आबरू क्यों किसी की लुट जाए ।
देश है ये, कोई हरम तो नहीं ।।
लेकिन जब देश की ही आबरू दांव पर लगी हो तो क्या कहेंगे, क्या करेंगे?
क्या तमाशबीन बने रहेंगे सदा की तरह, या भांड़ों की उस जमात का हिस्सा बन जायेंगे जो अपने बुद्धि व विवेक को कभी किसी राजनीतिक दल के लिए गिरवीं रख देती है और कभी उसके सुप्रीमो की चापलूसी को ही सब-कुछ समझती है।
इस माह अगस्त में देश को स्वतंत्र हुए पूरे 65 साल हो गये। इन पैंसठ सालों में आम आदमी को न तो सम्मानपूर्वक जीने का हक मिला और न जरूरतें पूरी करने लायक रोजी-रोजगार। कानून की किताबें लगता है जैसे सामर्थ्यवानों की हिफाजत के लिए लिखी गई हैं और संविधान में दर्ज आम आदमी के अधिकार की बातें किस्से-कहानियां बन चुकी हैं।