खाकी के खौफ का खत्म होते जाना उत्तर प्रदेश के लिए एक खतरनाक संकेत है। हालांकि प्रदेश की सत्ता पर काबिज समाजवादी पार्टी ऐसा नहीं मानती। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की मानें तो प्रदेश की कानून-व्यवस्था जहां दूसरे प्रदेशों से बेहतर है, वहीं पुलिस भी विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अच्छा काम कर रही है।
मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी क्या कहती है, इस पर फिलहाल गौर न करके वास्तविकता पर ध्यान दिया जाए तो पुलिस की प्रदेश में कहीं न कहीं आए दिन होने वाली मजामत यह साबित करने के लिए काफी है कि खाकी का अब न तो इकबाल बुलंद रहा और न उसका बदमाशों के मन में खौफ बाकी है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कैसे हुईं कि जिस खाकी के खौफ से कभी बड़े-बड़े कुख्यात बदमाशों की जान सूख जाती थी, उसी खाकी पर अब खास ही नहीं आम आदमी भी हमलावर हो जाता है।
नि: संदेह ऐसी परिस्थितियां पैदा न तो एकसाथ पैदा हुईं हैं और न किसी एक कारण से बनी हैं। इन परिस्थितियों के पैदा होने में जितना हाथ राजनेताओं का है, उतना ही पुलिस की उस कार्यप्रणाली का भी है जो अत्याचार की श्रेणी में आती है।
पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए कोर्ट से मिले आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं क्योंकि यदि उन आदेश-निर्देशों पर अमल हो जाता है तो पुलिस फिर राजनेताओं के हाथ की कठपुतली नहीं रह जायेगी।
राजनीति और राजनेताओं से संरक्षण प्राप्त पुलिस कभी आमजन के लिए निष्पक्ष नहीं हो सकती और राजनेता यही चाहते भी हैं।
पुलिस के अचार-व्यवहार संबंधी तमाम खामियों को छोड़कर यदि जिक्र किया जाए सिर्फ उसके राजनीतिक दुरुपयोग का तो स्थिति इतनी अधिक भयावह है कि ऐसा लगता है जैसे ऊपर से नीचे तक पुलिस का राजनीतिकरण हो चुका है।
बात चाहे पुलिस अधिकारी व कर्मचारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग की हो अथवा उनके द्वारा की जाने वाली तफ्तीशों की, हर एक पर राजनीति हावी है। जोनल, रीजनल ही नहीं जिले तक में पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से की जाती है। थाने और चौकियां भी राजनीतिक दखलंदाजी के शिकार हैं और उन पर जाति विशेष का वर्चस्व कायम है।
प्रदेश में शायद ही कोई थाना-चौकी ऐसा बचा हो जिसमें प्रभारी से लेकर दीवान, मोहर्रिर व बीट के सिपाही तक जातिगत आधार पर बंटे हुए न हों।
ये लोग बदमाशों को भी उसी चश्मे से देखते हैं कि कौन सा बदमाश किस जाति से ताल्लुक रखता है अथवा उसे किस राजनीतिक दल का संरक्षण प्राप्त है। बदमाशों के खिलाफ कार्यवाही से पहले इन बातों पर गौर किया जाता है।
जाहिर है कि इन हालातों के चलते कई-कई खेमों में बंटा हुआ फोर्स जब कहीं किसी की गिरफ्तारी या दबिश के लिए प्रोग्राम बनाता है तो एकओर जहां उसकी सूचना पहले से लीक हो जाती है वहीं दूसरी ओर वांछित और अपराधी तत्वों को पुलिस पर हमलावर होने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है।
बेशक इससे किन्हीं खास पुलिसजनों का अपने प्रतिद्वंदी पुलिसकर्मी से बदला लेने का मकसद पूरा हो जाता हो किंतु वैमनस्यता काफी बढ़ जाती है।
पुलिसजन बहुत अच्छी तरह जानते हैं पुलिस पार्टी पर हमलावर होने तथा उसकी मजामत करने का दुस्साहस बड़े से बड़ा बदमाश तब तक नहीं करता जब तक कि उसे पुलिस के अंदर से ही प्रोत्साहन न मिले किंतु ठोस सबूतों के अभाव में गद्दारों का कुछ नहीं बिगड़ता।
अधिकारी भी जांच के नाम पर लीपापोती करके मामले को रफा-दफा करने में विश्वास ज्यादा रखते हैं, ठोस कार्यवाही में कम लिहाजा कुछ दिनों बाद मामला ठंडा पड़ जाता है।
अगर ठंडा नहीं पड़ता तो कुछ दिनों बाद पुलिस मजामत की कोई दूसरी नई घटना हो जाती है और फिर ध्यान उस पर केंद्रित हो जाता है।
मथुरा जिले की ही बात करें तो पुलिस मजामत की तमाम घटनाएं आज तक पहेली बनी हुई हैं और उनका अनावरण नहीं हो पाया है जबकि कुछ घटनाओं में तो पुलिसजन जान से हाथ धो बैठे हैं जबकि कुछ में अंग-भंग हुए हैं।
यहां गौरतलब यह भी है कि भले ही समाजवादी पार्टी के शासनकाल में ऐसी घटनाएं कुछ बढ़ जाती हों या जाति विशेष का वर्चस्व कायम रहता हो किंतु इससे पूरी तरह निजात किसी पार्टी के शासन में नहीं मिलती।
हर सत्ता में कुछ खास तत्वों का बोलबाला रहता है और वो अनुशासन को ताक पर रखकर पूरी मनमानी करने से बाज नहीं आते।
जाहिर है कि इन हालातों में खाकी का खौफ रहेगा भी कैसे। जब मेंड़ ही खेत को खाने पर आमादा हो, तो उसे भगवान भी नहीं बचा सकते।
कुछ ऐसे ही स्थितियों के चलते आज खाकी अपनी जान बचाकर काम करने को मजबूर है और बदमाश बेखौफ होकर खाकी को अपना निशाना बनाते हैं।
खाकी की ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर उसके अंदर तक समा चुके जातिगत राजनीति के कीटाणुओं का यदि समय रहते सफाया नहीं किया गया तो तय मानिए कि खाकी कहीं की नहीं रहेगी तथा उसकी मजामत होने का सिलसिला न केवल इसी प्रकार जारी रहेगा बल्कि साल-दर-साल बढ़ता जायेगा।
- सुरेंद्र चतुर्वेदी
मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी क्या कहती है, इस पर फिलहाल गौर न करके वास्तविकता पर ध्यान दिया जाए तो पुलिस की प्रदेश में कहीं न कहीं आए दिन होने वाली मजामत यह साबित करने के लिए काफी है कि खाकी का अब न तो इकबाल बुलंद रहा और न उसका बदमाशों के मन में खौफ बाकी है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि ऐसी परिस्थितियां पैदा कैसे हुईं कि जिस खाकी के खौफ से कभी बड़े-बड़े कुख्यात बदमाशों की जान सूख जाती थी, उसी खाकी पर अब खास ही नहीं आम आदमी भी हमलावर हो जाता है।
नि: संदेह ऐसी परिस्थितियां पैदा न तो एकसाथ पैदा हुईं हैं और न किसी एक कारण से बनी हैं। इन परिस्थितियों के पैदा होने में जितना हाथ राजनेताओं का है, उतना ही पुलिस की उस कार्यप्रणाली का भी है जो अत्याचार की श्रेणी में आती है।
पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए कोर्ट से मिले आदेश-निर्देश धूल फांक रहे हैं क्योंकि यदि उन आदेश-निर्देशों पर अमल हो जाता है तो पुलिस फिर राजनेताओं के हाथ की कठपुतली नहीं रह जायेगी।
राजनीति और राजनेताओं से संरक्षण प्राप्त पुलिस कभी आमजन के लिए निष्पक्ष नहीं हो सकती और राजनेता यही चाहते भी हैं।
पुलिस के अचार-व्यवहार संबंधी तमाम खामियों को छोड़कर यदि जिक्र किया जाए सिर्फ उसके राजनीतिक दुरुपयोग का तो स्थिति इतनी अधिक भयावह है कि ऐसा लगता है जैसे ऊपर से नीचे तक पुलिस का राजनीतिकरण हो चुका है।
बात चाहे पुलिस अधिकारी व कर्मचारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग की हो अथवा उनके द्वारा की जाने वाली तफ्तीशों की, हर एक पर राजनीति हावी है। जोनल, रीजनल ही नहीं जिले तक में पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग राजनीतिक समीकरणों के हिसाब से की जाती है। थाने और चौकियां भी राजनीतिक दखलंदाजी के शिकार हैं और उन पर जाति विशेष का वर्चस्व कायम है।
प्रदेश में शायद ही कोई थाना-चौकी ऐसा बचा हो जिसमें प्रभारी से लेकर दीवान, मोहर्रिर व बीट के सिपाही तक जातिगत आधार पर बंटे हुए न हों।
ये लोग बदमाशों को भी उसी चश्मे से देखते हैं कि कौन सा बदमाश किस जाति से ताल्लुक रखता है अथवा उसे किस राजनीतिक दल का संरक्षण प्राप्त है। बदमाशों के खिलाफ कार्यवाही से पहले इन बातों पर गौर किया जाता है।
जाहिर है कि इन हालातों के चलते कई-कई खेमों में बंटा हुआ फोर्स जब कहीं किसी की गिरफ्तारी या दबिश के लिए प्रोग्राम बनाता है तो एकओर जहां उसकी सूचना पहले से लीक हो जाती है वहीं दूसरी ओर वांछित और अपराधी तत्वों को पुलिस पर हमलावर होने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है।
बेशक इससे किन्हीं खास पुलिसजनों का अपने प्रतिद्वंदी पुलिसकर्मी से बदला लेने का मकसद पूरा हो जाता हो किंतु वैमनस्यता काफी बढ़ जाती है।
पुलिसजन बहुत अच्छी तरह जानते हैं पुलिस पार्टी पर हमलावर होने तथा उसकी मजामत करने का दुस्साहस बड़े से बड़ा बदमाश तब तक नहीं करता जब तक कि उसे पुलिस के अंदर से ही प्रोत्साहन न मिले किंतु ठोस सबूतों के अभाव में गद्दारों का कुछ नहीं बिगड़ता।
अधिकारी भी जांच के नाम पर लीपापोती करके मामले को रफा-दफा करने में विश्वास ज्यादा रखते हैं, ठोस कार्यवाही में कम लिहाजा कुछ दिनों बाद मामला ठंडा पड़ जाता है।
अगर ठंडा नहीं पड़ता तो कुछ दिनों बाद पुलिस मजामत की कोई दूसरी नई घटना हो जाती है और फिर ध्यान उस पर केंद्रित हो जाता है।
मथुरा जिले की ही बात करें तो पुलिस मजामत की तमाम घटनाएं आज तक पहेली बनी हुई हैं और उनका अनावरण नहीं हो पाया है जबकि कुछ घटनाओं में तो पुलिसजन जान से हाथ धो बैठे हैं जबकि कुछ में अंग-भंग हुए हैं।
यहां गौरतलब यह भी है कि भले ही समाजवादी पार्टी के शासनकाल में ऐसी घटनाएं कुछ बढ़ जाती हों या जाति विशेष का वर्चस्व कायम रहता हो किंतु इससे पूरी तरह निजात किसी पार्टी के शासन में नहीं मिलती।
हर सत्ता में कुछ खास तत्वों का बोलबाला रहता है और वो अनुशासन को ताक पर रखकर पूरी मनमानी करने से बाज नहीं आते।
जाहिर है कि इन हालातों में खाकी का खौफ रहेगा भी कैसे। जब मेंड़ ही खेत को खाने पर आमादा हो, तो उसे भगवान भी नहीं बचा सकते।
कुछ ऐसे ही स्थितियों के चलते आज खाकी अपनी जान बचाकर काम करने को मजबूर है और बदमाश बेखौफ होकर खाकी को अपना निशाना बनाते हैं।
खाकी की ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर उसके अंदर तक समा चुके जातिगत राजनीति के कीटाणुओं का यदि समय रहते सफाया नहीं किया गया तो तय मानिए कि खाकी कहीं की नहीं रहेगी तथा उसकी मजामत होने का सिलसिला न केवल इसी प्रकार जारी रहेगा बल्कि साल-दर-साल बढ़ता जायेगा।
- सुरेंद्र चतुर्वेदी