महाभारत नायक योगीराज श्रीकृष्ण की जन्मस्थली मथुरा सहित समूचे ब्रजमंडल में एक कहावत कुछ इस तरह है- 'जो छिनरे, वो ही डोली के संग'।
फिलहाल यह कहावत उन तमाम लोगों पर पूरी तरह सटीक बैठती है जो यमुना को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों का हिस्सा बने हुए हैं और बड़ी शान के साथ मंचासीन होकर अखबारों के लिए फोटो खिंचवाते हैं।
कहावत से इन लोगों का वास्ता कैसे और क्यों है, यह जानने से पहले वो जान लेना जरूरी है, जिसके कारण ऐसे लोग कहावत का हिस्सा बन चुके हैं।
दरअसल यमुना की शुद्धि के लिए डाली गई एक जनहित याचिका पर करीब 16 साल पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल अनेक आदेश-निर्देश दिए बल्कि उन आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने को नोडल अधिकारी भी नियुक्त किए। मथुरा में अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) को यह जिम्मेदारी सौंपी गई।
यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए दिए गए इन आदेश-निर्देशों की गंभीरता के मद्देनजर उच्च न्यायालय ने नोडल अधिकारियों को न्यायिक शक्ति तक प्रदान की ताकि वह इस मामले में किसी स्तर पर कोताही बरतने वालों को खुद सबक सिखा सकें, फिर चाहे वह उनके सीनियर अधिकारी ही क्यों न हों।
उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने के लिए यमुना एक्शन प्लान के तहत प्राप्त सैंकड़ों करोड़ रुपए का इस्तेमाल किया गया।
रुपया तो खर्च हो गया लेकिन यमुना में प्रदूषण दूर होने की जगह बढ़ता चला गया, नतीजा सबके सामने है।
अगर बात करें केवल मथुरा और आगरा की तो यहां यमुना मात्र एक नाम के लिए शेष है। सच्चाई तो यह है कि यमुना में आज जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह मात्र मल-मूत्र, घातक रसायन और नाले-नलियों से बहकर आ रही गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि 16 साल पहले यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए दिए गए तमाम आदेश-निर्देशों के बावजूद यमुना का ऐसा हाल हो कैसे गया?
इस प्रश्न का जवाब तब मिलेगा जब उन लोगों पर नजर डाली जाए जिनके ऊपर उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने की जिम्मेदारी है।
इसमें सबसे पहला नाम आता है नोडल अधिकारी एडीएम प्रशासन का। पिछले 16 सालों के दौरान मथुरा में एडीमए प्रशासन के पद पर जितने भी अधिकारी तैनात रहे, उनमें से शायद ही किसी ने नोडल अधिकारी के दायित्व का सही-सही निर्वहन किया हो।
एक नोडल अधिकारी ने तो साफ-साफ यह स्वीकार भी किया कि उन्हें यमुना प्रदूषण के मामले में कोर्ट से प्राप्त अधिकार और कर्तव्यों को जानने का ही समय नहीं मिलता। खाना-पूरी करने के लिए वह यदा-कदा मीटिंग करके अखबारों में समाचार जरूर छपवा लेते हैं जिससे कोर्ट तक यह संदेश न जाए कि नोडल अधिकारी कुछ नहीं कर रहे। जिलाधिकारियों ने इस सब में नोडल अधिकारियों का पूरा साथ दिया और लकीर पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
नोडल अधिकारी के पद पर रहे प्रशासनिक अफसरों की इस नीति का ही परिणाम है कि आज तक एक दिन के लिए भी न तो दरेशी रोड स्थित पशुवध शाला में पशुओं का कटान बंद हुआ और न ही कभी पूरी तरह नाले व नाली टेप हो सके। यमुना में दिन-रात जहर घोलने वाली कोई इकाई कभी बंद नहीं हुई और नए आधुनिक कट्टीघर के लिए जमीन तक तलाशने का काम नहीं किया जा सका।
उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती रहीं और यमुना एक्शन प्लान के नाम पर मिले सारे पैसे का बंदरबांट हो गया।
यह सारा काम नोडल अधिकारी के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नगर पालिका, याचिकाकर्ता और जनप्रतिनिधियों की देखरेख में होना था लेकिन किसी ने अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लिया और 16 वर्षों से सब एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे रहे।
यमुना रक्षक दल के बैनर तले जब यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का अभियान छेड़ा गया और पिछले साल इस अभियान ने एक बड़े आंदोलन की शक्ल अख्ति़यार कर ली तो चेहरा चमकाकर प्रसिद्धि पाने वालों की अच्छी-खासी जमात उनके साथ खड़ी दिखाई दी।
इस जमात ने अपना स्वार्थ पूरा होते ही आंदोलन को फ्लॉप कराने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया और देखते-देखते वह अपने मकसद में सफल हो गए। अब कहने को यमुना की प्रदूषण मुक्ति के लिए कई संगठन खड़े दिखाई देते हैं परंतु एक भी संगठन ऐसा नहीं है जिसके क्रिया-कलापों में गंभीरता दिखाई देती हो। सबकी अपनी-अपनी ढपली हैं, और अपने-अपने राग। दुख व शर्म की बात तो यह है कि सब एक-दूसरे की नीति ही नहीं नीयत पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि इन संगठनों में भी वही लोग हैं जो कल तक एक झण्डे के नीचे इकठ्ठे थे और एकस्वर से यमुना को मुक्त कराने की बात करते थे।
अगर इन सबका उद्देश्य पवित्र है और सब यमुना को प्रदूषण मुक्त देखना चाहते हैं तो वो कौन से कारण हैं, जिन्होंने आंदोलन को दोफाड़ की जगह चार फाड़ कर दिया?
एक और महत्वपूर्ण सवाल यह कि नगर पालिका अध्यक्ष और जिलाधिकारी सहित ऐसे अनेक लोग जिनके ऊपर यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने की जिम्मेदारी है, वह आंदोलनकारियों के साथ क्यों व कैसे खड़े हैं। कैसे वह अखबारों में फोटो छपवाकर ऐसा संदेश दे रहे हैं कि वह यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए बहुत चिंतित हैं जबकि वही तो यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं।
कड़वा सच तो यह है कि वही यमुना को नदी से गंदा नाला बना देने के अपराधी हैं और वही उच्च न्यायालय की अवमानना के लिए जिम्मेदार लोगों की परिधि में आते हैं। यदि इन्हीं लोगों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती और यमुना एक्शन प्लान के नाम पर मिली करोड़ों रुपए की रकम का सही-सही इस्तेमाल कराया होता तो निश्चित ही यमुना इतनी बदहाल न होती।
घोर आश्चर्य होता है इस बात पर कि यमुना के लिए आंदोलनरत किसी भी संगठन ने आज तक 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही करने में रुचि क्यों नहीं ली। क्यों केवल मजमा लगाकर अखबारों में फोटो छपवाने तक सब सीमित हैं। अखबार भी जन जागरूकता या जनसहभागिता की आड़ लेकर प्रसार-प्रचार करने में तो लगे हैं लेकिन कोई अखबार यह नहीं पूछ रहा कि जो यमुना की वर्तमान दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार हैं और जिन्होंने 16 साल से उच्च न्यायालय के किसी आदेश-निर्देश का पालन कराने में कोई रुचि नहीं दिखाई, ईमानदारी से न तो अधिकारों का इस्तेमाल किया और न कर्तव्यों का निर्वहन, वह अब किस मुंह से आंदोलनकारियों के साथ खड़े हैं।
कहीं फिर इनका कोई ऐसा छद्म मकसद तो नहीं जिसे पूरा करने के लिए वह शिद्दत के साथ सक्रिय हैं ताकि सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे।
यही वह स्थिति भी है जो ब्रज की उस कहावत को इनके ऊपर पूरी तरह सटीक बैठाती है- ''जो छिनरे, वही डोली के संग'' ।
रही बात यमुना को प्रदूषण से मुक्ति मिलने की तो वह तभी संभव है जब 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही अमल में लाई जाए और कोर्ट उसके लिए जिम्मेदार सभी तत्वों को कठघरे में खड़ा करके एक ओर जहां आदेश-निर्देशों की खुलेआम अवहेलना पर सवाल करे वहीं दूसरी ओर यमुना एक्शन प्लान के तहत खर्च हुए करोड़ों रुपयों का हिसाब भी मांगे।
जिस दिन इस दिशा में किसी स्तर से ठोस प्रयास शुरू हो गया उस दिन यमुना को प्रदूषण मुक्त करने का रास्ता तो साफ होगा ही, साथ ही यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार बहुत से लोग बेनकाब हो जायेंगे। संभव है कि कुछ को जेल की हवा तक खानी पड़ जाए।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
फिलहाल यह कहावत उन तमाम लोगों पर पूरी तरह सटीक बैठती है जो यमुना को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए चलाए जा रहे आंदोलनों का हिस्सा बने हुए हैं और बड़ी शान के साथ मंचासीन होकर अखबारों के लिए फोटो खिंचवाते हैं।
कहावत से इन लोगों का वास्ता कैसे और क्यों है, यह जानने से पहले वो जान लेना जरूरी है, जिसके कारण ऐसे लोग कहावत का हिस्सा बन चुके हैं।
दरअसल यमुना की शुद्धि के लिए डाली गई एक जनहित याचिका पर करीब 16 साल पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल अनेक आदेश-निर्देश दिए बल्कि उन आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने को नोडल अधिकारी भी नियुक्त किए। मथुरा में अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) को यह जिम्मेदारी सौंपी गई।
यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए दिए गए इन आदेश-निर्देशों की गंभीरता के मद्देनजर उच्च न्यायालय ने नोडल अधिकारियों को न्यायिक शक्ति तक प्रदान की ताकि वह इस मामले में किसी स्तर पर कोताही बरतने वालों को खुद सबक सिखा सकें, फिर चाहे वह उनके सीनियर अधिकारी ही क्यों न हों।
उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने के लिए यमुना एक्शन प्लान के तहत प्राप्त सैंकड़ों करोड़ रुपए का इस्तेमाल किया गया।
रुपया तो खर्च हो गया लेकिन यमुना में प्रदूषण दूर होने की जगह बढ़ता चला गया, नतीजा सबके सामने है।
अगर बात करें केवल मथुरा और आगरा की तो यहां यमुना मात्र एक नाम के लिए शेष है। सच्चाई तो यह है कि यमुना में आज जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह मात्र मल-मूत्र, घातक रसायन और नाले-नलियों से बहकर आ रही गंदगी के अलावा कुछ नहीं है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि 16 साल पहले यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए दिए गए तमाम आदेश-निर्देशों के बावजूद यमुना का ऐसा हाल हो कैसे गया?
इस प्रश्न का जवाब तब मिलेगा जब उन लोगों पर नजर डाली जाए जिनके ऊपर उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों का अनुपालन कराने की जिम्मेदारी है।
इसमें सबसे पहला नाम आता है नोडल अधिकारी एडीएम प्रशासन का। पिछले 16 सालों के दौरान मथुरा में एडीमए प्रशासन के पद पर जितने भी अधिकारी तैनात रहे, उनमें से शायद ही किसी ने नोडल अधिकारी के दायित्व का सही-सही निर्वहन किया हो।
एक नोडल अधिकारी ने तो साफ-साफ यह स्वीकार भी किया कि उन्हें यमुना प्रदूषण के मामले में कोर्ट से प्राप्त अधिकार और कर्तव्यों को जानने का ही समय नहीं मिलता। खाना-पूरी करने के लिए वह यदा-कदा मीटिंग करके अखबारों में समाचार जरूर छपवा लेते हैं जिससे कोर्ट तक यह संदेश न जाए कि नोडल अधिकारी कुछ नहीं कर रहे। जिलाधिकारियों ने इस सब में नोडल अधिकारियों का पूरा साथ दिया और लकीर पीटने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
नोडल अधिकारी के पद पर रहे प्रशासनिक अफसरों की इस नीति का ही परिणाम है कि आज तक एक दिन के लिए भी न तो दरेशी रोड स्थित पशुवध शाला में पशुओं का कटान बंद हुआ और न ही कभी पूरी तरह नाले व नाली टेप हो सके। यमुना में दिन-रात जहर घोलने वाली कोई इकाई कभी बंद नहीं हुई और नए आधुनिक कट्टीघर के लिए जमीन तक तलाशने का काम नहीं किया जा सका।
उच्च न्यायालय के आदेश-निर्देशों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जाती रहीं और यमुना एक्शन प्लान के नाम पर मिले सारे पैसे का बंदरबांट हो गया।
यह सारा काम नोडल अधिकारी के साथ-साथ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, नगर पालिका, याचिकाकर्ता और जनप्रतिनिधियों की देखरेख में होना था लेकिन किसी ने अपनी जिम्मेदारी को गंभीरता से नहीं लिया और 16 वर्षों से सब एक-दूसरे पर दोषारोपण करने में लगे रहे।
यमुना रक्षक दल के बैनर तले जब यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने का अभियान छेड़ा गया और पिछले साल इस अभियान ने एक बड़े आंदोलन की शक्ल अख्ति़यार कर ली तो चेहरा चमकाकर प्रसिद्धि पाने वालों की अच्छी-खासी जमात उनके साथ खड़ी दिखाई दी।
इस जमात ने अपना स्वार्थ पूरा होते ही आंदोलन को फ्लॉप कराने का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया और देखते-देखते वह अपने मकसद में सफल हो गए। अब कहने को यमुना की प्रदूषण मुक्ति के लिए कई संगठन खड़े दिखाई देते हैं परंतु एक भी संगठन ऐसा नहीं है जिसके क्रिया-कलापों में गंभीरता दिखाई देती हो। सबकी अपनी-अपनी ढपली हैं, और अपने-अपने राग। दुख व शर्म की बात तो यह है कि सब एक-दूसरे की नीति ही नहीं नीयत पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं, आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं।
आश्चर्य की बात यह है कि इन संगठनों में भी वही लोग हैं जो कल तक एक झण्डे के नीचे इकठ्ठे थे और एकस्वर से यमुना को मुक्त कराने की बात करते थे।
अगर इन सबका उद्देश्य पवित्र है और सब यमुना को प्रदूषण मुक्त देखना चाहते हैं तो वो कौन से कारण हैं, जिन्होंने आंदोलन को दोफाड़ की जगह चार फाड़ कर दिया?
एक और महत्वपूर्ण सवाल यह कि नगर पालिका अध्यक्ष और जिलाधिकारी सहित ऐसे अनेक लोग जिनके ऊपर यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने की जिम्मेदारी है, वह आंदोलनकारियों के साथ क्यों व कैसे खड़े हैं। कैसे वह अखबारों में फोटो छपवाकर ऐसा संदेश दे रहे हैं कि वह यमुना को प्रदूषण मुक्त कराने के लिए बहुत चिंतित हैं जबकि वही तो यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं।
कड़वा सच तो यह है कि वही यमुना को नदी से गंदा नाला बना देने के अपराधी हैं और वही उच्च न्यायालय की अवमानना के लिए जिम्मेदार लोगों की परिधि में आते हैं। यदि इन्हीं लोगों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती और यमुना एक्शन प्लान के नाम पर मिली करोड़ों रुपए की रकम का सही-सही इस्तेमाल कराया होता तो निश्चित ही यमुना इतनी बदहाल न होती।
घोर आश्चर्य होता है इस बात पर कि यमुना के लिए आंदोलनरत किसी भी संगठन ने आज तक 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही करने में रुचि क्यों नहीं ली। क्यों केवल मजमा लगाकर अखबारों में फोटो छपवाने तक सब सीमित हैं। अखबार भी जन जागरूकता या जनसहभागिता की आड़ लेकर प्रसार-प्रचार करने में तो लगे हैं लेकिन कोई अखबार यह नहीं पूछ रहा कि जो यमुना की वर्तमान दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार हैं और जिन्होंने 16 साल से उच्च न्यायालय के किसी आदेश-निर्देश का पालन कराने में कोई रुचि नहीं दिखाई, ईमानदारी से न तो अधिकारों का इस्तेमाल किया और न कर्तव्यों का निर्वहन, वह अब किस मुंह से आंदोलनकारियों के साथ खड़े हैं।
कहीं फिर इनका कोई ऐसा छद्म मकसद तो नहीं जिसे पूरा करने के लिए वह शिद्दत के साथ सक्रिय हैं ताकि सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे।
यही वह स्थिति भी है जो ब्रज की उस कहावत को इनके ऊपर पूरी तरह सटीक बैठाती है- ''जो छिनरे, वही डोली के संग'' ।
रही बात यमुना को प्रदूषण से मुक्ति मिलने की तो वह तभी संभव है जब 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' की कार्यवाही अमल में लाई जाए और कोर्ट उसके लिए जिम्मेदार सभी तत्वों को कठघरे में खड़ा करके एक ओर जहां आदेश-निर्देशों की खुलेआम अवहेलना पर सवाल करे वहीं दूसरी ओर यमुना एक्शन प्लान के तहत खर्च हुए करोड़ों रुपयों का हिसाब भी मांगे।
जिस दिन इस दिशा में किसी स्तर से ठोस प्रयास शुरू हो गया उस दिन यमुना को प्रदूषण मुक्त करने का रास्ता तो साफ होगा ही, साथ ही यमुना की वर्तमान दुर्दशा के लिए जिम्मेदार बहुत से लोग बेनकाब हो जायेंगे। संभव है कि कुछ को जेल की हवा तक खानी पड़ जाए।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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