मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

CAA और NRC की आड़ में एकबार फिर जिन्‍ना सी जिद और नेहरू सी महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने का षड्यंत्र

जिन्‍ना की जिद और नेहरू की महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अखंड भारत को खंड-खंड करने का जो सिलसिला 1947 में प्रारंभ किया गया था, उसका नया अध्‍याय लिखने की कोशिश है CAA और NRC की आड़ लेकर कराए जा रहे हिंसक प्रदर्शन।
तर्क-वितर्क और कुतर्कों के बीच देश के कई हिस्‍सों में जारी हिंसा से एक बात तो बड़ी आसानी के साथ समझी जा सकती है कि इस समय जो कुछ हो रहा है या सही मायनों में कहें तो किया जा रहा है, वह पूर्व नियोजित है…आकस्‍मिक नहीं।
गौर करें तो पूरी तरह स्‍पष्‍ट हो जाएगा कि जिस वक्‍त नागरिकता संसोधन बिल (CAB) को पास कराने के लिए लोकसभा और राज्‍यसभा में बहसों का दौर चल रहा था, ठीक उसी समय कुछ ऐसे लोग जिन्‍हें यह मालूम था कि वह बिल को पास होने से रोक नहीं सकते, सरकार के खिलाफ हिंसात्‍मक प्रदर्शन की तैयारी में लगे थे।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि इतने बड़े पैमाने पर हिंसक प्रदर्शन की तैयारी मात्र इन्‍हीं दो दिनों में नहीं हो गई, इसकी बुनियाद 2014 से तभी रखी जाने लगी थी जब केंद्र में पहली बार नरेन्‍द्र मोदी के नेतृत्‍व वाली सरकार बनी।
दिमाग पर जोर डालें तो साफ-साफ दिखाई देने लगेगा कि किस तरह मोदी सरकार को पहले दिन से बार-बार कठघरे में खड़ा करने के प्रयास किए जाते रहे। कभी असहिष्‍णुता के नाम पर तो कभी अभिव्‍यक्‍ति की स्‍वतंत्रता का राग अलापकर। कभी सूटबूट की सरकार बताकर तो कभी मुस्‍लिम विरोधी प्रचारित करके।
सत्ता की खातिर नरेन्‍द्र मोदी से वैमनस्‍यता का घृणित खेल इतना आगे जा पहुंचा कि विभिन्‍न न्‍यायालयों के निर्णयों को भी मोदी सरकार की कार्यप्रणाली से जोड़ा जाने लगा।
सर्वोच्‍च न्‍यायालय के न्‍यायाधीशों की अपने ही बॉस से रोस्‍टर प्रणाली को लेकर तनातनी भी मोदी सरकार से जोड़ दी गई। उसके लिए सीजेआई दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग तक लाने का प्रयास किया गया।
तीन तलाक के लिए कानून बनाने का आदेश देश की सर्वोच्‍च अदालत ने दिया किंतु प्रचारित यह किया गया कि इसके लिए मोदी सरकार की मुस्‍लिम विरोधी मानसिकता जिम्‍मेदार है।
इतने से भी काम नहीं चला तो 2019 के लोकसभा चुनावों में ”चौकीदार चोर” है का अत्‍यंत निम्‍नस्‍तरीय नारा बुलंद किया गया और पूरी बेशर्मी के साथ उसे जायज ठहराने की कोशिश भी की गई।
इस सबके बावजूद 2019 में मोदी सरकार को मिले भारी बहुमत ने जब सारे अरमानों पर पानी फेर दिया तो नए सिरे से षड्यंत्रों का ताना-बाना बुना जाने लगा।
इन षड्यंत्रों को परवान चढ़ाने की कोशिश सबसे पहले तब की गई जब सरकार ने जम्‍मू-कश्‍मीर से धारा 370 को समाप्‍त कर उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में विभाजित कर दिया।
एक अस्‍थाई धारा को संविधान सम्‍मत प्रावधानों के तहत हटाने के बावजूद विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने आसमान सिर पर उठा लिया। लोकसभा और राज्‍यसभा में जमकर हंगामा किया गया और सड़कों पर धरने-प्रदर्शनों की अगुवाई की। सुप्रीम कोर्ट से लेकर श्रीनगर तक यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि देश को आग में झोंकने का काम किया गया है।
जब कहीं कोई सफलता नहीं मिली और थक-हारकर बैठने के लिए मजबूर होना पड़ा तो अयोध्‍या पर आने वाले सर्वोच्‍च न्‍यायालय के निर्णय को लेकर हवा दी जाने लगी। कहा जाने लगा कि मंदिर पर यदि हिंदुओं के पक्ष में निर्णय नहीं आया तो सरकार उसे पलट देगी। मोदी सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्‍त करेगी।
बहरहाल, अयोध्‍या पर आए सुप्रीम कोर्ट के सर्वसम्‍मत निर्णय ने अरमानों पर पानी फेर दिया क्‍योंकि उसके विरोध में कहीं से कोई आवाज नहीं उठी। हालांकि फिर भी उकसाने का काम चालू रहा लिहाजा चंद लोग यह कहने लगे कि सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सबूतों को दरकिनार कर धार्मिक आस्‍था के मद्देनजर दिया है।
बाद में इन्‍हीं लोगों ने रिव्‍यू पिटीशन दाखिल कर एकबार पुन: अयोध्‍या विवाद को जिंदा रखने का प्रयास किया परंतु सभी रिव्‍यू पिटीशन सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दीं।
यही कारण रहा कि जैसे ही मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में नागरिकता संशोधन बिल लाई वैसे ही उसे लेकर अफवाहों का बाजार गर्म करना शुरू कर दिया गया। NRC को नागरिकता संशोधन बिल यानी CAB से जोड़कर इस आशय का प्रचार किया जाने लगा कि यह दोनों एक-दूसरे के पूरक और मुस्‍लिमों को देश से खदेड़ने की योजना का हिस्‍सा हैं।
पूरे-पूरे दिन CAB पर संसद के दोनों सदनों में बहस होने के बाद नागरिकता संशोधन बिल पास हुआ और राष्‍ट्रपति के हस्‍ताक्षर से इसने कानून का रूप लिया तो विपक्ष को अपने अरमानों पर फिर से पानी फिरता दिखाई देने लगा।
यही कारण रहा कि एक ओर वह हिंसक प्रदर्शनों को परोक्ष समर्थन देकर अपनी मंशा पूरी करने में जुट गया वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट से लेकर राष्‍ट्रपति तक के पास दौड़ा परंतु राहत कहीं से न मिलनी थी और न मिली।
कितने आश्‍चर्य की बात है कि जिस बिल को पूरे संवैधानिक तौर-तरीकों से संसद के दोनों सदनों में पास कराया गया, उसे अब भी असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक घोषित कर देशभर में आग लगाने की कोशिश की जा रही है।
नागरिकता संशोधन कानून अर्थात CAA को लेकर हिंसक प्रदर्शन करने वाले इसके बारे में कितना जानते हैं, इसकी पुष्‍टि मीडिया द्वारा उनसे पूछे जा रहे सवालों से बखूबी हो रही है।
जामिया मिल्‍लिया इस्‍लामिया, अलीगढ़ मुस्‍लिम यूनिवर्सिटी, जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू और अन्‍य कुछ शिक्षण संस्‍थानों के छात्रों की बात छोड़ दी जाए तो आज हजारों की तादाद में जगह-जगह प्रदर्शन करने वाले इतना भर नहीं बता पा रहे कि वो किस संबंध में तथा क्‍यों प्रदर्शन करने आए हैं। हालांकि बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटी के छात्र भी यह बताने में असमर्थ हैं कि CAA और NRC किस तरह एक-दूसरे के पूरक हैं और किस तरह भारतीय मुसलमानों के खिलाफ हैं।
हिंसक प्रदर्शनों में लिप्‍त और सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले राजनीतिक संरक्षण प्राप्‍त इन उपद्रवी तत्‍वों को यदि कुछ पता है तो मात्र इतना कि उन्‍हें मोदी सरकार का विरोध करना है क्‍योंकि उनके मुताबिक यह सरकार मुस्‍लिम विरोधी है।
उनके पास इस प्रश्‍न का कोई जवाब नहीं है कि वो किस आधार पर मोदी सरकार को मुस्‍लिम विरोधी बता रहे हैं और उनके पास इसके लिए क्‍या तर्क है।
सच तो यह है कि धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा कराने वाली और सात दशक से तुष्‍टीकरण की राजनीति करने वाली पार्टी को अब यह समझ में आ चुका है कि उसके लिए मोदी के रहते सत्ता में वापसी का कोई रास्‍ता शायद ही मिले इसलिए किसी भी तरह मोदी को हटाया जाए।
जिन रास्‍तों से देश की सबसे पुरानी पार्टी सर्वाधिक लंबे समय तक सत्ता सुख भोगती रही, मोदी सरकार ने क्रमश: उन सभी रास्‍तों को बंद कर दिया है। यदि कोई रास्‍ता बचा भी है, तो उसे बंद करने की पूरी तैयारी उसने कर रखी है।
अर्श से फर्श पर आई स्‍वतंत्रता सेनानियों की पार्टी को समझ में नहीं आ रहा कि वह उसकी जड़ों तक मठ्ठा डालने वाली मोदी की नीतियों से आखिर कैसे पार पाए। कैसे उसके अकाट्य तर्कों का जवाब दे और कैसे अपने डूबते जहाज को बचाए।
जाहिर है कि उसे इस सबके लिए अंतिम सहारे के रूप में वहीं लौटना पड़ रहा है जहां से उसकी शुरूआत हुई थी। मतलब धार्मिक आधार पर बंटवारे की राजनीति पर।
जिन्‍ना की जिद और नेहरू की महत्‍वाकांक्षा को पूरा करने के लिए अखंड भारत को खंड-खंड करने का जो सिलसिला 1947 में प्रारंभ किया गया था, उसका नया अध्‍याय लिखने की कोशिश है CAA और NRC की आड़ लेकर कराए जा रहे हिंसक प्रदर्शन।
किसी भी हिंसक प्रदर्शन के लिए भीड़ से अच्‍छा कोई हथियार नहीं होता क्‍योंकि भीड़ बेदिमाग होती है। संभवत: इसीलिए हर राजनीतिक दल अपना मंसूबा पूरा करने को भीड़ का सहारा लेता है और उसे नाम देता है जनसमर्थन का।
चूंकि भीड़ बेदिमाग होती है इसलिए कई बार वह उकसाने वालों पर ही भारी पड़ जाती है। भीड़ को हथियार बनाकर शिकार करने वाले तब खुद उसके हाथों शिकार होते देखे गए हैं। दुनिया के तमाम मुल्‍क इसकी पुष्‍टि करते हैं।
बेहतर होगा कि लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देकर भीड़ को उकसाने वाले राजनीतिक दल जितनी जल्‍दी हो यह समझ जाएं कि हथियार सिर्फ हत्‍या और सुरक्षा के लिए नहीं होते, आत्‍महत्‍या के कारण भी वही बनते हैं।
और अंत में एक बिन मांगी सलाह कि हो सके तो आत्‍मघाती खोखले मुद्दों को हथियार बनाने की जगह यह विचार कीजिए कि इस दयनीय दशा तक कैसे और क्‍यों पहुंचे।
माना कि राजनीति आज की तारीख में एक विशुद्ध पेशा है, सेवा नहीं परंतु पेशे के सफल संचालन को भी पेशेवर रुख अख्‍यतियार करना पड़ता है। गैर पेशेवर तरीका अंतत: कहीं का नहीं छोड़ता।
रहा सवाल CAA और NRC का, तो देर-सवेर ठीक उसी तरह इनकी अहमियत वर्ग विशेष को भी समझ में आ जाएगी जिस तरह 370 हटने की अहमियत कश्‍मीरियों को समझ में आ गई।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

शनिवार, 14 दिसंबर 2019

अबे चल हट…तू 5 हजार रुपए घंटे वाला प्रवक्‍ता, मैं 10 हजार रुपए Per Hour वाला Spokes Person


अबे चल हट…तू 5 हजार रुपए घंटे वाला क्षेत्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता, मैं 10 हजार रुपए Per Hour वाला नेशनल पार्टी का Spokes Person……….. तेरी मेरे सामने क्‍या औकात।
चौंकिए मत, अब लगभग दिन-दिनभर चलने वाली Tv debates में पार्टिसिपेट कर रहे लोग एक-दूसरे को यह सब कहते-सुनते नजर आएं तो आश्‍चर्य मत कीजिएगा, क्‍योंकि गंदा है पर धंधा है। पापी पेट का सवाल है।
सरकार किसी की हो, कभी प्‍याज तो कभी पेट्रोल-डीजल की कीमतों को लेकर रोते हुए मुंह मांगे दामों पर पिज्‍जा-बर्गर खाने वाले ‘हम लोग’ फ्री में फाइट देखने के इतने आदी हैं कि ‘नूरा कुश्‍ती’ को भी असलियत मानकर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं।
इतना ही नहीं, उसके बाद अपना निठल्‍ला चिंतन लेकर सोशल मीडिया पर आवारा सांड़ों की तरह विचरण करने जा पहुंचते हैं ताकि किसी से भिड़कर सींगों की खुजली मिटा सकें।
वहां मुंह से न सही शब्‍दों से ऐसी जुगाली करते हैं कि भले ही उसकी दुर्गंध संबंधों को तार-तार करके रख दे किंतु पीछे हटने को तैयार नहीं होते।
मजे की बात यह है कि इतना सब-कुछ हम बिना यह जाने करते हैं कि हर डिबेट प्रायोजित है। हर प्रवक्‍ता, हर विशेषज्ञ, हर विश्‍लेषक बिकाऊ है। इन-फैक्‍ट एंकर से लेकर प्रवक्‍ता तक और विशेषज्ञ से लेकर विश्‍लेषक तक सब बिकाऊ हैं।
बहुत जल्‍द डेढ़ सौ करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही देश की आबादी के एक बड़े हिस्‍से को शायद ही यह ज्ञान प्राप्‍त हो कि सुबह से शाम तक विभिन्‍न टीवी चैनलों पर बहस का हिस्‍सा बनने वाले लोग हमारी-तुम्‍हारी तरह फोकटिया नहीं हैं। वो हर घंटे की कीमत वसूलते हैं।
National party के Spokes Person को एक घंटे की बहस में भाग लेने का 10 हजार रुपया मिलता है और क्षेत्रीय दलों के प्रवक्‍ता पांच-पांच देकर निपटा दिए जाते हैं।
अब जरा विचार कीजिए कि एक राष्‍ट्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता सुबह से शाम तक यदि चार चैनलों को निपटा दे तो 40 हजार रुपए की दिहाड़ी पूरी हो गई।
क्षेत्रीय पार्टी का प्रवक्‍ता भी 20 हजार रुपए दिनभर में पीट लेता है। यानी राष्‍ट्र के नाम पर मात्र एक महीने में एक करोड़ बीस लाख की कमाई और क्षेत्रीय होकर भी राष्‍ट्रभर की दुहाई देकर 60 लाख रुपए महीने की आमदनी। हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा।
विशेषज्ञ और विश्‍लेषक भले ही अपनी-अपनी औकात के हिसाब से बिकते हों परंतु बिकाऊ सब होते हैं। जनहित में बहस करने की फुरसत किसी को नहीं।
रही बात एंकर की तो उसे चैनल की पॉलिसी मेंटेन रखते हुए ‘मैढ़ा’ लड़ाने का ही वेतन मिलता है। उसका अपना कोई दीन-धर्म नहीं होता। वह ‘जैसी ढपली वैसा राग’ का अनुकरण कर अपने कर्तव्‍य की पूरे दिन इतिश्री करता रहता है।
जो कल तक किसी चैनल पर ‘ताल ठोक’ रहा था वह आज ‘दंगल’ करा रहा है। जो ‘आर-पार’ कर रहा था, वो ‘हल्‍ला बोल’ रहा है। किसी चैनल पर ‘मास्‍टर स्‍ट्रोक’ लगाया जा रहा है तो कोई ‘ललकार’ रहा है।
नाम भी ऐसे कि भोजपुरिया फिल्‍मों के टाइटिल तक लजा जाएं। सबका अपना-अपना ‘एजेंडा’ है, बस नाम का फर्क है।
कह भले ही लो कि नाम में क्‍या रखा है, लेकिन बंधु नाम में ही बहुत कुछ रखा है तभी तो ऐसे बेढंगे नाम ढूंढ-ढूंढकर रखे जाते हैं और फिर उन नामों को सार्थक करते हुए उनके अनुरूप बहसें कराई जाती हैं। पैसा फेंककर तमाशा देखने और दिखाने का यह चलन कितने दिन और चलेगा, यह बता पाना तो मुश्‍किल है किंतु यह जरूर बताया जा सकता है कि जल्‍द ही इन बहसों का रूप परिवर्तन होने वाला है।
ढर्रे पर चल रही बहसों से पब्‍लिक को ऊब होने लगी है। खट्टी डकारें आने लगी हैं। जायका नजर नहीं आता, इसलिए वह चेंज चाहती है।
चैनल भी जनता की बेहद मांग पर अति शीघ्र इन बहसों में गाली-गलौज का तड़का लगाने की जुगत भिड़ा रहे हैं। बस मौके की तलाश है।
‘कुछ मीठा हो जाए’ की तर्ज पर ‘कुछ तीखा हो जाए’ टीवी मार्केट में उतारने की योजना है। गाली-गलौज न सही लेकिन इतना तो हो कि प्रवक्‍ताओं, विशेषज्ञों एवं विश्‍लेषकों के पैकेज की भरपाई की जा सके।
ऐसा ही कुछ कि अबे चल हट…बहुत देखे तेरे जैसे पांच-पांच हजार रुपल्ली पर बिकने वाले। जिस दिन मेरी तरह दस हजार रुपए घंटे मिलने लगें उस दिन मुझसे बात करना। अभी तेरी औकात नहीं है मुझसे बहस करने की।
विशेषज्ञ और विश्‍लेषक भी इसी अंदाज में एक-दूसरे की औकात बताते हुए रिटायरमेंट का लुत्फ लेते रहेंगे।
मार-पिटाई के सीन अगली प्‍लानिंग के लिए छोड़े जा सकते हैं क्‍योंकि उसके बाद चैनलों के पास कुछ बचेगा नहीं।
जाते-जाते एकबार और जान लो। ये घंटे-घंटेभर में हजारों रुपए छापकर ले जाने वाले जो लोग आपको चैनलों पर एक-दूसरे के जानी दुश्‍मन दिखाई देते हैं वो कैमरा ऑफ होते ही साथ बैठकर कॉफी सिप करने लगते हैं।
दिमाग पर बिना यह जोर डाले कि ‘चार पैसे’ देकर मेंढ़े लड़ाने वाले चैनल भी आपनी-अपनी टीआरपी के लिए सारे देश को लड़ा रहे हैं।
हो सके तो आप ही अपने दिमाग पर जोर डाल लेना कि आपको इस सबसे आखिर क्‍या मिल रहा है।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी
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