शनिवार, 26 अगस्त 2023

नेताजी कहिन: डर की वजह से ISRO के चंगुल से छूटकर चांद पर जा बैठा है चंद्रयान, हम उसे धरती पर लाएंगे

 

डर का डिस्क्लेमर: भय से उपजी अपनी 'सत्यनिष्ठा' के साथ मैं ये स्‍पष्‍ट करता हूं कि जो कुछ लिखूंगा पूरी तरह 'भयभीत' अवस्‍था में लिखूंगा। इसमें नेताओं के प्रति उपजी 'अनैतिक निष्‍ठा' को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है। किसी खास नेता अथवा पार्टी से कोई ताल्‍लुक न होते हुए भी कुछ नेताओं का भय मुझ पर भी इसलिए हावी है क्‍योंकि उनके अनुसार संपूर्ण देश में भय का वातावरण व्याप्‍त है लिहाजा हर संस्‍था, व्‍यक्ति और यहां तक कि पत्रकार भी 'कंपायमान' हैं। मीडिया समूह जो कहते हैं... सिर्फ झूठ कहते हैं। झूठ के अलावा वो कुछ नहीं कहते। इस खास दौर में लोकतंत्र की सैकड़ों बार हत्या की जा चुकी है लेकिन उसकी आत्मा का साया देश का पीछा नहीं छोड़ रहा। लोकतंत्र की इस भटकती हुई आत्मा को हाज़िर-नाज़िर जानकर कहानी के रूप में पेश हैं भय के वातावरण की कुछ झलकियां- 

कहानी नंबर एक 
बुढ़ापे के कगार पर खड़ा एक 'दागा' हुआ सांड़ हर रोज नए और जवान सांड़ों के सामने खड़ा होकर 'खुर खोदा' करता था। कई दिनों के इस शक्ति प्रदर्शन के बाद एक किशोरवय सांड़ ने बमुश्किल हिम्मत जुटाकर उस सांड़ से पूछा- चचा, आप प्रतिदिन ये हरकत यहां आकर क्यों करते हैं। 
हम तो आपको वंशानुगत मिली आपकी पदवी के लिहाज से यथासंभव मान-सम्मान भी देते हैं। फिर ये मुंह से अजीब-अजीब आवाजें निकालना और नथुने फुलाए रखने का क्या मतलब, जबकि आपके खुरों से खुरची हुई धूल आपके ही सिर पर आकर गिरती है। कुछ स्‍पष्‍ट करेंगे तो समझने की पूरी कोशिश करुंगा। 
टीन एज सांड़ की बातों से कुछ भरोसा सा मिलते देख अधेड़ सांड़ ने पहले कन्फर्म किया कि वह उसकी बताई बातें सार्वजनिक तो नहीं करेगा और आश्‍वासन मिलने के बाद उसने रहस्‍यमयी मुस्‍कान बिखेरते हुए कहा- देखो बरखुरदार, मैं ये सारी ऊट-पटांग हरकतें अपनी इज्‍जत बचाने के लिए करता हूं। 
मुझे हमेशा यह डर सताए रहता है कि अतीत में मेरे पुरखों और मेरे द्वारा किए गए पाप खुलकर कहीं नई पीढ़ी के सामने आ गए तो क्या होगा। आप लोग मेरी दुर्गति न कर दें। ऐसा हुआ तो मेरी 'अधोगति' मुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी, बुढ़ापा खराब कर देगी। इसी शंका से मैं आपके सामने नित नई चुनौती पेश करता हूं। ये बात अलग है कि आज तक मेरे ऐसे सारे प्रयास निरर्थक साबित हुए हैं। 
कहानी नंबर दो 
एक टुच्चा सा नेता अपनी 'बदजुबानी' के लिए देश-विदेश में कुख्‍यात हो गया और अपनी उस स्‍थिति को वह अपने तथा अपनी पार्टी के लिए मुफीद मानता था। दरबारी नेताओं से घिरे रहने के कारण उसे यह गुमान भी हो गया कि उसके मुंह से तो हमेशा फूल झड़ते हैं। 
साथ ही उसका 'वैशाख नंदनी' ज्ञान उसे यह आभास कराता रहता था कि राजनीति का जो मैदान उसे दिखाई दे रहा है, वह उसी का 'चारागाह' है। दूसरा जो कोई वहां मौजूद है, वह उसकी कृपा से है और वह उसे जब चाहे बेदखल कर सकता है। इसी नियोजित उपक्रम के तहत उसकी जुबान एक तरह से असंसदीय शब्दों की डिक्शनरी बन गई। वह न बड़े-छोटे का लिहाज करता और न पद की गरिमा देखता। मौका और दस्‍तूर का ध्‍यान रखे बिना वह हर किसी की पगड़ी उछाल देता। संसदीय मर्यादा तो उसके लिए जैसे कोई अहमियत ही नहीं रखती थी क्‍योंकि वह खुद को ही देश का भावी भाग्य विधाता मान बैठा था।    
सिर चढ़कर बोलने वाली इस दशा में बदजुबानी जब हद पार करने लगी तो किसी दुस्‍साहसी पत्रकार ने पूरे प्रोटोकॉल का अनुसरण करते हुए उससे कहा कि सर, सुना है आप बहुत अभद्र भाषा का इस्‍तेमाल करते हैं। आपको हर एक में खोट नजर आता है, और आप ये अहसास कराने का कोई अवसर नहीं चूकते कि आप ही देश की सत्ता के एकमात्र हकदार हैं। सत्ता आपकी विरासत है, इसलिए उस पर काबिज होने का किसी अन्‍य को कोई अधिकार नहीं है। आप जीतें या हारें, सत्ता से अलग रखने की हिमाकत किसी की हो कैसे सकती है। 
आप और आपके दरबारी अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता और लोकतंत्र की कथित हत्‍या का ढिंढोरा पीटते हुए हर प्‍लेटफॉर्म पर चुनी हुई सरकार को गरियाते हैं और कहते हैं कि देश में भय का वातावरण है। सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा हुआ है। एक धर्म विशेष के लोग डरे हुए हैं। उन पर अत्याचार हो रहा है। सारी सरकारी संस्‍थाएं बंधक हैं। कोई संस्‍था अपना काम नहीं कर पा रही। वही हो रहा है जो सरकार चाहती है। 
पत्रकार की इन बातों को अपनी शान में गुस्‍ताखी मानते हुए नेताजी कहने लगे- पहले तुम ये बताओ कि कौन कमीना कहता है मैं गालियां देता हूं। मेरी सरकार बनते ही मैं उस 'हरामी' को कहीं का नहीं छोड़ूंगा। वो 'नीच आदमी' गंदी नाली का 'कीड़ा' होगा। मेरे बारे में ऐसी बातें वो लुच्चे-लफंगे ही कर सकते हैं जिन्‍होंने देश का बंटाधार कर दिया है। दरअसल, जिनकी औकात मेरे सामने खड़े होकर बात करने की नहीं है, वो मेरे रहते कुर्सी पर काबिज हैं। 
धाराप्रवाह अभद्रता का ये आचरण देख पत्रकार ने डरते-डरते एक सवाल और उछाल दिया कि सर... आप तो अब भी गालियां दे रहे हैं। लाइव है सर, सारा देश आपको और आपकी अभद्रता को देख रहा है। आप विदेशों में भी देश के बाबत जो कुछ बोलते रहे हैं, वह भी जनता सुनती है। शीर्ष पदों पर बैठे हुए लोग आपसे अपने लिए नित नए अभद्र शब्‍द सुनकर भी अभिव्‍यक्‍ति की आपकी आजादी को अक्षुण्‍ण बनाए हुए हैं, और आप कहते हैं कि देश में डर का माहौल है। आपको अपने आरोपों में कोई कंट्रोवर्सी महसूस नहीं होती। डरा हुआ आदमी तो किसी के सामने बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता। यहां तो देश के पीएम को भी खुलेआम गालियां देने की स्‍वतंत्रता हासिल है। 
ऐरे-गैरे, नत्‍थू-खैरे भी करोड़ों लोगों के सामने टीवी पर पीएम को कुछ भी कहने की आजादी रखते हैं। सांप्रदायिक सद्भाव के दूत सरेआम जहर उगलते देखे जा सकते हैं। ये कैसा डर है सर जी? 
पत्रकार के ऐसे 'आत्मघाती' सवालों को सुनकर नेताजी का मन तो किया कि तत्‍काल प्रभाव से उसका माइक छीन कर उसके मुंह पर दे मारें और उसे अच्‍छा-खासा सबक सिखा दें किंतु मामला लाइव प्रसारण का था इसलिए केवल इतना कहकर बात समाप्‍त की कि तुम बिके हुए लगते हो। किसी की गोद में बैठे हो। सवाल उसके हैं, बस मुंह तुम्‍हारा है। तुम्‍हारे जैसों के लिए ही हमने 'गोदी मीडिया' शब्द ईजाद किया है। 
नेताजी की बातों पर पत्रकार ने जाते-जाते एक सवाल और दाग दिया कि सर, भारतीय मीडिया के 'चीनी संस्‍करण' पर आपकी क्या राय है? 
पत्रकार के सवाल चूंकि चुभने वाले थे इसलिए नेताजी ने उसे सिर्फ घूरकर काम चलाना उचित समझा। ऐसे में पत्रकार ने ये सवाल और उछाल दिया कि सर, क्या आप इस बात से सहमत हैं कि पीवी नरसिंह राव देश में 'भाजपा' के पहले पीएम थे। 
बहरहाल, पत्रकार को भले ही उसके ऐसे किसी प्रश्‍न का उत्तर नहीं मिला लेकिन देश जरूर ये जान गया कि नेताजी को अभद्र आचरण करने में खासी महारत हासिल है और वो इस जन्म में शायद ही अपना आचरण सुधार सकें। 
कहानी नंबर तीन 
इस तीसरी कहानी में कई प्रमुख पात्र हैं और उनका संबंध चंद्रमा पर हो रही गतिविधियों से है। कहते हैं चांद पर होने वाली गतिविधियों से समुद्र ही नहीं, इंसान तक प्रभावित होता है। समंदर में ज्‍वार-भाटे का कारण अगर चंद्रमा है तो इंसान की मानसिक स्‍थिति को भी ये भली-भांति परिभाषित करता है। 
तभी तो एक नेताजी देश में डर के माहौल की थ्‍योरी को सही साबित करने के लिए यहां तक कहने लगे कि गोदी मीडिया नहीं मानेगा लेकिन यह सौ फीसदी सच है कि चंद्रयान-3 लॉन्च नहीं किया गया, वह तो डर के मारे ISRO के चंगुल से छूटकर चांद पर जा बैठा है। छुप गया है चंद्रमा की आड़ में जिससे कहीं उसे भी ED, NIA या CBI उठाकर न ले जाए। हमारी सरकार आने दीजिए, हम चंद्रयान को वापस अपनी धरती पर ले आएंगे। इस सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए बर्बाद कर दिए। हम उसे म्यूजियम में रखेंगे, उसे देखने-दिखाने पर टिकट लगाएंगे, और इस तरह उसकी पूरी कीमत वसूलेंगे। फिर उस पैसे से 'सांड़ों' के लिए 'अस्‍तबल' बनवाएंगे। सांड़ हमारे न्‍यूज़ आइटम हैं। हम उनके लिए इतना तो कर ही सकते हैं। 
एक अन्‍य नेताजी को चंद्रयान का मामला इतना फिजूल लगा कि वह उससे अंत तक बेखबर बने रहे। गलती से एक पत्रकार पूछ बैठा उसके बारे में तो बगलें झांकने लगे। 
हमेशा मुंह से आग उगलने वाली एक नेत्री ने तो देश को अंतरिक्ष यात्री को मनोरंजन जगत से जोड़ दिया। ये बात अलग है कि उसके बाद से वह खुद मजाक का पात्र बनी हुई हैं। 
खैर, कहानी तो कहानी है। एक कहानी से भी कई कहानियां जन्‍म ले लेती हैं। जैसे एक कहानी यह भी है कि लाल रंग देखकर सांड़ भड़क उठते हैं लेकिन कुछ लोग फिर भी सिर पर लाल टोपी रखकर पूछते हैं कि सांड़ उनके पीछे क्यों पड़े हैं। सच तो ये है कि वो सांड़ों के पीछे पड़ गए हैं। सांड़ तो पहले भी सड़कों पर थे, लेकिन उन्‍हें लाल रंग दिखाकर कोई चिढ़ाता नहीं था। चिढ़ाओगे तो उसके गुस्‍से का शिकार भी बनोगे। 
सांड़ तो सांड़ हैं लेकिन उन 'कालिदासों' का क्‍या जो जिस डाल पर बैठे हैं, उसी पर आरी चलाए जा रहे हैं। सिर की टोपी का रंग नहीं देख रहे, सांड़ को दोष दे रहे हैं। जनता की जगह साड़ों पर नजर रखोगे और फिर पूछोगे कि हमारा नंबर कब आएगा। मुंह भर-भरकर गालियां दोगे और ये भी कहोगे कि डर का माहौल है। अपने 'खुर खोदने' से चुनौती नहीं दी जा सकती। चुनौती देने के लिए चुनौती स्‍वीकार भी करनी पड़ती है। देश के लिए समर्पित होने की चुनौती, कुछ कर गुजरने की चुनौती। पद पीएम का हो या सीएम का, वो किसी की व्‍यक्‍तिगत जागीर नहीं है। ये बात दूसरी है कि राजा-महाराजा भले ही कब के कूच कर गए किंतु उनकी जैसी सोच वाली नस्‍ल अभी बाकी है। 
जय हिंद। जय भारत। 
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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