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मंगलवार, 20 अप्रैल 2010
कृपालु या कलंक
मथुरा। खुद को पांचवां जगद् गुरू शंकराचार्य बताने वाले कृपालु महाराज के मनगढ स्िथत आश्रम में भण्डारे के दौरान 65 लोगों की मौत के तत्काल बाद उन्हीं के द्वारा वृंदावन में फिर भण्डारे का वैसा ही आयोजन करना यह साबित करता है कि कृपालु महाराज और उसके अनुयायियों को इतने लोगों की मौत का न तो कोई दु:ख हुआ न कोई अफसोस। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा का निम्नतम् एवं घिनौना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कृपालु के प्रवक्ता ने यह और कह दिया कि जो कुछ हुआ, वह ईश्वर की मर्जी थी।
यहीं नहीं, कृपालु के प्रवक्ता की मानें तो उनके द्वारा आयोजित इस भण्डारे के लिए आश्रम की ओर से किसी को निमंत्रण नहीं भेजा गया था। 65 गरीब लोगों की दर्दनाक मौत के बाद कृपालु के प्रवक्ता का यह बयान जितना चौंकाने वाला है, उतना ही चौंकाता है प्रशासन का उस बयान को चुपचाप स्वीकार कर लेना। वह भी तब कि जांच रिपोर्ट में इस पूरी घटना के लिए आश्रम को प्रथम द्रष्ट्या दोषी बताया गया।
घटना के बाद से लगभग भूमिगत हो चुके कृपालु कल अचानक प्रकट हुए और मृतकों तथा घायलों के लिए मुआवजे का चैक मीडिया को बुलाकर प्रशासन के नाम जारी किया। इस दौरान भी कृपालु ने अपना मुंह नहीं खोला।
वृंदावन (मथुरा) स्िथत आश्रम में प्रशासन की रोक के बावजूद भण्डारे के दौरान नोट बांटे जाने का जवाब आयोजकों ने यह दिया कि भोजन के साथ दक्षिणा देना सामान्य बात है और ऐसा करने से प्रशासनिक रोक का उल्लंघन नहीं हुआ। आश्चर्यजनक रूप से सिटी मजिस्ट्रेट ने भी आश्रम की इस बेहूदा दलील पर हां में हां मिला दी जो इस बात की पुष्िट करती है कि धर्म के ऐसे धंधेबाजों के समक्ष शासन और प्रशासन कितना बौना है।
सच तो यह है कि कृपालु जैसे लोगों का धर्म या दान-दक्षिणा से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। वह जो कुछ करते हैं, अपने कृत्यों पर पर्दा डालने और शौहरत हासिल करने के लिए करते हैं। अपनी पत्नी की बरसी के नाम पर कृपालु ने यही सब किया वरना गरीबों को मदद करने के तमाम अन्य तरीके ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर एक पंथ दो काज जैसी कहावत चरितार्थ की जा सकती थी। यूं भी यदि कृपालु का संतत्व से कोई सम्बन्ध है तो फिर अपनी दिवंगत पत्नी के नाम पर इतने बडे आडम्बर का क्या मतलब!
दरअसल कृपालु भी उन्हीं तथाकथित साधुओं की जमात का हिस्सा हैं जिनके कुकृत्यों ने सम्पूर्ण साधु समाज पर गहरा प्रश्नवाचक चिन्ह अंकित कर दिया है और जिनके कारण योगगुरू बाबा रामदेव तथा आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर सहित तमाम धर्माचार्यों को आगे आकर ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्यवाही करने की हिमायत करनी पडी। हाल ही में पकडे गये इच्छाधारी के बावत तो योगगुरू बाबा रामदेव ने यहां तक कह दिया कि ऐसे लोगों को फांसी पर चढा देना चाहिए।
कृपालु महाराज बेशक अपनी अकूत सम्पत्ित के बल पर अब तक अपने कुकृत्यों को दबवाने में सफल रहे हैं लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकलता कि वह पाक-साफ हैं और साधु समाज पर कलंक लगाने वालों से किसी प्रकार भिन्न हैं। बात चाहे नागपुर की दो सगी बहनों के साथ बलात्कार के मामले से जुडी हो या फिर टुबेगो एण्ड त्रिनिदाद की विदेशी धरती पर एक 22 वर्षीय युवती के साथ दुराचार की जिसमें कृपालु को गत वर्ष वहां बंदी बनाया गया था। वृंदावन के आश्रम की भूमि को खरीदने में करोडों रूपयों की स्टाम्प चोरी का मामला हो या आश्रम के कर्मचारी की संदिग्ध मौत का, सब यह संकेत करते हैं कि कृपालु के कारनामे कम से कम संतत्व की श्रेणी में नहीं आते।
यह बात दीगर है कि इस सब के बावजूद कृपालु जैसों को संत मानने वालों की कोई कमी नहीं है क्योंकि वह उनके काले कारनामों को अपने प्रभाव तथा धर्म की आड में दबाये रखने की जुगत जानते हैं। कृपालु जैसे कथित साधु अपने इन भक्तों की काली कमाई को सफेद करने और सरकार की नजरों में धूल झौंकने के विशेषज्ञ हैं।
यही कारण है कि देश के कर्णधार हमारे बडे-बडे नेता इनके चरणों में शीश नवाते हैं और कानून के शिकंजे में फंसने पर इनके मददगार बनते हैं। कौन नहीं जानता कि देश से छिपाई गई कुल काली कमाई का एक बडा हिस्सा उन नेताओं, नौकरशाहों तथा सफेदपोशों के कब्जे में हैं जो कृपालु जैसे धर्म के धंधेबाजों के यहां अक्सर ढोक लगाते हैं। तभी तो देश में धर्म बाकायदा एक ऐसा व्यवसाय बन चुका है जो 100 प्रतिशत सफलता की गारण्टी देता है। तभी तो आज कोई चैनल ऐसा नहीं जिस पर धर्म की दुकान न सजाई जाती हो। देश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं जहां धर्म के धंधेबाज पूरी सिद्दत से सक्रिय न हों। कोई शासन और कोई प्रशासन ऐसा नहीं जो इन्हें निजी लाभ के लिए संरक्षण न देता हो। और जब तक धर्म की ये दुकानें सरकार और सरकारी नुमाइंदों के संरक्षण में चलेंगी तब तक कृपालु एवं इच्छाधारी जैसे बहरूपिये देश के माथे पर कलंक लगाते रहेंगे। कभी बेबस और लाचारों को अपनी हवस का शिकार बनाकर तो कभी अपनी शौहरत की भूख पूरी करने लिए उनकी जिंदगी दांव पर लगाकर।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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