उद्गम स्‍थल है। 1,376 कि. मी. लंबी यमुना नदी के प्रमुख तीर्थ स्‍थलों में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में स्‍थित विश्राम घाट का बड़ा धार्मिक महत्‍व है।
सूर्यपुत्री यमुना का विश्राम घाट पर अपने भाई और मृत्‍यु के देवता यमराज के साथ देशभर में एकमात्र मंदिर है।
ऐसी मान्‍यता है कि यमद्वितिया (भाईदूज) के दिन विश्राम घाट पर यमुना में स्‍नान और उसके बाद यमुना व धर्मराज (यम-यमुना) मंदिर के दर्शन करने वालों को यमफांस (बार-बार जन्‍म और मृत्‍यु का बंधन) से मुक्‍ति प्राप्‍त होती है।
इसी मान्‍यता के तहत यमद्वितिया के दिन देशभर से विश्राम घाट पर यमुना में डुबकी लगाने हजारों श्रद्धालु प्रतिवर्ष आते हैं।
ऐसे में यह सवाल उठना स्‍वाभाविक है कि पतित पावनी की संज्ञा प्राप्‍त कृष्‍ण की पटरानी कहलाने वाली कालिंदी (यमुना) क्‍या अपने धार्मिक महत्‍व को पूरा कर पा रही है ?
यमुना की दुर्दशा को लेकर सन् 1998 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के अंदर एक याचिका डाली गई। हाई कोर्ट ने इस याचिका की गंभीरता के मद्देनजर इसी वर्ष तमाम आदेश-निर्देश जारी किए।
इन आदेश-निर्देशों के तहत जो दो सबसे महत्‍वपूर्ण थे, उनमें पहला था- श्रीकृष्‍ण जन्‍मभूमि से बमुश्‍किल 500 मीटर की दूरी पर संचालित हो रही उस पशु वधशाला को पूरी तरह बंद करना जिसका रक्‍त नाले-नालियों के माध्‍यम से सीधा यमुना में जाकर गिरता था, और दूसरा शहर से दूर एक अत्‍याधुनिक पशु वधशाला का निर्माण कराना।
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने आदेश-निर्देशों का अनुपालन सुनिश्‍चित करने के लिए मथुरा के एडीएम (प्रशासन) को जहां नोडल अधिकारी नियुक्‍त कर उसे न्‍यायिक अधिकार प्रदान किए जिससे वो यमुना प्रदूषण से जुड़े उच्‍च अधिकारियों से भी जवाब तलब कर आवश्‍यक कार्यवाही कर सकें वहीं एक 5 सदस्‍यीय मॉनीटरिंग कमेटी का गठन भी किया। इस कमेटी के अध्‍यक्ष ए. डी. गिरी बनाए गए। सचिव का पद इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय के ही सीनियर एडवोकेट दिलीप गुप्‍ता को दिया गया। कमेटी के पदेन सदस्‍यों में यमुना एक्‍शन प्‍लान के प्रोजेक्‍ट मैनेजर और मथुरा के डीएम व एसएसपी को रखा गया।
वर्ष 2005 में ए. डी. गिरि की मृत्‍यु के बाद इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने यमुना की सुधि लेना ही लगभग बंद कर दिया। उच्‍च न्‍यायालय की इस मामले में उदासीनता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ए. डी. गिरी की मृत्‍यु से रिक्‍त हुए मॉनीटरिंग कमेटी के अध्‍यक्ष का पद अब तक नहीं भरा गया जबकि इस बावत प्रार्थना पत्र वर्ष 2007 से न्‍यायालय में लंबित है।
इसी प्रकार नोडल अधिकारी के रूप में अधिकार प्राप्‍त एडीएम (प्रशासन) मथुरा के पद पर जो भी अधिकारी आया, उसने कभी न तो अपने अधिकारों को जानना जरूरी समझा और न कर्तव्‍य को नतीजतन यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति के लिए दिए गए उच्‍च न्‍यायालय के आदेश-निर्देश आज 21 साल बाद भी धूल फांक रहे हैं।
जिस पशु वधशाला में कभी प्रतिदिन गिनती के पशु काटे जाते थे आज उसके आसपास अनगिनत पशुओं का अवैध कटान बेराकटोक जारी है क्‍योंकि अब उस क्षेत्र के अधिकांश घर भी पशु वधशाला में तब्‍दील हो चुके हैं। जिला प्रशासन एक दिन के लिए भी न तो पशुओं के अवैध कटान पर लगाम लगा पाया और न शहर से दूर अत्‍याधुनिक Cattle slaughterhouse बनवा पाया। बनवाना तो दूर जिला प्रशासन 21 वर्षों में उसके लिए स्‍थान तक चिन्‍हित नहीं कर सका। एक मर्तबा नेशनल हाईवे के निकट कस्‍बा फरह अंतर्गत चुरमुरा में जमीन चिन्‍हित की भी गई थी परंतु क्षेत्रीय नागरिकों के भारी विरोध ने प्रशासन को अपने कदम खींचने पर मजबूर कर दिया।
यूं कहने के लिए यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति को आए दिन सभी सरकारी विभागों की बैठकें होती हैं, इन बैठकों में कागजी घोड़े दौड़ाए जाते हैं, जवाब-तलब करने की औपचारिकता भी निभाई जाती है परंतु ठोस कार्यवाही कभी नहीं की जाती।
इस बाबत श्रीकृष्‍ण जन्‍मभूमि के OSD और यमुना प्रदूषण के मुद्दे पर लंबे समय से बारीक नजर रखने वाले विजय बहादुर सिंह का कहना है कि लगभग हर दिन वह पुलिस व प्रशासन के आला अधिकारियों को दरेसी रोड क्षेत्र में हो रहे अवैध पशु कटान की लिखित व मौखिक जानकारी देते हैं लेकिन किसी अधिकारी के कान पर जूं नहीं रेंगती।
विजय बहादुर सिंह ने बताया कि कल यानि 20 अक्‍टूबर की सुबह ही क्षेत्र में अवैध पशु कटान होने की जानकारी उन्‍होंने अधिकारियों को दी थी। जिसके बाद पहले तो इलाका पुलिस ने अवैध पशु कटान करने वालों को ही शिकायत किए जाने की सूचना दे दी, और फिर यह कह कर पल्‍ला झाड़ लिया कि शिकायत झूठी पायी गई।
कुछ देर बाद जब पुन: खुलेआम पड़े पशुओं के अवशेष तथा घरों में लटके हुए मीट की फोटो अधिकारियों को उपलब्‍ध कराई गईं तब करीब आठ घंटे बाद कार्यवाही अमल में लाई जा सकी।
इतने विलंब से उठाए गए कदम का परिणाम यह निकला कि जहां से सैकड़ों किलो मीट बरामद किया जा सकता था, वहां से मात्र दस किलो मीट बरामद हुआ।
दुख की बात यह है कि अवैध पशु कटान करने वालों के दरवाजे तोड़कर मीट बरामद करने वाली पुलिस को एक भी आरोपी मौके पर नहीं मिला।
विजय बहादुर सिंह का कहना है कि आज सुबह फिर उन्‍होंने उसी क्षेत्र के एक होटल में तीन बोरा मीट सप्‍लाई किए जाने की जानकारी फूड इंस्‍पेक्‍टर को दी लेकिन फूड इंस्‍पेक्‍टर ने यह कहते हुए दो टूक जवाब दे दिया कि वह अपने उच्‍च अधिकारियों के कहने पर ही कानूनी कार्यवाही करेंगे।
श्रीकृष्‍ण की पावन जन्‍मस्‍थली में प्रशासन का यह रुख तो तब है जबकि केंद्र से लेकर प्रदेश तक और राज्‍य से लेकर जिले तक में भगवाध्‍वज फहरा रहा है।
विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक स्‍थल मथुरा की कुल पांच विधानसभा सीटों में से चार पर भाजपा के विधायक काबिज हैं। इन चार विधायकों में से भी दो योगी सरकार के कद्दावर मंत्री बने बैठे हैं। ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा तो प्रदेश सरकार के प्रवक्‍ता भी हैं।
2014 से लगातार यहां की जनता ने प्रसिद्ध सिने अभिनेत्री और भाजपा नेत्री हेमा मालिनी को संसद में बैठने का अवसर दिया है।
जिला पंचायत के अध्‍यक्ष पद को कबीना मंत्री और छाता क्षेत्र के विधायक चौधरी लक्ष्‍मीनारायण की पत्‍नी ममता चौधरी सुशोभित कर रही हैं।
पहली बार अस्‍तित्‍व में आए मथुरा-वृंदावन नगर निगम के महापौर भी भाजपा के डॉ. मुकेश आर्यबंधु हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद यहां न तो पशुओं का अवैध कटान रुक पा रहा है और न यमुना की दुर्दशा सुधारने के कोई प्रयास हो रहे हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार यमुना में 80 फीसदी प्रदूषण दिल्ली के 22 किलोमीटर के दायरे में होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि दिल्‍ली से आगे जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह सिर्फ और सिर्फ नाले-नालियों तथा सीवर लाइनों की गंदगी है। यमुना जल का उससे दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं रहा।
दिल्‍ली से मथुरा की दूरी 150 किलोमीटर है और इस 150 किलोमीटर क्षेत्र में दिखाई देने वाली यमुना पूरी तरह मर चुकी है। जाहिर है कि इससे आगे 50 किलोमीटर दूर आगरा में भी यमुना के नाम पर गंदगी ही बहती दिखाई देती है।
मथुरा के 19 और वृंदावन के सभी 18 नालों का गंदा पानी सीधे यमुना में गिर रहा है। ये बात अलग है कि कागजों में उसी प्रकार ये सभी 37 नाले-नालियां टैप किए जा चुके हैं जिस प्रकार दरेसी रोड की पशु वधशाला सील की हुई है।
इन हालातों में पूछा जा सकता है कि क्या एक नदी की बेरहम हत्या करने वालों को कहीं से कोई सजा मिलेगी या देश की अदालतें, सरकार तथा जनमानस सब तमाशबीन बने रहेंगे और यमुना मात्र एक अतीत, इतिहास अथवा किंवदंती बनकर रह जायेगी?
अफसोस कि इनमें से किसी प्रश्न का उत्तर देने वाला आज कोई सामने नहीं।
सामने है तो वही यमुना जिसे मां का दर्जा प्राप्‍त है और जो मृतप्राय होकर भी जीवन-मरण के बंधन से मुक्‍ति का मार्ग दिखाती है।
ऐसी पतित पावनी यमुना से अब सिर्फ यही प्रार्थना की जा सकती है कि हे मां! तू कुछ भी करना परंतु अपने इन हत्‍यारों को कभी क्षमा मत करना, क्‍योंकि ये क्षमा के लायक नहीं हैं। ये तेरी दया के पात्र भी नहीं हैं।
नैनीताल हाई कोर्ट के आदेश भले ही सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिए हों परंतु देश की बड़ी आबादी के लिए तू आज भी मां है, तेरी बूंद-बूंद में जीवन है, तू जीवन दायिनी है, जीवित है इसलिए तेरी दुर्दशा करने वाला हर व्‍यक्‍ति सजा का हकदार है। उसे सजा मिलनी ही चाहिए। फिर चाहे वह न्‍यायपालिका से जुड़ा हो या कार्यपालिका से, विधायिका से जुड़ा हो अथवा जनसामान्‍य ही क्‍यों न हो। तेरे गुनहगार बचने तो नहीं चाहिए।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

केतु काल में कांग्रेस: जरूरत है महामृत्‍युंजय के जाप की, लेकिन कांग्रेसी हैं कि तुलसी-गंगाजल हाथ में लेकर खड़े हैं

ज्योतिष के अनुसार सूक्ष्‍म में समझें तो किसी की कुंडली पर केतु का प्रभाव अथवा केतु काल या अशुभ केतु होने से उसके सामने जीवन-मरण का संकट उत्‍पन्‍न हो जाता है। उसे बड़ी सर्जरी की जरूरत होती है अन्‍यथा उसके जीवन पर बन आती है।
वैसे कुंडली का अशुभ ‘केतु’ पितृ दोष का सूचक भी होता है, जिसके बहुत गहरे प्रभाव पड़ते हैं। इन प्रभावों का अध्‍ययन और उपचार खुद कांग्रेस ही कर सकती है।
कांग्रेस की दिशा एवं दशा पर गौर करें तो साफ पता लगता है कि उसका केतु काल मनमोहन सरकार के दूसरे टर्म में ही प्रारंभ हो गया था, और 2019 आते-आते उसके प्रभाव स्‍पष्‍ट दिखाई देने लगे थे।
केत छुड़ावै खेत
कहते हैं जब कुंडली में केतु का अंतर आता है तब बड़े परिवर्तन की दरकार होती है। जो इस बात को समझते हुए परिस्‍थितियों के अनुरूप खुद को ढालकर आगे का मार्ग पकड़ लेते हैं वो सफल हो जाते हैं परंतु जो परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होते वो उसके दुष्‍परिणाम भोगने को अभिशप्त होते हैं।
2019 के चुनाव परिणाम बताते हैं कि कांग्रेस ने केतु काल के दोष निवारण का कोई प्रबंध नहीं किया। उसने परिस्‍थितिजन्‍य परिवर्तन की बजाय लकीर पीटते रहने का मार्ग चुना, नतीजतन वह आज उस मुकाम पर आकर खड़ी हो गई है जहां महामृत्‍युंजय जैसे मंत्र की आवश्‍यकता है।
राहुल गांधी पलायन के रास्‍ते पर हैं और कांग्रेसी राह भटक रहे हैं, बावजूद इसके कांग्रेस पार्टी है कि समझने को तैयार ही नहीं।
आत्‍मघाती कदम
केतु काल के शुरूआती दौर की बात न भी की जाए तो पिछले दिनों सबसे सीनियर कांग्रेसी नेता जयराम रमेश ने कहा कि केंद्र सरकार के हर कदम को गलत ठहराना आत्‍मघाती साबित हो रहा है। अच्‍छे कार्यों का सकारात्‍मक संदेश देने में कोई हर्ज नहीं है।
उसी समय शशि थरूर ने भी यही कहा कि सरकार के प्रत्‍येक क्रिया-कलाप की सिर्फ और सिर्फ निंदा करना उचित नहीं। जनभावना के अनुरूप कल्‍याणकारी कार्यों के लिए सरकार को प्रोत्‍साहित करना भी विपक्ष की भूमिका का हिस्‍सा है।
कांग्रेस ने अपने इन दोनों नेताओं की सलाह को मानना तो दूर, उन्‍हें परोक्ष और अपरोक्ष रूप से यह बता दिया कि पार्टी के प्रति आपकी निष्‍ठा संदिग्‍ध प्रतीत हो रही है।
दो दिन पहले सलमान खुर्शीद ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए अपने इंटरव्‍यू में कहा कि देश का मिज़ाज बदल गया है। देश के सोचने का तरीका बदल चुका है और इस बदले मिज़ाज का पता लगाकर ही समस्या का समाधान निकाला जा सकता है।
सलमान खुर्शीद ने कहा कि देश में और देश की सोच में ऐसे क्या परिवर्तन आए कि हम सिकुड़ कर इतने छोटे हो गए, यह हमें समझना होगा। हमें समझना होगा कि इतने शानदार नेताओं की इतनी शानदार पार्टी का यह हाल क्यों हो गया।
सलमान खुर्शीद के राहुल गांधी पर दिए बयान से कांग्रेस नेता राशिद अल्वी इतने खफा हो गए कि उन्होंने इशारों-इशारों में खुर्शीद को घर (कांग्रेस पार्टी) में आग लगाने वाला और पार्टी का दुश्मन तक बता दिया। बावजूद इसके सलमान खुर्शीद ने राहुल गांधी के अध्यक्ष पद से इस्तीफे पर दिए गए अपने बयान को दोहराते हुए कहा कि ऐसे वक्त में जब देश का मिज़ाज बदल गया है, राहुल का ‘छोड़ जाना’ कांग्रेस के लिए बड़ी मुसीबत है।
सलमान खुर्शीद के सुर में सुर मिलाते हुए पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दोहराया कि कांग्रेस को आत्म-अवलोकन की जरूरत है। वर्तमान में कांग्रेस की जो स्थिति है, उसमें आत्‍मचिंतन ही एकमात्र उपचार है। उन्होंने स्‍पष्‍ट कहा कि कांग्रेस फिलहाल महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में जीत दर्ज नहीं करा पाएगी।
यही बात कांग्रेस के महाराष्‍ट्र में कद्दावर नेता संजय निरुपम ने भी कही। हालांकि उनकी नाराजगी के अन्‍य कारण भी थे।
संजय निरुपम ने तो पार्टी छोड़ने की धमकी देते हुए यहां तक कह दिया कि कांग्रेस में राहुल गांधी के वफादारों को इरादतन निशाना बनाया जा रहा है ताकि उनका राजनीतिक भविष्‍य चौपट किया जा सके।
संजय निरुपम से पहले हरियाणा कांग्रेस के प्रदेश अध्‍यक्ष अशोक तंवर ने अपने पद से इस्‍तीफा देते हुए यही आरोप लगाए थे। उन्‍होंने सीधे सीधे पार्टी हाईकमान यानी सोनिया गांधी पर निशाना साधते हुए कहा कि धीरे-धीरे उन सभी का सफाया करने की साजिश रची जा रही है जो राहुल गांधी की टीम में थे।
अशोक तंवर के अनुसार अभी बहुत सी राजनीतिक हत्याएं होना बाकी है। मैं अकेला नहीं हूं, बहुत लंबी लाइन है।
राशिद अल्‍वी ने संजय निरुपम और अशोक तंवर दोनों पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि कोई महाराष्ट्र से बोल रहा है तो हरियाणा से बोल रहा है। ऐसा लग रहा है कि हमें बाहर के दुश्मनों की जरूरत ही नहीं रह गई है। घर को आग लग गई, घर के ही चिराग से।
राहुल बनाम प्रियंका
कांग्रेस के तमाम नेताओं की बयानबाजी यह इशारा करती है कि कहीं न कहीं पार्टी के अंदर राहुल बनाम प्रियंका चल रहा है।
याद कीजिए कि 2019 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले जब प्रियंका गांधी को अचानक कांग्रेस में बड़ा पद देते हुए बड़ी जिम्‍मेदारी भी सौंपी गई थी तब इसे गेम चेंजर बताया गया था। कोई प्रियंका गांधी वाड्रा में इंदिरा गांधी की छवि देख रहा था तो कोई उन्‍हें कांग्रेस के लिए तारनहार घोषित करने पर आमादा था।
इस सबसे परे पार्टी के कुछ बड़े नेता दीवार पर लिखी उस इबारत को पढ़ पाने में सफल रहे थे, जो राहुल-प्रियंका की कथित जुगलबंदी के पीछे से नजर आ रही थी। ये नेता बहन-भाई के दर्शनीय प्रेम पर संदेह के बादल महसूस कर रहे थे परंतु नतीजों के इंतजार में थे।
नतीजे आए तो बहुत कुछ अपने आप सामने आ गया। अटकलों के दौर व किंतु-परंतु के बीच राहुल गांधी ने अंतत: पलायन का मार्ग चुना जिससे एकबार फिर पार्टी की कमान सोनिया गांधी के हाथों में आ गई।
इधर भाई राहुल गांधी के पलायन से ठीक विपरीत प्रियंका की सक्रियता में इजाफा हो गया। उन्‍होंने न तो राहुल की तरह अपने पद से इस्‍तीफा देने की पेशकश की और न हार के लिए जिम्‍मेदारी ओढ़ी। सोनिया गांधी ने भी एक समय बाद राहुल गांधी को लेकर प्रतिक्रिया देना बंद कर दिया।
जाहिर है कि इतना सबकुछ केवल इत्तिफाकन नहीं हुआ होगा। इसके पीछे कोई योजना जरूर काम कर रही थी। शायद इसी योजना की ओर इशारा करते हुए जहां संजय निरुपम और अशोक तंवर जैसे नेता खुलकर बोल रहे हैं वहीं सलमान खुर्शीद तथा ज्‍योतिरादित्‍य सिधिंया पॉलिश्ड तरीके से बता रहे हैं।
सलमान खुर्शीद और ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया का यह कहना कहां गलत है कि हमें देश का मिज़ाज समझना होगा। हमें आत्‍मचिंतन और आत्‍मावलोकन करना होगा।
सलमान खुर्शीद को संभवत: यह भान भी था कि उनके कहे पर हंगामा होगा और उनकी पार्टी के प्रति निष्‍ठा को लेकर सवाल उठाए जाएंगे, इसीलिए उन्‍होंने लगेहाथ यह कह दिया कि वो कांग्रेस छोड़कर कहीं जाने वाले नहीं हैं। वह कांग्रेसी हैं और कांग्रेसी ही रहेंगे।
किसी के भी दुर्दिनों की एक विशेषता यह होती है कि वह अपने हितैषियों को पहचान नहीं पाता। वह अपने और पराये के भेद को समझने में सक्षम नहीं रहता। इस स्‍थिति‍ को कोई मतिभ्रष्‍ट होना कहता है तो कोई ग्रहों का प्रभाव बताता है।
कांग्रेस के संदर्भ में लक्षण देखकर निष्‍कर्ष निकाला जाए तो दोनों बातें सही प्रतीत होती हैं।
तभी तो यह हाल है कि इस स्‍थिति‍ में जब पार्टी के लिए मृत-संजीवनी कहे जाने वाले महामृत्‍युंजय मंत्र का जाप करने की जरूरत है तब पार्टी के कुछ बड़े नेता तुलसी-गंगाजल हाथ में लेकर खड़े हैं।
उन्‍हें इंतजार है उस आखिरी हिचकी का जिसके बाद तुलसी-गंगाजल डालकर अपना धर्म व कर्म पूरा करते हुए शेष सांसें भी थम जाने की दुहाई दे सकें। बता सकें कि मृत देह से चिपके रहने का कोई औचित्‍य नहीं।
जो भी हो, लेकिन कांग्रेस का यह हाल देश और देशवासी दोनों के लिए नुकसानदेह है।
उस लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह है जिसे अब तक कायम रखने के लिए कई बलिदान दिए गए। लोकतंत्र के लिए एक परिपक्‍व व मजबूत विपक्ष का होना अत्‍यन्‍त आवश्‍यक है। परिपक्‍व व मजबूत विपक्ष नहीं रहेगा तो लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगेगा।
कांग्रेस की समस्‍या यह है कि वह विपक्ष की भूमिका स्‍वीकार नहीं कर पा रही। निजी स्‍वार्थों से उठकर वह यह भी नहीं सोच पा रही कि विपक्ष की भूमिका निभाना भी देशहित में उतना ही महत्‍वपूर्ण है जितना सत्ता में रहकर सरकार चलाना।
यदि वह अपनी इस जिम्‍मेदारी का निर्वहन नहीं करती तो देश व देशवासियों की गुनाहगार कही जाएगी। उसका गौरवशाली अतीत इतिहास में दफन हो जाएगा और आने वाली पीढ़ी उसके स्‍वर्णिम काल को भुला बैठेगी।
खतरा यह भी है कि आगे आने वाले समय में उसका उल्‍लेख एक ऐसे गुनाहगार के तौर पर किया जाने लगे जिसने विपक्षी दल का अपना धर्म न निभाकर निजी स्‍वार्थों को तरजीह दी और उसके नेता उन्‍हीं स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए परस्‍पर लड़ते रहे।
यदि ऐसा हुआ तो तय जानिए कि ये देश कभी नेहरू-गांधी के इन वारिसों को माफ नहीं करेगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

बुधवार, 2 अक्तूबर 2019

आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं



Gandhi's fear finally proved to be true, now Gandhi is also afraid and is scared


कहते हैं मोहन दास करमचंद गांधी यानी महात्‍मा गांधी के मन में एक डर बहुत अंदर तक समाया हुआ था। उन्‍हें डर था कि लोग उन्‍हें ईश्‍वर न बना दें, उनकी मूर्तियां स्‍थापित न कर दें।
गांधी ने एक-एक चिट्ठी के जवाब में लिखा भी था कि ”मैं कोई चमत्कार नहीं करता। मेरे अंदर उसी प्रकार ईश्वर का एक अंश है, जिस प्रकार जीवमात्र में होता है। मुझमें कोई ईश्वरत्व नहीं है। मुझे ईश्‍वर मत बनाइए”।
उन्होंने लिखा कि अगर कोई कौवा बरगद के पेड़ पर बैठ जाए और पेड़ गिर पड़े तो वो कौवे के वजन से नहीं गिरता। हां, कौवे को ये मुगालता हो सकता है कि उसके वजन से पेड़ गिरा है लेकिन मुझे ऐसा कोई मुगालता नहीं है। मुझे अपने बारे में कोई ग़लतफ़हमी नहीं है।
अब बात अपनी, अपने दौर की
मैं स्‍वतंत्र भारत के उस दौर की पैदाइश हूं जिसने गांधी को नहीं देखा, सिर्फ ऐसे ही किस्‍से-कहानियों में सुना है, कुछ किताबों में पढ़ा है और उन्‍हीं से जाना है। आंखों देखी और कानों सुनी में बहुत फर्क होता है, यह बात सर्वमान्‍य है।
इस तरह मैं कह सकता हूं कि मैं गांधी को नहीं जानता, लेकिन मैं यह भी कह सकता हूं कि गांधीवादी न मुझे जानते हैं और न गांधी को।
मुझे न जानने से आशय, उन करोड़ों आम लोगों से है जो गांधी के दौर में पैदा नहीं हुए और जिनके लिए गांधी सिर्फ उनसे जुड़े तमाम किस्‍से-कहानियों तक ही सीमित हैं।
गांधी को जानते होते तो उनकी मूर्तियां स्‍थापित करके उन्‍हें ईश्‍वर न बनाते। गांधी-जयंती पर इन मूर्तियों को फूल-मालाएं न चढ़ाते। आखिर सच साबित हुआ गांधी का डर, अब गांधी डर भी रहे हैं और डरा भी रहे हैं।
डर इसलिए रहे हैं क्‍योंकि मूर्तियां कम होने की बजाय बढ़ रही हैं, और डरा इसलिए रहे हैं कि इन मूर्तियों का इस्‍तेमाल राजनीतिक हथियार के रूप में हो रहा है।
लोग गांधी की कथनी को गांधीवादियों की करनी में देखना चाहते हैं, मात्र किस्‍से-कहानियों में सुनना या मूर्तियों के रूप में देखना नहीं चाहते लेकिन हो यही रहा है क्‍योंकि गांधीवाद आज पहले से कहीं अधिक बिकाऊ है।
गांधी से जुड़े किस्‍से-कहानियों पर लौटें तो उन्‍हें सत्‍य व अहिंसा का पुजारी, यहां तक कि इनका प्रतीक माना जाता रहा किंतु उनके सामने ही सत्‍य और अहिंसा दोनों का जनाज़ा उठ गया।
जिस स्‍वतंत्रता का सपना देखते-देखते अनगिनत लोगों ने अपने जीवन की आहुति दे डाली और कितने लोग सलाखों के पीछे रहे, उसी स्‍वतंत्रता का सपना तब पूरा हुआ जब निजी स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए सत्‍य को खूंटी पर टांगकर देश का जबरन विभाजन करा दिया। अहिंसा को ताक पर रखकर हिंसा का ऐसा नंगा नाच किया गया, जिसकी इतिहास में कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि गांधी की आंखों के सामने उनके सत्‍य और अहिंसा ने दम तोड़ दिया। गांधी खुद तो हिंसा का शिकार उसके बाद हुए किंतु गांधीवाद उनके सामने ही मर चुका था।
गांधी को यह डर तो था कि लोग उनकी मूर्तियां स्‍थापित करके उन्‍हें ईश्‍वर न बना दें किंतु उन्‍होंने यह कभी नहीं सोचा था कि लोग गांधीवाद को हथियार बनाकर हर रोज उनकी हत्‍या करेंगे। सत्‍य के पुजारी की मूर्तियां भी झूठे गांधीवाद को न सिर्फ देखने के लिए अभिशप्‍त होंगी बल्‍कि उनके हाथों फूल-मालाएं भी ग्रहण करने पर मजबूर होंगी।
गांधी से जुड़े अनेक किस्‍से-कहानियों के बीच उन्‍हें जोड़कर कही जाने वाली यह कहावत भी संभवत: इसीलिए बहुत प्रचलित है कि ”मजबूरी का नाम महात्‍मा गांधी” ।
यह कहावत कब, क्‍यूं और कैसे वजूद में आई इसके बारे में तो कोई ठोस जानकारी उपलब्‍ध नहीं है परंतु वो सबकुछ उपलब्‍ध है जो गांधी को उनके डर से हर दिन रूबरू करा रहा है।
मुंह में राम, और बगल में छुरी रखकर ”वैष्‍णव जन तो तेने कहिए…का राग अलापते हुए पल-पल अहसास कराया जा रहा है कि गांधी केवल किस्‍से कहानियों में अच्‍छे लगते हैं, मूर्तियों में जंचते हैं लेकिन अमल में नहीं लाए जा सकते।
अमल में लाए जा सकते तो न देश का विभाजन होता और न गांधी की हत्‍या होती।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

मंदी के इस दौर में भी खूब फल-फूल रहा है यूपी का तबादला उद्योग

UP's transfer industry is flourishing even in this phase of recessionविश्‍वव्‍यापी आर्थिक मंदी के इस दौर में जब देश के बड़े-बड़े उद्योग धंधों की दम निकली पड़ी है और उन्‍हें खड़ा रखने के लिए केंद्र सरकार को लगातार प्राणवायु मुहैया करानी पड़ रही है, तब भी यूपी का तबादला उद्योग न सिर्फ पूरे दम-खम के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है बल्‍कि अच्‍छा-खासा फल-फूल भी रहा है।
वैसे तो तबादलों को उद्योग का दर्जा दिलाने में काफी पहले ही हमारे राजनेता सफल हो गए थे लिहाजा सरकारें बेशक बदलती रहीं किंतु तबादला उद्योग कभी बंद नहीं हुआ। वर्ष 2017 में यूपी पर योगी आदित्‍यनाथ के नेतृत्‍व वाली सरकार काबिज होने के बाद लोगों को कुछ ऐसी उम्‍मीद बंधी कि शायद अब भ्रष्‍टाचार की बुनियाद माना जाने वाला तबादला उद्योग जरूर प्रभावित होगा।
योगी सरकार ने अपने शुरूआती कुछ महीनों तक इसके संकेत भी दिए कि वह अधिकारियों को ताश के पत्तों की तरह फेंटने की बजाय यथास्‍थिति बनाए रखेंगे और जो जहां है, उससे वहीं बेहतर काम लेंगे क्‍योंकि ब्‍यूरोक्रेसी हवा के रुख को पहचान कर नतीजे देती है।
किंतु जल्‍दी ही पहले तुरुप के इक्‍कों में फेर-बदल किया गया, और फिर बादशाह-बेगम व गुलामों की हैसियत वाले भी इधर से उधर किये जाने लगे।
आज जबकि योगी आदित्‍यनाथ की सरकार को यूपी की कमान संभाले हुए ढाई वर्ष अर्थात आधा कार्यकाल बीत चुका है तब पता लग रहा है कि योगीराज में भी तबादलों का खेल उसी प्रकार खेला जा रहा है, जिस प्रकार सूबे की पूर्ववर्ती सरकारें खेलती रही थीं।
योगी सरकार में शीघ्र ही तबादला उद्योग ढर्रे पर आ जाने के पीछे भी वही कारण बताए जा रहे हैं जो अखिलेश या मायाराज में बताए जाते थे। यानी…
कलयुग नहीं ये करयुग है, यहाँ दिन को दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नकद है, इस हाथ दे उस हाथ ले।।
अब स्‍थिति यह है कि शायद ही किसी जिले में कोई अधिकारी टिक पाता हो। तबादला उद्योग के गतिमान रहने से अधिकारियों के स्‍थायित्‍व की समयाविधि ”महीनों में” सिमट कर रह गई है।
ये आदान-प्रदान किस स्‍तर पर हो रहा है और कौन कर रहा है, इसे जानना भी कोई रॉकेट साइंस नहीं है परंतु इसमें कोई दो राय नहीं कि सबके सब ‘अनभिज्ञ’ बने रहते हैं।
सरकार से ही जुड़े सूत्रों का स्‍पष्‍ट कहना है कि भ्रष्‍टाचार पर ‘जीरो टॉलरेंस’ की बात करने वाले योगी आदित्‍यनाथ की सरकार में आज प्रदेश, मंडल व जिलों में तैनाती का रेट फिक्‍स है।
हो सकता है ट्रांसफर-पोस्‍टिंग के लिए निर्धारित दामों की लिस्‍ट योगी आदित्‍यनाथ की नजरों के सामने न आ पायी हो परंतु भ्रष्‍ट और भ्रष्‍टतम अधिकारियों की अच्‍छे-अच्‍छे पदों पर तैनाती यह समझने के लिए काफी है कि तबादला उद्योग पूरी रफ्तार से चल रहा है।
यदि इतने से भी किसी कारणवश बात समझ में नहीं आ रही हो तो बहुत जल्‍दी-जल्‍दी तबादले स्‍पष्‍ट बता देते हैं कि दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी की पूरी दाल काली है।
दरअसल, तबादला उद्योग एक ऐसा उद्योग है जो ऊपर से चलता है तो बहुत जल्‍दी नीचे तक अपनी जड़ें जमा लेता है।
बात चाहे पुलिस की हो अथवा प्रशासन की, आला अधिकारी अपनी भरपाई करने के लिए वही रास्‍ता अपने मातहतों के लिए खोल देते हैं जिस रास्‍ते पर चलकर वह वहां तक पहुंचते हैं।
यदि किसी जिले में डीएम और एसएसपी अथवा एसपी कुछ महीनों के मेहमान होते हैं तो उस जिले में उनके अधीनस्‍थ भी महीनों के हिसाब से ‘चार्ज’ पाते हैं।
चूंकि जिले के प्रभार का रेट वहां मौजूद आमदनी के अतिरिक्‍त स्‍त्रोतों और उसकी भोगौलिक एवं आर्थिक स्‍थिति के अनुरूप निर्धारित रहता है इसलिए हर जिले में सर्किल, थाने-कोतवाली सहित प्रशासनिक हलकों के दाम भी उसी के हिसाब से तय होते हैं।
कहने के लिए पिछले दिनों बुलंदशहर के SSP एन कोलांची को थानेदारों की तैनाती में अनियमितता बररतने पर निलंबित कर दिया गया।
फिर प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को निलंबित कर दिया।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्थी के अनुसार बुलंदशहर में दो थाने ऐसे थे जहां एसएसपी एन. कोलांची ने सात दिन से भी कम समय के लिए उपनिरीक्षकों को चार्ज दिया। एक थाना ऐसा था जहां का चार्ज मात्र 33 दिन में छीन लिया गया।
इतना ही नहीं, कोलांची ने दो ऐसे उप निरीक्षकों को चार्ज दे दिया जिन्‍हें पूर्व में Condemned entry (परनिंदा प्रविष्टि) दी जा चुकी थी।
अपर मुख्य सचिव गृह अवनीश अवस्‍थी की बात सच मानी जाए तो फिर प्रदेश के तमाम उन अन्‍य जिलों का क्‍या, जहां अयोग्‍य उपनिरीक्षकों-निरीक्षकों तथा उपाधीक्षकों को लगातार चार्ज पर रखा जा रहा है।
इसी प्रकार प्रयागराज (इलाहाबाद) के एसएसपी अतुल शर्मा को प्रदेश के डीजीपी ओपी सिंह ने अपनी रिपोर्ट में बाकायदा ‘निकम्‍मा’ अधिकारी घोषित किया है।
ऐसे में यह सवाल स्‍वाभाविक है कि एक निकम्‍मा अधिकारी प्रयागराज जैसे बड़े व महत्‍वपूर्ण जिले का चार्ज कैसे पा गया ?
आगरा के एसएसपी बनाए गए जोगेन्‍द्र सिंह को बमुश्‍किल कुछ हफ्ते में हटा दिया गया, फिलहाल वह आगरा में ही जीआरपी के एसपी हैं।
जल्‍द ही अगर उन्‍हें फिर किसी महत्‍वपूर्ण जिले का चार्ज दे दिया जाए तो कोई आश्‍चर्य नहीं।
मतलब तबादला उद्योग के चलते उच्‍च अधिकारियों से लेकर जिलों में बांटे जाने वाले ‘चार्ज’ की योग्‍यता कुछ महीनों, कुछ दिनों और यहां तक कि कुछ घंटों में तय की जा सकती है। बशर्ते कि मनमाफिक चार्ज चाहने वाला मनमुताबिक रकम अदा करने को तैयार हो।
यही कारण है कि एक ओर जहां हर स्‍तर पर ऐसे अकर्मण्‍य और निकम्‍मे लोग चार्ज पर मिल जाएंगे जिनकी आम शौहरत जगजाहिर है, वहीं दूसरी ओर काबिल-जिम्‍मेदार व कर्तव्‍यनिष्‍ठ लोग सम्‍मानजनक पोस्‍टिंग के लिए दर-दर भटकते मिलेंगे।
कहीं-कहीं तो नौबत यहां तक आ जाती है कि मजबूरन कोई अनुशासन को ताक पर रखकर शिकवा-शिकायत करने लगता है तो कोई न्‍यायपालिका की शरण में जा पहुंचता है क्‍योंकि निजी स्‍वार्थों की पूर्ति में लिप्‍त अधिकारी उनके भविष्‍य को अंधकारमय बनाने से भी परहेज नहीं करते।
फिलहाल पूरे प्रदेश में ऐसे एक-दो नहीं, अनेक उदाहरण सामने हैं जहां नाकाबिल लोग तबादला उद्योग से लाभान्‍वित होकर मलाईदार पदों पर जमे हुए हैं जबकि अच्‍छी कार्यशैली वाले अधिकारी एवं कर्मचारियों को कोई मौका नहीं दिया जा रहा।
यदि प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ खुद इस तबादला उद्योग की बारीक समीक्षा करें और जिलों के अंदर आए दिन की जाने वाली उठा-पटक का पता लगाएं तो चौंकाने वाली सच्‍चाई सामने आ सकती है।
आश्‍चर्य तो इस बात पर है कि बुलंदशहर के एसएसपी रहे कोलांची और प्रयागराज के एसएसपी रहे अतुल शर्मा का उदाहरण सामने होने के बावजूद सीएम योगी समूची हांडी के पकने का इंतजार क्‍यों कर रहे हैं।
योगी जी को यह भी समझना होगा कि हर बार चुनाव परिणाम मोदी मैजिक से नहीं मिलने वाले। 2022 में जब यूपी विधानसभा के चुनाव होंगे तब बाकी उपलब्‍धियों के साथ-साथ तबादला उद्योग और उससे प्रभावित हो रही कानून-व्‍यवस्‍था का भी आंकलन जरूर होगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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