शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

शौक बड़ी चीज: माल्या ने खरीदा 4 करोड़ का घोड़ा

नई दिल्ली। 
एक विज्ञापन टीवी पर अक्सर दिखाई दे जाता है कि 'शौक बड़ी चीज है'। लगता है कि विजय माल्या ने इस 'गुरुमंत्र' को आत्मसात कर लिया है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के मुताबिक उन्होंने एक घोड़ा खरीदा है जिसकी कीमत करीब चार करोड़ रुपये है। हालांकि कहा ये भी जा रहा है कि इसकी कीमत चार करोड़ से भी ज्यादा हो सकती है। इस घोड़े का नाम है एयर सपोर्ट।
उनकी एयरलाइन्स कंपनी डूबे तो डूबे लेकिन माल्या को क्या? कर्मचारियों को बेशक सैलेरी ना मिले, वो आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएं लेकिन भला शौक पर किसका बस चलता है।
21 साल की उम्र से घोड़ों की दौड़ का शौक पाले हुए हैं माल्या। खबर के मुताबिक माल्या की गिनती भारत के शीर्ष तीन, घोड़ा मालिकों और ब्रीडर्स में होती है। माल्या के अलावा पूनावाला परिवार और एमएएम रामास्वामी भी शीर्ष तीन में हैं।
1992 में माल्या ने एक 250 साल पुराना ऐतिहासिक स्टड फार्म खरीदा था जो 450 एकड़ में फैला हुआ है। माना जा रहा है कि इस घोड़े को वहीं रखा जाएगा और ब्रीडिंग के काम में लिया जाएगा।
एयर सपोर्ट नाम का ये घोड़ा अभी तक वर्जीनिया डर्बी समेत पांच रेस जीत चुका है।
कुछ वक्त ही बीता है जब माल्या ने बैंगलौर आईपीएल टीम के लिए युवराज सिंह को 14 करोड़ में खरीदा था। 

मोदी मोह के चलते जनरल पर कसा सीबीआई का शिकंजा

नई दिल्ली। 
पूर्व थलसेना प्रमुख जनरल (सेवानिवृत) वी के सिंह के उस आरोप के सत्यापन के लिए सीबीआई उनके द्वारा सौंपी गयी एक ऑडियो रिकॉर्डिंग की फॅारेंसिक जांच फिर से करायेगी जिसमें उन्होंने कहा था कि टाट्रा ट्रकों की आपूर्ति को मंजूर करने की एवज में थलसेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें कथित तौर पर रिश्वत की पेशकश की थी।
सीबीआई सूत्रों ने कहा कि एजेंसी उस सीडी की फॉरेंसिक जांच फिर से कराना चाहती है जिसमें वी के सिंह को 14 करोड़ रुपए की कथित रिश्वत की पेशकश के समय की बातचीत की ऑडियो रिकॉर्डिंग है। सूत्रों ने कहा कि पहले की गयी जांच में सीडी से कुछ भी सामने नहीं आ पाया था।
सीडी में रिकॉर्ड की गयी चीजें सुनना संभव नहीं हो सका। इसके बाद उसे फॉरेंसिक जांच के लिए केंद्रीय फॉरेंसिक एवं वैज्ञानिक प्रयोगशाला (सीएफएसएल) भेज दिया गया। सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘‘हमने फिर से फॉरेंसिक जांच कराने के लिए सीडी को सीएफएसएल भेज दिया है।’’ फॉरेंसिक विशेषज्ञों ने तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष द्वारा मुहैया कराए गए रिकॉर्डिंग उपकरण से डाटा हासिल करने की कोशिश की थी।
इस सीडी में वह बातचीत रिकॉर्ड की गयी थी जिसमें थलसेना के वरिष्ठ अधिकारी लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत) तेजिंदर सिंह ने वी के सिंह को 600 टाट्रा ट्रकों की आपूर्ति मंजूर करने की एवज में 14 करोड़ रुपए की कथित रिश्वत की पेशकश की थी पर पाया कि उपकरण का डाटा ‘‘करप्ट’’ है यानी उसे सुना नहीं जा सकता।

भारत में न्यायपालिका समेत हर स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार

वॉशिंगटन। 
अमेरिकी कांग्रेस की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में न्यायपालिका समेत सरकार के हर स्तर पर व्यापक भ्रष्टाचार है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन कैरी द्वारा जारी इस वाषिर्क रिपोर्ट (कंट्री रिपोर्ट्स ऑन ह्यूमन राइट्स प्रेक्टिसेज) में कहा गया, "भ्रष्टाचार व्यापक स्तर पर है।" इस रिपोर्ट के अनुसार, हालांकि आधिकारिक स्तर पर भ्रष्टाचार होने पर कानून आपराधिक दंड देता है लेकिन भारत सरकार ने कानून को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया और अधिकारी छूट का फायदा उठा कर भ्रष्ट कामों में लिप्त हो जाते हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार के हर स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है। सीबीआई ने जनवरी से नवंबर माह के बीच में भ्रष्टाचार के 583 मामले दर्ज किए हैं।
इसमें कहा गया है कि केंद्रीय सतर्कता आयोग को वर्ष 2012 में 7,224 मामले मिले। 5,528 मामले वर्ष 2012 के थे और बाकी 1,696 मामले 2011 से बचे थे। आयोग ने 5,720 मामलों पर कार्रवाई की सिफारिश की थी।
-एजेंसी

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

ओपिनियन पोल की खुली पोल: पैसे लेकर किए जाते हैं सर्वे

ओपिनियन पोल फिक्स होते हैं। पोल करवाने वाले अपने मनमुताबिक नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। यह खुलासा किया है एक टीवी चैनल के स्टिंग ऑपरेशन ने। चैनल का दावा है कि सी-फोर समेत देश की 11 नामी ओपिनियन पोल कंपनियां इस तरह का फर्जी काम कर रही हैं। इस ऑपरेशन के बाद इंडिया टुडे समूह ने सी-वोटर के साथ करार निलंबित कर दिया है। हालांकि, नीलसन इकलौती ऐसी कंपनी है, जिसने पैसे लेकर नतीजे बदलने से इनकार कर दिया।
न्यूज चैनल ने 'ऑपरेशन प्राइम मिनिस्टर' नामक स्टिंग ऑपरेशन में दावा किया है कि अखबारों, वेबसाइट्स और न्यूज चैनल्स पर दिखाए जाने वाले ओपिनियन पोल्स सही नहीं होते। इस ऑपरेशन के दौरान चैनल के रिपोर्टर्स ने सी-वोटर, क्यूआरएस, ऑकटेल और एमएमआर जैसी 11 कंपनियों से संपर्क किया। स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया है कि कंपनियों के अधिकारी पैसे लेकर आंकड़ों को इधर-उधर करने को राजी हो गए हैं। ये कंपनियां मार्जिन ऑफ एरर के नाम पर आंकड़ों में घालमेल करती हैं। पैसे का लेन-देन भी पारदर्शी नहीं है। काला धन बनाया जा रहा है। चैनल के एडिटर-इन-चीफ विनोद कापड़ी का कहना है कि 4 अक्टूबर 2013 को चुनाव आयोग ने ओपिनियन पोल पर राजनीतिक दलों से उनकी राय मांगी थी।
उसके बाद ही हमने इन सर्वे की सच्चाई का पता लगाने के बारे में सोचा। इंडिया टुडे समूह ने तोड़ा सी-वोटर का साथ: स्टिंग ऑपरेशन का असर भी तुरंत दिखा। इंडिया टुडे समूह ने सी-वोटर के साथ करार निलंबित कर दिया है। सी-वोटर को कारण बताओ नोटिस भी जारी किया है।
वहीं सी-वोटर के यशवंत देशमुख ने कहा कि 'यह मेरी 20 सालों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाने और छवि खराब करने की कोशिश की गई है। यदि चैनल ने बातचीत की पूरी स्क्रिप्ट नहीं दिखाई तो हम उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही पर करेंगे।'
'ऑपरेशन प्राइम मिनिस्टर' के दस अहम निष्कर्ष
1. पैसे लेकर सर्वे कंपनी दो रिपोर्ट देती है। एक वास्तविक, दूसरी मनचाही।
2. मार्जिन ऑफ एरर (घट-बढ़ की संभावना) के सहारे आंकड़ों में की जाती है गड़बड़ी। (उदाहरण के लिए 40 से 60 सीटें मिल रही हैं तो वे दिखाएंगे 60 सीटें)
3. पैसे लेकर बढ़ाते-घटाते हैं पार्टियों की सीटें। प्रभावित करते हैं जनमत।
4. चुनावों में पैसे बांटकर डमी कैंडीडेट खड़े करने का किया दावा।
5. एक कंपनी का दावा: फर्जी आंकड़ों पर बना था दिल्ली में आप को 48 सीटों वाला सर्वे।
6. हर बड़ी कंपनी से जुड़ी है दो से ज्यादा छद्म कंपनियां।
7. सभी सर्वे कंपनियां ब्लैक मनी लेने को तैयार। आधा कैश, आधा चेक से लेते हैं पैसा।
8. सी-वोटर जैसी बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों से जुटाती हैं आंकड़े।
9. एक बार आंकड़े जुटाकर मनमुताबिक निकाल सकते हैं कई निष्कर्ष।
10. एमएमआर का दावा, हर्षवर्धन को सीएम प्रत्याशी नहीं बनाते तो बनती भाजपा की सरकार।
-एजेंसी

फतवा थोपा नहीं जा सकता

नई दिल्ली। 
सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम समुदाय द्वारा संचालित शरियत अदालतों में हस्तक्षेप करने के प्रति अपनी आशंका जताते हुए कहा कि मुस्लिम धर्मगुरूओं द्वारा जारी फतवा लोगों पर थोपा नहीं जा सकता। कोर्ट ने यह व्यवस्था देते हुए सरकार से कहा कि वह ऎसे व्यक्तियों को संरक्षण दे, जिन्हें ऎसे फतवों का पालन नहीं करने पर परेशान किया जाता है। जस्टिस सीके प्रसाद की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि फतवा स्वीकार करना या नहीं करना लोगों की इच्छा पर निर्भर करता है।
अदालत ने कहा कि दारूल कजा और दारूल-इफ्ता जैसी संस्थाओं का संचालन धार्मिक मसला है और अदालतों को सिर्फ उसी स्थिति में हस्तक्षेप करना चाहिए, जब उनके फैसले से किसी के अधिकारों का उल्लंघन हो रहा हो। जजों ने कहा कि हम लोगों को उनकी परेशानियों से संरक्षण दे सकते हैं। जब एक पुजारी दशहरे की तारीख देता है तो वह किसी को उसी दिन त्यौहार मनाने के लिये बाध्य नहीं कर सकता। यदि कोई आपको बाध्य करता है तो हम आपको संरक्षण दे सकते हैं। अधिवक्ता विश्वलोचन मदन ने शरियत अदालतों की संवैधानिक वैधानिकता को चुनौती देते हुए जनहित याचिका में कहा था कि ये देश में कथित रूप से समानांतर न्यायिक प्रणाली चला रहे हैं।
अदालत ने कहा कि धर्मगुरूओं द्वारा फतवा जारी करने या पंडितों द्वारा भविष्यवाणी करने से किसी कानून का उल्लंघन नहीं होता है इसलिए अदालतों को इसमें हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि कौन सा कानून फतवा जारी करने का अधिकार देता है और कौन सा कानून पंडित को जन्मपत्री बनाने का अधिकार देता है!
अदालत सिर्फ यही कह सकती है कि यदि किसी को फतवा के कारण परेशान किया जा रहा है तो सरकार लोगों को संरक्षण देगी। कोर्ट ने कहा कि ये राजनीतिक और धार्मिक मुद्दे हैं और हम इसमें पडना नहीं चाहते हैं। अखिल भारतीय पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा कि फतवा लोगों के लिए बाध्यकारी नहीं है और यह सिर्फ मुफ्ती की राय है तथा उसे इसे लागू कराने का कोई अधिकार नहीं है। बोर्ड की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजू रामचन्द्रन ने कहा कि यदि किसी व्यक्ति की इच्छा के खिलाफ उस पर फतवा लागू किया जाता है तो वह ऎसी स्थिति में अदालत जा सकता है।
-एजेंसी

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

फ़र्जी़ राजनीतिक पार्टियां भी वसूल रही हैं करोड़ों का चंदा

आम चुनाव से पहले सियासत की दुनिया से जुड़ा एक बड़ा खुलासा हुआ है. पता चला है कि हमारे देश में सैकड़ों ऐसे राजनीतिक दल हैं जिन्हें मोटा चंदा मिलता है जबकि वे चुनाव भी नहीं लड़ते. एक आरटीआई के जरिये मिले जवाब से इसका खुलासा हुआ है. एक अंग्रेजी अखबार ने चुनाव आयोग से सूचना लेने के बाद यह खबर दी है. खबर के मुताबिक देश में कई ऐसी पार्टियां हैं जो चुनाव नहीं लड़तीं लेकिन उन्हें एक लाख से लेकर पांच करोड़ रुपये तक का चंदा मिला है. ये पार्टियां दिल्‍ली-एनसीआर से लेकर मुंबई तक फैली हुई हैं.
अखबार ने बताया है कि इटानगर की एक इवेंट मैनेजमेंट कंपनी फीनिक्स राइजिंग ने दिल्ली की एक पार्टी को 15 लाख रुपये का चंदा दिया है. इस पार्टी का नाम है नेशनल यूथ पार्टी. इसी तरह एक और पार्टी है फोरम फॉर प्रेसिडेंशियल डेमोक्रेसी और यह मुंबई स्थित है. इसे वहीं के नेप्च्‍यून रिजॉर्ट्स एंड डेवलपर्स ने 1.5 लाख रुपये का चंदा दिया है.
चुनाव आयोग के पास इस वक्‍त देश भर के 1600 राजनीतिक दलों का बकायदा रजिस्‍ट्रेशन है और इनमें से ज्यादातर चुनाव नहीं लड़तीं. लेकिन इनमें से ज्यादातर को चंदा मिलता है. ये चंदा देती हैं छोटी कंपनियां. चंदे की राशि होती है 11,000 रुपये से 5 करोड़ रुपये तक.
क्‍यों मिल रहा है चंदा?
इस सवाल का जवाब थोड़ा मुश्किल है. जब अखबार ने फोरम फॉर प्रेसिडेंशियल डेमोक्रेसी के सचिव से इस बाबत पूछा तो उसने कहा कि वह चुनाव लड़ना चाहते हैं और इसलिए चंदा ले रहे हैं. चुनाव आयोग के एक अधिकारी ने बताया कि इनके चंदा लेने का कारण यह है कि इससे उन्हें इनकम टैक्स में छूट मिलती है. ज्यादातर छोटी पार्टियों के कर्ताधर्ताओं ने बताया कि वे मौजूदा सिस्टम को बदल देना चाहती हैं, इसलिए उन्होंने पार्टी बनाई है और चंदा ले रही हैं.
हैरानी की बात है कि इन पार्टियों को चंदा दूरदराज के शहरों से भी मिल रहा है. अहमदाबाद की एक कंपनी झावेरी एंड कंपनी एक्सपोर्ट्स ने फरीदाबाद की पार्टी राष्ट्रीय विकास पार्टी दो करोड़ रुपये का चंदा दिया. इस पार्टी को कई जगहों से चंदा मिला है. ऐसा ही एक अजीबोगरीब मामला है गुवाहाटी की पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का. इसे बेंगलुरू और मुंबई की दो कंपनियों ने चंदा दिया है.
-एजेंसी

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

निर्मल बाबा पर करोड़ों की कर चोरी का आरोप

नई दिल्‍ली। 
स्वयंभू धार्मिक गुरु ‘निर्मल बाबा’ को मिल रहे ‘दसवंद’ ने उन्हें संकट में डाल दिया है. निर्मल बाबा को 3.5 करोड़ रुपये की कथित सेवाकर चोरी का नोटिस भेजा गया है. दसवंद श्रद्धालु की आय का दसवां हिस्सा है जो (बाबा को) दान में प्राप्त करते हैं. आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग ने इस आधार पर नोटिस जारी किया है कि ‘समागम’ में आने वाले श्रद्धालुओं से एक ‘सेवा’ के लिए दसवंद वसूला जाता है. ‘निर्मल दरबार’ की गतिविधियां जुलाई, 2012 के बाद उत्पाद शुल्क विभाग की नजर में आई. जुलाई, 2012 में और सेवाओं को ‘सेवाकर’ दायरे में लाने के लिए एक  नकारात्मक सूची जारी की गई थी. उन्होंने कहा कि निर्मल बाबा के खिलाफ दसवंद संग्रह को लेकर करीब 3.5 करोड़ रपये का नोटिस दिया गया है. निर्मल दरबार को भेजे गए ई.मेल का कोई जवाब नहीं आया. इसी तरह, फोन किए जाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.
निर्मल दरबार के एक कर्मचारी ने नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर बताया, ‘‘हमारे यहां मीडिया से बातचीत करने के लिए कोई व्यक्ति नहीं है. कृपया हमारी वेबसाइट पर दिए गए पते पर ई.मेल भेजें.’’ निर्मल बाबा के वेबसाइट के अनुसार उनके समागम में शामिल होने के लिए प्रति व्यक्ति 3,000 रुपये (कर सहित) पंजीकरण शुल्क का भुगतान करना होता है, जबकि ‘शो’ में शामिल होने का खर्च प्रति व्यक्ति 5,000 रुपये (कर सहित) है.
-एजेंसी

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

अब 'अम्‍मा' के आश्रम पर भी पड़ा यौन शोषण का साया

तिरूअनंतपुरम। 
आध्यात्मिक नेता माता अमृतानंदमायी विवादों में हैं। अम्मा की एक करीबी ने अपनी पुस्तक में आश्रम में होने वाले यौन शोषण की पूरी कहानी बताई है। हाल ही में प्रकाशित "होली हेल,अ मेमोयर ऑफ फेथ,डिवोशन एंड प्योर मैडनेस" पुस्तक में जी.ट्रेडवेल उर्फ गायत्री ने बताया है कि किस तरह आश्रम में उसका यौन शोषण हुआ था।
गायत्री के मुताबिक आश्रम में रहने वाले वरिष्ठ लोगों के शारीरिक संबंध थे। आश्रम के प्रतिनिधि सुदीप कुमार ने इस बात की पुष्टि की है कि गायत्री दो दशक तक मां अमृतानंदमायी के साथ जुड़ी हुई थी। 1999 में उन्होंने आश्रम छोड़ दिया था। हालांकि कुमार ने पुस्तक के जरिए लगाए गए आरोपों को निराधार बताया है।
बकौल कुमार, आरोप हैरान करने वाले और सामान्य तर्क को चुनौती देने वाले हैं। ऑस्ट्रेलिया मूल की ट्रेडवेल उर्फ गायित्री ने 19 साल की उम्र में मां अमृतानंदमयी के पर्सनल अटेंडेंट के रूप में आश्रम ज्वाइन किया था। आश्रम में रहने के दौरान गायित्री ने देखा के केरल के एक फिशिंग गांव की रहने वाली महिला बहुत बड़ी आध्यात्मिक नेता बन गई। जिनके दुनिया भर में अनुयायी हैं। उनका ट्रस्ट स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में संस्थानों का नेटवर्क चलाता है।
गायित्री का कहना है कि अम्मा की पर्सनल अटेंडेंट के रूप में काम करते हुए वह ईश्वर को जानना चाहती थी। उसने सोचा था कि वह अपने लक्ष्य को हासिल कर सकती है। बकौल गायत्री शुरूआत के दिनों में उसे नहीं भुलाए जाने आध्यात्मिक अनुभव हुए। गायित्री का आरोप है कि अम्मा की मासूमियत और पवित्रता का दिखावा करने के लिए विश्वस्त लोगों की ऎसी टीम थी जो उनका गंदा काम करती थी। इसमें वह भी शामिल थी।
गायत्री के मुताबिक आश्रम में रहने वाले एक व्यक्ति ने उसका यौन शोषण किया था। बार बार यौन शोषण होने से उसका विश्वास खत्म हो गया। अपनी जीवनी में गायित्री ने आश्रम के सदस्यों के बीच होने वाले कथित स्वछंद संभोग के बारे में बताया है। गायित्री का कहना है कि जब आश्रम के कुछ लोग अम्मा के परिवार की संपत्ति को लेकर कुछ बोलते तो उनका विश्वस्त प्रतिनिधि बालू कहता कि संपत्ति अम्मा के पिता के मछली पालन बिजनेस से जुड़ी है।
गायित्री की पुस्तक अमेजन डॉट कॉम पर उपलब्ध है। जब पुस्तक पर आधारित रिपोर्ट सोशल मीडिया पर वायरल हो गई तो सीपीएम के सांसद और पार्टी के दैनिक देशाभिमानी के रेजिडेंट एडिटर(कोçच्च)पी.राजीव ने मामले की रिपोर्ट पर मुख्य धारा के मीडिया की विमुखता की आलोचना की। राजीव ने कहा कि वे दिन चले गए जब लोगों को अंधेरे में रखा जाता था। 

दरअसल, कहानी तो अब शुरू हो रही है

( लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
2014 के लिए दुंदुभि बज चुकी है, शंखनाद होने को है। राजनीति के बयानवीरों ने शब्‍दों के इतने तीक्ष्‍ण विषवाण छोड़ना शुरू कर दिया है जिन्‍हें सुनकर लगता है कि वह सारी जंग अपने मुंह से ही जीत लेंगे। एक-दूसरे को मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले खुद किसी मर्यादा में रहने को तैयार नहीं हैं। वह कब मर्यादा लांघ जाते हैं, इसका शायद उन्‍हें अहसास तक नहीं होता।
नेताओं ने 'राजनीति' से 'नीति' को कब काटकर अलग कर दिया और कब चुनावी प्रक्रिया को केवल 'राज' पाने का हथियार बना डाला, इसका अंदाज आमजन को लगा ही नहीं। वह तो इस भुलावे में रहा कि 'राजनीति' का नीति व नैतिकता से अब भी कोई वास्‍ता जरूर होगा।
बहरहाल, सवा अरब की आबादी वाले इस मुल्‍क की जनता को हमेशा की तरह यह उम्‍मीद है कि 2014 में कुछ नया होगा। कुछ ऐसा होगा जो आशा की किरण जगायेगा और देश की दशा सुधारने में सहायक होगा।
दरअसल, आम आदमी पार्टी के अचानक हुए उदय ने 2014 के लोकसभा चुनावों को खास बना दिया है। बेशक वह अभी अपने शैशवकाल में है और इसलिए उसके भविष्‍य पर टिप्‍पणी करना बेमानी है परंतु एक काम उसने जो किया है वह यह कि गंदगी से पटे पड़े राजनीति के तालाब में जैसे कंकड़ फेंक दिया हो। गंदगी के बीच बचे हुए थोड़े-बहुत पानी में इस कंकड़ से तरंगें उठने लगीं हैं। आमजन के मन में भी कहीं उम्‍मीद की कोई किरण पैदा हुई है कि हो न हो, बदलाव की शुरूआत यहीं से हो जाए। संभव है आज जो चिंगारी पैदा हुई है, कल वही शोला बनकर भारत के आम नागरिक को स्‍वतंत्रता का सच्‍चा अहसास करा पाए।
इस बीच तेलंगाना को लेकर जिस तरह लोकसभा और राज्‍यसभा में माननीयों ने अपने आचरण का प्रदर्शन किया, उससे एक बात पूरी तरह साफ हो गई कि जनता उनके बावत चाहे जो सोचती रहे लेकिन वह किसी तरह सुधरने को तैयार नहीं हैं। तब भी नहीं, जब आमजन यह मानने लगा हो कि माननीय का तमगा प्राप्‍त यह वर्ग ही हकीकत में देश के माथे पर कलंक बन चुका है और इसका इलाज करना अब जरूरी हो गया है।
इधर सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही राजीव गांधी की हत्‍या के दोषियों की फांसी को उम्रकैद की सजा में तब्‍दील किया, वैसे ही तमिलनाडु की मुख्‍यमंत्री जे. जयलिलता ने 2014 के लिए सबसे बड़ा चुनावी हथियार आजमा डाला। जयललिता ने तीसरे मोर्चे को सीढ़ी बनाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने की अपनी इच्‍छा तो पहले ही जाहिर कर दी है, अब उसके लिए हर प्रकार का हथकंडा अपनाने की मंशा से भी अवगत करा दिया है।
जयललिता की इस नई चुनावी बिसात पर कांग्रेस का आगबबूला होना स्‍वाभाविक था और इसीलिए खुद राहुल गांधी तक ने कह डाला कि अगर देश के पूर्व प्रधानमंत्री को न्‍याय नहीं मिल सकता तो आम आदमी न्‍याय की उम्‍मीद कैसे कर सकता है।
राहुल गांधी का दुख तो समझ में आता है लेकिन यह बात उन्‍हें भी समझनी होगी कि जयललिता जो कुछ कर रही हैं, यह उसी घिनौने राजनीतिक खेल का हिस्‍सा है जिसकी शुरूआत कांग्रेस ने खुद की थी।
कांग्रेस का हर निर्णय कुछ इसी तरह की घिनौनी राजनीति के इर्द-गिर्द रहता है। याद कीजिए प्रियंका और सोनिया का नलिनी को लेकर उठाया गया कदम जिससे साफ होता है कि वह भी राजीव के सभी हत्‍यारों को फांसी से बचाना चाहती थीं।
अगर वह वाकई यही चाहती थीं तो आज जयललिता के निर्णय पर इतनी हायतौबा किसलिए। क्‍या इसलिए कि राजीव के हत्‍यारों को माफी दिलवाकर जो श्रेय सोनिया एंड कंपनी खुद लेना चाहती थी, उस पर जयललिता ने एक झटके में न सिर्फ पानी फेर दिया बल्‍कि चुनावी गणित फिट करके उसका पूरा लाभ उठाने की भी रणनीति बना डाली।
अब जयललिता के दोनों हाथ में लड्डू हैं। केन्‍द्र यदि राजीव के हत्‍यारों को रिहा करने की इजाजत देता है तो उसका चुनावी लाभ अम्‍मा को इसलिए मिलेगा कि उसकी पहल उन्‍होंने की और यदि नहीं देता है तो भी उन्‍हें इसलिए लाभ मिलेगा कि उन्‍होंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की। इसके ठीक उलट कांग्रेस दोनों स्‍थितियों में खाली हाथ रहेगी और यही माना जायेगा कि उसने जो कुछ किया, सिर्फ मजबूरी में किया।
कांग्रेस के पास इस बात का भी कोई जवाब नहीं है कि यदि वह राजीव के हत्‍यारों को माफी देने के पक्ष में नहीं थी तो दस सालों से क्‍या कर रही थी। केंद्र में अपनी सरकार के होते क्‍यों नहीं वह राष्‍ट्रपति से उस पर कोई फैसला करा पाई। दया याचिकाओं पर निर्णय लेने के राष्‍ट्रपति के अधिकार को किसी समय-सीमा में बांधने की बात यदि फिलहाल छोड़ भी दी जाए तो भी क्‍या कांग्रेस को सुप्रीम कोर्ट के रुख से स्‍पष्‍ट नहीं हो रहा था कि वह राजीव गांधी की हत्‍या के दोषियों को राहत दे सकता है।
कांग्रेस अगर चाहती तो सुप्रीम कोर्ट के रुख को भांपकर राष्‍ट्रपति से तत्‍काल कोई फैसला करने का अनुरोध कर सकती थी लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया और केवल तमाशबीन बनी रही।
जाहिर है कि उसकी अपनी नीयत भी पूरे मामले को राजनीतिक हानि-लाभ के तराजू में तौलने की थी लेकिन अब बाजी हाथ से निकलती देख हवा का रुख बदलने की कोशिश की जा रही है।
सच तो यह है कि सत्‍ता पर काबिज रहने और काबिज होने के पूरे खेल का न कोई नियम रह गया है, न कोई नीति। जो कुछ है सब अनीति ही अनीति है।
अनीति के इस खेल का अब वो दौर आ गया है जब खिलाड़ी खुद मोहरा बनने लगे हैं। शह और मात के लिए नियमों को ताक पर रखने का ही परिणाम है कि प्‍यादा भी वजीर को चुनौती दे रहा है।
चुनौती तो आमजन के सामने भी है लेकिन वह इस बात से खुश है कि अब तक आग लगाकर दूर से तमाशा देखने वाले, खुद तमाशा बन रहे हैं। जो अब तक मचान पर बैठकर शिकार करते रहे, वह अपनी ही नीतियों का शिकार हो रहे हैं। बकरी को बांधकर शेर को ललचाने की परंपरा घातक होती जा रही है।
बेहतर होगा कि समय रहते राजनीति और चुनावी खेल के नियमों में परिवर्तन कर लिया जाए वर्ना वो दिन दूर नहीं जब शिकारी, शिकार का निवाला बन जायेगा और उसके सारे हथियार धोखा दे जायेंगे।
2014 भले ही पूरी व्‍यवस्‍था को परिवर्तित न कर पाए लेकिन उसके लिए रास्‍ता बनाने का ज़रिया जरूर बनेगा क्‍योंकि 66 सालों की तथाकथित स्‍वतंत्रता से लोगों का भरोसा उठने लगा है और वो समझने लगे हैं कि 15 अगस्‍त 1947 को जो परिवर्तन हुआ था, वह भी एक छलावा था।
उधार के संविधान और उसके आधार पर बने कानून ने सिर्फ सूरतों में रद्दोबदल किया, सीरतों में नहीं लिहाजा आज के शासकों तथा बीते हुए कल के शासकों में कोई फर्क दिखाई नहीं देता।
चूंकि 66 साल एक आदमी की औसत उम्र भी है इसलिए मान लेना चाहिए कि 1947 में फिरंगियों से मिली स्‍वतंत्रता और उनसे विरासत में मिले संविधान प्रदत्‍त अधिकार एवं कर्तव्‍यों की भी मियाद पूरी हो चुकी है।
अब उस नई सोच के हिसाब से संविधान गढ़ना होगा जो स्‍वतंत्रता के साथ-साथ अपने अधिकार एवं कर्तव्‍यों को पहले से कहीं अच्‍छी तरह समझने लगा है और जो राजनीति, राजनेताओं, चुनावी खेल तथा सत्‍ता हथियानों के लिए अपनाये जाने वाले हथकंडों से वाकिफ हो चुका है।
आउटडेटेड हो चुकी स्‍वतंत्रता और बेमानी हो चुकी राजनीति को राजनीतिक दल समय रहते समझ लें तो ठीक अन्‍यथा समय तो सब समझा ही देगा। इंतजार कीजिए.....कहानी अभी खत्‍म नहीं हुई। सच तो यह है कि कहानी यहां से शुरू हो रही है।

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

कहां से आए इतने चील, गिद्ध और कौए ?

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष) 
ऐसा लगता है जैसे इस देश पर प्रेतों का साया हो। इंसानों से कहीं अधिक चील, गिद्ध और कौए मंडरा रहे हों। आम इंसान इनकी शक्‍ति व सामर्थ्‍य के सामने बेबस सा हो गया है। वह इनकी हरकतों को चुपचाप देखते रहने पर मजबूर है जबकि यह उसकी आत्‍मा तक को कचोट रहे हैं।
इंसानी शक्‍ल अख्‍़तियार किए आखिर कहां से आये इतने चील, गिद्ध और कौए? कहां से आई इनमें इतनी शक्‍ति व इतना सामर्थ्‍य? इतनी प्रेत आत्‍माएं कब और कैसे एकत्र हो गईं?
सवाल बहुत से हैं लेकिन जवाब किसी का नहीं। जिन्‍हें जवाब देना है या जिनके ऊपर जवाबदेही है, वही सबसे बड़े सवाल बनकर आ खड़े हुए हैं।
गीता में भगवान श्रीकृष्‍ण ने कहा है कि आत्‍मा अजर और अमर है। उसे ना कोई अस्‍त्र-शस्‍त्र नुकसान पहुंचा सकता है और ना अग्‍नि जला सकती है। आत्‍मा कभी नहीं मरती। वह तो सिर्फ उसी प्रकार अपना चोला बदलती है जिस प्रकार इंसान वस्‍त्र बदलता है।
सब जानते हैं कि इंसानों की बढ़ती भीड़ ने जंगल और जंगली पशु एवं  पक्षियों के अस्‍तित्‍व पर प्रश्‍नचिन्‍ह लगा दिया है। जंगल जितनी तेजी से खत्‍म हो रहे हैं, इंसान उतनी ही तेजी से बढ़ रहे हैं।
तो क्‍या हिंसक जंगली जानवर अब इंसानों का चोला पहन कर पैदा हो रहे हैं?
क्‍या इसीलिए इंसान से दिखने वाले जीवों में जंगली पशु-पक्षियों सी हिंसक प्रवृत्‍ति नजर आती है?
क्‍या यही वजह है कि आकाश में भी अब चील, गिद्ध और कौए जैसे मांसाहारी पक्षी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देते?
यदि गीता में कहे गए श्रीकृष्‍ण के वचनों पर भरोसा करें तो सच्‍चाई यही लगती है।
हां! जो हिंसक आत्‍माएं अतृप्‍त रह जाती हैं और भटकने को बाध्‍य हैं, वह प्रेत योनि को प्राप्‍त कर आमजन की सुख-शांति नष्‍ट करती रहती हैं। उनका साया इंसानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करता रहता है।
भारत के मामले में यह बात इसलिए अधिक उचित प्रतीत होती है क्‍योंकि यह दुनिया के उन मुल्‍कों में सबसे ऊपर है जहां जनसंख्‍या अनियंत्रित है और उसे नियंत्रित करने का कोई प्रयास किसी स्‍तर पर नहीं किया जा रहा। यह उन देशों में भी सबसे ऊपर है जहां जंगलात की बर्बादी तथा कंक्रीट के जंगली विस्‍तार को रोकने का कोई उपाय किसी स्‍तर पर नहीं किया जा रहा।
प्रकृति के इस असंतुलन से इंसानों की शक्‍ल में हिंसक जीव-जंतु पैदा हो रहे हैं और हिंसक जीव-जंतुओं को इंसान अपना निवाला बना रहा है। इंसानों की शक्‍ल लेकर पैदा होने वाले हिंसक जीव-जंतुओं की मौलिक प्रवृत्‍ति उनसे जानवरों सरीखे काम करा रही है और जानवरों को अपनी ज़िंदगी बचाना मुश्‍किल हो रहा है।  
प्रकृति के असंतुलन से उपजी विकृतियों का ही परिणाम है कि कभी केदारनाथ का सैलाब हजारों लोगों की ज़िंदगी छीन लेता है तो कभी भारी बारिश एवं चक्रवात अनगिनित लोगों की ज़िंदगी उजाड़ देता है।
गीता के श्‍लोकों पर भरोसा करें तो बढ़ते आतंकवाद व नक्‍सलवाद की भी यही वजह है अन्‍यथा कोई इंसान कैसे इतना हिंसक, इतना दयारहित हो सकता है जो बिना किसी कारण एकसाथ अनेक निर्दोष लोगों की जान ले डाले। कैसे कोई इतना सेंसलैस हो सकता है कि अपनी ही बहन-बेटियों की इज्‍ज़त अपनी हवस मिटाने के लिए तार-तार कर दे। कैसे कोई किसी राह चलती महिला पर झपट्टा मारकर उसे अपनी हवस मिटाने के लिए उठा ले जा सकता है, लेकिन हो यही रहा है। इसलिए हो रहा है कि जानवरों में किसी रिश्‍ते-नाते का कोई मतलब नहीं होता। जानवर अपनी ही संतति से शारीरिक संबंध स्‍थापित करते हैं। जानवर ही शारीरिक संबंध बनाने के लिए विपरीत सेक्‍स की इच्‍छा-अनिच्‍छा को महत्‍व नहीं देते।
दूसरी ओर माननीयों का तमगा प्राप्‍त हमारे जनप्रतिनिधि संविधान के मंदिर में बैठकर अपने ही साथियों पर हमलावर हो जाते हैं। कहने को यह देश दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र है लेकिन कुर्सी की खातिर लोकतंत्र को खूंटी पर टांग दिया जाता है। वर्चस्‍व के लिए जंगली जानवरों सा व्‍यवहार करना कोई नई बात नहीं रह गई है। आज संसद में पैपर स्‍प्रे का इस्‍तेमाल किया गया, कल किसी घातक रसायन हथियार का भी प्रयोग किया जा सकता है। हो सकता है कि कभी कोई माननीय, मनोज वाजपेयी अभिनीत फिल्‍म 'शूल' के क्‍लाईमेक्‍स को साकार कर दे अथवा पूरी संसद को ही ब्‍लास्‍ट करके उड़ा दे।
तेलंगाना पर संसद में किए गए उपद्रव के बाद यह तो पता लग ही चुका है कि संसद के अंदर प्रवेश के लिए माननीयों को चैक करने का कोई नियम नहीं है। वह चाहें तो असलाह भी अंदर ले जा सकते हैं।
इन हालातों में इंसानी शक्‍लो-सूरत वाले कौन से माननीय कब अपनी मौलिक प्रवृत्‍ति का प्रदर्शन करने को हथियारों के साथ प्रवेश कर जाएं और कब देश को एक नया काला अध्‍याय लिखने को मजबूर कर दें, कहना मुश्‍किल है।
कहना तो यह भी मुश्‍किल है कि कंक्रीट के जंगल में विशाल एवं आलीशान बंगलों के अंदर निवास करने वाला कौन सा हिसंक परंतु माननीय जीव कब अपनी हवस मिटाने पर आमादा हो जाए। कुछ भी कहना मुश्‍किल है।
यह भी कि कहीं संसद पर मंडरा रहा प्रेतों का साया, उन्‍हीं अतृप्‍त माननीयों का हो जिनकी आत्‍माएं मनमाफिक कुर्सी पाने से पूर्व ही दुनिया से चल बसी हों और वही संसद की शांति भंग करने के लिए जिम्‍मेदार हों।
जो भी हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि आज तमाम लोग जो इंसान जैसे दिखाई देते हैं जरूरी नहीं कि वाकई इंसान ही हों। यह भी हो सकता है कि वह इंसान की शक्‍ल में भेड़िये हों और इसीलिए हर वक्‍त अपनी धूर्त चालों से अपना मकसद पूरा करने की जुगत भिड़ाते रहते हों।

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

मोदी उवाच और मथुरा की उम्‍मीदवारी का कलह?


(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष) अपने विशाल आकार के कारण भारत की राजनीति में यूं तो उत्‍तर प्रदेश ने हमेशा ही अपनी महत्‍ता बनाकर रखी है और हमेशा ही ऐसा माना जाता रहा है कि दिल्‍ली पर काबिज होने का रास्‍ता उत्‍तर प्रदेश से होकर जाता है लेकिन इस बार उत्‍तर प्रदेश की विशेष अहमियत है।

अहमियत की वजह है इस बड़े राज्‍य में उन दोनों बड़ी पार्टियों की एक लंबे समय से लगातार दुर्गति होना, जो राष्‍ट्रीय पार्टियां कहलाती हैं और जिनके बीच दिल्‍ली पर काबिज़ होने की असली जंग लड़ी जानी है।
तमाम राजनीतिक विशेषज्ञ भी यह मानते हैं कि उत्‍तर प्रदेश से 40 सीटें जीत लेने वाला राजनीतिक दल किंग नहीं तो किंगमेकर ज़रूर बनेगा और 50 से अधिक सीटें जीत ले जाने वाले के सिर ताज होगा।
चूंकि उत्‍तर प्रदेश में सपा व बसपा जैसी पार्टियों का अपना-अपना जनाधार है और राष्‍ट्रीय लोकदल भी किसी न किसी बैसाखी के सहारे कुछ सैंध लगा लेता है इसलिए कांग्रेस व भाजपा के लिए यह बड़ी चुनौती बन चुका है। यूपी फतह करना हर राजनीतिक दल के लिए टेढ़ी खीर है।
यहां यह समझ लेना और भी ज़रूरी है कि जिस तरह दिल्‍ली पर काबिज़ होने का रास्‍ता यूपी से होकर जाता है, उसी तरह यूपी में झंडा फहराने का रास्‍ता प्रशस्‍त होता है ब्रजमंडल की सीटों पर फतह प्राप्‍त करके।
ब्रजमंडल में मथुरा का एक विशेष स्‍थान है क्‍योंकि मथुरा को श्रीकृष्‍ण की जन्‍मभूमि का गौरव प्राप्‍त है। विश्‍व में मथुरा का धार्मिक स्‍वरूप उसे एक अलग पहचान दिलाता है।
यही वह पहचान है जिसकी वजह से भारतीय जनता पार्टी के लिए मथुरा काफी अहमियत रखता है और मथुरा की सीट पर विजय हासिल किए बिना यूपी में बड़ी सफलता हासिल करना मुश्‍किल है।
कांग्रेस की चर्चा करना यहां इसलिए बेमानी है क्‍योंकि उसने रालोद से लगभग तय हो चुके चुनाव पूर्व गठबंधन के तहत मथुरा को उसके खाते में डाल दिया है लिहाजा कांग्रेस यहां अपना उम्‍मीदवार खड़ा नहीं करेगी। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा यह गलती कर चुकी है और उसका खामियाजा अब तक भुगत रही है।
इन हालातों में अब सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि भाजपा ऐसा कौन सा चेहरा मथुरा से उतारने जा रही है जो न केवल उसकी स्‍थानीय इकाई को स्‍वीकार हो बल्‍कि सिटिंग सांसद और रालोद के युवराज जयंत चौधरी को शिकस्‍त देने का माद्दा रखता हो।
सर्वविदित है कि कृष्‍ण की जन्‍मभूमि का गौरव प्राप्‍त मथुरा जनपद के भाजपाई जबर्दस्‍त अंतर्कलह के शिकार हैं। गुटबाजी और अंतर्कलह के चलते मथुरा में उम्‍मीदवारी का चयन करना पार्टी के लिए कभी आसान नहीं रहा। चौधरी तेजवीर सिंह की हार के बाद यह काम ज्‍यादा मुश्‍किल हो गया और इसीलिए 2009 के लोकसभा चुनावों में मथुरा की सीट पार्टी को रालोद के लिए छोड़नी पड़ी।
फिलहाल यह कहा जा सकता है कि भाजपा को मथुरा में अपना वजूद नए सिरे से कायम करना होगा और उसके लिए कोई ऐसा उम्‍मीदवार सामने लाना होगा जो पार्टी के लिए लगभग बंजर हो चुकी ब्रजभूमि को फिर से उर्वरा बना सके।
पार्टी सूत्रों के हवाले से मिल रही खबरों पर भरोसा करें तो संभावित उम्‍मीदवारों की सूची में सबसे ऊपर नाम चल रहा है पूर्व में तीन बार सांसद रह चुके चौधरी तेजवीर सिंह का। लेकिन तेजवीर सिंह का सर्वाधिक विरोध पार्टी के स्‍तर पर ही किया जा रहा है, और वो भी सजातीय नेताओं द्वारा। चूंकि टिकट पाने की दौड़ में दूसरे जाट नेता भी हैं इसलिए खेमेबंदी अधिक है।
चौधरी तेजवीर सिंह के विरोध का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बावत सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर एक बैनर बनाकर चस्‍पा किया गया है। इस बैनर की हैडिंग है- ''मथुरा के पूर्व सांसद चौधरी तेजवीर सिंह के ऊपर जनता के गंभीर आरोप''।
इस बैनर में लिखा है कि मथुरा लोकसभा से 3 बार सांसद बनने के बावजूद तेजवीर सिंह ने जनता के लिए 3 काम नहीं किए जबकि अपने लिए 300 काम किए।
तेजवीर सिंह पर क्रमबद्ध तरीके से लगाये गये आरोपों के अनुसार सांसद बनने से पूर्व वह मात्र 100 गज जमीन पर बने मकान में रहते थे जबकि आज 36000 स्‍क्‍वायरफीट में बने आलीशान बंगले के मालिक हैं।
सांसद बनने से पहले वह मारुति 800 कार में चला करते थे परंतु आज उनके पास टाटा सफारी व होंडा सिटी जैसी कई लग्‍ज़री गाड़ियां हैं।
सांसद बनने से पूर्व वह मात्र कुछ लाख की संपत्‍ति के मालिक थे परंतु आज अरबों में खेल रहे हैं।
सांसद बनने से पहले चौधरी तेजवीर सिंह का कोई खास व्‍यापार नहीं था लेकिन अब एक बहुत बड़े कॉलेज, पेट्रोल पंप तथा गैस एजेंसी के संचालक हैं और जयपुर में काफी बड़ा रेजीडेंसी प्रोजेक्‍ट खड़ा कर रहे हैं।
बैनर मैं जनता से पूछा गया है कि 15 सालों से राजनीति में निष्‍क्रिय रहे ऐसे पूर्व सांसद तेजवीर सिंह को क्‍या इस बार लोकसभा प्रत्‍याशी बनाया जाना चाहिए?
बैनर में ही दूसरा सवाल भाजपा हाईकमान से किया गया है कि जनता के बीच एक फ्लॉप सांसद की छवि वाले चौधरी तेजवीर सिंह को फिर एक बार उम्‍मीदवार बनाने की सोचकर भी क्‍या वह गलती नहीं कर रहे ?
लीजेण्‍ड न्‍यूज़ ने अपने स्‍तर से जब इस बैनर को फेसबुक पर चस्‍पा करने वालों की जानकारी की तो पता लगा कि इसके पीछे पार्टी के ही लोग हैं, न कि कोई विपक्षी दल।
चौधरी तेजवीर सिंह से इस बैनर की असलियत पूछने पर उन्‍होंने कहा कि उम्‍मीदवार की घोषणा हो जाने से पहले मैं किसी विवाद का हिस्‍सा नहीं बनना चाहता इसलिए बैनर में लगाये गये आरोपों का जवाब नहीं दे रहा। समय आने पर सभी आरोपों का जवाब दूंगा।
उन्‍होंने कहा कि आपने पूछा है इसलिए आपको बता देता हूं कि बैनर के माध्‍यम से लगाये गये आरोपों में कोई सच्‍चाई नहीं है और लगभग सभी आरोप बेबुनियाद हैं। मेरी संपत्‍ति के बावत भी जो जानकारी दी गई है, वह झूठ का पुलिंदा है।
पूर्व सांसद तेजवीर सिंह से जब यह पूछा गया कि पार्टी में स्‍थानीय स्‍तर पर व्‍याप्‍त अंतर्कलह व गुटबाजी के चलते हाईकमान द्वारा किसी बाहरी प्रत्‍याशी को मथुरा से खड़ा करना आपको स्‍वीकार होगा, तो उनका जवाब था कि बेहतर होगा पार्टी किसी स्‍थानीय कार्यकर्ता को उम्‍मीदवार बनाए।
बाहरी व्‍यक्‍ति की उम्‍मीदवारी पर उनका कहना था कि मुझे आजतक जो कुछ प्राप्‍त है, वह पार्टी का ही दिया हुआ है इसलिए पार्टी का हर निर्णय मान्‍य है। मैं पार्टी का अनुशासित सिपाही हूं और जीवनभर पार्टी के प्रति समर्पित रहूंगा।
उल्‍लेखनीय है कि तेजवीर सिंह सहित मथुरा की उम्‍मीदवारी के लिए जिन नामों की चर्चा होती रही है उनमें स्‍थानीय स्‍तर से राजेश चौधरी, चौधरी प्रणतपाल, रविकांत गर्ग व एस. के. शर्मा आदि हैं जबकि बाहरी नेताओं में भाजपा के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष राजनाथ सिंह के साढू भाई और पेशे से चार्टर्ड एकाउंटेंट अरुण सिंह, प्रख्‍यात सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी तथा अभिनेता सनी देओल का नाम प्रमुख हैं। हेमा मालिनी तो कह भी चुकी हैं कि यदि पार्टी मुझे यहां से चुनाव लड़ने का मौका देती है तो मैं यह मौका गंवाउंगी नहीं।
बहरहाल, बात चाहे किसी स्‍थानीय व्‍यक्‍ति को उतारने की हो या बाहरी को लेकिन मथुरा के लिए उम्‍मीदवार का चयन करना आसान नहीं है। स्‍थानीय के चयन में अंतर्कलह व गुटबाजी बड़ा कारण है तो बाहरी के चयन में पार्टी के आम कार्यकर्ता सहित जनभावना आड़े आती है। बाहरी नेताओं को लेकर मथुरा की जनता का अनुभव बहुत कसैला रहा है। बात चाहे कभी हरियाणा से यहां आकर चुनाव जीतने वाले मनीराम बागड़ी की हो या फिर भगवा वस्‍त्रधारी महामंडलेश्‍वर सच्‍चिदानंद हरिसाक्षी की। रही सही कसर पूरी कर दी वर्तमान सांसद और रालोद के युवराज जयंत चौधरी ने। आमजन पूरे पांच साल अपने इस प्रतिनिधि की शक्‍ल देखने तक को तरसता रहा, समस्‍याओं के समाधान की बात तो करे कौन।
ब्रजवासियों के लिए मां समान पूज्‍यनीय जिस यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का वायदा करके जयंत चौधरी ने रिकॉर्ड मतों से जीत दर्ज की, उस यमुना की दुर्दशा को लेकर वह कभी मुखर नहीं हुए।
भाजपा के लिए उनकी यह निष्‍क्रियता भी परेशानी का कारण होगी क्‍योंकि पिछले चुनाव में जयंत को भाजपा का ही समर्थन प्राप्‍त था।
कुल मिलाकर निष्‍कर्ष यही निकलता है कि मथुरा में मोदी फैक्‍टर से कहीं अधिक उम्‍मीदवारी का चयन भाजपा को पुनर्जीवत करने या ना कर पाने में बड़ी भूमिका निभायेगा।
देखना यह है कि भाजपा इस इधर कुंआ और उधर खाई वाली स्‍थिति से कैसे उबरती है और कौन सा ऐसा चेहरा सामने लाती है जो मोदी के लिए दिल्‍ली की दूरी कम करने में सहायक हो सके।

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़....

(लीजेण्‍ड न्‍यूज़ विशेष)
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़। जुल्‍म की छांव में दम लेने पर मजबूर हैं हम।।
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें। अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम ।।
जिस्‍म पर कैद है जज्‍ब़ात पे ज़ंजीरें हैं। फ़िक्र महबूस है गुफ़तार पे ताज़ीरें हैं।।
लेकिन अब ज़ुल्‍म की मियाद के दिन थोड़े हैं। इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं।।

प्रसिद्ध पाकिस्‍तानी शायर फ़ैज अहमद फ़ैज ने सन् 1951 के दौरान ये लाइनें तब लिखीं थीं जब उन्‍हें लियाकत अली खां की सरकार का तख्‍ता पलट करने की साजिश के जुर्म में  गिरफ्तार कर लिया गया था।
फ़ैज साहब की दर्द में डूबी पर उम्‍मीद से भरीं ये लाइनें आज इसलिए याद आ रही हैं क्‍योंकि भारत लोकतंत्र का एक और चुनावी उत्‍सव मनाने जा रहा है। चुनावों के मद्देनजर समूची राजनीतिक जमात यह साबित करने पर आमादा है कि देश तथा देशवासियों का भाग्‍य सिर्फ और सिर्फ उनके हाथों में सुरक्षित है।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब दिल्‍ली में अल्‍पसंख्‍यकों के लिए आयोजित कार्यक्रम के दौरान एक मुस्‍लिम युवक को सुरक्षाकर्मी इसलिए मुंह बंद करके उठा ले गए क्‍योंकि  कुछ मुद्दों को लेकर वह सीधा प्रधानमंत्री से मुखातिब हुआ था।
इस कार्यक्रम में न सिर्फ प्रधानमंत्री, बल्‍कि सोनिया गांधी एवं फारुक अब्‍दुल्‍ला भी मंचासीन थे।
एक हफ्ता भी नहीं बीता जब राहुल गांधी ने एक टीवी चैनल को दिए अपने पहले इंटरव्‍यू में सिख दंगों पर माफी मांगने से इसलिए इंकार कर दिया क्‍योंकि वह उस समय बहुत छोटे थे। वह भूल गए कि अघोषित ही सही, पर वह प्रधानमंत्री पद के लिए कांग्रेसी उम्‍मीदवार हैं। भूल गए कि वह उसी कांग्रेसी विरासत के फिलहाल एकमात्र वारिस हैं जिसके कुछ नेताओं की 84 के सिख नरसंहार में संलिप्‍तता को उन्‍होंने स्‍वीकार किया।
आश्‍चर्यनजक रूप से वह यह तक भूल गए कि यदि कांग्रेस की महान विरासत के वह वारिस हैं और मौके-बेमौके अपने परिवार के बलिदान को कैश करने में लगे रहते हैं तो फिर उनके पापों का बोझ ढोने से इंकार कैसे कर सकते हैं।
इधर चुनावी दौर में भाजपा भी यह साबित करने पर तुली है कि देश व देशवासियों के लिए एकमात्र विकल्‍प है। यह वही भाजपा है जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में खुद को कांग्रेसी संस्‍कृति का वाहक बनकर अपनी मौलिकता खो दी थी और उसी के परिणाम स्‍वरूप दोबारा सत्‍ता का शिखर छूने को तरस गई।
शायद यही कारण है कि आज 'मोदी ही भाजपा और भाजपा ही मोदी' का नारा फ़िज़ा में गूंज रहा है क्‍योंकि बाकी भाजपाइयों पर आसानी से भरोसा कर पाना मुश्‍किल है, यह बात भाजपा भली प्रकार जान व समझ रही है।
सवाल यह नहीं है कि सत्‍ता किसके हाथों में जाए और कौन उसके सोपान पर प्रतिष्‍ठापित हो, सवाल यह है कि क्‍या इसी व्‍यवस्‍था का नाम लोकतंत्र है और क्‍या सामंतवाद की परिभाषा इससे इतर है?
जहां अपने ही देश के किसी नेता से कोई इसलिए सवाल नहीं पूछ सकता क्‍योंकि वह प्रधानमंत्री के पद पर काबिज है और इसलिए उसे मुंह बंद करके बाहर ले जाया जाता है कि वह 'सो कॉल्‍ड' 'प्रोटोकॉल' को फॉलो नहीं कर रहा?
कल ही की बात है जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा है कि आखिर यह विशिष्‍टजन शब्‍द आया कहां से, किसने इसे ईजाद किया। संविधान तो ऐसे किसी शब्‍द का इस्‍तेमाल करने की इजाजत नहीं देता।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से दो हफ्तों में इस वीवीआईपी कल्‍चर पर जवाब मांगा है लेकिन क्‍या सरकार इसका जवाब देगी?
जिस प्रश्‍न का जवाब सन् 1947 के बाद से लगातार देश की जनता मांग रही है और किसी सरकार ने जवाब नहीं दिया तो दिन गिन रही वर्तमान सरकार से ऐसी उम्‍मीद करना बेमानी है।
बहरहाल, देश की जनता पर चुनावी खुमार चढ़ने लगा है और राजनीतिक दल उसके रंग में पूरी तरह रंग चुके हैं।
62 साल पहले फ़ैज साहब जेल की सलाखों के पीछे से कहते हैं-
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में। हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है।।
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम। आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है।।
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार। चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़।।
बेशक, उनके अपने मुल्‍क पाकिस्‍तान पर फ़ैज साहब की उम्‍मीद खरी नहीं उतरती और पाकिस्‍तान की अवाम आज भी 1951 के हालातों में जीने पर मजबूर है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि फ़ैज साहब की उम्‍मीद मर चुकी है।
फ़ैज साहब इस दुनिया से भले ही 29 साल पहले कूच कर गए लेकिन उनकी उम्‍मीदें पाकिस्‍तान की अवाम के दिलों में अब भी ज़िंदा हैं क्‍योंकि उम्‍मीदें मरा नहीं करतीं।
भारत के तथाकथित भाग्‍य विधाताओं को भी समझना होगा कि लोकतंत्र के छद्म स्‍वरूप और फिरंगियों की कार्बन कापियों से आमजन बुरी तरह उकता चुका है। वह समझ चुका है कि अब सत्‍ता बदलने से कुछ नहीं होने वाला। अब जरूरत है व्‍यवस्‍था बदलने की।
उस व्‍यवस्‍था को बदलने की जो स्‍वतंत्रता की आड़ में 'एज इट इज' एक्‍सेप्‍ट कर ली गई और जिसके कारण 'गुलामी' यथास्‍थिति को प्राप्‍त है। जिसके कारण कोई अपने ही चुने हुए नुमाइंदों से सवाल पूछने की हिमाकत नहीं कर सकता और जिसके कारण देश की सर्वोच्‍च अदालत को सरकार से यह पूछना पड़ता है कि आखिर यह वीवीआईपी कल्‍चर है क्‍या, कहां से आया है यह जबकि संविधान में तो इसका कहीं कोई उल्‍लेख नहीं है।
अपने मान-अपमान को प्रोटोकॉल के बहाने संसद से जोड़ने वाले और संसद के अंदर बैठकर हर रोज संसद की गरिमा को तार-तार करने वालों को अब यह समझना होगा कि  ''ज़िंदगी किसी मुफ़लिस की क़बा नहीं है जिसमें हर वक्‍त दर्द के पैबंद लगाकर धोखा दिया जाना संभव हो।
 चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़......
चंद रोज बाद होने वाले चुनाव का नतीजा चाहे जो हो लेकिन यह तय है कि इस बार का चुनाव भविष्‍य को रेखांकित जरूर करेगा। केवल आमजन के भविष्‍य को नहीं, उन खास लोगों के भविष्‍य को भी जो सत्‍ता को अपनी बपौती मान बैठे हैं और जिनके लिए आमजन उनके इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियों से अधिक कुछ नहीं रहा।
फ़ैज साहब के शब्‍द न तो सलाखों में कैद रहने को बाध्‍य हैं और ना सामंतवादी सोच के गुलाम बने रहने को अभिशप्‍त। वह सीमा के उस पार से भी बिना पासपोर्ट तथा वीजा के अपना सफर तय कर लेते हैं और सीमा के इस पार अपना वजूद कायम रखते हैं।
इसलिए इंतजार कीजिए, कहानी अभी खत्‍म नहीं हुई।
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