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रविवार, 27 दिसंबर 2020
‘उधार के सिंदूर’ से मथुरा में मांग सजाती भाजपा, क्या 2022 में ‘सदा सुहागन’ का आशीर्वाद ले पाएगी?
कड़वा है लेकिन सच है। उधार के सिंदूर से मांग तो सजाई जा सकती है पर ‘सदा सुहागन’ रहने का आशीर्वाद नहीं पाया जा सकता। जनप्रतिनिधियों के मामले में मथुरा का हाल भी कुछ ऐसा ही है।कहने को तो जनपद की कुल जमा पांच विधानसभाओं में से चार पर भाजपा के विधायक काबिज हैं परंतु उनमें से दो उधार के सिंदूर हैं। उधार के सिंदूर का रंग कुछ ज्यादा ही चटख होता है इसलिए उसकी शिनाख्त कराना जरूरी नहीं होता, पब्लिक सबको जानती भी है और पहचानती भी है।
बाकी बचे दो। ये यूं तो ‘स्वयंवर’ करके मथुरा लाए गए थे लेकिन उन पर सौहबत का रंग इस कदर चढ़ा कि सारी कलई उतर गई लिहाजा आज पब्लिक की आंखों में बुरी तरह खटक रहे हैं।
पार्टी के एक नेता ने पिछले दिनों इनमें से एक की तारीफ में कसीदे गढ़ते हुए अपना अनुभव कुछ इस तरह बताया- ”भाईसाहब…मैंने अपने जीवन में ऐसा विधायक नहीं देखा जो किसी के काम ही न आता हो।
काम छोटा हो या बड़ा, विधायक जी सामने वाले को हाजमे की ऐसी पुड़िया थमाते हैं कि वह पलटकर उनकी ओर मुंह भी नहीं करता। दोबारा आने की बात ही छोड़ दें।
वैसे ये हैं बहुत ऊर्जावान, परंतु उनकी सारी ऊर्जा और सारा करंट खुद को ऊर्जावान बनाए रखने के काम आ रहा है। क्या मजाल कि जनता उनकी ऊर्जा से कतई कुछ हासिल कर ले।
करे भी कैसे, वो आम जनता के इतने नजदीक आते ही नहीं कि कोई उनकी ऊर्जा का सदुपयोग कर सके। उनका सीधा फंडा है, अपना काम बनता, फिर भाड़ में जाए जनता। इसका उन्होंने मुकम्मल इंतजाम कर भी रखा है। पार्टीजनों के लिए ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ है इसलिए बेचारे ‘मरा-मरा’ की रट इतनी तीव्र गति से लगा रहे हैं कि वो भी ‘राम-राम’ सुनाई दे रहा है।
दूसरे विधायक जी की बात करें तो उनके बारे में पार्टी के लोगों का कहना है कि उन्हें ओढ़ें या बिछाएं। पहले भी मिट्टी के माधौ थे, आज भी वैसे ही हैं। विधायक जरूर बन गए लेकिन उन्हें कोई आसानी से विधायक मानने को तैयार नहीं है। उनके लिए उनका चुनाव क्षेत्र ही प्रदेश की राजधानी है और ‘निज निवास’ है विधानसभा। इससे ऊपर उन्होंने न तो कभी सोचा, और न सोचने की कोई उम्मीद दिखाई देती है।
जब पार्टीजनों की उनके बारे में इतनी उत्तम राय है तो जनता किस मुंह से कुछ कहे। भूले-भटके कोई कभी कुछ मुंह खोलता भी है तो जवाब मिलता है कि विपक्ष के नाम पर यहां है क्या जो चिंता की जाए। मोदी-योगी जिंदाबाद…फिर हम जैसों को काम करने की जरूरत ही क्या है।
अब बात ‘उधार के सिंदूरों’ की
घाट-घाट का पानी पीकर भाजपा की बहती गंगा में हाथ धोने वाले एक विधायक जी तो जैसे सम्मानित होने के लिए ही पैदा हुए है। उन्होंने उसके लिए बाकायदा अपना एक ऐसा ‘निजी गैंग’ गठित कर रखा है जो उन्हें कहीं न कहीं और किसी न किसी बहाने सम्मानित करता रहता है। क्षेत्र की जनता उन्हें बाजरे और गन्ना के खेतों में तलाशती है लेकिन वो पाए जाते हैं किसी ऐसे मॉल या होटल में जहां उनका ‘सम्मान’ समारोह चल रहा होता है। चले भी क्यों नहीं, भाजपा जितना ख्याल ‘बावफाओं’ का रखती है उससे कहीं अधिक ‘बेवफा’ उसे प्रिय हैं।
वफादारों की विवशता यह है कि वो बेचारे हर हाल में ‘कमल ककड़ी’ से लटके रहते हैं। 2022 में भी वो वहीं लटके पाए जाएंगे, फिर पार्टी चाहे उधार के सिंदूरों को रिपीट करे या न करे। वफादारी का यही तकाजा है।
चौथे और अंतिम विधायक जी, अपनी पूर्ववर्ती सरकार में रहते हुए ही समझ गए थे कि येन-केन-प्रकारेण अपने हृदय ‘कमल’ को खिलाना है क्योंकि ऐसा न करने पर ‘दुर्गति’ को प्राप्त होना तय है।
कारनामे ही कुछ ऐसे रहे कि बात सीबीआई तक जा पहुंची। सगे-संबंधियों और इष्ट-मित्रों के साथ दोनों हाथ ऐसी लूट की कि लुटेरे व चोर-उचक्के भी शरमा जाएं लेकिन ‘चौर कर्म’ को भी ‘चौर कला’ का दर्जा हासिल है इसलिए उच्चकोटि के चोर मौका मिलने पर अपनी कला का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते। इन्होंने भी पूरे गिरोह के साथ अपनी कला का मुजाहिरा किया और कुर्ते में जेबें बढ़ाते चले गए।
सुना है उनकी इस कलाकारी को देखते हुए मथुरा के सीडीओ कार्यालय में सीबीआई ने एक सेल्फ को बाकायदा सील किया हुआ है ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आए। पार्टी ने भी उनकी महत्ता के मद्देनजर महकमा तो अलॉट कर रखा है परंतु झुनझुने के साथ। जब तक दोनों हाथों से ये विधायक जी पार्टी का झुनझुना बजाते रहेंगे, तब तक सीडीओ ऑफिस की सील लगी रहेगी। झुनझुना छूटा नहीं कि सील खुली नहीं। सील खुली तो घर की खिड़की जेल में जाकर खुलेगी, यह तय है।
जो भी हो लेकिन इस सबके बीच बेचारे कर्तव्यनिष्ठ, कर्मनिष्ठ और सत्यनिष्ठ पार्टीजन उस दिन के इंतजार में हैं जब पार्टी भी समझेगी कि उधार के सिंदूर से मांग तो सजाई जा सकती है पर ‘सदा सुहागन’ रहने का आशीर्वाद नहीं पाया जा सकता।
2022 के चुनाव बहुत दूर नहीं है। बमुश्किल सवा साल बाद वो दिन देखने को मिल जाएगा जब एकबार फिर चौराहे पर काठ की हांड़ी चढ़ानी होगी। तब देखना यह होगा कि पार्टी उधार के इन्हीं सिंदूरों को रिपीट करेगी अथवा सदा सुहागन का जन आशीर्वाद पाने के लिए सात जन्मों का साथ निभाने वालों को मौका देगी।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
बड़ी चौथ वसूली न होने पर खोली गई यूपी के छात्रवृत्ति घोटाले की पोल, सही दिशा में जांच आगे बढ़ने पर ‘मथुरा’ के कई प्रभावशाली जाएंगे जेल
उत्तर प्रदेश के जिस छात्रवृत्ति एवं क्षतिपूर्ति घोटाले में मथुरा के समाज कल्याण अधिकारी सहित तीन विभागीय कर्मचारियों को निलंबित किया गया है, उसकी बुनियाद में दरअसल बड़ी चौथ वसूली का वो प्रयास रहा है जो परवान नहीं चढ़ सका और जिसके कारण इसे सामने लाना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया।यूपी में छात्रवृत्ति एवं क्षतिपूर्ति घोटाले की बात करें तो इसकी शुरूआत डेढ़ दशक से भी पहले हो चुकी थी किंतु तब इसमें समाज कल्याण विभाग और स्कूल-कॉलेज संचालक ही संलिप्त थे। जैसे-जैसे इसकी जानकारी जनसमान्य और नेतानगरी तक पहुंची, वैसे-वैसे इसके तार बाहरी तत्वों से भी जुड़ने लगे।
देश का एक बड़ा प्रदेश है उत्तर प्रदेश, और उत्तर प्रदेश का एक छोटा पर धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण जिला है मथुरा। लेकिन डेढ़ दशक पहले तक इस धार्मिक महत्व वाले जिले में शिक्षा के नाम पर कुछ खास नहीं था। यही कारण रहा कि यहां शिक्षा व्यवसाइयों द्वारा छात्रवृत्ति की आड़ में की जा रही लूट से भी लोग अनभिज्ञ थे।
सन् 2000 में जब पहली बार मथुरा को एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज की सौगात मिली तो उसके बाद जैसे यहां शिक्षा व्यवसाय को पंख लग गए। देखते-देखते कृष्ण की यह नगरी एक ओर जहां तकनीकी शिक्षा का एक हब बनने लगी वहीं दूसरी ओर छात्रवृत्ति हड़पने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ी।
छात्रवृत्ति के खेल का खुलासा होने पर शिक्षा व्यवसाइयों से इतर लोग भी इसमें रुचि लेने लगे।
बताया जाता है कि इसी रुचि के तहत सत्ता के गलियारों में खासा प्रभाव रखने वाले एक स्थानीय व्यक्ति ने शिक्षा व्यवसाइयों से छात्रवृत्ति घोटाले से की जा रही कमाई में हिस्सा मांगना शुरू कर दिया। शिक्षा व्यवसाइयों ने भी उसका ध्यान रखा और वो उसे आंशिक हिस्सा देने लगे परंतु घोटाले से मिलने वाली बड़ी रकम के कारण आगे बात बनी नहीं रह सकी।
बताते हैं कि सत्ता प्रतिष्ठान तक पहुंच रखने वाले ‘इस व्यक्ति’ ने शिक्षा व्यवसाइयों के सामने प्रति संस्थान पांच लाख रुपए प्रति वर्ष की मांग रखी जिसे उन्होंने ठुकरा दिया क्योंकि घोटाले में अन्य तत्वों की हिस्सेदारी भी बढ़ने लगी थी।
बस यहीं से खेल बिगड़ना शुरू हुआ और बात जा पहुंची शिकायत के रूप में सदन के पटल तक।
विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार छात्रवृत्ति घोटाले में सर्वाधिक कमाई वर्ष 2009 से लेकर 2016 तक हुई। इस दौरान शिक्षा व्यवसायी तो फर्श से अर्श तक पहुंचे ही, अधिकारी एवं कर्मचारियों से लेकर उन तत्वों ने भी खूब मलाई मारी जो इस खेल की तह तक पहुंच चुके थे।
यही वो दौर था जब छात्रवृत्ति घोटाले ने तमाम लोगों की हैसियत बढ़ाई और जो कल तक बमुश्किल जीवन यापन करते देखे जाते थे, वो स्कूल-कॉलेजों के मालिक बन बैठे।
भ्रष्टाचार की बुनियाद पर खड़े किए गए इन शिक्षण संस्थानों में पहले जहां बीएड और पॉलिटेक्निक ही घोटाले का प्रमुख आधार थे वहीं देखते-देखते इसका दायरा ITI और BTC व बीएससी से लेकर इंजीनियरिंग एवं फार्मा सहित दर्जनों दूसरे क्षेत्रों तक विस्तार ले चुका था।
आज स्थिति ये है कि प्रदेश का शायद ही कोई शिक्षण संस्थान छात्रवृत्ति घोटाले में लिप्त न हो। फिर चाहे वह कोई स्कूल हो, कॉलेज हो या यूनिवर्सिटी ही क्यों न हो।
मथुरा के समाज कल्याण अधिकारी भले ही फिलहाल मात्र 23 करोड़ रुपए का घोटाला पकड़ में आने पर निलंबित किए गए हों परंतु कड़वा सच यह है कि एक-एक शिक्षण संस्थान इस खुली लूट में इतना ही पैसा प्रतिवर्ष हड़पता रहा है। अकेले मथुरा जनपद में इसके जरिए सरकारी खजाने का सैकड़ों करोड़ रुपया हजम किया जा चुका है और प्रदेश स्तर पर तो इसका आंकड़ा हजारों करोड़ रुपए है।
भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टॉलरेंस की नीति पर चलने वाली योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली यूपी सरकार यदि घोटाले की परतें सही तरीके से खोलने में सफल हो जाए और अधिकारी अपनी जांच की दिशा लक्ष्य पर निर्धारित करते हुए रखें तो तय जानिए कि सरकारी खेमे के साथ-साथ निजी शिक्षा के अनेक बड़े नामचीन व्यवसायी न सिर्फ मथुरा में बल्कि प्रदेश स्तर पर जेल की सलाखों के पीछे होंगे।
साथ ही वो तत्व भी बेनकाब हो सकते हैं जिन्होंने छात्रवृत्ति की लूट में हिस्सेदारी ली और चौथवसूली करते रहे।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि छात्रवृत्ति घोटाले की दिशा यदि सही रहती है तो इसमें लिप्त शिक्षा व्यवसाइयों के अलावा वो सारे तत्व सामने होंगे जो पिछले डेढ़ दशक से सरकारी खजाने को दोनों हाथों से लूटते रहे और जिन्होंने शिक्षा जैसे पवित्र ध्येय का चेहरा इतना बिगाड़ दिया जिससे जनसामान्य ‘शिक्षा माफिया’ जैसा एक नया शब्द गढ़ने पर मजबूर हुआ।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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