रविवार, 31 अगस्त 2014

देश के लिए बड़ा खतरा बने धर्म के धंधेबाज

धर्म को यदि शाब्‍दिक रूप से परिभाषित किया जाए तो उसके अनेक अर्थ सामने आ जायेंगे। इन अर्थों में तमाम इतने क्‍लिष्‍ट होंगे जिन्‍हें समझना और समझाना काफी मुश्‍किल हो जायेगा।
धर्म की गूढ़ता और उसको परिभाषित करने वाले अर्थ व अनर्थों में न पड़ा जाए तो इस बात से शायद ही किसी को आपत्‍ति हो कि धर्म को जब धंधा बना लिया जाता है तब वह धर्म नहीं रह जाता। तब वह खालिस अधर्म बन जाता है और अधर्मियों के खिलाफ सख़्त कार्यवाही करना सरकार की ज़िम्‍मेदारी बनती है।
हाल ही में एक खबर इस आशय की आई है कि धर्म के नाम पर विदेशों से आ रहे धन को लेकर सरकार काफी चिंतित है और उसने इस धन पर अपनी निगाहें केंद्रित कर दी हैं।
गृह मंत्रालय ने इस संबंध में जो आंकड़े जुटाए हैं, उनके अनुसार धर्म के नाम पर विदेशों से आ रहे धन की तादाद में सिर्फ सालभर के अंदर 23 फीसदी का इजाफा हुआ है। एक साल के अंदर इसमें 162 करोड़ रुपए की रिकॉर्ड बढ़ोत्‍तरी हुई है जो चौंकाने वाली है।
गौर करने वाली बात यह और है कि 162 करोड़ की बढ़ोत्‍तरी केवल उन गैर सरकारी धार्मिक संगठनों की है जिन्‍होंने एफसीआर नियमों के तहत बाकायदा रिटर्न दाखिल किए हैं जबकि ऐसे संगठनों की संख्‍या बहुत अधिक है जो धर्म के नाम पर विदेशों से धन तो लेते हैं किंतु रिटर्न तक दाखिल करना जरूरी नहीं समझते।
हालांकि ऐसे 4138 संगठनों को पिछले तीन सालों में प्रतिबंधित किया गया है परंतु अब भी इनकी संख्‍या बहुत अधिक है।
धर्म की आड़ में चल रहा अवैध धंधा सरकार ही नहीं समाज के लिए भी अत्‍यधिक चिंता का विषय है क्‍योंकि सामाजिक विघटन तथा दंगे-फसादों में इस धंधे से प्राप्‍त धन की बड़ी भूमिका रहती है।
देश इस दौर में जिन बड़ी परेशानियों का सामना कर रहा है, उनमें तथाकथित धर्म और उस धर्म के कारोबारियों की भागीदारी महत्‍वपूर्ण है। वह न केवल धर्म को अपने हिसाब से परिभाषित कर रहे हैं बल्‍कि उससे अर्जित संपत्‍ति का भी भरपूर दुरुपयोग कर रहे हैं।
यही कारण है कि एक ओर समाज भले ही पहले से अधिक शिक्षित हो रहा हो किंतु सामाजिक विघटन बढ़ रहा है। धर्म के नाम पर झगड़े, फसाद और दंगे हो रहे हैं।
देश की कुल जनसंख्‍या का एक बड़ा हिस्‍सा पूरी मेहनत-मशक्‍कत करने के बावजूद जरूरी संसाधन नहीं जुटा पाता और धर्म के धंधेबाज करोड़ों तथा अरबों रुपए इमारतों पर खर्च कर रहे हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि कोई धर्म इस सब से अछूता नहीं रहा। सभी धर्मों के अंदर ऐसे तत्‍व अच्‍छी-खासी मात्रा में समाहित हो चुके हैं जिनके लिए धर्म आड़ का काम कर रहा है और वह उस आड़ के ज़रिए अपना कारोबार सरहदों के पार तक फैला चुके हैं।
कड़वा सच तो यह है कि धर्म को धंधा बनाने तथा उसको बाकायदा एक संगठित कारोबार की तरह संचालित करने वाले लोग देश के लिए घातक बीमारी का रूप ले चुके हैं।
भारी तादाद में विदेशी पैसा प्राप्‍त करने वाले तथाकथित धार्मिक संगठन उस पैसे का दुरुपयोग अपनी ऐश-मौज तथा उस खोखले अहम् की तुष्‍टि पर कर रहे हैं जो अंतत: सामाजिक विघटन का कारण बनता है।
बेशक इसके लिए हमारा वो कानून भी कम जिम्‍मेदार नहीं जो धर्म के नाम पर देश-विदेश से आने वाले कालेधन को सफेद करने की सहूलियत धार्मिक संगठनों को मुहैया कराता है इसलिए अब वक्‍त आ गया है कि ऐसे कानून की भी नए सिरे से व्‍याख्‍या की जाए और उसमें जरूरी संशोधन हों।
धर्म के लिए मिलने वाले धन पर कर में छूट का प्राविधान जिस दौर के अंदर बनाया गया था, उस दौर में धर्म का अवैध कारोबार करने की बात संभवत: किसी के दिमाग में नहीं रही होगी किंतु आज धर्म को बतौर धंधा इस्‍तेमाल करने वाले ही अधिक हैं लिहाजा समय की मांग है कि धार्मिक कारोबारियों की बारीक समीक्षा हो ताकि धर्म ही नहीं, देश भी बचा रहे।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी           

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

जूलर्स भी खूब काट रहे हैं ''टटलू''

क्‍या आप स्‍वर्ण आभूषण या सोने के सिक्‍के आदि खरीदने के शौकीन हैं, क्‍या आप सोने में निवेश करते हैं ताकि वह बुरे वक्‍त में कभी आपके काम आ सके?
यदि ऐसा है तो यह खबर विशेष रूप से आपके ही लिए है क्‍योंकि आपका यह शौक या आपकी निवेश करने की आदत आपके लिए भारी घाटे का सौदा भी हो सकता है।
यूं तो राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से मात्र 146 किलोमीटर दूर स्‍थित विश्‍व प्रसिद्ध धार्मिक जिला एक लंबे समय से चांदी के आभूषणों और चांदी के सिक्‍के बनाने के लिए मशहूर है लिहाजा यहां चांदी की खपत बड़ी मात्रा में होती है किंतु अब यह जिला स्‍वर्णाभूषणों की खपत का भी बड़ा बाजार है।
दरअसल जब से कृष्‍ण की पावन जन्‍मभूमि पर रियल एस्‍टेट के कारोबारियों ने अपने पैर फैलाने शुरू किए हैं, तब से यहां कालेधन का प्रवाह तेजी के साथ बढ़ा है। काले धन का यह प्रवाह रियल एस्‍टेट के साथ-साथ सर्राफे के कारोबारियों को भी मुफीद है क्‍योंकि जब किसी के पास कालाधन बढ़ता है तो उसके लिए गोल्‍ड में निवेश करना आसान होता है।
इसके अलावा आम भारतीयों की सोच भी यही है कि गोल्‍ड पर निवेश किया गया पैसा सामाजिक प्रतिष्‍ठा बढ़ाने के अलावा आड़े वक्‍त में काम आने का सबसे अच्‍छा ज़रिया बनता है।
कालेधन के प्रवाह तथा लोगों की इस सोच का अब इस धार्मिक जनपद के अधिकांश ज्‍वैलर्स जमकर लाभ उठा रहे हैं और धर्म के दोगुने करने तक से परहेज नहीं कर रहे।
इस कारोबार से ही जुड़े सूत्रों के अनुसार चूंकि हैसियत बढ़ाने या निवेश करने के लिए सोना खरीदने वाले लोग बहुत ही मुश्‍किल से अपने सोने को रीसेल करते हैं इसलिए ज्‍वैलर्स द्वारा की जाने वाली धोखाधड़ी एवं बेईमानी का खुलासा नहीं हो पाता।
बेईमानी का खुलासा न हो, इसके लिए अधिकांश ज्‍वैलर्स अपने ग्राहकों को इस तरह की सलाह भी देते हैं कि यदि कभी आपको अपना सोना बेचने की जरूरत पड़ जाए तो आप हमारे पास चले आइए। हम आपसे सिर्फ मेकिंग का पैसा काटेंगे, सोने का पूरा पैसा वापस दे दिया जायेगा।
ज्‍वैलर्स का अपने ग्राहकों के प्रति दिखाया गया यह प्रेम या अतिरिक्‍त सुविधा देने का दिखावा ही सामान बेचने के साथ किए गये छल की पूरी कहानी का राज है। ज्‍वैलर्स जानते हैं कि सौ में से नब्‍बे ग्राहक ऐसे होते हैं जो जरूरत पड़ने पर सोना कभी वहां नहीं बेचने जाते, जहां से उसे खरीदते हैं क्‍यों कि ऐसा करने में वह खुद की प्रतिष्‍ठा व संपन्‍नता प्रभावित होती महसूस करते हैं।
यही कारण है कि ज्‍यादातर ज्‍वैलर्स सोने के टंच में धोखाधड़ी करते हैं और उसमें भारी लाभ कमाते हैं।
सरकार ने सर्राफा बाजार में की जाने वाली इस धोखाधड़ी को बंद करने तथा स्‍वर्ण आभूषणों की गुणवत्‍ता के लिए ''हॉलमार्क'' की व्‍यवस्‍था की लेकिन अब ज्‍वैलर्स ने उसमें भी ग्राहक को ठगने का रास्‍ता निकाल लिया है।
अब अगर शुद्ध सोने की गारंटी देने वाला हॉलमार्क ही नकली हो तो ग्राहक किस पर भरोसा करेगा?
जी हां, आपको आसानी से यकीन आए या न आए परंतु पूरी तरह सच है यह बात कि जूलरी बाजार में अवैध हॉलमार्किंग का धंधा भी जोरों पर है और मथुरा जैसी धार्मिक नगरी के ज्‍वैलर्स इस गोरखधंधे से बेहिसाब पैसा अर्जित कर रहे हैं।
इसके लिए लो कैरेट सोने पर हायर फिटनेस नंबर डलवाने या ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) के लाइसेंस के बिना ही अपनी जूलरी पर हॉलमार्किंग करवाने का खेल बड़े पैमाने पर खेला जा रहा है।
फर्जी तरीके से कराई गई ज्यादातर हॉलमार्किंग में मुहरों की संख्या 5 से कम रखी जाती है जबकि असली हॉलमार्किंग में पूरी 5 मोहरें अंकित रहती हैं।
चांदनी चौक, दरीबा कलां, कूचा महाजनी, करोलबाग के जूलरी बाजारों में पैठ रखने वाले एक बुलियन एक्सपर्ट ने नकली हॉलमार्किंग वाले गहनों के कुछ पीस दिखाते हुए बताया, 'बीआईएस रजिस्टर्ड सेंटर से कराई गई हॉलमार्किंग के तहत गहनों के हर पीस पर 5 तरह के मार्क छापे जाते हैं। पहला बीआईएस का लोगो, दूसरा फिटनेस नंबर यानी कैरेट का संकेत, तीसरा मार्किंग सेंटर का लोगो, चौथा वर्ष कोड और पांचवां बेचने वाले जूलर का लोगो या ट्रेड मार्क।
फर्जीवाड़ा दो तरह से होता है। एक, हॉलमार्किंग तो असली होती है लेकिन रजिस्टर्ड जूलर मार्किंग सेंटर वालों को पैसे खिलाकर लो कैरेट सोने पर एक दो नंबर ज्यादा कैरेट का निशान छपवा लेते हैं। दूसरा, बीआईएस रजिस्ट्रेशन के बिना ही आधा-अधूरा हॉलमार्किंग करा ली जाती है, जिसमें अनिवार्य 5 चिह्नों की जगह 3 या 4 चिह्न ही रखे जाते हैं। यह सिर्फ ग्राहक को इम्प्रेस करने के मकसद से होता है, उसे कोई सर्टिफिकेट नहीं दिया जाता।'
हॉलमार्किंग फिटनेस नंबर हर कैरेट के लिए अलग-अलग होता है। मसलन 23 कैरेट सोने के लिए 958, 22 कैरेट के लिए 916, 21 कैरेट के लिए 875, 18 कैरेट के लिए 750, 17 कैरेट के लिए 708, 14 कैरेट के लिए 585, 9 कैरेट के लिए 375 तथा 8 कैरेट के लिए 333
जानकार बताते हैं कि कैरेट में एकाध नंबरों का फर्क तब तक नहीं पकड़ा जा सकता, जब तक ग्राहक उसकी किसी लैब में जांच नहीं कराए। आम तौर पर लोग हॉलमार्किंग और सर्टिफिकेट से ही संतुष्ट होते हैं पर अंतर ज्यादा होने से बायबैक स्कीमों और पुरानी जूलरी को बेचते समय यह विवाद बन सकता है। फर्जीवाड़े का बड़ा धंधा बिना रजिस्ट्रेशन के ही 3 या 4 मार्क लगवाकर ग्राहकों को गुमराह करने वालों का है।
दिल्ली में 23 हॉलमार्क सेंटर बीआईएस की ओर से हॉलमार्किंग के लिए अधिकृत हैं और हॉलमार्किंग के लिए रजिस्टर्ड जूलर्स की तादाद 1 हजार से ज्यादा नहीं है लेकिन यहां कुल जूलर्स की संख्या 50,000 से ज्यादा है, जिनमें 5 हजार बड़े बुलियन डीलर हैं। इसकी एक वजह यह है कि हॉलमार्किंग कानूनी तौर से अनिवार्य नहीं है। यह जूलर पर निर्भर करता है कि वह अपनी जूलरी की हॉलमार्किंग कराए या नहीं। बीआईएस कानून के मुताबिक हॉलमार्किंग या जूलरी की किसी भी शिकायत पर जिम्मेदारी हॉलमार्किंग सेंटर की नहीं बल्कि जूलर की होगी और उसी के खिलाफ मामला दर्ज होगा।
चूंकि हॉलमार्किंग सिर्फ रिटेल जूलर्स के लिए है, थोक कारोबारियों को इसकी इजाजत नहीं है इसलिए रिटेल जूलर्स के लिए फर्जीवाड़ा करना और सहज हो जाता है।
इस धोखाधड़ी का एक बड़ा कारण यह भी है कि स्‍वर्णाभूषणों की खरीद में अधिकांशत: लोग कालेधन का ही इस्‍तेमाल करते हैं और इसलिए उसकी खरीद का बिल नहीं लेते। जब बिलिंग नहीं होती तो जूलर्स के लिए वक्‍त पर ग्राहक से पल्‍ला झाड़ने में भी कोई दिक्‍कत नहीं होती।
संभवत: इसीलिए धर्म नगरी में अधर्म और बेईमानी के इस कारोबार को आज इतना परवान चढ़ा दिया है कि जगह-जगह जूलरी शोरूम खुल गए हैं और शहर का कोई इलाका ऐसा नहीं जहां सर्राफा कारोबारी न हों जबकि कुछ वर्षों पूर्व तक इनका अपना एक अलग मार्केट हुआ करता था।
आश्‍चर्य की बात तो यह है कि स्‍वर्ण और डायमंड पर भी अब इसके कारोबारी बाकायदा छूट देते हैं तथा समय-समय पर स्‍कीम निकाल कर सेल लगाते हैं।
है ना चकित करने वाला कारोबार। और उससे भी अधिक चकित करती है लोगों की वह सोच जो आंख बंद करके अपनी जेब कटवाती है और किसी से कोई शिकायत तक नहीं करती।
-LegendNews exclusive

गुरुवार, 7 अगस्त 2014

मोतीलाल वोरा ने लुटियंस में कब्‍जा रखे हैं 9 सरकारी बंगले

नई दिल्ली। 
कांग्रेस के दिग्गज नेता और कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के नाम पर नई दिल्‍ली के लुटियंस इलाके में नौ सरकारी मकान अलॉटेड हैं। राज्यसभा सदस्य के नाते उन्हें 33 लोधी एस्टेट बंगला आवंटित किया गया है। आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक, राज्यसभा सचिवालय ने पुष्टि की है कि इसके अलावा भी वोरा को छह बंगले और दो फ्लैट दिए गए हैं।
खबर के मुताबिक लोधी एस्टेट के बंगले के अलावा वोरा के पास वीवीआईपी इलाके नॉर्थ एवेन्यू में 49, 63, 78 और 112 नंबर बंगला, साउथ एवेन्यू में 49 और 139 नंबर बंगला, वीपी हाउस में 124 और 507 नंबर फ्लैट हैं। इनमें से ज्यादातर घरों में लंबे समय से वोरा के 'अतिथि' रहते हैं।
पूर्व सांसद केसी लेंका और द्विजेंदर नाथ शर्मा वीपी हाउस वाले फ्लैटों में रहते हैं। नॉर्थ एवेन्यू वाले एक बंगले में महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ से आए कांग्रेसी कार्यकर्ता रहते हैं। वोरा के सबसे नए अतिथि पूर्व सांसद राज बब्बर हैं, जो साउथ एवेन्यू वाले बंगले में शिफ्ट होने वाले हैं। इस बंगले में फिलहाल साफ-सफाई का काम चल रहा है। यह घर 2006 से ही वोरा के कब्जे में है और राज बब्बर इसमें उनके तीसरे गेस्ट होंगे।
अब सवाल उठता है कि क्या कोई सांसद अपने अतिथि के लिए सरकारी घर ले सकता है?
सांसद अपने संसदीय क्षेत्र के गणमान्य नागरिकों के लिए मामूली किराये पर कुछ समय के लिए घर ले सकते हैं। हालांकि, वोरा के मामले में ज्यादातर गेस्ट पार्टी के वे पूर्व सांसद हैं, जिन्हें चुनाव हारने के चलते मकान खाली करना पड़ता है। इस मामले में गौर करने वाली बात यह है कि नॉर्थ और साउथ एवेन्यू जैसे पॉश इलाकों में किराये पर रहने के लिए लाखों रुपये प्रति महीना देना पड़ता है जबकि तथाकथित गेस्ट के लिए ये बंगले 19000 रुपये के किराये पर ही उपलब्ध हैं।
साफ है कि कांग्रेस नेता वोरा को घर देने के मामले में नियमों की जमकर धज्जियां उड़ाई गईं। सांसद को नियम के तहत गेस्ट को ठहराने के लिए घर तीन महीने के लिए दिया जाता है। हाउस कमेटी की गाइड लाइंस के मुताबिक, समीक्षा करके इसकी अवधि अधिकतम छह महीने की जा सकती है। इस समय लुटियंस इलाके में सांसदों ने 46 मकान अपने अतिथियों के लिए अलॉट कराए हैं। इनमें सबसे ज्यादा 8 मोतीलाल वोरा के पास ही हैं। बड़े नेताओं में जनार्दन द्विवेदी, आनंद शर्मा, अरुण जेटली और नजम्मा हेपतुल्ला के नाम पर एक-एक घर अलॉट है।
राज्यसभा सचिवालय ने वोरा को इन घरों को खाली करने का नोटिस जारी कर दिया है। इसके बावजूद इनमें उनके गेस्ट ही रह रहे हैं। वोरा ने इस बारे में सफाई देते हुए कहा कि उन्होंने आठ मकान अलॉट नहीं कराए हैं। उनका कहना है कि उनके पास सिर्फ 78 नॉर्थ एवेन्यू और 139 साउथ एवेन्यू वाला बंगला है, बाकी के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है।
-एजेंसी

मंगलवार, 5 अगस्त 2014

यमुना प्रदूषण: 'जो छिनरे, वही डोली के संग'

महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्‍ण की जन्‍मस्‍थली मथुरा सहित समूचे ब्रजमंडल में एक कहावत कुछ इस तरह है- 'जो छिनरे, वो ही डोली के संग'।
फिलहाल यह कहावत उन तमाम लोगों पर पूरी तरह सटीक बैठती है जो यमुना को प्रदूषण से मुक्‍त कराने के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों का हिस्‍सा बने हुए हैं और बड़ी शान के साथ मंचासीन होकर अखबारों के लिए फोटो खिंचवाते हैं।
कहावत से इन लोगों का वास्‍ता कैसे और क्‍यों है, यह जानने से पहले वो जान लेना जरूरी है, जिसके कारण ऐसे लोग कहावत का हिस्‍सा बन चुके हैं।
दरअसल यमुना की शुद्धि के लिए डाली गई एक जनहित याचिका पर करीब 16 साल पहले इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय ने न केवल अनेक आदेश-निर्देश दिए बल्‍कि उन आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने को नोडल अधिकारी भी नियुक्‍त किए। मथुरा में अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) को यह जिम्‍मेदारी सौंपी गई।
यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए दिए गए इन आदेश-निर्देशों की गंभीरता के मद्देनजर उच्‍च न्‍यायालय ने नोडल अधिकारियों को न्‍यायिक शक्‍ति तक प्रदान की ताकि वह इस मामले में किसी स्‍तर पर कोताही बरतने वालों को खुद सबक सिखा सकें, फिर चाहे वह उनके सीनियर अधिकारी ही क्‍यों न हों।
उच्‍च न्‍यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने के लिए यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत प्राप्‍त सैंकड़ों करोड़ रुपए का इस्‍तेमाल किया गया।
रुपया तो खर्च हो गया लेकिन यमुना में प्रदूषण दूर होने की जगह बढ़ता चला गया, नतीजा सबके सामने है।
अगर बात करें केवल मथुरा और आगरा की तो यहां यमुना मात्र एक नाम के लिए शेष है। सच्‍चाई तो यह है कि यमुना में आज जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह मात्र मल-मूत्र, घातक रसायन और नाले-नलियों से बहकर आ रही गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि 16 साल पहले यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने के लिए दिए गए तमाम आदेश-निर्देशों के बावजूद यमुना का ऐसा हाल हो कैसे गया?
इस प्रश्‍न का जवाब तब मिलेगा जब उन लोगों पर नजर डाली जाए जिनके ऊपर उच्‍च न्‍यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने की जिम्‍मेदारी है।
इसमें सबसे पहला नाम आता है नोडल अधिकारी एडीएम प्रशासन का। पिछले 16 सालों के दौरान मथुरा में एडीमए प्रशासन के पद पर जितने भी अधिकारी तैनात रहे, उनमें से शायद ही किसी ने नोडल अधिकारी के दायित्‍व का सही-सही निर्वहन किया हो।
एक नोडल अधिकारी ने तो साफ-साफ यह स्‍वीकार भी किया कि उन्‍हें यमुना प्रदूषण के मामले में कोर्ट से प्राप्‍त अधिकार और कर्तव्‍यों को जानने का ही समय नहीं मिलता। खाना-पूरी करने के लिए वह यदा-कदा मीटिंग करके अखबारों में समाचार जरूर छपवा लेते हैं जिससे कोर्ट तक यह संदेश न जाए कि नोडल अधिकारी कुछ नहीं कर रहे। जिलाधिकारियों ने इस सब में नोडल अधिकारियों का पूरा साथ दिया और लकीर पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
नोडल अधिकारी के पद पर रहे प्रशासनिक अफसरों की इस नीति का ही परिणाम है कि आज तक एक दिन के लिए भी न तो दरेशी रोड स्‍थित पशुवध शाला में पशुओं का कटान बंद हुआ और न ही कभी पूरी तरह नाले व नाली टेप हो सके। यमुना में दिन-रात जहर घोलने वाली कोई इकाई कभी बंद नहीं हुई और नए आधुनिक कट्टीघर के लिए जमीन तक तलाशने का काम नहीं किया जा सका।
उच्‍च न्‍यायालय के आदेश-निर्देशों की खुलेआम धज्‍जियां उड़ाई जाती रहीं और यमुना एक्‍शन प्‍लान के नाम पर मिले सारे पैसे का बंदरबांट हो गया।
यह सारा काम नोडल अधिकारी के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नगर पालिका, याचिकाकर्ता और जनप्रतिनिधियों की देखरेख में होना था लेकिन किसी ने अपनी जिम्‍मेदारी को गंभीरता से नहीं लिया और 16 वर्षों से सब एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे रहे।
यमुना रक्षक दल के बैनर तले जब यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने का अभियान छेड़ा गया और पिछले साल इस अभियान ने एक बड़े आंदोलन की शक्‍ल अख्‍ति़यार कर ली तो चेहरा चमकाकर प्रसिद्धि पाने वालों की अच्‍छी-खासी जमात उनके साथ खड़ी दिखाई दी।
इस जमात ने अपना स्‍वार्थ पूरा होते ही आंदोलन को फ्लॉप कराने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया और देखते-देखते वह अपने मकसद में सफल हो गए। अब कहने को यमुना की प्रदूषण मुक्‍ति के लिए कई संगठन खड़े दिखाई देते हैं परंतु एक भी संगठन ऐसा नहीं है जिसके क्रिया-कलापों में गंभीरता दिखाई देती हो। सबकी अपनी-अपनी ढपली हैं, और अपने-अपने राग। दुख व शर्म की बात तो यह है कि सब एक-दूसरे की नीति ही नहीं नीयत पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं, आरोप-प्रत्‍यारोप लगा रहे हैं।
आश्‍चर्य की बात यह है कि इन संगठनों में भी वही लोग हैं जो कल तक एक झण्‍डे के नीचे इकठ्ठे थे और एकस्‍वर से यमुना को मुक्‍त कराने की बात करते थे।
अगर इन सबका उद्देश्‍य पवित्र है और सब यमुना को प्रदूषण मुक्‍त देखना चाहते हैं तो वो कौन से कारण हैं, जिन्‍होंने आंदोलन को दोफाड़ की जगह चार फाड़ कर दिया?
एक और महत्‍वपूर्ण सवाल यह कि नगर पालिका अध्‍यक्ष और जिलाधिकारी सहित ऐसे अनेक लोग जिनके ऊपर यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने की जिम्‍मेदारी है, वह आंदोलनकारियों के साथ क्‍यों व कैसे खड़े हैं। कैसे वह अखबारों में फोटो छपवाकर ऐसा संदेश दे रहे हैं कि वह यमुना को प्रदूषण मुक्‍त कराने के लिए बहुत चिंतित हैं जबकि वही तो यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्‍मेदार हैं।
कड़वा सच तो यह है कि वही यमुना को नदी से गंदा नाला बना देने के अपराधी हैं और वही उच्‍च न्‍यायालय की अवमानना के लिए जिम्‍मेदार लोगों की परिधि में आते हैं। यदि इन्‍हीं लोगों ने अपनी जिम्‍मेदारी निभाई होती और यमुना एक्‍शन प्‍लान के नाम पर मिली करोड़ों रुपए की रकम का सही-सही इस्‍तेमाल कराया होता तो निश्‍चित ही यमुना इतनी बदहाल न होती।
घोर आश्‍चर्य होता है इस बात पर कि यमुना के लिए आंदोलनरत किसी भी संगठन ने आज तक 'कंटेम्‍प्‍ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही करने में रुचि क्‍यों नहीं ली। क्‍यों केवल मजमा लगाकर अखबारों में फोटो छपवाने तक सब सीमित हैं। अखबार भी जन जागरूकता या जनसहभागिता की आड़ लेकर प्रसार-प्रचार करने में तो लगे हैं लेकिन कोई अखबार यह नहीं पूछ रहा कि जो यमुना की वर्तमान दयनीय दशा के लिए जिम्‍मेदार हैं और जिन्‍होंने 16 साल से उच्‍च न्‍यायालय के किसी आदेश-निर्देश का पालन कराने में कोई रुचि नहीं दिखाई, ईमानदारी से न तो अधिकारों का इस्‍तेमाल किया और न कर्तव्‍यों का निर्वहन, वह अब किस मुंह से आंदोलनकारियों के साथ खड़े हैं।
कहीं फिर इनका कोई ऐसा छद्म मकसद तो नहीं जिसे पूरा करने के लिए वह शिद्दत के साथ सक्रिय हैं ताकि सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे।
यही वह स्‍थिति भी है जो ब्रज की उस कहावत को इनके ऊपर पूरी तरह सटीक बैठाती है- ''जो छिनरे, वही डोली के संग'' ।
रही बात यमुना को प्रदूषण से मुक्‍ति मिलने की तो वह तभी संभव है जब 'कंटेम्‍प्‍ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही अमल में लाई जाए और कोर्ट उसके लिए जिम्‍मेदार सभी तत्‍वों को कठघरे में खड़ा करके एक ओर जहां आदेश-निर्देशों की खुलेआम अवहेलना पर सवाल करे वहीं दूसरी ओर यमुना एक्‍शन प्‍लान के तहत खर्च हुए करोड़ों रुपयों का हिसाब भी मांगे।
जिस दिन इस दिशा में किसी स्‍तर से ठोस प्रयास शुरू हो गया उस दिन यमुना को प्रदूषण मुक्‍त करने का रास्‍ता तो साफ होगा ही, साथ ही यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्‍मेदार बहुत से लोग बेनकाब हो जायेंगे। संभव है कि कुछ को जेल की हवा तक खानी पड़ जाए।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी 

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

राहुल के कहने पर 5 घंटे में सचिन को बनाया भारत रत्‍न

नई दिल्‍ली। 
पिछले साल सचिन तेंडुलकर को भारत रत्‍न देने से संबंधित पूरी कागजी कार्यवाही मात्र पांच घंटे में पूरी की गई थी। खास बात यह है कि सचिन के नाम की सिफारिश भी किसी ने नहीं की थी। सिर्फ राहुल गांधी के कहने पर सचिन के लिए जल्‍दबाजी में 'भारत रत्‍न' की घोषणा की गई। 14 नवंबर की दोपहर राहुल गांधी को अचानक लगा कि सचिन को लेकर देशभर में जबर्दस्‍त उत्‍साह और सकारात्‍मक माहौल है। वह दिन उनके आखिरी टेस्‍ट का पहला दिन था। राहुल ने अपना चुनावी दौरा टाल मुंबई जाकर मैच देखने का फैसला किया। इसी दौरान उन्‍होंने सचिन को भारत रत्‍न देने के बारे में पीएमओ से बात की।
14 नवंबर की दोपहर 1.35 बजे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) में एक चिट्ठी तैयार हुई। चिट्ठी में खेल मंत्रालय को तत्‍काल सचिन तेंडुलकर का बायोडाटा भेजने के लिए कहा गया था। ‘Urgent: Out Today’ लिख कर चिट्ठी रवाना की गई और खेल मंत्रालय से कुछ ही घंटे में सचिन का बायोडाटा पीएमओ पहुंच गया। देर शाम तक प्रधानमंत्री के पास सचिन को 'भारत रत्‍न' देने संबंधित अंतिम नोट पहुंच गया और अगले दिन (15 नवंबर) राष्‍ट्रपति के पास दो लोगों (सचिन और वैज्ञानिक सीएनआर राव) को 'भारत रत्‍न' देने का प्रस्‍ताव राष्‍ट्रपति के दस्‍तखत के लिए भेज दिए गए। राष्‍ट्रपति ने उसी दिन दस्‍तखत कर दिए।
-एजेंसी
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