शनिवार, 27 जनवरी 2018

मंत्री महोदय! पुलिस में ”निकम्‍मेपन” की परिभाषा कुछ और है

सुना है कल प्रदेश के ऊर्जा मंत्री तथा योगी सरकार के प्रवक्‍ता श्रीकांत शर्मा ने मथुरा के एसएसपी स्‍वप्‍निल ममगाई और जिलाधिकारी सर्वज्ञराम मिश्र से कहा कि ”निकम्‍मे” थानाध्‍यक्षों एवं दरोगाओं को चिन्‍हित कर उनके खिलाफ कार्यवाही करें।
श्रीकांत शर्मा मथुरा में ही शहरी सीट से विधायक हैं और कस्‍बा गोवर्धन अंतर्गत गांव गांठौली के मूल निवासी हैं।
श्रीकांत शर्मा कल मथुरा पुलिस लाइन में कानून-व्‍यवस्‍था के मुद्दे पर जिलाधिकारी और एसएसपी सहित सभी प्रमुख पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक कर रहे थे।
ऊर्जा मंत्री के अनुसार पुलिस विभाग में अब भी ”निचले स्‍तर पर” अवैध वसूली हो रही है और दरोगाओं की नाक के नीचे सिपाही उगाही कर रहे हैं।
पहली नजर में देखने से ऐसा लगता है कि जैसे प्रदेश के ऊर्जा मंत्री को पुलिस महकमे के बावत बहुत-कुछ पता है और नीचे से ऊपर तक व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार तथा निकम्‍मेपन से वह परिचित हैं, किंतु गहराई से देखें तो पता लगेगा कि उन्‍होंने जो भी कहा वह उस रटी-रटाई स्‍क्रिप्‍ट का हिस्‍सा था जिसे सरकार में रहते सब बोलते हैं क्‍योंकि यही सरकारी भाषा है।
श्रीकांत शर्मा शायद नहीं जानते कि पुलिस में जिन ”निकम्‍मे” थानाध्‍यक्षों और दरोगाओं को चिन्‍हित कर उनके खिलाफ कार्यवाही की बात वह कर रहे हैं, उन्‍हें विभाग में ”कमाऊ पूत” अथवा ”दुधारु गाय” कहा जाता है। वह विभागीय अधिकारियों के नजरिए से काबिल हैं तभी तो थाना और चौकियों के प्रभारी बने हुए हैं, अन्‍यथा कृष्‍ण जन्‍मभूमि व शाही मस्‍जिद ईदगाह की सुरक्षा ड्यूटी में लगे होते।
प्रदेश के ऊर्जा मंत्री को संभवत: यह भी नहीं पता कि पुलिस ही नहीं, लगभग समूचे सरकारी महकमों में ”निकम्‍मेपन” की परिभाषा कुछ और है। यहां निकम्‍मे कर्मचारी की पहचान ”कामचोर” या काम न करने वाले के तौर पर नहीं बल्‍कि ऐसे कमाऊ पूत के रूप में होती है जो सूखी मिट्टी से भी तेल निकालना जानता हो।
ऊर्जा मंत्री को कौन समझाए कि जिस तरह के ”निकम्‍मे” थानाध्‍यक्षों, दरोगाओं और रिश्‍वतखोर सिपाहियों को चिन्‍हित कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने का फरमान वह सुना रहे हैं, यदि उस पर अक्षरश: अमल हुआ तो प्रदेश सरकार को पुलिस विभाग में तत्‍काल नए सिरे से भर्ती करने की जरूररत पड़ जाएगी।
दरअसल, ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा कल ही इससे पहले मथुरा के थाना हाईवे अंतर्गत ग्राम मोहनपुर अडूकी में उस 8 वर्षीय बच्‍चे माधव के परिजनों से मिलकर आए थे जिसकी 17 जनवरी बुधवार को कथित मुठभेड़ के दौरान पुलिस की गोली लगने से तब मौत हो गई थी, जब वह खेत पर अपनी बहनों के साथ बेर तोड़ने गया हुआ था।
”चेतक” मोबाइल के जिन दो सिपाहियों की गोलीबारी का माधव शिकार हुआ उनकी अमानवीयता का आलम यह रहा कि वह बच्‍चे को खेत में ही तड़पता छोड़कर भाग खड़े हुए नतीजतन अस्‍पताल पहुंचाते-पहुंचाते उसकी मौत हो गई। अगर समय पर उसे पुलिस वाले ही अस्‍पताल ले गए होते तो हो सकता है उसकी जान बच जाती।
योगी सरकार ने हालांकि बच्‍चे के परिजनों को 5 लाख रुपए की आर्थिक सहायता देकर तथा आगरा जोन के आईजी राजा श्रीवास्‍तव द्वारा दो सब इंस्‍पेक्‍टरों सहित चार पुलिसकर्मियों को निलंबित कर पीड़ित परिवार के घाव पर मरहम लगाने की कोशिश की है लेकिन सवाल यह है कि इसमें नया क्‍या है। यह तो हर सरकार में होता है और कुछ दिन बाद फिर कहीं न कहीं पुलिस की ऐसी ही कोई कहानी सामने आती है। भद्रजनों के लिए ”खाकी” एक किस्‍म के ”खौफ” का पर्याय बन चुकी है। ऐसा खौफ जो स्‍वतंत्रता के 70 सालों बाद भी मिटने का नाम नहीं ले रहा।
योगी राज में हो रही मुठभेड़ों से भले ही कई ईनामी बदमाश जान गंवा चुके हों और तमाम पकड़े भी गए हों परंतु ऐसा कहीं नहीं लगता कि पुलिस का इकबाल बुलंद हुआ हो और आपराधिक वारदातों पर प्रभावी अंकुश लग पाया हो। जितने बदमाश मारे नहीं गए, उससे कई गुना अधिक संगीन वारदातें सामने आ चुकी हैं।
ऊर्जा मंत्री को याद होगा कि थाना हाईवे क्षेत्र की ही अमर कॉलोनी में हुए दोहरे हत्‍याकांड को पुलिस आजतक नहीं खोल पाई है जबकि तमाम धरने-प्रदर्शनों के बाद यह मामला न सिर्फ विधानसभा में उठ चुका है बल्‍कि हाईकोर्ट भी जा पहुंचा है और केस का अनावरण न होने की वजह से परिवार की बड़ी पुत्री आत्‍महत्‍या कर चुकी है।
इसी प्रकार बहुचर्चित रौनक हत्‍याकांड का भी पुलिस पर्दाफाश नहीं कर पाई है और इस मामले में आए दिन धरने-प्रदर्शन किए जा रहे हैं।
लूट, डकैती, चोरी और हत्‍याएं तो जैसे इस धार्मिक नगरी की पहचान बन चुके हैं क्‍योंकि शायद ही कोई दिन ऐसा व्‍यतीत होता है जिस दिन बदमाशों द्वारा पुलिस को खुली चुनौती न दी जा रही हो। चेन स्‍नेचिंग, लड़कियों से छेड़छाड़, वाहन चोरी आदि के साथ-साथ बढ़ते साइबर अपराधों की तो कोई गिनती ही नहीं है।
योगी आदित्‍यनाथ के शपथ ग्रहण करते ही मथुरा में दो युवा सर्राफा व्‍यवसाइयों की हत्‍या करके करोड़ों रुपए के आभूषण लूट कर ले जाने की जघन्‍य वारदात को शायद ही कोई अभी भूल पाया हो।
यहां अपराधियों के दुस्‍साहस का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि योगी सरकार के दस महीने बाद भी चंद रोज पहले मात्र एक दिन के अंतराल में बदमाशों ने एक ओर जहां प्रदेश के कबीना मंत्री चौधरी लक्ष्‍मीनारायण की गैस ऐजेंसी का लाखों रुपया लूट लिया वहीं दूसरी ओर उनके समधी की गोली मारकर हत्‍या कर दी। चौधरी लक्ष्‍मीनारायण मथुरा की ही छाता विधानसभा सीट से भाजपा की टिकट पर निर्वाचित हैं।
ऐसा नहीं है ”खाकी” का यह हाल सिर्फ मथुरा तक सीमित हो, प्रदेशभर में उसकी कार्यप्रणाली करीब-करीब एक जैसी है। सरकारें बदलती हैं किंतु ”खाकी” का चरित्र नहीं बदलता।
यही कारण है कि मथुरा हो या मुजफ्फरनगर और शामली हो या सहारनपुर, हर जगह उसका वही चेहरा सामने आता है जो उसकी स्‍थाई पहचान बन चुका है।
इसी गुरूवार रात की बात है। सहारनपुर जिले में बेरी बाग इलाके के मंगलनगर चौक पर एक बाइक अनियंत्रित होकर खंभे से जा टकराई और बाइक सवार दो किशोर गंभीर घायल हो गए। नुमाइश कैंप सेतिया विहार निवासी ये दोनों किशोर अर्पित खुराना और सन्नी तड़पते रहे लेकिन मौके पर पहुंचे पुलिसजनों ने उन्‍हें इसलिए अस्‍पताल ले जाने से मना कर दिया क्‍योंकि घायलों के खून से उनकी सरकारी गाड़ी गंदी हो जाती। बाद में जब इन नाबालिगों को किसी अन्‍य वाहन से अस्‍पताल पहुंचाया गया तो पता लगा कि तब तक वह दम तोड़ चुके थे।
बेशक पुलिस विभाग में भी अच्‍छे लोग हैं और वह हरसंभव जहां मानवता का परिचय देते हैं वहीं आमजनता के बीच बन चुकी पुलिस की अमानवीय छवि को दूर करने का प्रयास भी करते हैं किंतु ऐसे लोगों की संख्‍या इतनी कम है कि उनके सारे प्रयासों पर मथुरा व सहारनपुर जैसी घटनाएं पानी फेर देती हैं।
बेहतर होगा कि योगी आदित्‍यनाथ सरकार ”खाकी” के मूल चरित्र में परिवर्तन करने की कोशिश करे, न कि पूर्ववर्ती सरकारों की तरह हर बड़ी वारदात के बाद रटे-रटाए तरीके अपनाकर लीपापोती करके काम चलाए।
हर कोई जानता है कि पुलिस की चाल व चरित्र में आमूल-चूल परिर्वतन किए बिना उसके विभागीय सूत्र वाक्‍य ” परित्राणाय साधूनाम, विनाशाय च दुष्‍कृताम” को सार्थक कर पाना संभव नहीं होगा, और पुलिस में परिवर्तन तभी हो सकता है जब सरकारें एवं उसके नुमाइंदे रटी-रटाई स्‍क्रिप्‍ट पढ़ने की बजाय समस्‍या की उस जड़ को समाप्‍त करने की कोशिश करें जो परतंत्रता से स्‍वतंत्रता तक का सफर पूरा करने के बावजूद गहराई में समाई हुई है।
स्‍वयं सीएम योगी आदित्‍नाथ हों या उनके नुमाइंदे ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा, उन्‍हें समझना होगा कि ”खाकी” को बंदर घुड़की से बदलना संभव नहीं है।
खाकी के क्रिया-कलापों को बदलना है तो पहले सरकारी कार्यप्रणाली बदलनी होगी और सरकारी कार्यप्रणाली बदलने के लिए उस ”वीआईपी संस्‍कृति” को बदलना होगा जो आमजन का दर्द समझने में असहाय है। जिसके लिए किसी परिवार के ”भविष्‍य” की कीमत मात्र 5 लाख रुपए है। जिसके लिए सड़क पर तड़पते दुर्घटना के शिकार किशोरवय लड़कों की जिंदगी केवल इसलिए बेमानी है क्‍योंकि वो जिस सरकारी गाड़ी को इस्‍तेमाल करते हैं वह उनके खून से गंदी हो जाएगी।
सरकार और सरकारी कर्मचारियों की रग-रग में समा चुकी इस वीआईपी संस्‍कृति से मुक्‍ति पाए बिना न तो अपराध और अपराधियों से मुक्‍ति मिल सकेगी और न कानून का राज स्‍थापित हो पाएगा। फिर चाहे और अगले दस साल ”कोई योगी” सरकार चलाता रहे अथवा पूरे पांच साल कोई सत्‍ता का भोगी काबिज होकर चला जाए।
-www.legendnews.in

शनिवार, 13 जनवरी 2018

चौराहे पर न्‍यायपालिका, दोराहे पर लोग

देश के इतिहास में बेशक यह पहली बार हुआ हो…या फिर अंतिम भी हो…किंतु जिन सामान्‍य जनों का वास्‍ता अपने जीवन में कभी भी कोर्ट-कचहरी से पड़ा है वह भली-भांति जानते हैं कि जो कुछ कल सुप्रीम कोर्ट के चार विद्वान न्‍यायाधीशों ने प्रेस कांफ्रेंस करके कहा, उसमें नया कुछ नहीं था।
नया था तो केवल इतना कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय के चार सीनियर मोस्‍ट न्‍यायाधीश उन बातों को कहने ”सड़क पर” यानि ”प्रेस के सामने” आ गए जो बातें सामान्‍यत: दबी-ढकी रहती हैं और जिन्‍हें सब जानते-समझते हुए भी सार्वजनिक करने की हिम्‍मत नहीं कर पाते।
न्‍यायाधीशों ने जिन बातों को अपना ”दर्द” बताकर प्रेस के सामने पेश किया, वह एक ऐसी कड़वी सच्‍चाई है जो समूची न्‍यायपालिका में नीचे से लेकर ऊपर तक व्‍याप्‍त है और जिसे हर वो व्‍यक्‍ति प्रतिदिन भोगता है जिसके अंदर कहीं ”ईमानदारी” की लौ लगी हुई है। फिर चाहे वह कोई जज हो, न्‍याय विभाग का कोई कर्मचारी हो अथवा वकील ही क्‍यों न हो। रही बात वादी और प्रतिवादियों की, तो उसकी स्‍थिति ऐसे निरीह व्‍यक्‍ति की तरह होती है जो किसी कोने में जाकर सिसक तो सकता है किंतु उस सिसकी की आवाज़ किसी के कानों तक नहीं पहुंचा सकता क्‍योंकि सवाल देश की न्‍याय व्‍यवस्‍था का है। उस न्‍याय व्‍यवस्‍था का जो लोकतंत्र में आस्‍था रखने वाले हर शख्‍स की आखिरी उम्‍मीद होती है।
आप इसे यूं भी कह सकते हैं कि स्‍वतंत्र भारत में न्‍यायपालिका अपनी बात कहने के लिए भले ही पहली बार ”चौराहे” पर आकर खड़ी हुई हो परंतु लोग तो न्‍याय की आस में कई दशकों से ”दोराहे” पर खड़े हैं। उन्‍हें समझ में नहीं आता कि वह त्‍वरित व उचित न्‍याय के लिए किस दरवाजे पर जाकर खड़े हों। विधायिका के, कार्यपालिका के या न्‍यायपालिका के।
विधायिका अर्थात् ”नेतानगरी” का हाल यहां बताने की जरूरत ही नहीं है और कार्यपालिका में व्‍याप्‍त ”भ्रष्‍टाचार” से त्‍वरित व उचित न्‍याय की उम्‍मीद पालना बेमानी है। बिना पैसे के अधिकांश सरकारी कर्मचारियों के पांव अंगद की तरह एक स्‍थान पर जमे रहते हैं। बिना चाय-पानी के उन्‍हें उठवाना तो दूर, हिला पाना भी संभव नहीं होता।
रही बात न्‍यापालिका की तो उसके बारे में बहुत पहले से कहावत प्रचलित है कि ”कचहरी” की ईंट-ईंट पैसा मांगती है। चार विद्वान न्‍यायाधीश हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सब-कुछ ठीक न चलने की शिकायत लेकर 70 साल बाद चौराहे पर आए हों किंतु यह शिकायत न तो मात्र सुप्रीम कोर्ट की है और न सिर्फ उनकी अपनी। ऐसी शिकायतें जिला अदालतों से लेकर उच्‍च न्‍यायालयों तक में कदम-कदम पर बिखरी पड़ी हैं। इतना अवश्‍य है कि इन शिकायतों को न तो कोई एकत्र करता है और न उठाता है क्‍योंकि सवाल न्‍यायपालिका का जो है। वो न्‍यायपालिका जिसकी बात-बात में अवमानना हो जाती है। तब भी जबकि सवाल किसी न्‍यायाधीश के निजी आचरण से जुड़ा हो न कि न्‍याय व्‍यवस्‍था से, क्‍योंकि न्‍यायाधीश के आचरण को भी न्‍यायपालिका से जोड़कर देखा जाने लगा है।
शायद ही किसी अधिवक्‍ता ने कभी इस मुतल्‍लिक कोई याचिका दायर की हो कि न्‍यायपालिका की अवमानना को जनहित में परिभाषित किया जाए और स्‍पष्‍ट किया जाए कि किसी न्‍यायाधीश के निजी आचरण पर टिप्‍पणी करना न्‍यायपालिका की अवमानना कैसे हो सकती है।
आम आदमी जिसके लिए लोकतंत्र का यह स्‍तंभ न्‍याय पाने की आखिरी सीढ़ी होता है, वह इस सीढ़ी से निराश होने के बाद खुद को कितना ठगा महसूस करता है इसका इल्‍म उसे ही होता है किसी न्‍यायाधीश को नहीं।
तारीख पर तारीख…तारीख पर तारीख…किसी जुमले की तरह हिंदी फिल्‍म का हिस्‍सा तो बन गया लेकिन अदालतों से मिलने वाली तारीखों की कोई आखिरी तारीख अब तक मुकर्रर नहीं हो पाई, नतीजतन अनगिनत लोग हर साल न्‍याय की उम्‍मीद पाले लोकतंत्र के ”माई लॉर्ड” से परलोक के ”लॉर्ड” की अदालत में शिफ्ट कर जाते हैं और उसके बाद भी ”माई लॉर्ड” की अदालत से पीड़ित के किसी परिजन को हाजिर होने का फरमान जारी होना बंद नहीं होता।
जस्टिस जे चेलामेश्वरम, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ़ द्वारा लोकतंत्र को खतरे में बताकर उठाई गईं समस्‍याएं हालांकि पहली नजर में व्‍यक्‍तिगत अहम से उपजी समस्‍याएं दिखाई देती हैं और इसलिए बहुत से पूर्व विद्वान न्‍यायाधीश व अधिवक्‍तागण यह कह भी रहे हैं कि उन्‍हें अपने दायरे के अंदर रहकर समस्‍याओं के समाधान का रास्‍ता निकालना चाहिए था परंतु परिस्‍थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सतही तौर पर दिखाई देती हैं।
जिला स्‍तरीय अदालतों में भी बहुत से जिला एवं सत्र न्‍यायाधीश अपनी और अपने नजदीकी जजों की ”सुविधा” के हिसाब से केस सुनवाई के लिए भेजते हैं। निचली अदालतों में भी ”पैसा और प्रभाव” अधिकांश जजों के सिर चढ़कर बोलता है। लोअर कोर्ट अपने जजों की कार्यप्रणाली के नियम व कानून विरुद्ध किस्‍से-कहानियों से भरे पड़े रहते हैं। किसी भी जिला अदालत में कार्यरत कुल न्‍यायाधीशों में से ईमानदार न्‍यायाधीशों का पता करने जाएं तो उंगलियों पर गिने जाने लायक न्‍यायाधीश ही उस श्रेणी में आते हैं।
लोअर कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक और हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सेटिंग-गेटिंग का खेल बड़े पैमाने पर चलता है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह बात अलग है कि खुलकर कहने की हिमाकत हर कोई नहीं कर सकता।
बहुत दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट के मशहूर वकील और देश के पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण ने यह कहकर तहलका मचा दिया था कि स्‍वतंत्र भारत में आजतक जितने भी लोग चीफ जस्‍टिस की कुर्सी पर काबिज रहे हैं, उनमें से अधिकांश ईमानदार नहीं कहे जा सकते। शांति भूषण के कथन पर न्‍यायपालिका को जैसे सांप सूंघ गया। एकबार तो ऐसी बातें उठीं कि शांति भूषण के खिलाफ कोर्ट की अवमानना का केस चलाया जाएगा लेकिन हुआ कुछ नहीं। जाहिर है कि शांति भूषण का कथन अतिशयोक्‍ति नहीं था और इसीलिए उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाही करने का साहस नहीं हुआ।
शांति भूषण, इन्‍हीं प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण के पिता हैं जिन्‍होंने कल जजों की प्रेस कांफ्रेंस के संदर्भ में कहा है कि समस्‍या का समाधान उसे दबाने से नहीं, सार्वजनिक करने के बाद ही निकलता है।
प्रशांत भूषण के अनुसार एकसाथ चार वरिष्‍ठ न्‍यायाधीशों को यदि प्रेस कांफ्रेंस करके अपनी बात कहनी पड़ी तो समस्‍या की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है।
हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट के सीनियर अधिवक्‍ता प्रशांत भूषण कुछ निजी कारणोंवश प्रेस कांफ्रेंस करने वाले न्‍यायाधीशों को सही ठहरा रहे हों, हो सकता है कि चारों न्‍यायाधीश भी व्‍यक्‍तिगत कारणों से चीफ जस्‍टिस की कार्यप्रणाली पर उंगली उठा रहे हों लेकिन समस्‍याएं हैं और नीचे से ऊपर तक है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
बात चाहे कॉलेजियम सिस्टम की हो अथवा उन निर्णयों की जिन पर उंगली उठी हैं, न्‍यायाधीश के साथ-साथ न्‍यायप्रणाली पर भी आम आदमी के भरोसे को कमजोर करती हैं।
पिछले कुछ वर्षों के अंदर उच्‍च और उच्‍चतम न्‍यायालयों से तमाम ऐसे निर्णय हुए हैं जिन पर न सिर्फ उंगलियां उठी हैं बल्‍कि वो मीडिया तथा जनता के बीच चर्चा का विषय भी बने हैं। बहुत से निर्णय ऐसे आए हैं जिन पर खुद सर्वोच्‍च न्‍यायालय को पुनर्विचार करना पड़ा है और कुछ में तो निर्णय बदले भी गए हैं। हाल ही में ट्रांस जैंडर्स को लेकर आया फैसला उनमें से एक है।
लोअर कोर्ट के आदेश को हाई कोर्ट द्वारा पलट देना और हाई कोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट द्वारा पूरी तरह गलत ठहरा देना तो अब जैसे आम बात हो गई है। जन सामान्‍य को विद्वान न्‍यायाधीशों के ऐसे निर्णय यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि आखिर कौन से न्‍यायाधीश का निर्णय सही माना जाए?
आम आदमी के समझ से परे हैं यह बातें कि जिन सबूतों और गवाहों के आधार पर एक न्‍यायाधीश किसी को सजा सुनाता है या बरी कर देता है, वही सबूत और गवाह दूसरे न्‍यायाधीश के लिए बेमानी कैसे हो जाते हैं?
माना कि लोअर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की व्‍यवस्‍था मुकम्‍मल न्‍याय देने के लिए ही की गई है परंतु जब अधिकांश मामलों में रद्दोबदल दिखाई देता है तो सवाल खड़े होना लाजिमी है।
राम जन्‍मभूमि बनाम बाबरी मस्‍जिद से लेकर आरुषी हत्‍याकांड तक और 2जी घोटाले से लेकर आदर्श सोसायटी घोटाले तक के उदाहरण हमारे सामने हैं। इन सभी मामलों में आजतक न्‍याय की दरकार है।
कई-कई दशकों का इंतजार भी इस बात की गारंटी देने में असमर्थ है कि उसके बाद जो न्‍याय मिलेगा, वह निर्विवाद होगा।
यही कारण है कि आज न्‍यायपालिका और न्‍यायाधीश भी बहस का मुद्दा बन गए हैं और उनके प्रति अवमानना का भय समाप्‍त होता जा रहा है।
अब आखिर में यदि बात करें लोकतंत्र के उस चौथे स्‍तंभ की जिसके सामने सर्वोच्‍च न्‍यायालय के चार-चार न्‍यायाधीशों को अपनी बात कहने के लिए आना पड़ा, वह सिर्फ एक ऐसा झुनझुना है जिसे बजाया तो जा सकता है लेकिन नतीजा निकलवाने के काम नहीं लाया जा सकता क्‍योंकि उसे लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ की उपमा मात्र ”जुबानी” प्राप्‍त है। उसे ऐसा कोई संवैधानिक अधिकार हासिल नहीं है जैसा विधायिका, कार्यपालिका और न्‍याय पालिका को प्राप्‍त है।
लोकतंत्र का लोक इस ”दर्जाप्राप्‍त” चौथे स्‍तंभ से उम्‍मीद तो बहुत रखता है लेकिन उसकी उम्‍मीदें पहले तीन संवैधानिक स्‍तंभों की मंशा के बिना पूरी नहीं हो सकतीं।
संभवत: यही कारण है कि प्रेस से मीडिया के रूप में परिवर्तित होने वाला यह चौथा खंभा स्‍वतंत्रता के सात दशक पूरे हो जाने के बावजूद ”भोंपू” से अधिक कुछ बन नहीं पाया। एक ऐसा भोंपू जिसे कोई भी अपनी जरूरत और सुविधा के हिसाब से जब चाहे जब बजा कर तो चला जाता है परंतु उसे सशक्‍त व समर्थ करने की बात तक नहीं करता।
सुप्रीम कोर्ट के चार विद्वान न्‍यायाधीशों ने भी अपनी जरूरत के लिए इस भोंपू का इस्‍तेमाल जरूर किया है लेकिन ये न्‍यायाधीश भली-भांति जानते हैं कि भोंपू रहेगा आखिर भोंपू ही इसीलिए सॉलीसीटर जनरल का बयान गौर करने लायक है।
सॉलीसीटर जनरल के. के. वेणुगोपाल ने कल ही साफ कर दिया था कि बहुत जल्‍द इस समस्‍या का समाधान मिल-बैठकर कर लिया जाएगा। वेणुगोपाल के बयान का निहितार्थ यही निकलता है कि हाल-फिलहाल किसी स्‍तर पर व्‍यवस्‍था में कोई भी परिवर्तन होने नहीं जा रहा। फिर किसी नए ऐसे ऐतिहासिक धमाके तक यथास्‍थिति कायम रहनी है। मीडिया का भोंपू भी मियादी बुखार की तरह ज्‍यादा से ज्‍यादा तीन दिन तक शोर मचाकर चुप हो ही जाएगा।
-सुरेन्‍द्र चतुर्वेदी

सोमवार, 1 जनवरी 2018

राज्‍यचिन्‍ह के दुरुपयोग पर Speaker सख्‍त: पूर्व मुख्‍यमंत्रियों सहित ढाई हजार पूर्व विधायकों को जारी किया पत्र, पहली बार लिया गया संज्ञान

Speaker ह्रदय नरायाण दीक्षित ने सभी पूर्व विधायकों को निर्देश दिया कि वे उनके लेटरहेड पर राज्यचिन्ह का प्रयोग बंद करें
लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार के राज्यचिन्ह का बड़े पैमाने पर किया जा रहा दुरुपयोग अब Speaker को अखरने लगा है। इस पर कड़ा रुख दिखाते हुए Speaker ह्रदय नरायाण दीक्षित ने सभी पूर्व विधायकों को निर्देश दिया कि वे उनके लेटरहेड पर राज्यचिन्ह का प्रयोग बंद करें।
 
पूर्व मुख्यमंत्री पर भी आदेश होगा लागू
Speaker ने निर्देश दिया है कि यह आदेश सिर्फ पूर्व विधायकों पर ही नहीं बल्कि पूर्व मुख्यमंत्रियों पर भी लागू होगा। जो उत्तर प्रदेश विधानसभा या विधान परिषद के सदस्य हैं, सिर्फ वही राज्यचिन्ह का प्रयोग कर सकते हैं।
पहली बार जारी हुआ आदेश
ऐसा पहली बार हुआ है कि इस तरह का आदेश स्पीकर ने जारी किया हो। इससे सदन के पूर्व सदस्यों के राज्यचिन्ह के प्रयोग पर प्रतिबंध लग सकेगा।
प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने बताया कि इस तरह का पत्र 2,500 पूर्व विधायकों और विधान परिषद के सदस्यों को जारी किया गया है। उन्हें पत्र में कहा गया है कि विधानसभा या उत्तर प्रदेश सरकार के चिन्ह का प्रयोग उनके लेटरहेड पर बंद कर दें।
बड़े पैमाने पर हो रहा यह अवैध काम 
Speaker ह्रदय नारायण दीक्षित ने बताया कि कोई भी पूर्व विधायक या पूर्व विधान परिषद सदस्‍य जिसके पास अब सदन की सदस्यता नहीं है, वह सरकारी चिन्ह का प्रयोग नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्यवश, उनके संज्ञान में यह आया है कि राज्यचिन्ह का प्रयोग लगातार सदन के पूर्व सदस्यों द्वारा बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
राज्यपाल ने की थी शिकायत
उन्होंने कहा कि यह गैरकानूनी है क्योंकि जब कोई सदन का सदस्य नहीं होता तो वह राज्यचिन्ह का प्रयोग नहीं कर सकता है। उन्होंने कहा कि कुछ समय पहले राज्यपाल राम नाईक उनके संज्ञान में यह मामला लाए थे। उन्होंने एक पूर्व विधायक का पत्र दिखाते हुए उन्हें बताया कि किस तरह पूर्व विधायकों द्वारा राज्यचिन्ह वाले लेटरहेड पर पत्राचार किया जा रहा है।
राज्यपाल ने उन्हें कहा कि यह अवैध है और इस पर कार्यवाही की जाए। उसके बाद उन्होंने उनके सचिवालय से इस संबंध में तत्काल एक एडवाइजरी जारी करने को कहा।
सदन में कहा था न पार करें लक्ष्मण रेखा
हाल ही में हुए शीतकालीन सत्र में उन्होंने घोषणा की थी कि विधानसभा के सदस्य उनकी लक्ष्मण रेखा पार न करें। उन्होंने सख्त लहजे में कहा था कि वह सदन अनुशासनहीनता कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। सदन में निरंतर सीटी बजाई जाए, कागज की गेदें बनाकर राज्यपाल या कुर्सियों पर फेकी जाएं। सदन में बैनर और प्लेकार्ड्स लेकर प्रदर्शन किया जाए यह भी उन्हें बर्दाश्त नहीं है।
-Legend News
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